समकालीन हिंदी साहित्य के सतरंगी बिंब / अरुण होता
आज का भारत इक्कीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में पदार्पण कर चुका है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद और उपभोक्तावाद का मौजूदा दौर आज के भारत की विशेषता है। यह एक ऐसा दौर है जहाँ सेन्सेक्स का आँकड़ा बीस हजार पार कर जाता है और दूसरी ओर आम आदमी की तकलीफों का सूचकांक तेजी से बढ़ता रहता है। आम आदमी अधिकाधिक समस्याओं से जूझता रहता है। इतना ही नहीं मानव मूल्यों के टूटन और विघटन चिंता के विषय बने हुए हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यापक उथल-पुथल मचे हैं। परिवार, समाज, राजनीति इत्यादि सभी जगह मूल्यों का पतन हो रहा है। यह चिंताजनक है। अपसंस्कृति का विस्तार हो रहा है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था का प्रभाव बढ़ रहा है। भूमंडलीकरण और भौतिकवादी जीवन शैली हमारे पारंपरिक अर्जित मूल्यों को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आज एक ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उत्कृष्ट उपलब्धियाँ हैं तो दूसरी ओर गाँवों में आधारभूत सुविधाएँ प्राप्त नहीं होती हैं। औरतों तथा दलितों पर परंपरागत अत्याचार व शोषण बदस्तूर जारी है। चाँद के बाद मंगल ग्रह की उड़ान एवं वहाँ की जमीन खरीदने की कशमकश है, तो भूख और अकाल से कराहती, छटपटाती अतृप्त आत्माएँ भी भटकती फिरती हैं। कहीं सती-दहन को कहीं दलित-दहन होता है। व्यक्ति चेतना भटक रही है, मानवीयता लड़खड़ा रही है। मधुमय विश्व की विश्व मानवता लक्ष्यविहीन, दिग्भ्रमित और निश्चेष्ट सी हो गई है। सांस्कृतिक पहलू पंगु हो रहा है तो चिंतन निस्तेज हो रहा है। फलस्वरूप, इनका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से रचनाधर्मिता पर पड़ता है। जातिवादी राजनीति का प्रतिगामी परिणाम पूरे देश में दिखाई पड़ रहा है। धर्म का राजनीति में व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। देशभर में सांप्रदायिकता की यदा-कदा कहर है, धर्म बाह्याचार में सीमित हो रहा है। धार्मिक मान्यताएँ सांप्रदायिक वेश-भूषा में अवतरित हो रही हैं। हाल ही में ओड़िशा के फुलबानी जिले की दारिंगबाड़ी की घटना बड़ी चिंतनीय है। संपर्क के सूत्रों की बढ़ोतरी हो रही है बड़ी तेजी के साथ। संबंधहीनता की गति मंथर हो रही है। सूचना क्रांति के विस्फोट ने सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। अपसंस्कृति का अंधानुकरण हिंसा और सेक्स को बढ़ावा दे रहा है। सारांश यह है कि यहाँ मूल्यों का द्वंद्व है, समय के अनेक विरोधाभास एवं बिडंबनाएँ हैं। पूरा भारतीय परिदृश्य अनेक संकटों से भयाक्रांत है, उपभोक्तावादी संस्कृति में हर आदमी किसी को छल रहा है, स्वयं भी छला जा रहा है।
आज एक बेहद अमानवीय दबाव है - 'लूटो नहीं तो लूट लिए जाओगे' इन्हीं विखंडित और ध्वंसोन्मुख मूल्यों के अक्स आज साहित्य में उभर रहे हैं। इन्हीं मूल्यों का नियामक है आज का हिंदी साहित्य।
