समन्दर कितना अकेला है / एक्वेरियम / ममता व्यास
सुनो...! सतह पर कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा गया, कुशल योद्धा गहरे में उतर कर ही लड़ते हैं। गोया तलवारें, भाले, बरछी सीधे गहरे में ही उतारी जाती हैं, वरना ऊपर-ऊपर की चोट देने से मन नहीं भरता मारने वाले का।
जो सिर्फ़ लहरों की सुन्दरता निहारने का शौक रखते थे वह शाम को ही निहार कर लौट गए. जो जूझने का हुनर रखते थे, उन्होंने इस जंग में बड़े मजे लिए. कभी मारा कभी खुद को बचाया, क्या खूब खेल खेले उन्होंने लहरों के संग। खूब कलाबाजियाँ दिखाईं, लेकिन चंद लोग जो सचमुच समंदर के दर्द को, खारेपन को जानने का मन रखते थे उन्होंने उसमें डूबना पसंद किया। समंदर सभी को उसकी पसंद के उपहार देता है किसी को नमक, किसी को मोती, किसी को रेत...समस्त संसार की मीठी नदियों के दर्द को खुद में समेटे वह किस कदर खारा हुआ जाता है कोई नहीं जानता।
समन्दर बाहर ही नहीं, हमारी आंखों के अन्दर भी है। इस समन्दर का कभी कोई किनारा क्यों नहीं मिलता? कौन पता देगा किनारे का? अगर मैं उसकी आंखों के गहरे समन्दर में डूब जाऊँ तो भी मुझे किनारा नहीं मिलता और अगर मैं खुद के दर्द के समन्दर में डूब जाऊँ तब भी किनारा नहीं मिलता। कभी-कभी सोचती हूँ सारी दुनिया का दर्द खुद में समेट लेने वाले, सभी को आसरा देने वाले इस अभागे समन्दर को, समन्दर के भीतर कौन सहारा देने आएगा? समन्दर कितना अकेला है। उसमें तो ना जाने कितने डूब गए, लेकिन वह कहाँ जाकर खुद को डुबो दे? उसके किनारों पर, हजारों को मंजिल मिली, लेकिन उसे किनारा कौन देगा?