समझौता विरोधी सम्मेलन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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इधर कांग्रेस के नेताओं और वामपक्षी पार्टियों के रुख से मैं निराश हो गया था और ऊब कर सारा समय किसानों में ही लगाने का तय कर लिया था। लोगों ने और कुछ साथियों ने इस पर यह भी दोषारोपण किया कि मैं तो राजनीति को छोड़ शुध्द अर्थनीति (Pure economism) में पड़ गया। मुझे इनकी बुध्दि पर हँसी आई और तरस भी।

मगर बराबर राजनीति में रहने के कारण एकदम तटस्थ होना असंभव था। सुभाष बाबू से बातें भी होती रहती थीं। इधर जब देखा कि समझौते की मनोवृत्ति कांग्रेसी नेताओं में धीरे-धीरे दृढ़ हो रही है और राष्ट्रीय आजादी का युध्द वे अब न छेड़ेंगे,तो कुछ साथियों और सुभाष बाबू के साथ तय पाया कि रामगढ़ में कांग्रेस के समय ही समझौता विरोधी सम्मेलन हो। फलत: उसकी तैयारी होने लगी। मगर समय महीने भर का ही था। तुर्रा यह कि लोगों ने मुझे ही स्वागताध्यक्ष बना दिया। जब मैंने जवाबदेही लेने से इनकार किया तो तय पाया कि मेरा नाम तो रहे। पर,जवाबदेही औरों पर रहे। मेरा नाम रहने से असर अच्छा होगा यही कहा गया। हुआ भी ठीक यही। सम्मेलन के अध्यक्ष सुभाष बाबू का जुलूस लासानी था। प्रकृति देवी ने भी सम्मेलन पर कृपा की और उसका खुला अधिवेशन जम के हुआ। जहाँ लाखों लोग जमा थे। कांग्रेस के ठीक उलटा हुआ। हालाँकि बड़े-बड़े नेताओं और पुराने साथियों तक ने इसमें बाधा डालने में कोई कोर-कसर न की। उन्होंने बेहयाई तक कर डाली।

मेरे विचार से उस सम्मेलन की सफलता का दारमदार यों तो अनेक साथियों पर है ही। पर, पं. धानराज शर्मा यदि न रहते तो यह बात कदापि न होती। सम्मेलन में मैंने कहा था कि यही समय कूदने का है। उसी के बाद तो कूदकर मैं जेल में आ बैठा। हमने यूरोपीय युध्द में सहायता का खुलेआम वहाँ विरोध किया और विरोध करने की प्रतिज्ञा की। फलत: राष्ट्रीय सप्ताह में शुरू से अंत तक मैं बिहार प्रांत में खुल के विरोध करता रहा। फलत: उसी अपराध में पकड़ा जाकर तीन साल के लिए जेल में बंद किया गया। ता. 29-4-40 को यह दंड मिला।