समयान्तर / राजा सिंह
आज रविवार है।छुट्टी का दिन।वह ज़्यादा देर तक सो सकता है।यद्दपि वह देर रात को सोया था परन्तु उसे आज जल्दी उठ जाना है।उसे अपनी कंपनी के डुयुप्टी डायरेक्टर मिस्टर पुरी को देखने जाना है।वह ग्रेटर नॉएडा के अस्पताल में भरती है।उनकी हालत बहुत सीरियस है,उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया है।वे उसके इमिजियेट बॉस भी है।
सुबह नौ से ग्यारह बजे तक है मिलना हो सकता है।अब तक आठ बज चुके है।और वह अभी तक बिस्तर में ही है।अलसाया-सा लेटा था कि डोर बेल बज उठी।वह समझ गया कि काम वाली होगी।उसने जल्दी से दरवाज़ा खोला और बाथरूम में घुस गया।
कार से अस्पताल रोड में घुसते ही वह ईमारत दिखने लगी थी जो हॉस्पिटल कहलाती थी।पांच मिनट्स के भीतर ही वह अस्पताल गेट के सामने था।सैकड़ो एकड़ में फैले परिसर में अस्पताल की ईमारत लम्बी चौड़ी और सात मंजिला ऊँची निसंग एकान्तिक गर्व से खड़ी थी।उसमे भयावह शांति विराजमान थी।
समय दस के पार हो चुका था। उसमे घबराहट भरती जा रही थी।क्योकि उनसे मिलने के लिए एक ही पास बना था जो कि उनके लड़के के नाम था।लड़के के पास को लेकर उसे उनसे मिलना या देखना था।
रिसेप्शन में उसने पूछा।नर्स ने फोर्थ फ्लोर की एक पर्ची बना दी। “सिर्फ वेंटीलेटर रूम के बाहर से देख सकते हो।” उसने कहा।
वह एक क्षण के लिए असमंजस में खड़ा सोचता रह गया फिर जल्दी से लिफ्ट की तरफ़ चला गया।
लिफ्ट से बाहर निकलते हुए उसने देखा की वेंटीलेटर वार्ड गलियारे के अंतिम छोर पर था।
वह बहुत जल्दी में था।दस बजकर पैतालिस मिनट्स हो चुके थे।उसने जल्दी जल्दी क़दम बढ़ाते हुए वह उस तरफ़ अग्रसर था।गलियारे के दोनों तरफ़ कुछ और वार्ड या चैम्बर थे, जिसकी तरफ़ उसने ध्यान देना उचित नहीं समझा।
उस वार्ड के गेट पर काफ़ी लोग जमा थे।सम्बके चेहरे पर बेचैनी और बेबसी टपक रही थी।उसने गार्ड से वार्ड की पर्ची दिखलाई और मिलाने की प्रार्थना।गार्ड ने अजीब ढंग से उसे देखा और मना कर दिया,-केवल पास वालों के लिए.
वह बेचैनी से वार्ड में इधर उधर टहल रहा था कि उसे अपना नाम सुनाई दिया।उसने पीछे, इधर- उधर देखा कहाँ से आवाज़ आई है ? लेकिन आवाज़ का श्रोत्र नज़र नहीं आया।रामेन्द्र नाम किसी और का भी हो सकता है।फिर यहाँ कौन उसका हो सकता है? उसने उपेक्षा की। तब उसने अपना बचपन का निक नाम सुना, ‘रम्मू...!’...यह नाम उसे घर के अलावा कही भी सुनने को नहीं मिलता।
वह आवाज़ का पीछा करना ही चाहता था कि उसे मि। पुरी का लड़का वार्ड रूम से बाहर आता दिखाई पड़ा।वह उसके पास तुरंत पहुँचा।
“अंकल ,जल्दी मिल आईये सिर्फ़ पञ्च मिनट्स बचें है।” उसने अपना पास दिया। “बेड न। छब्बीस।” उसने जल्दी से कहा।
पुरी साहब पूरी तरह मशीन, तार,मास्क नालिकयों से बिंधे पड़े थे।मुंह और नाक में मास्क फिट था, जिसके जरिये ओक्सीजन उनमे जा रही थी।सिर्फ आँखे बची थी।परन्तु वह भी बंद थीं। वह बेड पर निष्पंद लेटे थें।वह संकोच और दया से घिर गया।फिर भी उसने उन्हें एक आवाज़ दी, पहले कुछ हलके से फिर कुछ तेज।बड़ी मुश्किल से उन्होंने आँखें खोली और उसे देखकर फिर मुंद ली।
मुश्किल से एक-दों मिनट्स ही गुजरें थे कि ग्यारह का समय बीत गया...मिलने वाले लोग बाहर निकलने या निकाला जाने लगा था।
जब वह वार्ड से बाहर निकल ही रहा था कि उसे लगा जैसे किसी ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया हो।वह तनिक चौककर पीछे मुड़ा।
एक सुन्दर खूबसूरत लड़की सामने खड़ी थी।उसने सलवार-सूट के ऊपर एक लम्बा सफेद कोट पहन रखा था।सफेद कोट जो यहाँ के डॉक्टरों की पहचान थी।वह संशय में था कि क्या उससे ग़लती हुई है?
किससे मिलना था?
एम्।एस.पुरी से...बेड न.26.
क्या नाम है तुम्हारा ?
रामेन्द्र सिंह। -डॉक्टर ने सरसरी निगाह से उसे देखा और फिर धीरे से हंस दी।
अच्छा मुझे पहचानते हो?
डॉक्टर ने उसका हाथ छोड़ दिया था।उस स्पर्श से पुरानी पहचान उभर रही थी।उसकी आवाज़ भी कहीं दूर से पहचान का दरवाज़ा खट-खटा रही थी।उसकी आँखे उसे खोजने लगी थीं।स्पर्श हटने से तारतम्य टूट गया था।
अबे।रम्मू ! मैं मिनी,...मानसी अग्रवाल।
क्या?- वह कुछ हतप्रभ हो आया।वह एक क्षण में बचपन से गुजरता हुआ वर्तमान में आ खड़ा हुआ।वह उसे देख रहा था फिर एक छोटी-सी मुस्कराहट उसके होंठों सिमट आई.वह पहचान गया-मिनी। उसकी आँखें वैसी ही शांत और निश्छल,जैसी वे हमेशा से थी।परन्तु आज वे हंस रही थीं...किन्तु वह इतनी सुन्दर कब हो गयी...?
वे बाहर निकल आये थे।उसने पुरी साहब के लड़के को उनका पास वापस किया।उससे संवेदना प्रगट की।और फिर उसकी गिरफ्त में आ गया।
वह उसे लेकर उस जगह में आ गयी जहाँ उसका चैम्बर था।वे बातों में व्यस्त थे इस कारण वह उसका अनुमान न लगा सका,न देख सका।वह चैम्बर में चली गयी थी लेकिन वह तुरंत भीतर नहीं जा सका।उसकी आँखें कुछ खोज रही थीं। उसने चैम्बर के बाहर जड़ी उसकी नाम पट्टिका पढ़ ली,- डॉ.मानसी अग्रवाल।साइकेट्रिस्ट।
वे पंद्रह साल बाद मिले थे,इस कारण उनमे बहुत कुछ था पूछने सुनने और कहने का।परन्तु यह जगह इसके लिए नहीं थी।इस बीच वे एक दूसरे को दिखे ज़रूर थे परन्तु दूर दूर से ही, इतनी दूर कि हाय...हेल्लो भी नहीं हुई थी और दोनों ने आपस में मिलने की कोई पहल भी नहीं की थी।किन्तु पिछले पांच-छै वर्ष से तो दिखाई भी नहीं पड़े थे।एकदम अनजान अलग अलग ब्लैकहोल में समायें थे।
“काफी पियोंगे?” उसने पूछा।अभी तक वह अपनी सीट पर बैठी नहीं थी।वह उसका ही इंतज़ार कर रही थी।वह अपनी सीट पर बैठने से पहले उसने आँखों के इशारे से सामने चेयर की और उसे इशारा किया।
“जरुर,क्यों नहीं?” वह तुरंत बोला।
भीतर बाहर हर जगह निपट शांति पसरी हुई थी।कुछ भी बोलना शांतिभंग होना लगता था। वह झूलते बालों को अपने सफेद संगमरमरी हाँथों से सहला रही थी और उसे एकटक देख रही थी।फिर उसने कहा, “कैसे हो?”
