समकालीन भारतीय लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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समकालीन भारतीय लघुकथाएँ

लघुकथा का समकालीन परिदृश्य इस संकलन के रूप में आपके सामने प्रस्तुत है। इसमें सम्मिलित अधिकांश रचनाओं का सर्जन लघुकथा के पुनर्स्थापना काल (1970 से प्रारम्भ) में हुआ है। इस कालखण्ड के प्रारम्भ से लघुकथा नीति, बोध एवं उपदेश जैसे तत्त्वों से मुक्त होकर आम आदमी के दुख-दर्द से जुड़ी। लेखक सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सजग हुआ। सामाजिक यथार्थ के दबाव को महसूस करने हुए वह उचित-अनुचित का विवेचन इस विधा में करने लगा। इसी दौर में आसान कथा-रूप समझकर इसमें लिखने वालों की बाढ़-सी भी आई, फलस्वरूप लघुकथा के नाम पर चुटकुले और खबरें खूब दिखाई दीं। आज उस दौर के ऐसे लेखक कहीं दिखाई नहीं देते। उस तरह का लेखन आज भी जारी है, यह पानी के बुलबुलों की तरह आता-जाता रहेगा। यहाँ यह कहना अनुचित होगा कि इस फार्मूलाबद्ध लेखन से लघुकथा-साहित्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। लघुकथाओं की इस बाढ़ के कारण श्रेष्ठ लघुकथाओं का भी नोटिस नहीं लिया गया। खुशी की बात यह है कि साहित्य के गम्भीर पाठकों ने इन्हें हाशिए पर धकेल दिया है।

समकालीन भारतीय लघुकथाओं की दुनिया आश्वस्त करती है। इसमें विष्णु प्रभाकार, राजेन्द्र यादव, जोगेन्दर पाल जैसे वरिष्ठ कथाकारों की लघुकथाएँ हैं, यहाँ उन स्थापित कहानीकारों की लघुकथाएँ भी हैं जो शौकिया लघुकथाएँ नहीं लिखते, बल्कि अपने भीतर पक रही उन रचनाओं को लघुकथा के रूप में जन्म देते हैं, जिनमंे कहानी के-सीे विस्तार की आवश्यकता नहीं होती, यानी जहाँ लेखक के भीतर की मुकम्मल तमाम कथकाकरों की लघुकथाएँ हैं जिन्होंने लघुकथा-लेखन से ही साहित्य-जगत में अपनी पहचान बनाई है।

यहाँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है-लघुकथा की मूलधारा में लंबे समय से सक्रिय अनेक कथाकारों का लघुकथा-लेखन सीमित हो गया है, जबकि पूर्व में उन्होंने कालजयी लघुकथाओं का सर्जन किया है और उन्हीं रचनाओं के बलबुते पर लगभग प्रत्येक लघुकथा-संग्रह में आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। ये कथाकार लघुकथा के प्रति समर्पित हैं, सम्मेलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती है, लघुकथा में स्वतंत्र समीक्षकों के अभाव के चलते ये समीक्षक की भूमिका का सफल निर्वाह करते हैं, लघुकथा के शास्त्रीय-पक्ष पर भी उनके विचार प्रभावित करते हैं। इन तमाम भूमिकाओं का निर्वाह करते हुए वे अपने रचनाकर्म के प्रति कहीं अधिक सचेत तो नहीं हो गए हैं? इस प्रश्न पर विचार करना होगा।

लघुकथा की कसौटी क्या हो? लघुकथा को सुगठित होना चाहिए, उनमें दोहों जैसी बारीक-खयाली होनी चाहिए, लघुकथा को सांकेतिक, प्रतीकात्मक या अभिव्यंजनात्मक होना चाहिए, कथ्य-प्रकटीकरण का समायोजन सशक्त होना चाहिए, लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना चाहिए आदि-आदि न जाने कितने निकष हैं, जिन पर लघुकथा को खरा उतरना चाहिए. परन्तु यदि लेखक रचना-प्रक्रिया) के दौरान इन बिन्दुओं पर विचार करना है तो उसका लेखन बाधित होगा ही। लघुकथा के स्वाभाविक जन्म के बाद रचना को तराशते हुए इन बिन्दुओं पर विचार करने से लघुकथा एकदम से प्रभावित करती है। लघुकथा के शास्त्रीय-पक्ष की परवाह किए बिना उदय प्रकाश, रवीन्द्र वर्मा, सुधा अरोड़ा, अर्चना वर्मा, रघुनन्दन त्रिवेदी, प्रेम कुमार मणि, सत्यानारायण, अवधेश कुमार आदि ने अद्भुत लघुकथाएँ लिखी हैं। राजेन्द्र यादव की 'हनीमून' में कथ्य और कथ्य का प्रकटीकरण अद्वितीय है, जबकि इनमें से अधिकांश रचनाएँ आकारगत लघुता का अतिक्रमण करती हैं। तात्पर्य यह कि लघुकथाओं में प्रयोग की अपार संभावनाओं को देखते हुए सर्जन के क्षणों में उसे किसी चौहद्दी में कैद करना उचित न होगा। अपने आलेख में राजेन्द्र यादव ने लघुकथा-लेखन में जिस अलग एप्रोच पर बल दिया है वह रमेश बतरा की लघुकथाओं में देखने को मिलती है।

इस अवसर पर उन सभी संकलनों / छोटी-बड़ी पत्रिकाओं का याद आना स्वाभाविक है जिनमें से इन रचनाओं का चयन (साभार!) किया गया है। उन सभी अग्रजों / मित्रों का आभारी हूँ जिन्होंने आवश्यकता पड़ने पर अलग से रचनाएँ भेजकर सहयोग दिया। इस संकलन हेतु राजेन्द्र यादव ने अपनी लघुकथा-विषयक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी सहर्ष उपलब्ध कराई उनका स्नेह तो सदैव ही मिलता रहा है। इस संकलन से पूर्व बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ का विमोचन मधुरेश के हाथों 'बरेली सम्मेलन' में हुआ। पुस्तक पर भारत भारद्वाज जी ने प्रतिक्रिया भेजकर मेरा उत्साह बढ़ाया। हिन्दी / भारतीय / विश्व लघुकथा कोश के सम्पादक बलराम एवं बड़े भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने पेपरबैक्स संस्करण के प्रकाशन पर जिस तरह से खुशी जाहिर की, उससे इस दिशा में काम करने का उत्साह दूना हो गया।

आशा है यह संकलन चलताऊ लघुकथाओं की भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल होगा।