समय, साहित्य और सिनेमा में मकड़ी का जाल / जयप्रकाश चौकसे

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समय, साहित्य और सिनेमा में मकड़ी का जाल
प्रकाशन तिथि : 19 मार्च 2021


मनोरंजन कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला डिजिटल मंच कोरोना महामारी के समय अधिक संख्या में दर्शक जुटाता रहा है और लोकप्रिय हो रहा है। समाज में घटित हुई प्रेम भावना इसका कारण हो सकती है। वेब, मकड़ी द्वारा बनाए गए जाले को कहते हैं। ज्ञातव्य है कि मकड़ी अपने गिर्द एक जाला बुनती है। जाले के नजदीक आए कीट-पतंगों को लुभाती है। जाल में फंसा निरीह प्राणी शिकार हो जाता है। क्या शिकार, इच्छा मृत्यु द्वारा संचालित होता है? मनुष्य की परछाई के साथ ही उसका अदृश्य हमसफर, हमजाद भी होता है। यह हमजाद मनुष्य के जन्म के समय ही उसके साथ होता है और इसे मनुष्य की कमजोरी, इच्छा मृत्यु का प्रतीक माना जा सकता है।

शेक्सपियर का एक पात्र पूछता है कि त्रासदी क्यों घटित होती है? जवाब है कि मनुष्य का शत्रु उसके भीतर ही छुपा होता है और वही उसे त्रासद अंत की ओर ले जाता है। मकड़ी के जाले से ही प्रेरित है, विज्ञान फंतासी के पात्र स्पाइडर मैन की पोशाक। गौरतलब है कि वर्तमान में भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों की पोशाक भी स्पाइडरमैन से प्रेरित लगती है। उनकी क्षेत्ररक्षण की जमावट भी वैसी ही है। संभवत: टीम मैनेजर रवि शास्त्री और कप्तान कोहली इसे जान चुके हैं।

बात विगत सदी में घटित हुई थी। पेरिस में पहला मॉल खोला गया। एक जर्मन विचारक ने जगमग मॉल और रोशनी में नहाती हुई दुकानों को देखा। उसने कहा कि ये मॉल पूंजीवादी की विजय पताकाएं लगते हैं, परंतु कालांतर में इनसे ही पूंजीवाद को सबसे गहरी चोट लगेगी। जगमग दुकानें होंगी पर ग्राहक नहीं होंगे। बाजार से गुजरने वाला हर व्यक्ति खरीदार नहीं होता।

शैलेंद्र को संभवत: इसका पूर्वानुमान हो गया था। वे लिखते हैं ‘जो दिन के उजाले में ना मिला, दिल ढूंढे ऐसे सपने को इस रात की जगमग में खोई, मैं ढूंढ रही हूं अपनों को।’ अपने अजनबियों का संसार ऐसे ही रचा जा रहा है। पूंजीवाद भी अपने ही बुने जाल में इसी तरह फंस रहा है। सुरक्षा का भरम टूट रहा है। अपने ही निवास के निकट विस्फोटक मिल रहे हैं। क्या व्यवस्था ने संकेत दिया है कि पूंजीवादी संकीर्णता के फैलाने के लिए बनाए कोष में यथेष्ट राशि नहीं भेज पा रहा है? संगठित अपराध जगत की हफ्ता वसूली को वैधानिक स्वरूप दिया गया है। मकड़ी के जाले को समय के प्रतीक की तरह भी परिभाषित करने के प्रयास साहित्य व सिनेमा में हुए हैं। कुंडलियों में कालचक्र के संकेत हैं।

फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के अंतिम भाग में पत्थर की दीवार पर मकड़ी का जाला बना हुआ है। दुखी नायक गीत गाता है ‘जाने कहांं गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में नज़रों को हम बिछाएंगे’।

मानव शरीर भी नसों के जाल में बंधा है, परंतु धड़कन स्वतंत्र है। चीन का लाभ, लोभ व्यापार का जाल भी मकड़ी के जाले की तरह है, जिसमें वह स्वयं उलझने वाला है। पता ही नहीं चलता, कब शिकारी स्वयं शिकार हो जाता है। चीन में आक्रोश की भीतरी लहर चल रही है। डिजिटल मंच पर 8 या 10 मिनट तक चलने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत हो रहे हैं, जो बिहारी के दोहों की तरह छोटे होते हुए भी गहरी मार करते हैं। फिल्मकार इस तरह के कार्यक्रम रच रहे हैं।

सांप-सीढ़ी के खेल में भी 99 के अंक पर सांप डसता है और शून्य पर फेंक देता है। वे सब जानकर अनजान बन रहे हैं। गुप्त एजेंडे में ही आत्मघाती तत्व छुपा बैठा है। मकड़ी द्वारा बनाए गए जाल से प्रेरित रणनीति होती है। बांग्लादेश के निर्माण के समय भी जनरल मानेकशॉ ने इस तरह योजना बनाई कि छोटे दल भीतर पहुंच गए और पूर्व बंगाल में नियुक्त जनरल समझ ही नहीं पाए कि आक्रमण पीछे से कैसे हो रहा है! युद्ध इतिहास में पहली बार 90 हजार सशस्त्र सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था।