सोवियत संघ के विघटन का विश्वव्यापी प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप संपूर्ण विश्व में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की आँधी बहने लगी। मानवीय संबंधों के स्थान पर बाजार की प्रभुता बढ़ी। पूँजी सर्वशक्तिमान हो गई। धनवान विशिष्ट वर्ग में आए तो धनहीन सामान्य, इत्यादि की कोटि में गिने जाने लगे। हिंदी साहित्य में ऐसे उपेक्षितों के प्रति संवेदना से भरपूर बिंब प्रस्तुत करते हैं राजेश जोशी -
कुछ लोगों के नामों का उल्लेख किया गया जिनके ओहदे थे
बाकी सब इत्यादि थे
इत्यादि तादाद में हमेशा ही ज्यादा होते थे
इत्यादि ही करने को वे सारे काम करते थे
जिनसे देश और दुनिया चलती थी
इत्यादि हर जगह शामिल थे
पर उनके नाम कहीं भी
शामिल नहीं हो पाते थे।
(इत्यादि, दो पंक्तियों के बीच,)
संवेदनशून्यता, निस्संगता, स्वार्थपरता आज के भारतीय समाज में गहरे रूप में विद्यमान हैं। हत्यारा खुलेआम घूमता-फिरता है और निरपराध को कारागार में ठूँस दिया जाता है। हत्यारे को केवल मदद नहीं, सांविधानिक सुविधाएँ भी मिलती हैं। सत्ता की ओर से तमाम साधन भी जुटाए जाते हैं। हमारे समय के प्रतिष्ठित कवि अरुण कमल की बिंबात्मक अभिव्यक्ति है -
देखो हत्यारों को मिलता राजपाट सम्मान
जिनके मुँह में कौर मांस का उनको मगही पान। (सबूत, 1989)
आज हमारे समाज में धर्म के नाम पर सत्ता और क्रूरता का व्यापार चल रहा है। धर्म की कट्टरता के पीछे घृणित मानसिकता और उद्देश्य निहित हैं। लोग विलुप्त को खोजकर उनके समक्ष प्रस्तुत यथार्थ को झुठलाना चाहते हैं। ऐसे लोगों पर व्यंग्य करते हुए विष्णु नागर कहते हैं -
वे इन दिनों विलुप्त मंदिरों
विलुप्त नदियों / विलुप्त शत्रुओं
विलुप्त मित्रों की खोज में व्यस्त हैं
ताकि जो आँखों के सामने हैं
उनका विलोपन किया जा सके।
(हँसने की तरह रोना, 2006)
ऐसी मनोवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए कमलेश्वर ने 'कितने पाकिस्तान' में भी बाबरी मस्जिद के संदर्भ में रामजन्मभूमि प्रकरण को साम्राज्यवादी शक्ति की साजिश बताया है। आज धर्मगुरु हत्याएँ करने लगे हैं। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के कई धर्मगुरुओं का दुष्कांड भी सामने आया था। इस पर विष्णु नागर खेद प्रकट करते हुए कहते हैं -
आजकल धर्म इतना अच्छा चल रहा है कि
शब्दकोश में हत्यारे का अर्थ धर्मगुरु हो गया है।
(यथोपरि)
आज भारत में लूटपाट की दानवलीला सर्वत्र व्याप्त है। लूट मचाने के लिए हिंसा का माहौल खड़ा किया जा रहा है। इस लूट के विभिन्न बिंब आज भी हिंदी कविता में प्रस्तुत हैं। अरुण कमल के शब्दों में -
ऐसा जमाना आ गया है उल्टा
कि कोई तुम्हें रास्ता बतावे तो
शक करो
वह तुम्हें लूट सकता है सुनसान पाकर।
(सबूत)
अरुण कमल की तरह संजय चतुर्वेदी ने अपनी 'लुटेरे बनकर इतिहास' शीर्षक कविता में युगीन सत्य एवं विडंबना को प्रस्तुत किया है -
वक्त का हर बड़ा लुटेरा
अमर है इस शहर में।
लूट के अनके रूप-रंग हैं। धन लूटा जाता है, संपत्ति लूटी जाती हैं। परंतु इससे भी चिंताजनक लूट है नारी का लुंठन, उसकी इज्जत का लूटना। कवि विष्णु नागर के शब्दों में -
उसे बताया गया था कि उसका सब कुछ लुट चुका है
जिसका मतलब ये था कि ए औरत
तेरा लुटेरा पकड़ा भी गया तो क्या फायदा
लूट का माल तो उससे बरामद होने से रहा
और उससे अपेक्षा करेंगे कि
जब उसके साथ फिर से ऐसा कुछ हो
तो वह प्रतिरोध न करे
क्योंकि जिसका सब कुछ पहले ही लुट चुका है
उसका कोई बार-बार क्या लूटेगा।