अच्छा हूँ।
यहाँ कब से हो?
पांच साल से।
और तुम?
अभी दो तीन माह पूर्व ही।
मिनी चुप बैठी थी।पहली बार उसने अबूझी आँखों से उसे देखा फिर वैसे ही शांत और निश्चल आँखें उस पर टिक गयी जैसी वे पहले रहा करती थीं।अजाने शहरों में कभी कभी आत्मीयता की भूख कितनी उत्कट हो जाती है यह उस क्षण से पहले वे जान नहीं पायें थे।
“बल्लू कैसा है...?”
“मिस्टर, ठीक से नाम लो ! वे मेरे बड़े भाई है- श्री बलदेव अग्रवाल-एक दम ठीक।”
“क्या...?” वह आश्चर्य में आ गया।
“हाँ, अब वे बोल,पढ़ और लिख भी सकते है।और परचून की दूकान में पापा के साथ बैठते भी है।”
“यार तूने असम्भव को सम्भव कर दिया...हार्दिक बधाई.” वह अत्यधिक ख़ुश था।
‘प्यार से सब कुछ सम्भव है।” उसने कहा...हालाँकि यह कहने की ज़रूरत नहीं थी।
“आखिर में यह सब हुआ कैसे?...कुछ बताओगी?”
“मै कह नहीं सकती।सिर्फ दिखा सकती हूँ- देखोगे ?” फुर्सत में विस्तार से बताउंगी।बस इतना समझ लो मेरे इस दुरूह कार्य में मेरे गुरु डॉ. घोष का अमूल्य सहयोग रहा है।” यह कहकर उसने एक तसल्ली की साँस ली फिर धीरे से अपने बाल पीछे समेट कर सिर कुर्सी पर टिका दिया।
उसकी कॉल आ गयी थी उसे अपने वार्ड जाना था,किसी मरीज के लिए.
उसने सोचा कि अब उसे चला जाना चाहिए.
वह हड़बड़ी में थी।मगर जाते जाते उसे रोक गयी, “अभी कुछ मिनिटों में आती हूँ,जाना नहीं है।वैसे भी आज तुम्हारी छुट्टी होगी।”
वह फिर ठहर जाता है मंत्रमुग्ध-सा मूर्छित...
वह वर्षों पीछे चला गया...
वर्षो बाद बचपन यादें और जानी पहचानी आवाजें अपनी पुरानी तीब्रता खो देती है किन्तु भुतैली जान पड़ती है।वे वक्त-बेवक्त घेर लेती है जिनसे बचकर निकल जाना नहीं हो पाता है...
वह तैयार होकर आया था।बाहर खड़ा था,अनमना-सा हिचक झिझक से जीने के नीचे खड़ा, ऊपर जाने को आतुर।परन्तु एक डर सदैव उसका पीछा किया करता, कही वह तो नहीं होगा? ज़रूर होगा।वह बल्लू से बहुत डरता है।इस समय वह अवश्य मिलता है...सभी उसे पागल कहते हैं,परन्तु उसकी बहन मिनी नहीं मानती।वह कहती है कि उसका दिमाग़ फिर गया है।
वह एक समतल-सी चौकोर जीने की सीढ़ी पर बैठता है।वहाँ एक खुली खिड़की बाहर की रोशनी उस जगह पर फैलाती थी। साथ में अन्य सीढ़ियों में भी प्रकाश झरता था।खिड़की में पल्ले नहीं है सिर्फ़ लोहे की सरिया फिक्स हैं।
बच्चे आते रहते और ऊपर जाते है अपनी अपनी कक्षाओं में।जाने से पूर्व ज्यादातर बच्चे अपनी पट्टी, स्लेट या फुटा निकाल लेते है,बल्लू से अपने बचाव के लिए.सुरक्षित निकलने के लिए, वे अक्सर नकली या असली हमला करते।कभी सिर्फ़ उसे भयभीत करते निकल जाते है।परन्तु बल्लू कभी उन पर चोट नहीं करता।
स्कूल का मकान पुराना है और स्कूल भी।नीचे गोदाम है जिसमे मिर्च मसाले की बोरियाँ भरी रहती है।पहली मंज़िल पर स्कूल लगता है,कक्षा एक से पांच तक।स्कूल सरकारी है,टाट-पट्टी और बिना किसी ड्रेस का स्कूल।जिसमे लड़कियाँ भी साथ पड़ती है। परन्तु उनकी संख्या लड़कों के मुकाबले काफ़ी कम है।स्कूल में पांच कमरें,पांच कक्षाएँ और उनमे हेडमास्टर सहित पांच ही अध्यापक।और इन सबके बीच एक चम्पा।वह दाई-आया-चपरासी सभी कुछ है।वह झाड़ू लगाने से लेकर,घंटी बजाने,पानी पिलाने तक सभी काम करती है।सबसे ऊपर छत है और कुछ कमरे जिसमे मकान मालिक का परिवार रहता है।
मिनी उसके साथ पढ़ती है।वह स्कूल के मकान मालिक की बेटी है और बल्लू की छोटी बहन।वह बल्लू से छै साल छोटी है परन्तु वही बल्लू को कंट्रोल में रखती है।बल्लू भी उसी की सुनता और मानता है।उसे नियंत्रित करने का कार्य वह अपने फुटा (बारह इंच का लकड़ी का स्केल) के जरिये अच्छी तरह करती है।उसे फुटा का इस्तेमाल यदा-कदा ही करना पड़ता है वरना बल्लू उसके धमकाने और चिल्लाने से ही मान जाता है।
मिनी का पूरा नाम मानसी अग्रवाल है, उसका यही नाम सबकों पता है।परन्तु वह उसका घर का नाम मिनी ही कहता है।वह भी उसका पूरा नाम रामेन्द्र सिंह न लेकर निक-नेम रम्मू लेती है,जिसे उसने उससे धमका कर पूंछ लिया था।
स्कूल लगाने की घंटी बज गयी है और रामेन्द्र अभी तक ऊपर आने का यथोचित साहस एकत्र नहीं कर पाया है।उसने कई बार अपना स्केल निकाल कर तलवार की तरह धारण किया,एक दो सीढ़िया चढ़ी और फिर बल्लू को देखकर ठिठक कर रह गया।बल्लू अपनी तीब्रता में था,पूरा आदमजात नंगा-नाक,थूक और गू निकलता हुआ।वह खिड़की को पकड़े ज़ोर जोर हिला रहा था।जैसे वह उसे उखाड़ देगा।वह हिल रहा है और धीमे तेज नाका-नाका,बिला-बिला चिल्ला रहा है।उसकी आवाजे कभी हिंसक कभी गुर्राहट युक्त थी।वह इतनी तेज खिड़की को पकड़ कर हिलता रहता कि बच्चों का निकलना दूभर होता।क्योकि जीने में सीमित जगह के कारण उससे टकराना हो सकता था।परन्तु वह कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाता था।बल्कि बच्चे ही भयभीत होकर अपने फुटा,स्लेट,पट्टी आदि के असली-नकली प्रहार से उसे पार करते हुए निकलकर अपनी अपनी कक्षाओं में पहुँच जाते।बल्लू इस तरह की हलकी तेज मार ख़ाकर भी प्रतिहिंसक नहीं होता था।बड़े उसकी तरफ़ देखे बिना शन्ति से निकल आते और छोटे बच्चें बड़ों के साथ या चंपा के साथ आ जाते थें।
