समकालीन हिंदी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम / भावना
ग़ज़ल दरअसल अरबी भाषा का स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है सूत काटना। फारसी, उर्दू और हिन्दी में ग़ज़ल का अर्थ है प्रेमिका से बातचीत। ग़ज़ल सर्वप्रथम फारसी में ही एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई. उर्दू ग़ज़ल व समकालीन हिन्दी ग़ज़ल की उत्पत्ति के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थक व सांस्कृतिक आधार एवं कारण एक दूसरे से भिन्न है। एक ओर उर्दू ग़ज़ल का जन्म जहाँ राजदरबारों तथा नर्तकियों के कोठे पर मन बहलाव के लिए हुआ है। वहीं, समकालीन हिन्दी ग़ज़ल का जन्म असंतोष, असहमति, आक्रोश और प्रतिरोध की सार्थक अभिव्यक्ति के लिए हुआ है। आज की हिन्दी ग़ज़लें बेतहाशा बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, मुफलिसी, बदहाली और लाखों किसानों की आत्महत्या जैसी संजीदा मसलों से रूबरू है। आज की ग़ज़ल की जमीन बेहद तल्ख है। अपने समय की चुनौती को चुस्त छंद और लय में संपूर्ण जटिलता के साथ अभिव्यक्त करने की कोशिश में लगातार अग्रसर है। सच्चा रचनाकार वहीं है, जो समतल जमीन पर अपनी रचना न करे, अपितु अपने लिए नयी जमीन तोड़े, गोड़े तब फसल उगाये। जब यथार्थ बदलता है तो उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भी बदल जाते हैं। आज की हिन्दी ग़ज़ल यथार्थवादी जमीन पर मजबूती से खड़ी दिखाई देती है।
दुष्यंत कुमार एक युग का नाम है, जहाँ से समकालीन हिन्दी ग़ज़ल अपनी वास्तविक दिशा और गति पाती है। भारतेंदु, निराला, शमशेर, त्रिलोचन व जानकवल्लभ शास्त्री जैसे महान कवियों का स्पर्श पाकर भी जो हिन्दी ग़ज़ल जनता के बीच अपनी पहचान नहीं बना सकी, उसे दुष्यंत ने कलात्मक तेवर से एक अलग रूप दिया। दुष्यंत की गजलें वैचारिकता से पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक जटिल प्रश्नों से संपन्न थी। दुष्यंत ने तमाम रुढ़ियों को तोड़ते हुए समकालीन कविता से संश्लिष्ट अनुभवों को ग़ज़ल के तौर पर पाठकों को पेश किया। प्रसिद्ध आलोचक नरेश जी ने दुष्यंत की इन्हीं खूबियों को देखते हुए कहा, "1970 के आसपास जब दुष्यंत ने ग़ज़ल के माध्यम से क्रांतिकारी विचारों की अभिव्यक्ति की तो नयी कविता में छंद की धरती पर जैसे आसाढ़ का बादल बरसने लगा।"
शासक वर्ग, सत्ताधारी, शोषक शक्तियों को ललकारते हुए दुष्यंत कहते हैं,
"ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैँ सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा"
दुष्यंत की शैली व्यंग्यात्मक और सम्बोधनात्मक दोनों रही है-
"भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आज तक दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ" ।
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल किसी भी प्रकार के बनावटीपन, अलंकारिता और चमत्कार से संयम बरतते हुए अपने पीछे की संपूर्ण सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात कर आधुनिक जीवन-मूल्यों की सही पहचान व परख के साथ शिल्प और संवेदना की जमीन, बहुआयामी भंगिमाओं की खोज में प्रयत्नशील है। समकालीनता का अर्थ 'एक समय में' या 'एक युग में' है। संकटों की परवाह किये बगैर समय के क्रूर यथार्थ से अनेक सम्बंध स्थापित कर समय को चुनौती देने का साहस समकालीनता कहलाती है। दरअसल समकालीनता समय-सापेक्षता में मूल्य-सापेक्षता की मांग करती है। अगर एक वाक्य में इसे कहूँ तो जो पहले बीत चुका है, उस इतिहास बोध को और जो घटने की संभावना हो, उस भविष्य-बाेध को अपने वर्तमान में सम्मिलित करके पूरे युग के रूप में उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति करना ही समकालीनता है।
