समय-युग संवाद / गोपाल चौधरी
अब ये समय-युग संवाद! समय है अदृश्य और युग है उसका दृश्य प्रतिफलन! युग आते हैं। और युग जाते है। इस तरह समय का कारवां! सबके बावजूद बढ़ता जाता है। सभ्यता, संस्कति और दुनिया समाज के रूप में यह प्रतिफलित होता रहता है।
समय को कैसा लगता होगा! जब वह अपने ही प्रतिफलन के ह्रास और उसके गिरते मूल्यों का अवलोकन करता होगा! विकास और प्रगति की एकांगता और विद्रूपता! देश और दुनिया के हृदय विदारक असंतुलन!
विषमता और विरोधाभास से भरे परिदृश्य! क्या उसे दर्द नहीं होता होगा! जरूर होता होगा। उसका और हमारा—सबों का दर्द या दवा, खुशी या गम इसी समय पटल पर होता रहता है! जैसे शरीर और संसार आत्मा के पटल पर!
तभी तो समय युग को रह-रह कर कटघरे में खड़ा करता ही रहता है। कोई न कोई युग पुरुष, मसीहा, अवतार को भेजता रहता है। ताकि देश और दुनिया को सनद रहे! वे सब उसी एक के प्रतिफलन हैं, जिससे पूरा जगत व्याप्त है।
उस सदी! समय पूरब की ओर निकला होता! थोड़ा आहत हुआ सा। शोक योग से युग की विवेचना कर रहा होता! इतना दुख, निराशा, हताशा, गरीबी, शोषण, पीड़ा! और पतन की अग्रसर होता युग! तीन चौथाई मानवता गरीबी, भूख, शोषण और हिंसा के दंश सहती हुई और एक चौथाई इन पर ऐश करता हुआ।
अभी भी वे वही कबीले से लग रहे होते। देश और दुनिया के लोग। कम से अतित्व के धरातल पर। वही अपने और पराये में फसे लोग! और उसी में बिलबिलाते उनके जीवन। कहने को तो आधुनिकता का जामा पहन रखा होता। पर थोड़ा खरोंचो अंदर से वही कबीले!
वही कबीलाई मानसिकता में उलझे पड़े: अपने को आधुनिक और उत्तर आधुनिक साबित करने में लगे हुए! पर भेद भाव, उंच-नीच, देश, धर्म, जात, नस्ल के कबीलाई बाड़े में बंधे लोग! सभ्यता और सांकृतिक पराकाष्ठा की तमाम चरम ऊंचाइयों को हासिल कर लेने के बावजूद!
और जब कारत की ओर नज़र गई। समय रुक गया।
युग ने पूछा-तुम रुके से हुए क्यो लग रहे हो?
समय—रुका हुआ नहीं है। समय रुकता नहीं। हाँ, ठहरा हुआ लग सकता है। जैसे कारत के संदर्भ में है?
युग—कारत? क्या सचमुच ऐसा है?
समय—ये कैसी त्रासदी है! कैसा विचित्र संयोग है! जिस कार्य विभाजन की व्यवस्था व्यक्ति की अभिरुचि और उसकी क्षमता के आधार पर हुआ था, उसे जन्म आधारित बना दिया गया और यह कार्य विभाजन जाति में बदल गया। एक खुशबूदार हवा जिसे पूरी दुनिया को सुवासित करना था, वह जाति की संकीर्णता और सड़ांध में बदल गई। क्या इसका विरोध नहीं हुआ?
युग—हुआ। बहुत हुआ। पर एक जुट और समन्वित ढंग से नहीं। सब अपनी-अपनी जाति में बंटे रहे। सबके व्यक्तिगत और स्वार्थपरक विरोध हुए। दो तीन बार तो ऐसा लगा जैसे इसके दिन लद गए। पर यह कुकुरमुत्ते की तरह बार-बार उग आता रहा और गंदगी करता रहा! और उसी गंदगी पर फलता-फूलता रहा।
समय—लेकिन ये कैसा देश है? कैसे लोग है? अपने ही लोगों को उंच और नीच में बाँट देना! और जन्म पर आधारित कर के इसे बंद व्यवस्था बना देना और उन पर अत्याचार करते रहना। कभी विदेशियों से तो कभी कबीलाई जातियो से मदद लेकर अपने ही लोगों को खत्म करते रहे। बाद में गुलाम बना लिया। अजीब-सा लगता है...