मगर रम्मू अभी तक उसके पास वाली सीढ़ी पर अटका खड़ा है।बेचैनी और बेबसी से उसकी आँखें ऊपर उसके तलाश में अटिकी हैं।अक्सर वह अन्य बड़ो के साथ उसे पार कर आता है।या फिर मिनी उसे निकाल लाती है।
सुबह की प्रार्थना हो चुकी है।सभी क्लास में जाने लगे है।रामेन्द्र अभी तक नहीं आया है।मानसी की चिंता अपने सहपाठी और बेस्ट फ्रेंड पर अटक गयी।कही वह नीचे तो नहीं खड़ा है,बल्लू के डर से।वह क्लास रूम न जाकर जीने की तरफ़ देखती है।थोडा और एक दो सीढ़ियाँ उतरती है।वह देखती है कि वह खड़ा है बेबस असहाय रुवांसा सा।उसे दया आती है।
वह उसे लेकर उपर आती है।उसे ऊपर की अंतिम सीढ़ी पर छोड़कर उसका स्केल लेकर पलटती है।
“अभी आती हूँ,तुम क्लास में चलो।” वह बहुत गुस्से में है।
वह नहीं जाता है।उसे देखता है।उसने चटपट दो-तीन स्केल बल्लू को जड़ दिए.बल्लू ने नी-नी- करके उन्हें अपने हाँथों और हथेलियों पर लिया।
“पहनो, जघियाँ पहनो !” उसने तेजी से कहा और जघियाँ की तरफ़ इशारा किया।
बल्लू चीखा या चिचियाया पता नहीं,परन्तु अस्थिर हो गया।उसने स्केल से जघियाँ को उठाकर उसकी और फेका।और फिर स्केल से धमकाया।उसे ताज्जुब हुआ कि बल्लू अपने आप जघियाँ पहनने लगा।परन्तु वह नाडा नहीं बाँध पाया।मिनी ने उसका नाडा बाँधा और उसे एक कोने पर स्थापित कर दिया।
वह पलटकर ऊपर चढ़ी तो देखा कि वह उसके करतब देख रहा है।वह झेपी और खिसिया गयी।उसने उसका स्केल वापस किया और तेज स्वर में कहा, “चलो!”। वह सहमकर उसके साथ हो लिया।
वे दोनों कक्षा में आ गए थे।हेड मास्टर साहब ने उन दोनों को घूरा।मानसी की वजह से उसे भी डांट नहीं पड़ी, क्योकि वह जानते थे कि मानसी शायद बल्लू के कारण लेट होगी।उसी के कारण वह बीच बीच में कभी उठ जाया करती थी और फिर धीरे से आ जाती थी।मानसी एक किनारे लड़कियों वाली रो में सबसे पीछे और रामेन्द्र दूसरे किनारे वाली रो में सबसे आगे बैठ गए. उन दोनों के आते ही हेड मास्टर ने उपस्थिति लेनी प्रारंभ कर दी।
वे प्रतिदिन कक्षा में राह तकते थे की पहले कौन घर के लिए निकलेगा।उनके बीच कुछ नहीं की दुनिया पसरी थी। वे दोनों अपनी कक्षा में खड़े थे।स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी,सभी जा चुके थे।वह कोने में खड़ी उसे ताकती रही,जिस कोने में वह प्रतीक्षा में खड़ा था।
मानसी की बल्लू के प्रति उम्मीद उतनी ही असीम थी जितना उसका आतंक।जल्दी हे वह ठीक होगा-वह उसे ठीक कर लेगी।
“तुम बहक रही हो,मुझे तुम्हारे विश्वास पर संदेह है।पागल ठीक नहीं हुआ करते!” उसने कहा था।
“तुम ग़लत हो।तुम कुछ नहीं जानते।बल्लू पागल नहीं है।” वह उससे दूर जाकर खड़ी थी।बेहद नाराज।
“मेरा मतलब यह नहीं था...” उसने उसके पास जाकर कुछ रुवांसे स्वर में कहा।
“तुम ख़ुद पागल हो...”।उसने उसे चिढाने की गरज से कहा या बल्लू के बचाव में।
उसने प्रतिउत्तर में कुछ नहीं कहा।उसे यह अजीब-सा अन्धविश्वास था कि उसे नाराज नहीं करना चाहिए वरना वह स्कूल क्या कक्षा में नहीं पहुँच पायेगा।फिर उसकी पढाई का क्या होगा?बल्लू के विषय में घर में बताया तो उसका स्कूल छूट जायेगा जिसे वह सहन नहीं कर सकता।
“चलोगी नहीं मिनी?” उसने पूछा।खुद अकेले लौटना उसे दूभर लग रहा था।
“क्यों नहीं? अगर कुछ नहीं तो तुम यहाँ क्यों रुके हो? मुझे बताओ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” उसने बिना मतलब झुंझलाते हुए कहा।उसने उसकी आवाज़ सुनते हुए भी अनसुना कर दिया।वह प्रतीक्षारत था।
कल इतवार है...मिनी ने सोचा।उसे उस पर गर्व होता था और तरस भी आता था।वह पढ़ने में जहीन है परन्तु है डरपोक।
“रम्मू, तुम्हे मालूम है...?उसने कोई भेद कहना चाहा परन्तु फिर चुप लगा गयी।
“क्या?” उसने उत्सुकता से पूछा।
“मम्मी ने तुम्हे किसी इतवार को बुलाया है,घर !”
“क्यों?” उसे यक़ीन नहीं आया।
लेकिन वह आगे नहीं बोली।इस क्यों के उत्तर में उसकी तौहीन छिपी थी।उसे यह अजीब-सा लगता था कि कोई उससे किसी बात में आगे है।
“झूंठ !” उसने उसके चेहरें की तरफ़ देखा।जहाँ कुछ नहीं लिखा था।
“अच्छा-ऊपर चलो !” उसने उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए ले चली।वह पीछे पीछे घिसटता हुआ प्रतिरोधबिहीन सीढ़ियाँ चढ़ रहा था।हालाँकि कश्मसा रहा था कि वह उसका हाथ छोड़ दे।
उसकी मम्मी एक बहुत पतली दुबली औरत थी,जो हर समय दुखी रहा करती थीं।परन्तु मिनी को उसे खींचते हुए लाना उन्हें हंसी से भर गया...