1. समकालीन ग़ज़ल में सम-सामयिक जीवन और युग-बोध : अदम गोंडवी कहते हैं-
"तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है
तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज फूटी रकाबी है"
अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं-
"जब भी चेहरे उदासियाँ ओढ़ एक भोली हंसी हंसा करना
दीप बुझने का दर्द क्या जाने जिनकी फितरत है बस दवा करना"
जहीर कुरैशी कहते हैं,
"न चाहते हुए लड़ना है युद्ध जीवन का
हरेक व्यक्ति में कायर व वीर शामिल है"
ग़ज़लों में सम-सामयिक जीवन व युग बोध को कहने की हमारे यहाँ लंबी परंपरा रही है। आप किसी भी ग़ज़लकार की रचनाओं को उठा कर देखें, उनकी रचनाओं में सम-सामयिक जीवन मिलेगा।
2.प्रतिरोध की संस्कृति: इस संदर्भ में भी ग़ज़लकारों ने खुल कर अपनी बात कही है। दुष्यंत कहते हैं,
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए"
तो अदम गोंडवी कहते हैं,
"जिसकी गर्मी से महकते हैं बगावत के गुलाब
आपके सीने में महफूज चिंगारी रहे"
कुंवर बेचैन कहते हैं,
"चरखे से बर्फ काट रहे हैं यहाँ के लोग
तू इंकलाब कात ज़रा और बात कर"
जहीर कुरैशी यूं बयाँ करते हैं,
"चिंतन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही
जन्मे हैं आने आप ही दोहे कबीर के"
अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं,
"नहीं पहचान हो पायी पड़ी वह लाश किसकी थी
लहू से जो बने धब्बे दिखाओ हौसला होगा"
3. व्यवस्था विरोध का स्वर: आज शासन और व्यवस्था पूंजीपतियों, व्यवसायियों और सेठ-साहूकारों, नेताओं के हाथों का खिलौना बन चुका है। ऐसे में भला ग़ज़लकार चुप कैसे रहे? ग़ज़लकार जनता को उसके अधिकार दिलाने के लिए व्यवस्था के प्रति गहरा आक्रोश जताता है। शेर देखें,
"उसे यह अहसास हो चुका है हमारी चुप में कोई जलजला है
उसूलों से नहीं कोई जिसको मतलब उसी के साथ सबका फैसला है"
बल्ली सिंह चीमा कहते हैं,
"हर तरफ काला ही मासूम दिखाई देगा
तुम भले हो या बुरे कौन सफाई देगा
इस व्यवस्था के खतरनाक मशीनें-पुर्जे
जिसको रौंदेगे वही शख्स दुहाई देगा"
इसी क्रम में मुझे अपनी ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है,
"ये गुस्सा फूट लावा हो रहा है,
उन्हें लगता दिखावा हो रहा है,
प्रलोभन है कि मांगें पूरी होगी
मगर यह तो भुलावा हो रहा है
वह पानी में दिखाने चांद लाया
बड़ा अच्छा छलावा हो रहा है"
एक और
"जब जिसे चाहो उसे सत्ता के मद में रौंद दो
क्यू भला होती नहीं है हुक्मरानी की वजह"
सुप्रसिद्ध छंदशास्त्री दरवेश भारती जी का व्यवस्था के विरोध के संदर्भ ये शेर देखें,
"ली थी शपथ जो मुल्क की खिदमत के वास्ते
क्या कर रहा है अपनी अना को जगा के देख"
एहतराम इस्लाम कहते हैं,
"धन की राहें ढूंढ ली, सत्ता की गलियाँ ढूंढ ली
डूब मरने के लिए लोगों ने नदियाॅ ढूंढ ली"
4. सामाजिक समस्याएँ: आज के इस मशीनी युग में जहाँ एक ओर मनुष्य का जीवन सुविधापूर्ण हुआ है, वहीं दूसरी ओर बौद्धिक व सामाजिक स्तर पर विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया है। महत्त्वपूर्ण गजलकार देवेंद्र आर्य का यह शेर देखें,
"कुछ खास ही चेहरे पर बरसती रही रौनक