युग—आपको तो सब मालूम है। आप तो दर्पण है.........
थोड़ा रुक कर फिर समय बोलने लगा—आज के मानव यानी मेरा मतलब आधुनिक मानव, उसकी समस्या यही है कि जो काम कर रह है वह। उसकी अभिरुचि, क्षमता और व्यक्तिव्य के अनुसार नहीं। फिर उसे काम बोझ लगता है। और इस बोझ से उसका पूरा जीवन ग्रसित हो जाता है। प्राचीन समय में कारत में कार्य विभाजन की यह प्रणाली विकसित हुई थी। उस समय कारत शिखर पर था। पर इसे जन्म आधारित बना दिया गया और जाति का नाम दे दिया गया।
युग—आपने सही फरमाया।
समय—पूरे विश्व की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आज उब, घुटन, निराशा, हताशा, सब कुछ रहते हुए भी अकेलापन, आत्महत्या-चाहे व्यक्तिगत हो या समष्टिगत... आधुनिक मानव का नसीब बन गया है। सब कुछ करने और होने की खोखली और बंधनकारी स्वतन्त्रता! एक नारकीय यातना बन गई है!
थोड़ा रुक कर युग की ओर देखते हुए, मानो उसे भी परख रहा हो, समय ने बोलना जारी रखा—आधुनिक मानव खुश नहीं है। सब कुछ होने और मिलने के वावजूद। इसके पीछे मूलभूत कारण है: उसे वह सब करना पड़ता है जो वह करना नहीं चाहता। उसे वह होना पड़ रहा है जो वह होना नहीं चाहता। याद है! कृष्ण का स्वधर्म का सिद्धांत! स्मरण दिलाने की जरूरत नहीं है!
युग—कौन सा...
समय—अपने धर्म (जिसका गुण धर्म ओर कर्तव्य उसके व्यक्तित्त्व के अनुरूप है) में मरना दूसरे धर्म से जीने से बेहतर है। क्योंकि जो दूसरे के निहित कार्य करेगा या अपने गुण धर्म के विपरीत काम करेगा। वह पल-पल मर कर जिएगा! कुछ इसी तरह की त्रासदी में जी रहा है, आज का अधिकांश मानव। ...
युग—वर्ण संकर की बात भी हुई है...
समय—इसी से जुड़ा है... याद ही होगा कि कृष्ण ने कहा था अगर लोग अपने धर्म या अपनी अभिरुचि के कार्य में नहीं रत होंगे और दूसरे को अपनाने लगेगे तो वर्ण संकर पैदा होंगे यानी पल-पल मर कर जीते लोग क्योंकि अपने धर्म या कर्तव्य में नहीं होंगे। आज, न केवल कारत बल्कि पूरे विश्व की यही समस्या है। पर...
युग—पर क्या?
समय—पर देखिये कृष्ण के इस महत्त्वपूर्ण सूत्र का कैसे दुरुपयोग हुआ... कामनों ने इसका मतलब निकाला वर्ण संकर...
युग—मतलब...
समय—मतलब ... दूसरी जाति में शादी करने से वर्ण संकर पैदा होता! इससे कुल का नाश होता है और इसी विकृत अर्थ के आधार पर जाति व्यवस्था को बंद और सड़ांध व्यस्था बना दिया। अपने ही जाति में शादी करो... इससे जाति का वर्चस्व और उसकी अस्मिता तो बरकरार रही... पर इसका परिणाम बहुत ही घातक हुआ...
युग—क्या घातक हुआ? समझा नहीं।
समय—कैसे समझ पाओगे? तुम भी इसी का प्रतिफलन जो हो! खैर अपनी जाति में शादी करना एक हजार साल पहले के अपनी बहन से ही शादी करना है...
युग—क्या बात करते हैं? यह कैसे संभव है?
समय—अगर एक हजार साल पीछे तक की वंशवली का अवलोकन किया जाये, तो पता चलेगा अपनी जाति में शादी करना अपने ही बहन या सगे-स्मबंधी से शादी करने के बराबर है और इसका परिणाम हुआ: अपने ही सगे सम्बंधी से, चाहे वह एक हजार साल पहले हो या 2 हजार, शादी करते रहने से रुग्ण और बेवकूफ पीढ़ियाँ पैदा होती रही है!