यो हंसती हुई मम्मी ने उसमे दिलचस्पी जगा दी थी।छत पर पहुँच कर मिनी ने उसका हाथ छोड़ दिया था। फिर भी यह बात उनकी नजरों से वंचित नहीं रह पाई थी।वह वही बरामदे में बैठी दिखायी दीं जीने की तरफ़ तकती हुई.जैसे उसी के आने की प्रतीक्षा कर रही हों।
“हाँ, मैंने ही किसी इतवार को तुम्हे आने को मिनी से बोला था।” उनके चेहरे पर एक हलकी-सी मुस्कान थी और वह समर्पित हो गया।
मम्मी उसे ड्राइंगरूम रूम में बिठाकर चली जाती है।कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद वे उसके लिए मिठाई लेकर आती हैं।
वह दोनों प्रतीक्षा करते है।
“खाओ-ताकते क्या हो और मिनी तुम भी ? ये सब ख़तम करना है।” उनके आदेश में प्रेम झलक रहा था।
रामेन्द्र डरते हुए खाता है जबकि वह जल्दी ही चट कर जाती है।
“तुम काफ़ी पढ़ाकू और जहीन बच्चे हो और ज़िम्मेदार भी।” वह कुछ देर रूकती हैं और उसकी और देखती हैं।उसे अच्छा लगता है...”ऐसा करो कल फुर्सत से आ जाना और मिनी को गणित ठीक से समझा देना।इस बार अर्धवार्षिक परीक्षा में मिनी गणित में फेल है...हाँलाकि यह भी जहीन और समझदार है परन्तु बल्लू के कारण यह...” यह बात उन्होंने व्यंग्य या कटाक्ष में नहीं कही थी।क्योकि यह कहते हुए उनकी आँखों के कोर गीले हो गएँ थें।किन्तु मिनी अपराध बोध से घिर गयी थी।लेकिन जब मम्मी ने यह बात कही तो वे दोनों गुमसुम हो गए थे मानों यह बेहद शर्म की बात हो...”क्यों रामेन्द्र आओगे न?” उन्होंने आश्वस्त हो जाना चाहा।
“ठीक है,मै आ जाऊँगा।” उसने बेसब्री से कहा।
“ हाँ,यह बिल्कुल ठीक रहेगा।मिनी ने उल्लासित होकर कहा।
वह हरदम संकोच से घिरा रहता था।घर,पढ़ाई या खेल हो कहीं भी इससे उबर नहीं पाता था।हाँलाकि कोशिश करता परन्तु असफल रहता।विशेषरूप से मिनी के घर और स्कूल।अब जब उसकी आमद मिनी के घर तक हो गयी थी-तब डर और उसके साथ हो लिया था।बल्लू का चेहरा उसका दिल दहलाने के लिए प्रर्याप्त था।उसने और मिनी ने कई बार कोशिश की कि बल्लू का डर उसके जेहन से निकल जाएँ परन्तु यह न हो सका।उसके दिखते ही वह सहम और सिकुड़ जाता।
इतवार को वह स्कूल के सामने नहरिया वाले पार्क में अपने मोहल्ले के साथियों के साथ क्रिकेट खेलने आया करता था।वहाँ से वह आसानी से मिनी के घर जा सकता है उसने सोचा।
परन्तु यह इतना आसान नहीं था।अपने साथियों को मनाना बड़ा दुरूह कार्य था।उसे कोई बहाना बताना था और खेल ख़त्म होने से पहले ही लौट आना था।
दिन के दस बज रहे थे और इसी समय मिनी के घर जाने का वादा किया था।अजीब असमंजस की स्थिति थी।उसने एक बार अपने कैप्टेन के ओर देखा वह फील्ड सजाने में व्यस्त था।कुल पांच लोग थे और उसमे से अगर एक और कम हो गया तो खेल की नाश हो जाएगी।फिर भी उसने...
“मेरी एक किताब ...नहीं...नहीं...कॉपी छूट गयी थी,सामने स्कूल है।मै अभी लेकर आता हूँ।” उसने जल्दी जल्दी और हड़बडी में कहा।दोस्त हैरान-सा हो जाता है।
“उस पगलैट वाले स्कूल में? तुम वहाँ पढ़ते हो?’ वह बड़प्पन के साथ हंसता है...उसने अंगुली के इशारे करके कहा...उसके साथ वह भी स्कूल की तरह देखता है...
”क्या वह हर समय खुला रहता है...?”
“मुझे नहीं मालूम... परन्तु मेरा काम बन जायेगा।”
“लेकिन तुम...?”
“अभी आया...”
इतना कहकर वह पार्क गेट की तरफ़ न जाकर जो कि वहाँ से दूर था, उसने उसी जगह से बाउंड्रीवाल के जंगले के रेलिंग को लांघता हुआ बाहर निकल गया।बीच में सड़क थी,उसे पार करते ही वह अपने स्कूल के नीचे खड़ा होकर ऊपर देखने लगा कि बल्लू कहाँ होगा?
जीने के बगल एक गैलरी थी। उसके पीछे गोदाम था।गोदाम खुला हुआ था।मजदूर लोग मसाले के बोरे निकल कर, बाहर एक भैसा ठेले में रख रहे थे।उसका डर कुछ कम हुआ।परन्तु बल्लू के विषय में सोचते हुए वह एक बीमार क़िस्म की उत्तेजना में सिमिट गया...एक बार उसने सोचा की मिनी को आवाज़ देकर बुला लिया जाये लेकिन फिर भी उसने हिम्मत की। वह पाँव फूंक फूंककर आगे बढ रहा था। जैसे मालूम हो की जीने में बल्लू होगा भी तो कुछ अप्रिय घटित नहीं होगा।
उसे यह विश्वास करना कठिन था कि बिना बल्लू से मुठभेड़ किये वह जीने के अंतिम छोर पर पहुँच गया था।जहाँ से छत लगी दिख रही थी।
सामने वे सभी थे।मिनी और उसके मम्मी- पापा।वे सब उसे घूरे जा रहे थे।जैसे उन्हें मालूम हो की वह बल्लू से डरता है।लेकिन मिनी को विश्वास नहीं आ रहा था कि वह अपने आप आ गया है।उसे अब भी संदेह ने जकड़ रखा था।परन्तु बल्लू वहाँ नहीं था इसलिए अब संदेह की गुन्जायिस नहीं थी।
जाड़े की घूप थी।वे सब कमरों के बाहर ही कुर्सी और खाट पर बैठे थे।उन सभी ने अभी नास्ता नहीं किया था। उसके पापा नास्ता करके सेठ की दूकान के लिए निकल रहे थे,जहाँ वे मुनीम थे।उसी सेठ का नीचे गोदाम था।
उसकी मम्मी ने उन दोनों के लिए नास्ता परोस दिया।उसने अनमने ढंग से कहा कि “मुझे जल्दी है।”
“ठीक है यह कर लो,फिर पढ़ते है।” मिनी ने कहा। वह मना न कर सका।