पिछले कई दशकों से नदी, वृक्ष, आकाश, समुद्र, धरती आदि पर हिंदी में अनेक कविताएँ लिखी जा रही हैं। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि प्रकृति के बिना अपनी अपूर्णता को हम महसूस कर पा रहे हैं। प्रकृति और मानवीय संबंधों से हमें नई ऊर्जा मिलती है। यह नई ऊर्जा हमें निर्भयता प्रदान करती है। मानव एवं प्रकृति का अटूट संबंध है। दोनों अभिन्न हैं। यह अलग बात है कि यांत्रिक सभ्यता ने मनुष्य को प्रकृति से दूर धकेलने का निरंतर प्रयास किया है। उसे प्रकृति के विरुद्ध भी खड़ा कर दिया है। फलस्वरूप प्रकृति एवं मानव के सहज संबंध बाधाप्राप्त हुए। मनुष्य की संवेदना छीज गई। प्रकृति के विनाश से नगर सभ्यता की विभीषिकाएँ सामने आईं। प्रकृति पर मनुष्य के एकाधिकार भाव ने, उसकी वर्चस्व लालसा ने वीभत्सता खड़ी कर दी। ऐसे ही भावों से पुष्ट मुनि क्षमासागर की काव्य-पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -
आकाश सबका
दीवारें हमारी अपनी
नदी सबकी
गागर हमारी अपनी
धरती सबकी
आँगन हमारा अपना
विराट सबका
सीमाएँ हमारी अपनी।
(अपना घर)
विज्ञान एवं तकनीक के निरंतर विकास से प्रकृति सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हो रही है। पर्यावरण प्रदूषण के खतरे मँडराते हैं। पर्यावरण-विनाश काल में कवि ज्ञानेंद्रपति की व्यथा ही ध्वनित नहीं होती, अमरीका के वर्चस्ववाद पर भी उनका व्यंग्यात्मक स्वर सुनाई पड़ता है। कवि ने यह संकेत भी किया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, संयुक्त राष्ट्र संघ पर अमरीका का कैसा वर्चस्व है। विश्व बाजार में उसका दबदबापन आज भी जारी है -
बारूदी धुएँ से उठते वायुमंडल
खाँसती-हाँफती-काँपती मानवता किस ओर ताके
सड़क किनारे मंदिर में मर चुके अर्ध सभ्य ईश्वर की जगह
चमचमाता अचूक कंप्यूटर खड़ा है
स्क्ड, पैट्रियाट, टॉमहॉक, हेलफायर मिसाइलें, न्यूट्रान बम,
न्यूक्लियर बम, हाइड्रोजन बम
इक्कीसवीं शताब्दी के प्रवेश द्वार पर लटक रहे हैं बंदनवारों की तरह
कि एक उन्मत्त साँड़ है संयुक्त राज्य अमेरिका।
और उसका उफनता अंडकोश भर है संयुक्त राष्ट्र संघ।
(संशयात्मा)
कवि ज्ञानेंद्रपति की रचना में ग्रामीण जीवन के अनेक बिंब प्रस्तुत हैं। सूअरों के बच्चों के साथ खेलते आदिवासी बच्चों के पिता मजूरी की खोज में जा रहे हैं। कवि इस दृश्य की बिंबात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है -
बहंगिया उठाए
पंजाब का देखने सूर्योदय
जहाँ सूर्य पूरी रोटी की तरह गोल
गेहूँ के खेतों के ऊपर।
आज के भारत में मीडिया सरकार अथवा पूँजीपतियों का कठमुल्ला बना हुआ है मीडिया को केवल मुनाफा चाहिए। भूख से छटपटाते, अकुलाते लोगों से उसे मुनाफा नहीं मिलता है। अतः आदिवासियों की निर्यातना से बढ़कर कहीं अधिक महत्व देता है फैशन शो अथवा क्लब की पार्टियों को। आज का समकालीन कवि मीडिया के माया-जाल को समझता है और दूसरों को भी उस पीड़ा का अहसास कराते हुए कहता है -
आजादी के गोल्डन जुबली साल में
बाजार से अपनी पसंद की चीज चुनने की आजादी
और आपकी पसंद
वे तय करते हैं
जिनके पास उपकरणों का कायाबल
विज्ञापनों का मायाबल
...आपकी आजादी पसंद है उन्हें
चीजों का गुलाम बनाने की आजादी।
