समता ही परमेश्वर! / ओशो

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प्रवचनमाला

अंत:करण जब अक्षुब्ध होता है और दृष्टिं सम्यक, तब जिस भाव का उदय होता है, वही भाव परमसत्ता में प्रवेश का द्वार है। जिनका अंत:करण क्षुब्ध है और दृष्टिं असम्यक, वे उतनी ही मात्रा में सत्य से दूर होते हैं। श्री अरविंद का वचन है, 'सम होने याने अनंत हो जाना।' असम होना ही क्षुद्र होना है और सम होते ही विराट को पाने का अधिकार मिल जाता है।

धर्म क्या है? मैंने कहा : सम भाव।

जिन्होंने पूछा था, वे कुछ समझे नहीं। फिर, उन्होंने पूछा।

मैंने उनसे कहा, चित्त की एक ऐसी दशा भी है, जहां कुछ भी अशांत नहीं करता है। अंधकार और प्रकाश वहां समान दीखते हैं। और सुख-दुखों का उस भाव में समान स्वागत और स्वीकार होता है। वह चित्त की धर्म-दशा है। ऐसी अवस्था में ही आनंद उत्पन्न होता है। जहां विरोधी भी विपरीत परिणाम नहीं लाते और जहां कोई भी विकल्प चुना नहीं जाता है, उस निर्विकल्प दशा में ही स्वयं में प्रवेश होता है। फिर वे जाने को ही थे और मुझे कुछ स्मरण आया।

मैंने कहा : सुनो, एक साधु हुआ है- जोशु। उससे किसी ने पूछा था कि क्या धर्म को प्रकट करने वाला कोई एक शब्द है।

जोशु ने कहा : 'पूछोगे तो दो हो जाएंगे।' किंतु पूछने वाला नहीं माना, तो जोशु बोला था : 'वह शब्द है- हाँ।'

जीवन की समस्तता और समग्रता के प्रति स्वीकार को पा लेने का नाम ही सम-भाव है। वही है समाधि। उसमें ही 'मैं' मिटता और विश्व-सत्ता से मिलन होता है। जिसके चित्त में 'नहीं' है, वह समग्र से एक नहीं हो पाता है। सर्व के प्रति 'हां' अनुभव करना जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है। क्योंकि, वह 'स्व' को मिटाती है और स्वयं से मिलती है। मैंने सबसे बड़ी संपत्ति 'सम-भाव' को जाना है। समत्व अद्वितीय है। आनंद और अमृत केवल उसे ही मिलते हैं, जो उस दशा को स्वयं में आविष्कृत कर लेता है। वह स्वयं के परमात्मा होने की घोषणा है। कृष्ण का आश्वासन है 'समता ही परमेश्वर है।'

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)