इस देश के मनहूस का चेहरा नहीं बदला
बदला तो कई बार किताबों का मौसम,
मजदूर के माथे पर पसीना नहीं बदला।
वहीं विज्ञान व्रत कहते हैं,
" फिर वही बारिश का मौसम खस्ता हालत फिर छप्पर की
रोज सबेरे लिख लेता है चेहरे पर दुनिया बाहर की" ।
हमारे सामाजिक परिवेश की कई समस्याएँ ग़ज़ल में व्यक्त हुई हैं। ग़ज़लकारों ने उसे अपनी दृष्टि से देख कर ग़ज़लें कही है। ऐसा काेई भी पहलू नहीं है, जिस पर उनकी नजरें नहीं गईं हों।
5. समकालीन ग़ज़ल में महानगर: समकालीन ग़ज़ल न केवल गांव की समस्याओं की जड़ तक जाती है, अपितु महानगरीय जीवन की दुश्वारियाँ भी व्यक्त करने में पीछे नहीं रहती। इसकी झलक ज्ञान प्रकाश विवेक के शेरों में इस तरह देखी जा सकती है-
"ये तेरा शहर गले सबको लगा लेता है
पर किसी शख्स का अपना नहीं होने देता"
या
"कोई समझता ही नहीं दोस्त बेबसी मेरी
महानगर ने चुरा ली है ज़िन्दगी मेरी"
या
"राजधानी में अगर ले लूं तेरी रंगीनियाँ
प्रार्थना करती हुई इस सादगी का क्या करूं"
6. समकालीन ग़ज़ल में राजनीतिक चेतना: समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में राजनीतिक चेतना मुख रूप से दुष्यंत के समय आयी है। आपातकाल के समय किसी में साहस नहीं था कि परिस्थितियों को चुनौती दे सके. ऐसे विद्रूप समय में तमाम दबावों के बावजूद उन्होंने ग़ज़ल से जो क्रांतिकारी चेतना प्रवाहित कर दी, वह हिन्दी ग़ज़ल की निधि बन गयी। दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी, बल्ली सिंह चीमा, जहीर कुरैशी से लेकर राजेश रेड्डी तक ने खुद शेर कहे। अदम जब कहते हैं,
"काजू भूने प्लेट में व्हिस्की ग्लास में
उतरा है रामराज्य विधायक निवास में
जनता के पास एक ही चारा बगावत
यह कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में"
वहीं ज़हीर कुरैशी कहते हैं,
"संविधानों की जो रक्षा नहीं कर पायी वह
मूकदर्शक बनी सरकार से डर लगता है"
बल्ली सिंह चीमा के इस धार को देखें-
"उल्लू को सौंप दी गर बागों की देखभाल
फिर रात ही करेगी उजालों की देखभाल
क्या बात है हमारे इस लोकतंत्र की
चीतों को करनी पड़ गयी हिरणों की देखभाल"
एक शेर और
"सियासत और संसद में अजूबे रोज होते हैं
जरा-सा डांट दे गूंगा तो बहरा बैठ जाता है"
राम मेश्राम का यह शेर देखें-
"लोक बेचे, तंत्र बेचे, बेच खाया संविधान
वाह दलदल के मसीहा यह तेरी सरकार है"
7. समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में धर्म, सांप्रदायिकता और आतंकवाद: धर्म की आड़ में आज सांप्रदायिकता और जातिवाद का घिनौना खेल पूरे विश्व में खेला जा रहा है। धीरे-धीरे सांप्रदायिक रंगों और धार्मिक उन्माद के सच से जनता रूबरू हो रही है। आज जनता ये बखूबी समझ गयी है कि धर्म के नफरत व टकराव के बीज डाल कर हवाओं को जहरीला बनाने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। ये काम राजनीति दल, पाखंडी व मुल्ला के वेश में ये लोग कर रहे हैं। अत।ग़ज़लकार अपने दायित्वों का पालन कर जनता को जागृत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी क्रम में अदम गोंडवी का शेर देखें,
"गलतियाँ बाबर की थी जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत देखिये
छेड़िए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्ते मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िये"
गोपाल दास नीरज कहते हैं,
"अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाये
जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाये
जिसकी खुशबू में महक जाये पड़ोसी का भी घर
फूल इस किस्म का हर सिम्त लगाया जाये"
राम मेश्राम कहते हैं,
"आग भड़की खून पानी हो गया
खौफ में दिल ब्रह्मज्ञानी हो गया"
ओमप्रकाश यति के ये शेर भी देंखे,
" निराशा जब भी घेरे, उसमें मत डूबो निकल आओ
वहीं उम्मीद की कोई किरण भी पा ही जाओगे।
वहीं हरेराम समीप जी का शेर बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं-
रात होते ही हमेशा सुबह का पीछा करूँ
रोशनी की खोज में चलता रहूँ, चलता रहूँ
या-
जंगल में एक चिड़िया बची है तो बहुत है
वो चीख के खामोशियाँ तो तोड़ रही है
8. नारी जीवन का यथार्थ: साठोत्तरी साहित्य में युगों से उपेक्षित स्त्री-जीवन पर दृष्टि तो डाली, लेकिन वहाँ भी उसे महिमामंडित कर देवी का दर्जा दे दिया गया। सत्तर के बाद स्त्री के संघर्ष को सही मायने में अर्थ मिला और सभी ग़ज़लकार ने नारी की परंपरागत शृंगारिक छवियों के खोज से अलग उसके श्रमजीवी सौँदर्य की तलाश की।
"आपके हाथों की मेंहदी तो नुमाइश के लिए
हमने चूमे हाथ वे आये थे गोबर सान कर"
बल्ली सिंह चीमा कहते हैं,
"ये अभाव से उलझतीं काम करती औरतें
अब अंधेरों में मशाले बन जलेंगी औरतें"
डॉ मधु खर्राटे के "आलोचना के आयाम" पुस्तक के अनुसार बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में महिला लेखन अत्यंत तीव्रता से उभर कर सामने आया। अदम गोंडवी ने कहा है,
"औरत तुम्हारे पांव की जूती की तरह है
जब बोरियत महसूस हो घर से निकाल दो" ।
बल्ली सिंह चीमा कहते हैं, जहीर कुरैशी कहते हैं,
"घुंघरूओं को बांध लेने की विवशता आ गयी
घुंघरूओं के मौन को झंकार करना है अभी"।
नारी जीवन के यथार्थ को व्यक्त करते हुए अशोक अंजुम कहते हैं-
ये लड़की भी क्या शै बनाई है या रब
जनम से मरण तक ये घर ढूँढती है।
वहीं वशिष्ठ अनूप का ये शेर देंखे-
कहीं तलाक़ कहीं अग्नि परीक्षाएँ हैं
आज भी इन्द्र है, गौतम है अहिल्यायें हैं।
9. दलित विमर्श: दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य समाज में दबे-कुचले लोगों को उनकी पहचान देना है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में दलित विमर्श भी मुख्य स्वर में शामिल है। जहीर कुरैशी कहते हैं,
"अपने कद की लड़ाई
लड़ी एक पर्वत से राई लड़ी
या
मैं आम आदमी हूँ तुम्हारा ही आदमी
तुम काश देख पाते मेरे दिल को चीर के"
दलित विमर्श का एक बेहतरीन शेर देखिए. बल्ली सिंह चीमा कहते हैं,
"हमारा नरक-सा जीवन बुरा यूं भी है और यूं भी
मरे भूखे, मरे लड़ कर सजा यूं भी है और यूं भी"।
वहीं हरेराम समीप का ये शेर भी देंखे-
खो गई है रात की तारीकियों में जिन्दगी
खोजने इसको न जाने कब उजाला जायेगा।
10. समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में बचपन: कहा जाता है कि चाइल्ड इज द फादर ऑफ द मैन। आज के बच्चे ही कल के भविष्य होते हैं। इनके भविष्य को संजाना-संवारना हमारा ही काम है। आज न्यूक्लियर फैमिली होने से बच्चे बहुत अकेले हो गये हैं। जिससे उनका सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। ये टीवी की दुनिया के बच्चे हैं। दूसरी तरफ गरीबी की मार झेलते बच्चे हैं, जो अपने पेट पालने के लिए बाल मजदूरी करने पर विवश हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में ग़ज़लकार भला कैसे चुप रह सकता है। ज़हीर कुरैशी शहरी बचपन को दर्शाते हुए लिखते हैं,
"पैर छूना तो याद क्या रखते
शहरी बच्चे प्रणाम भूल गये"