कुछ ही पल बीते थे कि मिनी ने कहा, “रम्मू ! तुम्हे कोई देख रहा है।” मिनी की ऑंखें उठी और छत के दूसरे छोर बाउंड्री वाल पर टिक गयी। उसके साथ ही साथ उसकी आँखे भी मिनी की आँखों का पीछा करते सहसा ठहर गयी।
वहाँ पर बल्लू खड़ा था।
उसे देखकर विश्वास नहीं आ रहा था कि वह वही बल्लू है,जो पागल है।उसने सफेद कमीज, पैजामा पहन रखा था।और यह सच था कि वास्तव में उसे ही घूर रहा था।वह उसे सम्भव असम्भव के परे अनिवार्य रूप से एक सभ्य मानव लग रहा था।फिर भी उसे देखकर उसके भीतर घबराहट होने लगी।
इस बीच मम्मी जी उसके लिए भी खाना लेकर चली आई जिसे मिनी को उसे देना था।मिनी उसका खाना लकर उसके पास गयी और उसे बैठ जाने को कहा।उसके बैठते ही मिनी ने खाने के लिए कुछ ज़ोर से कहा।वह जल्दी-जल्दी खाने लगा।और कुछ ही मिनिटों में समाप्त कर गया।किन्तु उसने पानी नहीं पिया और गिलास को ज़ोर से फेक दिया।
वह चुपचाप दम रोके बैठा रहा जैसे वह कोई डरावनी फ़िल्म देख रहा हो।मिनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की और उसे नास्ता प्रारंभ करने के लिए कहा और ख़ुद भी शुरू कर दिया।उसकी मम्मी कितनी ब्याकुल,कितनी भयभीत और बेकस थी, परन्तु फिर भी कितनी जाग्रत और तनी थीं।
कुछ ही क्षण बीते थे कि बल्लू की हरकतें चालू हो गयी थी। वह छत के पक्की मुड़ेंर पर पेट पर लटकता और नीचे झांकता और फिर ऊपर आता।मानों वह जिम्नास्टिक की एक्सरसाइज कर रहा हो।वह इतनी तेजी से यह क्रिया दोहरता कि उससे चींख निकलते रह जाती।उसे लगता की अभी वह गिर कर मर जायेगा।परन्तु वह निश्चित थे कि कुछ नहीं होगा।कुछ देर बाद वह वह लोहे की पोल पर झुलने लगा जो छत के बाउंड्रीवाल में अंदर तक धंसी थी।और जिस पर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को झंडा फहराया जाता था।
“हे,भगवान !... वह मन ही मन बुदबुदाता है कि कहीं यह गिर न पड़े।इसे बचा लो...” वह डर और दहशत में आ गया।परन्तु वे इसे उसकी स्वभाविक क्रिया मान कर उपेक्षित कर रहे थे।उसने सोचा कि मिनी से कहे परन्तु वह सशंकित था कि वह उसकी बात का मज़ाक उड़ायेंगी।
यह उसके विश्वास के परे था।उसने सवाल हल करने के विषय में ज़िक्र किया।मिनी उसे लेकर ड्राइंग रूम आ गयी।वे दोनों अपनी पढाई में व्यस्त हो गए और मम्मी किचेन में।
बल्लू एक लम्बे समय तक उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से कराहता हुआ वही ज़मीन में बैठ गया।अब उसने तेजी से कमीज और पैजामा फाड़ना शुरू कर दिया।थोड़ी देर बाद उसने उन्ही फटे कमीज-पैजामे से छत में पोछा लगाने लगा।छत में सिर्फ़ तिनके थे,चिड़िया की बीट के सूखे कतरे और धूल-मिटटी थी।सभी कुछ मिलकर सफेद को मटमैला और काला बनाने लगे।
“देखो यह ठीक नहीं,तुम यहाँ किसलिए आये थे?” मिनी ने उसे टोका जब वह बल्लू की गतिविधियों को देखने में निमग्न था।
“मुझे याद है,किन्तु तुम्हे समझ में आया?” रम्मू ने एक बार फिर उसकी तरफ़ देखकर कहा।
“हाँ,क्यों नहीं !” आंसुओं के बीच एक उजली मुस्कराहट बाहर निकल आई.मिनी लम्बे सोफे पर गुडी-मुड़ी होकर एक कोने में सिमिट गयी।उसको उसके कहे पर विश्वास था।
एक चींख की आवाज़ उभरी।दोनों ने छत की तरफ़ देखा-वहाँ बल्लू नहीं था।उसकी आवाज़ कही दूर कुवें से आती लगी।मिनी को सहसा ध्यान आया वह ज़रूर जीने में खिड़की के पास होगा।वह उसे देखने नीचे जा रही थी।वह भी साथ हो लिया।
बल्लू वही अपने चिर परिचित जीने वाले स्थान पर था, एकदम नंग-धड़ंग। इस समय उसके शरीर पर कुछ नहीं था और वह खिड़की पकड़ कर बुरी तरह हिल,चींख-चिल्ला रहा था।मिनी अपना माथा पकड़ कर वही बैठ जाती है।वह अजीब निराशा में थीं।उसे लगा कि मिनी धीरे धीरे कराहने लगी है परन्तु वह अपनी अनभिज्ञ आँखों से उसका कराहना देख सुन नहीं पा रहा था।
उसे दोस्तों से बिछड़े काफ़ी वक़्त हो गया था।उसे डर था कि कहीं वे वापस घरों को लौट न गए हो? वह विचलित-सा हो गया।वह घर में क्या जवाब देगा कि वह उनके साथ नहीं था तो कहाँ था? वह जैसे जाग गया हो-वह सरपट जीना उतारकर भाग लेता है।कही मिनी उसे रुकने को न कह दे।
वह बहुत जल्दी पहुँच गया।उसके साथी अभी तक क्रिकेट में व्यस्त थे।वह उन्ही के बीच मिल गया।
आज स्कूल में कोई चहल पहल नहीं थी।बच्चे दिखायी नहीं पड़ रहे थे।कुछ बच्चे वापस अपने घर को भी जा रहे थे।उनमे कुछ उसके अपनी कक्षा के भी थे।उसने पूछने की कोशिश की परन्तु किसी ने कुछ नहीं बताया...वापस चलो...क्या हुआ?...इसके जवाब में पागल है...मिनी...? सब भयभीत, चिंतित और ग़मगीन थे।
वह जीना चढ़कर क्लास में जाने लगा।खिड़की वाले चौकोर चबूतरे पर वह पागल भी नहीं दिखा।वह हैरत में पड़ गया जब उसने अपनी पूरी क्लास खाली दिखी।सिर्फ हेड मास्टर साहब अपने हाजिरी रजिस्टर में झुके हुए चिंतित और परेशान दिखे थे।
उसने बिलकुल धीरे से पूछा।वह चिहुँककर उठ खड़े हुए जैसे अचानक कोई जानवर आ गया हो या बल्लू पागल ने घेर लिया हो? उनके हाथ से रजिस्टर गिरते गिरते बचा। उन्होंने गुस्से में कहा, “आज छुट्टी है,घर वापस जाओ !”