अरुण कमल की कविताओं में बिंबों का अनोखा प्रयोग है। उनके चौथे कविता-संग्रह 'पुतली में संसार' (2004) में पहली कविता पुतली में संसार है। द्रोपदी स्वयंवर के मिथक पर आधारित इस कविता में पुतली में संसार और आँख का गोला बिंब के माध्यम से द्रोण द्वारा ली गई धनुर्विद्या की परीक्षा को समेटा गया है। अर्जुन की मनःस्थिति अर्थात आज के मनुष्य की मनःस्थिति को प्रकट करने का सफल प्रयास भी है। अर्जुन को मछली की आँख नहीं उसका संसार भी उनके बिंबों में दिखाई पड़ता है -
मुझे तो देखना था बस आँख का गोला
और मैं इतना अधिक सब कुछ क्यों देख रहा हूँ देव।
(पुतली में संसार)
आलोच्य कवि की कविताओं में दुर्लभ बिंबों का निर्माण बड़े ही मनोरम ढंग से हुआ है। इन बिंबों के सृजन से कवि की काव्य-प्रतिभा का परिचय भी मिल जाता है। कवि के शब्दों में -
नदी का स्वच्छ आँख के कोए जैसा पानी
और भीड़ भरे नीड़
मूक उठता चाँद
और पीपल कत्थई पत्तों से छलछल
और बटलोई में कलछुए चलने का स्वर
फैलती है भाप की गर्म गाढ़ी भाप
रात के आर्द्र नथुनों में।
(पुतली में संसार)
भारत की जनजातियों की आदिम सभ्यता, उनकी रीति-नीति, उनकी जीवन-शैली के साथ आज का सभ्य मानव अत्यधिक मात्रा में छेड़छाड़ कर रहा है। उनकी चिंताओं, उनके सपनों से परिचित कराने का माद्दा लीलाधर मंडलोई में है। आदिवासी जनजातियों के अँधेरे इलाके में पहुँचाकर कवि हमें आस्था एवं विश्वासभरे स्वर से कहता है -
दुनिया में उनकी
न पहुँचा घी-दूध
न गेहूँ चावल
और न उन्हा लत्ता
दुनिया में उनकी
न पहुँची सड़कें
न रेलगाड़ी
और न बिजली
...किंतु घबराए नहीं वे
कि पेड़ों में जिंदा है हरापन
और लकड़ियों में बची हुई है
उनके हिस्से की आग
...कि वे भून सकते हैं वे
मछलियाँ, केकड़े, सूअर
और जला सकते हैं कभी भी मशाल।
(उनके हिस्से की आग)
इस संदर्भ में कुछ दलित आत्मकथाओं का भी उल्लेख किया जा सकता है। 'डेराडंगर', 'अछूत' तथा 'जूठन' आदि रचनाओं में दलितों के प्रति किए जा रहे अन्याय और उन पर हो रहे शोषण के जीवंत चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। उत्पीड़न के इतिहास की ओमप्रकाश बाल्मीकि ने 'जूठन' में प्रस्तुत किया है। हेडमास्टर कालीराम को जैसे ही पता चलता है कि ओमप्रकाश चूहड़े का है, तभी कहता है - 'वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियाँ तोड़ के झाड़ू बना ले। पत्तोवाली झाड़ू बणाना। और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो ये खानदानी काम है। जा... फटाफट लग जा काम पे।' (जूठन, पृ. 14)
'डेराडंगर' एक घुमक्कड़ समाज के दलित की आत्मकथा है, उसकी एक पंक्ति दृष्टव्य है - काम के समय बड़ों के समान टोकरियाँ भरकर देते थे और वेतन देते समय मैं छोटा दिखाई पड़ता था। (डेराडंगर, पृ. 113)
ओमप्रकाश बाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, कौशल्या बैसंती, जयप्रकाश कर्दम, हरनोट, धर्मवीर आदि ने दलित साहित्य के विभिन्न बिंबों को प्रस्तुत किया है। अब तो दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र गढ़ा जा चुका है।