वहीं बच्चों की दुर्दशा पर उन्होंने लिखा है,
"वो भीख मांगता ही नहीं था इसीलिए
उस फूल जैसे बच्चों को अंधा किया"।
वशिष्ठ अनूप ने भी क्या खूब लिखा है-
होटलों की प्लेट में तकदीर अपनी खोजता
बेवजह पिटता हुआ मनहूस-सा बचपन मिला।
वहीं हरेराम समीप जी असुरक्षित बचपन पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए बहुत माकूल शेर कहा है-
जीवन की नई पौध सुरक्षा में नहीं है
इस बात की चर्चा कहीं दुनिया में नहीं है।
वहीं अशोक अंजुम के ये शेर देंखे-
माँओं की गोदियों में कुछ फूल-से खिले हैं
फुटपाथ पर हैं रोते कुछ ज़ार-ज़ार बच्चे।
11. समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति: समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में जहाँ वर्तमान वैज्ञानिक और यांत्रिक युग के मूल्यों, विचारों, भावों को नयी दृष्टि से आत्मसात करना शुरू किया है। वहीं इसने प्रकृति को भी नये अर्थ, नयी परिभाषाएँ, नयी भाव-भंगिमाएँ और नये कलेवर में रुपायित करना आरंभ कर दिया है। दुष्यंत के शेरों में प्रकृति के अद्भुत चित्रण मिलते हैं,
"कहीं पर धूप की चादर बिछा कर बैठ गये
कहीं पर शाम सिरहाने लगा कर बैठ गये,
यह सोचकर की दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साये में आकर बैठ गये"
या
"तूने यह हरशृंगार हिला कर बुरा किया,
पांव की हर जमीन को फूलों से ढक दिया"
या
"तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतंभरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा"
प्रकृति के चित्रण में गजलकार दिनेश प्रभात कहते हैं,
"नदियाँ नाले पुर झमाझम बारिश में
साजन तुम क्यूं दूर झमाझम बारिश में
मौसम पानीदार हवाएँ बर्फीली
दिल है पर तंदूर झमाझम बारिश में"
12. समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण: कुंवर बेचैन कहते हैं, "हमने तो इतना देखा है, वह भी किसी जमाने की सारी घड़ियाँ चल पड़ती है, मन की सूई घुमाने सेें" ।बहुत सारी ग़ज़लों में ग़ज़लकार ने समकालीन यथार्थ का मंज़र उपस्थित किया है। वहाँ ग़ज़लें रिवायति-रूमानियत से हटकर विसंगतियों को उघाड़ने में क़ामयाब हुई हैं।
"आईने में खरोचें न दो इस क़दर
ख़ुद को अपना क़याफ़ा न आये नज़र"
इन पंक्तियों में राजनीतिक उठापटक तथा पैंतरेबाज़ी की चिंता नहीं है। इसे उलझाऊ बना कर पेश करने की कोशिश नहीं। शेर देखें,
"भेदे जो बड़े लक्ष्य को वह तीर कहाँ है
वह आइना है किन्तु वह तस्वीर कहाँ है
देखा ज़रूर था कभी मैंने भी एक ख़्वाब
देखा नहीं उस ख़्वाब की ताब़ीर कहाँ है"
13. आशा और निराशा: अनिरुद्ध सिन्हा कहते हैं,
"उम्र के किस्से में थोड़ी-सी चुभन बाकी रहे,
दिल धड़कने के लिए यह बांकपन बाकी रहे"
वहीं दिनेश प्रभात कहते हैँ,
"चल पड़े इक बार तो लंबा सफर मत देखना
पेड़ की हर छांव में अपना बशर मत देखना" ।
आशा और निराशा ग़ज़लों में शुरू से प्रतिबिंबित होती रही है। ग़ज़लकार के मनोभावाओं को हम उनके अश्आर में देखते हैं। दरवेश भारती का ये शेर देखें,
"नफ़रत का ज़हर फैल रहा है यूँ हर तरफ
पल भर सुकूॅ मिले कोई मौका नहीं रहा"
छंद शास्त्री दरवेश भारती कहते हैं,
"जब से किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा
जीना हमारा तब से ही जीना नहीं रहा"
हालांकि आशावादी ग़ज़लकारों की संख्या अधिक है। इस कड़ी में कई ग़ज़लकारों का नाम लिया जा सकता है।