“क्यों ?” उसे विश्वास नहीं हुआ।उसे अच्छी तरह पता था कि आज कोई त्यौहार नहीं है और न ही किसी महापुरुष की जयंती।
उन्होंने उसकी और गुस्से में देखा-भौवें तरेरी लेकिन आँखों में क्रोध नहीं था। “जाओ, जाते हो कि नहीं ? जब कह दिया की छुट्टी है तो छुट्टी है। बहस करता है?” यह कहते हुए उन्होंने छड़ी उठा ली।वह भागकर नीचे आया।
नीचे जीने के पास ही चंपा मिल गयी।वह हेडमास्टर साहब के लिए चाय ला रही थी।उसने चंपा से पूछा।
“आज पागल ने मानसी पर हमला कर दिया,वह घायल हो गयी थी।अभी अभी अस्पताल से होकर आई है।सभी टीचर ने मिलकर उस पागल को काबू किया और रस्सी से बाँध दिया। उसे अभी छत में बैठा रखा है।अभी काबू में है मगर किसी भी समय बेकाबू हो सकता है। मकान मालिक ने पागलखाने से सिपाही बुलवाए है।वे उसे पागलखाने ले जायेंगे।अच्छा है मरा चला जाये तो सबही का चैन मिले।वोह्की वजह से जान सांसत में राहत रहे।वे उसे आज ले जायेंगे तो कल से स्कूल खुलेगा।हेड मास्टर ने आज की छुट्टी कर दी है।अभी तुम जाओ,कल से आना।” यह कहकर वह ऊपर चढ़ ली।
वह तनिक कौतुहल से ऊपर की और देखता है।उसे हैरानी थी ऐसे कैसे हो सकता है? वह मिनी को देखना चाहता था।परन्तु हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
वह मायूस था।तभी उसकी निगाह एक एम्बुलेंस पर पड़ी जो अभी आकर वहीं रुकी।उसमे से एक सफेद कोट पहने डॉक्टर था और उसके साथ चार सिपाही थे।उनकी वर्दी हरी थी।वे धड़-धड़ करते ऊपर चढ़ गए.उन्ही के पीछे वह भी चढ़ गया बिना कुछ भी सोचे विचारे।
“बल्लू को वहाँ मत भेजिए,वह वहाँ मर जायेगा...वहाँ यह ठीक नहीं होगा...वहाँ से कोई ठीक नहीं होता...” वह चिल्लाती है।चीखती है।परन्तु उसकी कोई नहीं सुनता।उसके पापा, डॉक्टर के साथ थे।चारों सिपाही उसे लिए जा रहे थे।बल्लू बेबस असहाय और दुखी होकर सिर्फ़ मिनी को देखे जा रहा था।वह कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था।
मिनी एक बार फिर पापा के पास आती है उनका हाथ पकड़कर झूल जाती है। “पापा,अब भी समय है-अगर बल्लू का भला चाहते हो तो इसे पागलखाने मत भेजिए.याद रखिये वहाँ भेजने का मतलब है इसे जान-बुझकर मौत के मुँह में डालना...यह पाप है...यह ठीक नहीं होगा।” मानसी कहती रही और आंसुओं से रोती रही।उसकी मम्मी भी ज़ोर जोर से रोने लगी थीं।मगर उन्होंने उसके ले जाने का विरोध नहीं किया।उन्हें आस थी कि शायद बल्लू वहाँ ठीक हो जाये।
वे उसे ले गए थे।उनके साथ पापा भी गए उसे भर्ती कराने।उसके मम्मी भीतर कमरे में सुबकती हुई चली गयीं।
मिनी गहरे सोच और अजीब निराशा में कुर्सी में सिर झुकायें खोयी थी। वह चुप गतिहीन पत्थर के माफ़िक बैठी थी।उसके सिर में सफेद पट्टी बंधी थी उस सफेदी में एक जगह लाल धब्बा ऊपर झांक रहा था।उसका चेहरा पीला और निस्तेज था।
लेकिन वह खड़ा का खड़ा रह गया।उसे अजीब निराशा हुई. उसने सोचा की उसे लौट जाना चाहिए.
बहुत देर बाद उसने रामेन्द्र की तरफ़ देखा।एक महीन-सी मुस्कराहट उसके होंठों पर फैल गयी। उसने अंगुली के इशारे से उसे अपने पास बैठाया।वह खिसियाना-सा होकर उसे ताकने लगा।वह कहने लगी, “तुम बहुत स्वार्थी लड़के हो...तुम हमेशा से स्वार्थी रहे हो...तुम्हे बल्लू को ले जाने में रोकना चाहिए था...तुम्हे मेरा साथ देना चाहिए था...परन्तु तुम्हे मेरी परवाह नहीं है।”
वह चुप रहा।वह मिनी का दुःख समझ सकता था।उसने मिनी और देखा। वह गहरे सोच में थी।जैसे उसके के पास कोई हल है,जैसे वह पागलपन का कोई इलाज ढूढ लेगी।वह बाहर देखने लगा,मिनी की गर्म सांसे उसके गालों को सहलाने लगी।
वह उसे आश्चर्य में डालना चाहता था।उसे उसकी बाते बुरी लगीं है।परन्तु ऐसा न हो सका।
वह खिसियाया-सा बाहर निकल आया।
कुछेक महीने ही बीते थे के उनकी वार्षिक परीक्षा निकट आ गयी।पांचवे की वार्षिक परीक्षा दूसरे स्कूल में देने जानी होती थी।हेड मास्टर ने पढाई में सख्ती ज़्यादा कर दी।उसका मारना पीटना बढ़ गया था...सब कुछ रट लेना था।कड़े अनुशासन से सभी आतंकित हो उठे थे।कुछ ने तो सवाल भी रट लिए थे।
एक दिन छुट्टी के बाद उसने उसे रोका, “अपने हाथ खोलो।” उसने पट से अपने हाथ खोल दिए, उसने उसकी हथेलियों को भीचते हुए कहा, “तुम किसी से बताना मत।” वह धीमे से फुसफुसाई.
“क्या बात है?” उसकी जिज्ञाशा चरम पर थी।
“हम कल बल्लू को लेने जा रहे है।पापा राजी हो गए हैं।” उसकी गीली आँखों से कुछ बूंदें झलक उठी।
एक ठंडा-सा आतंक उसे छूते हुए गुजर गया।वह कुछ पल अपलक उसे देखता रहा...फिर कुछ सोचकर निराश ग़मगीन-सा भाव उसके के चेहरे पर आ गया। अब उसकी हथेलियों ने उसके हाथों को आज़ाद कर दिया।उसने वादा लिया कि परीक्षा में रामेन्द्र उसके साथ ही बैठेगा।वह धीरे से हंसी और वह अनमना-सा उससे छुटकारा पाकर घर आ गया।
उसे याद आया कल इतवार है।
बल्लू वहाँ से वापस लौटा तो काफ़ी बदल गया था।उसका हाथी का शरीर बकरी जैसा हो गया था।वह सुन्न पथराया जैसा रहता था।अब वह छत में ही रहता था।नीचे जीने में चिर परिचित जगह में नहीं मिलता।अब वह चीखता चिल्लाता कम था। परन्तु छत की मुंडेर पर उसका झुकना और लोहे की राड चारों तरफ़ गोल गोल घूमना बदस्तूर जारी था।वह अधिक समय चुप रहता। कपडे भी कम फाड़ता।किन्तु वह मानता,सुनता और करता सिर्फ़ मिनी के कहने पर।
मिनी ने जब उसे दिखाया तो उसने कहा था कि अब वह जल्दी ठीक हो जायेगा।परन्तु वह ऐसा नहीं सोचती थी।उसने कहा, “इस बेचारे को बिजली के झटके ज़्यादा दिए है और खाना बिलकुल नहीं। शायद ही यह अब जिन्दा बचे।”
“कुछ नहीं !” उसने एक बोझिल लम्बी साँस ली। अब जल्दी ठीक हो जायेगा।” उसने फिर दोहराया।
“हाँ...काश, ऐसा ही हो !” एक लपलपाती हुई खटखटाती-सी चाह उसकी आँखों में उभरी और शीघ्र ही खो गयी।
वार्षिक परीक्षा परिणाम आने के बाद वे मिले थे।वह सिर्फ़ पास हो पाई थी जबकि वह फर्स्ट डिवीजन फर्स्ट।वह उससे नीचे आकर मिली थी।
“सो रहीं थीं?”
“नहीं...” वह सीधे ऊपर देख रही थी,छत की बाउंड्री वाल पर उसकी नजरे टिकी थीं।बल्लू मगर वहाँ नहीं था।
“तू...! रात में भी नहीं सोती है क्या?...छज्जे पर क्या देख रही है?”
उसकी आँखें झुक आई थीं।उसकी ज़ुबान से एक अस्पष्ट स्वर निकला था, जिसे वह पकड़ नहीं पाया।उसने दोहराने को नहीं बोला।
“तुझ पर तरस आता है,मिनी ?”