आज के भारत का सबसे बड़ा चिंतनीय प्रश्न है संवेदनाओं का क्षरण। संवेदनहीनता से उत्पन्न स्थिति के बिंब हिंदी कहानी में मौजूद है। उदय प्रकाश की नौ कहानियों का संकलन है 'तिरिछ'। 'तिरिछ' शीर्षक कहानी में नगर जीवन की यांत्रिकता, स्वार्थपरता, मूल्यहीनता के अनेक बिंबों के साथ ग्रामीण जीवन की सहजता को समाप्त करने वाली वीभत्सता का भी वर्णन है। पूँजी की वर्चस्वता मानवीय मूल्यों के लिए संकट बनकर आती है। उदय प्रकाश ने कहा है -
मैं जोर-जोर से बोलकर जागने की कोशिश करता हूँ... मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि यह सब सपना है... और अभी आँख खोलते ही सब ठीक हो जाएगा... मैं सपने के भीतर अपनी आँखें फाँड़कर देखता हूँ... दूर तक ... लेकिन वह पल आखिर आ ही जाता है... (तिरिछ, पृ. 47)
पूँजी के बढ़ते प्रभाव के चलते समाज में अमानवीयता फैल रही है, मध्यवर्गीय सामाजिक विसंगतियाँ मुँह बाएँ खड़ी हैं। प्रशासनिक अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हो रहे हैं। ऐसी स्थितियों के बिंब गढ़ने में उदय प्रकाश की कोई तुलना नहीं है। 'दद्दु तिवारी, गणनाधिकारी', 'अरेबा-परेबा', 'साइकिल', 'दिल्ली की दीवार', 'दिल्ली' जैसी कहानियाँ उपर्युक्त कथन के उदाहरण हैं। दिल्ली शीर्षक कहानी से एक उद्धरण दृष्टव्य है - 'ख्वाजा, तुमको पता होना चाहिए कि दिल्ली दौलतमंद लुटेरों की नगरी है, कोई गरीब या दीन-ओ-ईमान वाला आदमी अगर वहाँ रहने की कोशिश करेगा, तो उसका हश्र ऐसा होगा कि उसका हाल देखने-सुनने वालों के जिस्म के सारे रोएँ खड़े हो जाएँगे और नाजुक-दिल-ओ-दिमाग वाले लोगों के आँसू सूख जाएँगे।'(दत्तात्रेय के दुख, पृ. 46) इस संदर्भ में भगवत रावत की 'कहते हैं कि दिल्ली की है कुछ आबोहवा और' शीर्षक लंबी कविता स्मरणीय है। इसके तेरह खंड हैं। इसमें महानगरीय जीवन में व्याप्त अमानवीयता के बढ़ते व्यापार तथा उससे पीड़ित तमाम कस्बों, शहरों के लोगों की त्रासदी के अनेक बिंब खींचे गए हैं -
दिल्ली का होने के लिए
दिल्ली का होना जरूरी नहीं है
समझ से काम लें
तो दिल्ली आपकी हो सकती है
और होने को दिल्ली भोपाल में हो सकती है
पर दिल्ली में रहते हुए
आप भोपाल के नहीं हो सकते
भोपाल का होने के लिए
भोपाल का होना जरुरी है
यह बात अलग है कि अब भोपाल को
भोपाल में खोजना
कठिन होता जा रहा है।
(नया ज्ञानोदय, जुलाई 2007)
पूँजीवादी सभ्यता ने मनुष्य को षड्यंत्र का शिकार बनाया है। तकनीक ने न केवल प्रकृति को बल्कि मनुष्य को भी दास बना रखा है। इस षड्यंत्र में स्वयं मनुष्य शामिल है। उदय प्रकाश के शब्दों में - 'यह उन्हें ठीक न लगता कि जहाँ आदमी होने के बावजूद एक प्लास्टिक के नगण्य और निर्जीव बटन को दबाते हैं, वहीं एक दूसरा उनके जैसा ही जीवित मनुष्य, मनुष्य होने के बावजूद उनकी यांत्रिक आवाज सुनकर अपना समूचा शरीर लिए हुए दौड़ता-हाँफता उनकी मेज तक चला आता है। यह तकनीक द्वारा प्रकृति और मनुष्य को गुलाम बनाने का एक अत्यंत मार्मिक और दहला देने वाला उदाहरण था। विडंबना यह थी कि स्वयं मनुष्य ही इस षड्यंत्र में शामिल था।' (दत्तात्रेय के दुख, 14) 'हीरालाल का भूत', कहानी पर 'उपरांत' नामक फिल्म बनी जिसमें वर्ग-संघर्ष, अंध-विश्वास, शोषण, अमानवीयता आदि के अनेकानेक बिंब प्रस्तुत किए गए हैं। शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त अराजकता, जातिवाद का वर्चस्व आदि के मार्मिक चित्र 'पीली छतरी वाली लड़की' में अंकित हैं। जातिवाद, भाई-भतीजावाद के तमाम बिंब भी इसमें मौजूद हैं। भूमंडलीकरण ने हमारी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक स्थितियों को किस रूप में प्रभावित किया है, उसका भी चित्रण है। आज के मनुष्य की विसंगतियों के अनेक बिंब भी उकेरे गए हैं।