समय ने युग की ओर देखा। ऐसा लागत हुआ युग! जैसे उसे कुछ समझ में न आ रहा हो!
समय—... अगर इसी तरह यह विकृति जारी रही...... तो एक दिन कारत! विलुप्त हो जाएगा। इतिहास और मानव शास्त्र गवाह है: जिन संस्कृतियो में अपने ही सगे सम्बंधी में शादी होती रही। वे विलुप्त होतीं गई। या दूसरी संस्कृति ने आत्मसात कर लिया।
युग—पर इसका क्या प्रमाण है: अपनी जाति में ही शादी व सगे सम्बंधी से शादी करने से रुग्ण और बीमार पीड़ियाँ पैदा होती है?
समय—प्रमाण के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। ये हमारे देश, दुनिया, समाज में मे ही...जो लोग या
वर्ग अपने ही रिश्ते में शादी करते होते वे जातियाँ और प्रजातियाँ विलुप्त होती गईं! क्योंकि अपने ही खून के रिश्ते में शादी होते रहने से: बेवकूफ, कमजोर और नपुंसक पीढ़ियाँ पैदा होती रही! और एक दिन खत्म हो गईं। मानवीयशास्त्र और चिकत्सा विज्ञान और जैविक विकास भी इस बात की पुष्टि करते से लगते!
युग-लेकिन कारत के लोग तो अपने जाति में करते हैं! वह खून के रिश्ते कैसे हुए?
समय—अपनी जाति में शादी करना एक हजार साल पहले अपनी बहन से शादी करने के बराबर है। ठीक है अभी तो नहीं है खून का रिश्ता प्रत्यक्ष रूप से। पर परोक्ष रूप से तो है। दूर का तो है! तभी तो शायद यह देश धीरे-धीरे ह्रास की ओर जा रहा है!
थोड़ा रुकता सा... ठहरता-सा लगता हुआ समय। पर उसका कारवां बढ़ता ही रहा!
समय—और बाकी इस देश के इतिहास पर गौर किया जाय: यह धीरे-धीरे सिमटता, सिकुड़ता जा रहा है। भौगोलिक और क्षेत्रफल के हिसाब से भी! सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीयशस्त्र के क्षेत्र में भी और बाकी का अंदजा तुम्हें इसके एक हजार साल की गुलामी... आक्रमण और हार... से मिल जाएगा...
युग—पर गोत्र भी तो है? अपने गोत्र में शादी नहीं की जाती... फिर...
समय—हरेक गोत्र किसी न किसी ब्रहमन पर ही होते ...फिर इस दृष्टिकोण से भी तो बात वही हुई अपने ही खून में ..., फिर क्या फर्क पड़ता है अगर गोत्र अलग हो।
युग को प्रमाण मिल गया। वह समझ गया लगता! क्योंकि वह मौन सम्मति में चुप लगा गया। युग को अपनी विडम्बना का एहसास हो गया-सा लगता। ऐसा युग जिसे आधुनिक, अति आधुनिक, उत्तर आधुनिक और उत्तर-उत्तरआधुनिक भी कहा जाता है!
पर इस युग में जितने अत्याचार हो रहे हैं, या हो चुके हैं! जितने लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे है या हो चुके हैं! जितनी हिंसा, संघर्ष, धर्म और संस्कृति युद्ध हो रहे है या हो चुके हैं! जितनी लड़ाईयाँ, विश्व युद्ध हुए है, जितने लोग गरीबी, भूख और शोषण की जिदगी जी रहे है; उतना पहले कभी नहीं हुआ।
फिर भी यह अर्वाचीन युग कहा जाता है! जब कि प्राचीन में ऐसा नहीं हुआ।
युग थोड़ा भ्रमित-सा दीख रहा होता। उसे समझ में नहीं आ रहा होता: कौन आधुनिक है और प्राचीन! कौन कबीलाई और कौन प्रगतिशील! प्राचीन आधुनिक-सा दिखता हुआ और आधुनिक प्राचीन और कबीलाई।
उसने समय की ओर देखा। शायद वही उसके भ्रम का निवारण करे। पर समय बीत चुका होता!