“तरस कैसा ?...मुझ पर...?...कोई ज़रूरत नहीं है।” उसने कुछ रोष में कहा।फिर वह धीरे से हंसी.उसके स्वर में कुछ ऐसा था कि उसे उपहास-सा करता जान पड़ा।उसके चेहरे पर एक रुखी उदासीनता थी जो वेदना उपजाती थी।
वे चुप थे।वे सामने देखते रहे,जहाँ नहर पच्छिम से पूर्व की और बह रही थी।वह इस दिन की बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था और विश्वास नहीं था कि सब कुछ इतना फीका फीका होगा।
कौन से स्कूल में एडमिशन लोगी...लड़कियों वाले में...?
मैंने अभी फ़ैसला नहीं किया है...बल्लू को देखना है...तुम अपनी कहो ?
मेरी बात और है।” उसने अपने को बचाते हुए कहा। मैं क्या कह सकता हूँ?
क्या मतलब?...मै समझी नहीं?
पिता जी जहाँ चाहेंगे वही होगा। अब चलते है।- उसने कुछ ऊब के कहा।
जरा ठहरो...! मैं मिठाई लाती हूँ।हमारे पास होने की खुसी में।
नहीं...कहते हुए वह एक पल झिझका।
क्यों नहीं? उसने ज़ोर दिया।
नहीं...उसने दुबारा कहा...तुम अच्छे नंबरों से पास नहीं हुई हो... मिठाई.।नहीं।
वह नीरव आँखों से उसे देखती रही।वह जा रहा था।उसने पीछे मुड़कर देखा वह मुस्करा रही थी।वह समझा की उसे ग़लतफहमी हुई है।
कुछ महीने ऐसे ही बीत गए.जाने कितने इम्तिहान आये और चले गए.साल पर साल बीत गए.अपनी पढाई और फिर नौकरी की भूल-भुलैया में भटकते हुए वे इतना थक गए थे के एक दूसरे को विस्मृत करते चले गये।कभी कभी वे दिखते मगर एक दूसरे से अनजान बने रहते।उनके घरों की दुरी बमुश्किल एक फर्लांग से भी कम थी परन्तु उनमे ऐठ उग आई थी।वह भी उसका घर जानती थी। हाँलाकि कभी गयी नहीं थी किन्तु कभी मिलते भी तो हाय-हेल्लो से आगे न बढ़ पाते थे...आज ऐसे मिले है जैसे कभी बिछड़े ही न हो।
वह अधलेटा,अधसोया कुर्सी में टिका था।वह आ गयी उसे पता न चला।
“सॉरी,...देर हो गयी।अब मैं टोटली फ्री हूँ।अब ठीक से बतियातें है।”
उसने अपनी कलाई पर लगी घडी देखी और फिर उसकी और कुछ उलझन भरी निगाह से देखा।उसका साफ़ –सुथरा चेहरा एकदम निष्कलंक था।वह उसका आशय समझ गयी।
“नहीं नहीं,अब मुझे यहाँ कोई काम नहीं है...चलिए कही बाहर चल कर बैठते है।” उसने बेतकल्लुफ होकर कहा।
वह उसे पास के एक रेस्टोरेंट में ले आई,जहाँ बहुत कम ग्राहक थे और बेहद शांति बिखरी पड़ी थी।
“क्या तुम कुछ कह रही थीं ?”
“जी मैं ?” उसने कुछ आश्चर्य में उसे देखा।एक कोमल-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर थी।
“शायद तुम कुछ कहना चाह रहे थे।” उसने कुछ झेपते हुए कहा।
“हाँ...एक बात...
“तुम इतनी सुन्दर कब हो गयी?” वह अपने को रोक नहीं सका,यह प्रश्न उसे इतनी देर से उत्प्रेरित कर रहा था।फिर उसे लगा की यह प्रश्न न केवल निरर्थक है बल्कि मूर्खतापूर्ण भी है।
“सफलता व्यक्ति को सुन्दर बना देती है।” कहकर वह मुस्करायी। उसका उत्तर उसे और भी प्रश्नों से भर गया।
वे दोनों चुपचाप काफ़ी पीने लगे।
मिनी का हाथ टेबल के नीचे था, शायद थोडा-सा कांपा फिर आपस में दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ा और स्थिर हो गया।
“तुम्हे देर तो नहीं हो रही है?” उसने कुछ असमंजस में उससे कहा।
वह उससे कुछ कहना चाहती थी।वह क्या कहेगी इसकी उसे परवाह नहीं थी।मिनी उसके साथ है यह बड़ी बात है।अस्पताल के गलियारे में ही उसकी भेंट कुछ इतनी अप्रत्याशित थी कि वह अब तक अपने को सम्हाल नहीं सका था।
“तुमने अब तक विवाह क्यों नहीं किया?” यकायक उसने यह प्रश्न उछाल दिया।
“मैंने अभी तक फ़ैसला नहीं किया है।” वह हंसा।
“तुमने भी तो?”
“मेरी बात और है।”
“क्यों...?” उसने अबूझी आँखों से उसे देखा।
“कोई ऐसा अभी तक नहीं मिला जो मुझे समझता हो !”
“मुझसे करोंगी...?”
वह कुछ नहीं बोली।सिर्फ मुस्कराती रही।शायद वह यही चाहती हो,किन्तु उससे कह नहीं सकती थी।कितना अजीब है कि जब तुम एक ऐसे व्यक्ति से मिलते हो जिस पर आपकी रुकी हुई चाहना छुपी हो तो अचानक सारे अवरोध बेमयाने हो जाते हैं।
मुझे खुसी हुई कि मैं अभी तक अकेला हूँ।मुझे इस बात कि और खुसी हुई की वह भी अकेली है। शायद यही वह क्षण था जब उसे चले जाना चाहिए था।क्योकि उसके परे उनके प्रेम का भविष्य नहीं,उसे पाने का प्रलोभन छिपा था।
आज रविवार है।कल रात वह देर तक जगता रहा।वह सोचता रहा कि क्या उसका फ़ोन रविवार को आयेंगा।पूरा एक हफ्ते गुजर गएँ है-मै यहाँ बैठा हूँ,अपने कमरे में।परन्तु दिमाग़ हॉस्पिटल के कारीडोर से लेकर उसके चेम्बर में अटका पड़ा है।भीतर से आवाज़ आती है।वह मस्तिष्क के एक कोने में बैठी रहती है और हटने का नाम नहीं लेती है।उसकी उत्सुक आँखे उसे टोह रही है...देखो यह ठीक नहीं है,तुम भूल गए थे मैं नहीं।
उसने उसे काल करने का मन किया।
वह राउंड पर थी।तभी मोबाइल की घंटी बजी.उसने उपेक्षित किया।कुछ अन्तराल पर रिंग आती रही।वह स्विच ऑफ करती रही क्योकि कोई नाम नहीं था।वह डिस्टर्ब हो रही थी...राउंड पूरा हो गया था। फिर रिंग आई.वह अपनी सीट पर बैठकर इत्मिनान से, “हेलो” कहा।
“यह मैं हूँ।” उसने कहा।
इस तरफ़ सन्नाटा रहा क्योकि वह आवाज़ पहचानने के कोशिश कर रही थी।
“हेलो।” एक सहमी संकोच भरी धीमी आवाज।
“ हेलो...हेलो...,कौन? आप कौन ?”
कुछ पल शांति से गुजरे।मानो अनिर्णय की स्थिति हो।
“मिनी, मैं रामेन्द्र...रम्मू।” उसके आवाज़ में खिसियाहट थी।
वह धीरे से हंसी, “ओह ! मेरी ज़िन्दगी में बचपन के दोस्त की पहली कॉल।”
उसने उसका व्यंग्य समझकर अनसुना किया...