आज हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन ने स्त्री मुक्ति आंदोलन को नई गति प्रदान की है। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, शिवानी, ममता कालिया, सूर्यबाला, नमिता सिंह, राजी सेठ, मंजुल भगत, शशिप्रभा शास्त्री, नासिरा शर्मा, मेहरुन्निसा परवेज, आदि के कथा साहित्य में नारी-जीवन के विविध बिंब अंकित हैं। यह सत्य है कि कुछ महिला कथाकारों ने मुक्त यौन-विहार को चुनकर स्त्री-मुक्ति का मुद्दा बना लिया है। पश्चिम से आयातित इस सोच का खूब अनुसरण किया है। हालाँकि अब पश्चिम में भी इसका प्रचलन घट रहा है। यौनमुक्ति को नारी-मुक्ति का अर्थ मान बैठने का प्रचलन होने लगा। इनमें मृदुला गर्ग का नाम सर्वोपरि है। 'चितकोबरा' उनका लोकप्रिय उपन्यास रहा है।
कृष्णा सोबती की कथा में अगर हम प्रेम और मृत्यु की लगभग काव्यात्मक रागात्मकता के बिंब पाते हैं तो मन्नू भंडारी में पारिवारिक स्त्रियों में आती टूटन की भाव प्रवण अभिव्यक्ति। ममता कालिया की कहानियों में अविवाहित स्त्रियों की काफी बड़ी तादाद है। इन अविवाहितों के आचरण से पता चलता है कि विवाह न करने का उन्हें कोई मलाल नहीं है। परंतु ये पुरुष की तानाशाही, विकृत मानसिकता, मनमानेपन इत्यादि का विरोध करती हैं। यह विरोध विरोध तक ही सीमित रह जाता है। स्थगन-सा दिखाई पड़ता है। क्योंकि यहाँ वैकल्पिकता का अभाव है। ममता कालिया की नारी इस्मत चुगताई की तरह जोखिम नहीं उठा पाती है। जीवन के यथार्थ को कहानी के पाठ का यथार्थ बना दिया जाता है।
नारीवादी आंदोलनों ने नारी समाज में कुछ हद तक जागृति एवं आत्मसम्मान का भाव भर दिया है, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। शिक्षित नारी ने आँखें मूँदे सब कुछ स्वीकार नहीं किया। उस पर हो रहे अन्याय का विरोध हुआ। प्रतिवाद का स्वर उभरा। परंतु जब यह नारी बनाम पुरुष के संघर्ष में सीमित हो जाए तो नारीवादी आंदोलन के सामने कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं। ध्यान रहे कि कोई भी आंदोलन तभी सार्थक होता है जब उसमें समाज के सभी वर्गों की समान रूप से भागीदारी हो। नारीवादी आंदोलन के पश्चिमी अध्याय ने इसे स्वीकार लिया है। अपने देश में भी इस दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए कि पुरुष को साथ लेकर नारी आंदोलन को सार्थक बनाया जा सकता है।
नारी परिवार में गैरबराबरी, सड़कों पर उत्पीड़न, साहित्य में तसल्ली और मीडिया में ग्लैमराइज्ड होकर अपमान सहन कर रही है। नारी चेतना ने इसे यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया है। यह नारीवादी आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। कभी जो नारी को प्रकृति की तरह हरी-भरी, कोमलांगी के रूप में चित्रित किया गया था उस नारी के जीवन की डिजर्ट को आज हिंदी साहित्य में प्रस्तुत किया जा रहा है। नारी कथाकारों ने नारी पर हो रही लांछनाओं, नागफनियों, तपती रेत, सूखी धारा को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। उसके स्वाभिमान, उसकी अस्मिता एवं उसके साहस की बिंबात्मक अभिव्यक्ति है। मैत्रेयी पुष्पा के 'इदन्नमम', 'अलमा कबूतरी' जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं - स्वयं मैत्रेयी जी के शब्दों में -