14 मूल्यों में परिवर्तन: परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। बदलते समय में मूल्यों में होने वाले परिवर्तन की छाप ग़ज़लों पर स्पष्टत: देखी जा सकती है। विज्ञान व्रत का यह शेर द्रष्टव्य है,
"सारा ध्यान खजाने पर है, उसका तीर निशाने पर है
अब इस घर के बंटवारे में झगड़ा बस तहखाने पर है"
मूल्यों में जैसे-जैसे बदलाव आता गया उसकी बानगी ग़ज़ल में भी देखने को मिलती रही। हमारा मूल्य समय सापेक्ष रहा है। समय के बदलते दौर से ग़ज़लकार अलग नहीं हुआ। हालांकि बदलते समय में इंसानियत को बरकरार नहीं रखने की टीस भी ग़ज़लों में दिखती रही है।इसी क्रम में अनिरूद्ध सिन्हा का ये शेर भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है-
नये लफ्ज़ों के लहंगे में सियासत जब उतरती है
सहम जाती है हर ख्वाहिश शराफत घुटके मरती है।
15. मीडिया की भूमिका: मीडिया को लाेकतंत्र का पांचवां स्तंभ माना जाता है। आज विश्व भर में मीडिया ऐसा शक्तिशाली माध्यम है, जो मनुष्य के विकास में प्रभावी निभा रहा है। यह अलग बात है कि कभी-कभी मीडिया की नकारात्मक भूमिका भी देखने को मिलती है। बालस्वरूप राही कहते हैं,
"जिसको पढ़ कर ये लगे लोग अभी जिंदा है
कोई तो ऐसी खबर लाओ कभी अखबारों"
मुझे एक अपना शेर भी याद आ रहा है-
"रुठे सागर को मनाने का हुनर आता है
चांद को ख्वाब दिखाने का हुनर आता है
वह जो एक पल में तिल का ताड़ बना देते हैं,
उनको अखबार चलाने का हुनर आता है"
वहीं अशोक अंजुम कहते हैं-
कहाँ तक डरोगे, कहाँ तक बचोगे
ये दुनिया है दुनिया, खबर ढूंढती है।
16. उत्तर आधुनिकता, बाजारवाद और भूंमडलीकरण: दरअसल हिन्दी के दहलीज पर ग़ज़ल ने जब पाॅव रखा तो हिन्दी कविता में प्रेम, यथार्थ, विरोध के मिले जुले स्वर घूमने लगे। हिन्दी ग़ज़ल में प्रयोग के तौर पर विभिन्न विषयों का संचयन होने लगा, जिनमें उत्तर आधुनिकता, बाजारवाद और भूमंडलीकरण जैसे मुद्दे प्रमुखता से आने लगे। अनिरुद्ध सिन्हा का ये शेर देखें
"पत्थर के तेरे शहर में रूकते भी हम कहाँ /
वह धूप थी कि पेड़ का साया न मिल सका"
एक और शेर उनका बाजारवाद पर गहरा प्रहार करता हुआ देखें-
"वफा, खुलूस, मुहब्बत ये खो गये हैं कहाँ
तलाश आज भी करते हैं हम दिया लेकर"
दुष्यंत कहते हैं-
"मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम इक बयान है"
तो जहीर कुरैशी कहते हैं-
"आजकल जब भी दो देश आकर मिले
सन्धि होने लगी मुक्त व्यापार की"
या फिर
"खेल है सांप-सीढ़ी का बाज़ार में
हुक्म पूॅजी का चलता है व्यापार में"।
वहीं हरेराम समीप जी का ये शेर देंखे-
कर्जे पर उठा लाया टी वी मैं घर लेकिन
मुश्किल है कि अब मुन्ना चीजों पर मचलता है।
वशिष्ठ अनूप का ये शेष देंखे-
एक ऐसे दौर में जब नींद बहुत मुश्किल है
अजब शख्स है ख्वाबों की बात करता है।
ग़ज़लों के विभिन्न आयाम देखने पर पता चलता है कि ग़ज़लकारों ने जीवन व जगत के तमाम बिंदुओं पर अपनी दृष्टि डाली है। व्यक्ति से जुड़ी ऐसी कोई समस्या नहीं, जिस पर ग़ज़लें नहीं कही गयी हो। समय व परिवेश के अनुसार ग़ज़लकारों की सूक्ष्म दृष्टि समस्याओं की पड़ताल करती रही है। उनकी पीड़ा, उनके सपने व उनकी सोच को शब्दों की संवेदना मिलती रही है। समाज की कई विद्रूपताएँ भी हम इन गजलों में व्यक्त होते देख सकते हैं। दुष्यंत के जमाने से लेकर आज के ग़ज़लकारों ने समय की अवधि का इतिहास लिख दिया है। एक ही विषय पर सैकड़ों शेर मिल जाते हैं। अंतर सिर्फ़ कहन के अंदाज का होता है। ग़ज़लें हमारी धरोहर है। एक तरह से कहा जाये तो यह हमारी जीवन संवेदना का खुला बयान है