”कहिये?”
“क्या मैं तुम्हारे घर आ सकता हूँ?” उसने बहुत ही नम्र स्वर में पूछा।
“क्यों ? कोई ख़ास बात ?” वह तनिक उत्सुक स्वर में पूछती है।
“नहीं,सिर्फ मिलना चाहता हूँ।”
“ओह ! तुम चाहने भी लगे...सुनो,आज मैं घर पर नहीं मिलूंगी...मै दिनभर अस्पताल में रहूँगी...इमरजेंसी ड्यूटी है...क्या तुम यहाँ आना चाहोगे?”
“नहीं...वहाँ आने से क्या फायदा?” एक छोटी-सी हताश आवाज।
“ओह, नफा- नुक्सान, बड़ा हिसाब किताब रखते हो ?” अच्छा,कल मेरा ऑफ है...तुम कल आ सकते हो।मुझे अच्छा लगेगा।
“नहीं कल मेरी मीटिंग है ऑफिस जाना ज़रूरी है।” वह सोचता है कि मिनी उसे सता रही है।वह कुछ जड़-सा बैठा रहता है।फिर मोबाइल की तरफ़ देखता है जैसे कि वह उसी में हो।कुछ ही पल बीते थे कि उसकी आवाज़ निकली।
“ऐसा करो...तुम आज ही शाम को घर आ जाना, मैं यहाँ से दोपहर को फ्री हो जाऊँगी।उसके बाद तुम किसी समय आ सकते हो।”
एक क्षण के लिए वह सोचता है फिर उसके मन में आया कि उससे कहे कि कहीं बाहर चलेंगे मगर यह उसका निर्णय था जिसे टाला नहीं जा सकता था।
पता नहीं वह क्या सोचता होगा? वह पूंछती नहीं है।वह सोचती है वह उसके साथ है।पीछे मुड़कर देखती है तो वह कही दिखायी नहीं देता है।जब वह मिला था तो पूंछने का साहस भी न पायी कि अब तक वह कहाँ था?...शुरू में वह ऐसा नहीं था।वह हमेशा साथ रहना चाहता था।अब जब वह अकेला दिखता है, तो लगता है कि वह अधूरा है।मिनी को कभी कभी तीब्र-सी आकांक्षा होती थी कि एक बार वह मिल जाए तो उसके अकेलेपन में झांककर देखू कि उसके लिए कोई जगह है ?
उसने पता कर लिया था कि वह अस्पताल परिसर के डॉक्टर क्वाटर्स में रह रही है।उसने क्वाटर नंबर गेट मैन से पूछ कर ठीक शाम होने से पूर्व ही आ गया।
अस्पताल से क्वाटर आकर मिनी ठीक से रेस्ट भी नहीं कर पाई थीं कि अचानक वह खिड़की से दिखा। अभी,ठीक से शाम भी नहीं हो पाई थी।वह अपनी कार पार्क करके उसका ठिकाना तलाश कर रहा था। उसने उसके स्वागत की कोई तैयारी नहीं की थी।वैसे भी उसके लिए इस सब की ज़रूरत नहीं है।वह उसके आने का सिर्फ़ इंतज़ार किया।यह अच्छा हुआ कि वह आ गया।
दरवाजा खोलते ही वह सम्पूर्ण दिखने लगा। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। वर्षो बाद ऐसा मौका था कि वह निपट अकेले एकदम एकांत में उसके पास है।
वह निश्छल खड़ा रहा...जैसे अपने आप को यक़ीन दिला रहा हो कि वह किसी मूर्ति को नहीं मिनी, मानसी के रूबरू है,पूर्ण वयस्क सुन्दरी है।जो अब हर तरह से उसके समकक्ष है-बल्कि कुछ उससे ज़्यादा ही।
उसकी आँखे उस पर थी और उनमे एक दिलाशा थी।वह मुस्कराने लगी।
“क्या कुछ काम था?” उसने पूछा। वह बहुत ही कोमल हो आई थी।
“हाँ...डेटिंग पर चलना था।” उसने कुछ हंसी,कुछ उत्सुकता से उसे देखा।
“अच्छा..., हमारे बीच क्या इसकी ज़रूरत है?” क्षण भर के लिए वह शब्द उसकी आत्मा में बिंध-सा गया।
“तब क्या...? उसके भीतर अजीब-सी हताशा छाने लगी।इन दिनों वे अक्सर मिल सकते थे।
मिनी उसे ध्यान से पढ़ने लगी।असफल रही।यह तय करना मुश्किल था कि वह उसे प्यार करता है या सिर्फ़ सुयोग्य वधु की तलाश उसे यहाँ तक खींच लायी है।
इस बीच वह चाय-नमकीन और मिठाई ले आई थी।
उसे अपने भीतर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होने लगी।उसे उसके अस्तित्व का बिलकुल आभाष नहीं जबकि वह उसके इतने पास बैठा है-यह उसे अत्यंत अस्वाभाविक जान पड़ा।
“चलिए, चाय पी लीजिये।” उसने मुस्कराते हुए कहा।वह काफ़ी सहज थी।उसका स्वर बिलकुल शांत था। न कोई खिचाव न कोई तनाव।
लेकिन पहली बार उसे लगा की किसी का दिया हुआ अकेलापन भी कितना भरा पूरा हो सकता है।क्या यह प्रेम था या सिर्फ़ उसे पाने की चाहना-जो उसकी नीरस ज़िन्दगी में बहार बन कर उग आई थी।
“क्या यही...मै फिर अपना विवाह का प्रस्ताव ...?”
“क्या तुम मुझे सचमुच चाहते हो? क्या मैं तुम पर भरोसा कर सकती हूँ?” मिनी की ऑंखें उस पर टिकी थीं।
वह इतना मारक और सम्पूर्ण प्रश्न था कि वह पूरी तरह असहज हो गया।मानो उससे सम्पूर्ण समर्पित होने का प्रमाण माँगा जा रहा हो।
वह तिलमिलाता है।किसी ने उसके सच का प्रमाण माँगा है।
यह कहते हुए वह एकदम निर्दोष दिख रही थी।उसे लगा शायद ही उसने जीवन में इतना अधिक जीवंत और संतृप्त और सुंदर चेहरा देखा हो? मंत्रमुग्ध- मूर्छित-सा वह अपने को रोक नहीं सका।
वह उसके पास चला आया और उसके पास बैठकर उसके हाँथो को अपने हाथ में लेकर वैसे ही वादा किया जैसा कभी उसने दिया था।वह हथेली अब उसके हाथ में थी-गरम और नरम,जैसे हल्का-सा बुखार हो।वह धीरे धीरे उसके सिर को सहलाने लगी।फिर उसने बहुत ही मृदु स्वर में कहा, “इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी तुम वैसे ही हो।” उसे भरोसा आता है।
उस समय एक असीम निर्भेद मौन सिमट आया था।
रामेन्द्र को लगा मानसी एक दोस्त से प्रेमिका में परवर्तित हो चुकी है।उसे यक़ीन आ रहा है कि शीघ्र ही वह पत्नी के रूप में होगी।
यकायक उसे जैसे कुछ याद आया।वह उठी और उसने मिठाई के प्लेट सामने रखते हुए कहा, “आज तो उस दिन की छोड़ी मिठाई खा सकते हो? उस दिन मेरे कम से दुखी थे निश्चय ही आज बराबर आने से सुखी होगे?”
वे हँसते हुए मिठाई खा रहे थे।वह उसे स्वीकार कर चुकी थी।