'मेरे लिए स्त्री-विमर्श का अर्थ स्त्री की स्वतंत्रता, इच्छा और अस्मिता है।'
मैत्रेयी जी की नारी काम-काज वाले संसार की है, वह चाहे 'इदन्नमम' की मंदा हो या 'चाक' की सारंग, 'अलमा कबूतरी' की अलमा हो या 'गोमा हँसती है' की गोमा, सभी स्त्रियाँ जीवन के प्रत्यक्ष कुरुक्षेत्र में हैं। 'इदन्नमम' से एक उद्धरण से कथाकार की नारी-चेतना को स्पष्ट करने का प्रयास है-
'मंदाकिनी ने साफ नकारते हुए कहा - नहीं बऊ, नहीं, हम नहीं मानते... अर्जुन द्वारा स्वयंवर करके लाई गई द्रौपदी को अपने पाँचों पुत्रों में बाँट देना तुम्हें अच्छा लगा होगा बऊ, हमें तो एक औरत के प्रति दूसरी औरत का घोरतम अन्याय और कुकर्म लगा।'
नारी के अधिकारों का सवाल समकालीन हिंदी साहित्य में बार-बार उठाया गया है, कात्यायनी, अनामिका ही नहीं गगन गिल, सीमा सोनी तथा शुभा ने भी इसे अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। इनकी कविताओं में कहीं नारी शोषण की पीड़ा है तो कहीं सामंतवादी सोच पर करारा प्रहार है। इनके रचना-संसार से नारी सुलभ व्यथा, पीड़ा, स्वप्न एवं आकांक्षाएँ साकार हो उठते हैं। उदाहरणस्वरूप, कात्यायनी की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -
स्त्री हूँ, अज्ञान के अंधकार में भटकने को पैदा हुई -
यह जानने में ही उम्र का एक बड़ा हिस्सा खत्म हो गया
पशु नहीं थी फिर भी, या बन नहीं पाई,
जो अपरिचित रह जाती ज्ञान से...
तब जाना कि उड़कर इस पृथ्वी से दूर जा सकते हैं
सिर्फ महान कवि
कोई आम आदमी नहीं, स्त्री कतई नहीं।
नारी की दुनिया शोषण और अत्याचार की दुनिया है, पर उस दुनिया के सामने वह घुटने नहीं टेकती, संघर्षरत रहती है। निरंतर युद्ध करती है। ऐसा ही युद्ध है सुमन राजे का। 'युद्ध' शीर्षक कविता में कवयित्री युद्धरत नारी का वर्णन करती है। वह अकेली नहीं है। उनका साथ देती है प्रकृति-संपदा और उसके साथ है समूचा जंतु संसार -
आ गया राजा का देश
रुक गई गाड़ी
मुझमें से निकल रही हैं
ओर-छोर नदियाँ
गुर्राते दहाड़ते शेर
लपकती लपटें
और घूमती धरती
आक्रमण की मुद्रा में।
नारी-विमर्श की अन्यतम हस्ताक्षर, 'अन्या से अनन्या' की रचयिता प्रभा खेतान ने कविता को अपनी जरूरत स्वीकारते हुए कहा है - 'कविता मेरी जरूरत है, एक रिलीज, मेरे व्यक्तित्व की एक अभिव्यक्ति।' उन्होंने नारी के अधूरेपन की त्रासदी के बिंब खींचते हुए लिखा है -
सारी-सारी शाम
सूखते-कपड़ों सी बरामदे में
प्रतीक्षा करूँ तुम्हारे आने की
एक क्षण से
दूसरे क्षण तक।
नारी बेटी हो सकती है, पत्नी हो सकती है, सहचरी भी हो सकती है, माँ भी हो सकती है परंतु वह वह भी है। उसकी एक अस्मिता है, पहचान है, भले ही उसका जीवन कँटीली झाड़ी-जैसा क्यों न हो। इस अस्मिता को बनाए रखने हेतु कवयित्री कटिबद्ध है -
मैं तो एक कटिबद्ध झाड़ी
एक जंगली पेड़
हवा से बतियाती
भीड़ से अलग।
हिंदी कविता में निर्मला पुतुल, कात्यायनी, अनामिका आदि ने आज की नारी के विविध रूप प्रस्तुत किए हैं। आंदोलनरत स्त्री के बिंब भी प्रस्तुत किए गए। स्त्री अपना घर-द्वार छोड़कर दूधमुँहे बच्चों को गोद में उठाए बेहतर की उम्मीद मन में पाले शहर तक आती है। वह मुट्ठियाँ हवा में उठाकर नारे लगाती है। वह ब्रह्मांड में अनथक चलती पृथ्वी की तरह प्रतीत है कवि राजेश जोशी को। अपने सद्य प्रकाशित 'चाँद की वर्तनी' (2006) में कवि का उद्गार है -
रैली में चलती स्त्री
जैसे ब्रह्मांड में अनथक चलती पृथ्वी को देखती है
बाहर वह जितनी दिख रही है
उससे उसके सपनों और उसके भीतर मची उथल-पुथल का
अनुमान लगाना नामुमकिन है।
(रैली में चलती स्त्रियाँ, पृ.33)
आज के हिंदी साहित्य में सांप्रदायिकता की समस्या के विविध बिंब उकेरे गए हैं। हिंदी कथा साहित्य के संदर्भ में प्रेमचंद ने हिंदू-मुस्लिम संस्कृति की एकता की वकालत की थी। इस विचारधारा को 'अलग-अलग वैतरणी', 'कुहरे में युद्ध', 'दिल्ली दूर है', 'नीला चाँद' जैसे कालजयी उपन्यासों के माध्यम से विकसित किया गया है, एक धर्म निरपेक्ष भारत के निर्माण का सपना ही इन उपन्यासों में अभिव्यक्त है। 'नीला चाँद' का कीर्ति वर्मा हो अथवा 'कुहरे में युद्ध' का आनंद बाशेक ऐसे ही सपनों को साकार करने के लिए संघर्षरत हैं। मंदिरों को धूलिसात करना, उनका धनकोश लूट लेना, उनकी सुंदर कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ तोड़कर गर्वोन्मत्त अट्टहास करना - यह सब लोक रक्षा है? यही सेवक-धर्म है? क्या इसे ही आप मानवता के उच्च गुण कहते हैं। (कुहरे में युद्ध, पृ. 16) 'तमस' हो या 'कितने पाकिस्तान', 'सिक्का बदल गया' हो अथवा 'अमृतसर आ गया' ऐसी तमाम रचनाओं में सांप्रदायिक सौहार्द्र एवं संप्रीति को ही सामने रखा गया है। कवि नरेंद्र पुंडरीक ने 'नंगे पाँव का रास्ता' कविता संकलन की 'दो लोग' शीर्षक कविता में सांप्रदायिकों को कोसते हुए जो शब्द-चित्र अंकित करते हैं, वह निम्नवत है -
ये दो लोग
रातों-रात काटकर रख देते हैं दो मुल्क
बस्ती चीखती है
दुकानें लुटती हैं
देखते -देखते
लाशों से पट जाते हैं शहर।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि समकालीन हिंदी साहित्य में आज के भारत का बिंब विभिन्न प्रश्नों के माध्यम से उपस्थापित है। भूमंडलीकरण, उपभोगवादी संस्कृति में बाजारवाद का वर्चस्व, विकसित पूँजीवाद की छद्म लीलाएँ, सांप्रदायिक एवं आतंकवाद की वीभत्सता, स्त्री-चेतना के विविध पहलू, जातीय समीकरण की चीख, मानवीय मूल्यों एवं संबंधों की भयानक क्षरणशीलता के शब्द चित्र अंकित हैं। हिंदी का रचनाकार संबंधहीनता के महासमुद्र में गोता लगाते हुए जीवन की सीपी बटोरने का प्रयास करता है। उसे कुछ सीपियों में मोती मिल जाते हैं तो कुछ नहीं मिलते। महत्व इसमें नहीं कि मोती की प्राप्ति हुई या नहीं। महत्व है उसे ढूँढ़ने में, खँगालते रहने में, उसके संधान करते रहने में। हिंदी रचनाकार इसी सोच में रत है। इसलिए अपने समाज तथा समय के तमाम बिंब हिंदी साहित्य विद्यमान हैं। जब वह असहाय स्थिति में होता है, उसकी बिंबात्मक अभिव्यक्ति भी प्रस्तुत कर देता है, दूसरों के द्वारा हाँके जाने वाले आदमी की असहायता को साकार करने का प्रयास भी कवि करता है।
वह एक ऐसा जानवर है जो दिनभर
भूसे के बारे में सोचता है
रातभर ईश्वर के बारे में।
(बैल, केदारनाथ सिंह)