समय का हृदय हमें चिर जीवित रखना है / अरुण होता

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श्रीकांत वर्मा जनोन्मुखी रचनाकार हैं। उनकी रचनाएँ समय को रूप प्रदान करती हैं। समय का साक्ष्य हैं श्रीकांत की कविताएँ। इसलिए श्रीकांत ने कविता के किसी वाद में सिमटना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपनी कविताओं में जनता की आशा-अभीप्साओं को रूपायित किया है। विषय ही नहीं भाषिक स्तर पर भी कविता को जनोन्मुखी बनाने का सफल प्रयास करता है श्रीकांत का रचना-संसार। स्वातंत्र्योत्तर भारत में कवि-मन बदलते परिवेश और परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करता है। उसकी अंतर्मुखी-चेतना का क्रियान्वयन मूर्त होता है। कवि युगीन सामाजिक सरोकारों से प्रत्यक्ष रिश्ता कायम करता है। इससे उसके क्रांतिकारी व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। यद्यपि श्रीकांत समकालीन कवि के रूप में जाने जाते हैं तथापि निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि श्रीकांत के काव्य-जगत में यह समकालीनता किसी विशेष काल-बोध का सूचक नहीं है। यह तो कालावधि की पारंपारिक सीमा को तोड़ती है तथा अपने समय तथा जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को जीने की लालसा जागृत करने वाली प्रेरणा प्रदान करती है। कवि के लिए मनुष्य एक कवि है तो समय एक कविता -

'हम मनुज को कवि समय को एक कविता मानते हैं।'

श्रीकांत वर्मा कालातीत कवि हैं। समय की नब्ज को टटोलने में कवि समर्थ है। वह वर्तमान जीवन की जटिलताओं से घबराता नहीं, पलायन नहीं करता। उनकी प्रबल आस्था है जीवन में। यह आस्था कोरी भावुकता नहीं, विचारशीलता से अनुप्रेरित है। कवि की उद्घोषणा है -

'मैं बिना पंखुरी, बिन

टहनी का गंध फूल

मैं हर ऋतु में

गमगमा रहा;

मैं हर मौसम में जीवित हूँ।'1

बदलते समय के साथ-साथ मनुष्य की जैविक प्रक्रिया निरंतर जटिलतम होती जा रही है। यह जटिलता केवल शारीरिक नहीं अपितु मानसिक विकृतियों को भी जन्म दे रही है। फलस्वरूप, तनाव, ऊब, निराशा, द्वंद्व आदि के भँवर में उलझीं मनोग्रंथियों को दमित कर जीवन को एक नई ऊर्जा एवं प्राणवत्ता से संचालित करना श्रीकांत वर्मा का श्रेय है। इसलिए उदयन वाजपेयी ने कहा है - 'श्रीकांत वर्मा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी के संभवतः सबसे ऊर्जस्वित लेखकों में हैं।' 2

जैसा कि बताया गया है श्रीकांत की कविता में आस्था का स्वर निनादित है। इस आस्था का महत्व और भी अधिक प्रतिपादित होता है जब श्रीकांत के समकालीन कवि मोहभंग, अनास्था, निराशा, ऊब, तनाव आदि को रचना का केंद्र मानकर सृजनरत थे। वास्तव में श्रीकांत की संघर्षशीलता उन्हें ऊर्जस्वित करती है। हताशा को निर्मूल करते हुए आशा का स्वर सुनाती है। एक नए जीवनबोध का साक्षात्कार करती है -

'अंधकार में हमने जन्म लिया

और बढ़ीं

हम सब विद्रोहिणियाँ कारा में चुनी गयीं।

लेकिन कारा हमको

रोक नहीं सकती है,

रोक नहीं सकती है।

जन-जन का तीर्थ बनी जो जन की आस्था।

मीरा-सी जहर पिए

हम तुझ तक आती हैं।

हम सब सरिताएँ हैं।

समय की धमनियाँ हैं।

समय की शिराएँ हैं

समय का हृदय हमको चिर-जीवित रखना है।'3

कवि श्रीकांत के लिए जीवन एक सरिता है जो मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं, चट्टानों को चूर्ण-विचूर्ण करते हुए आगे बढ़ती जाती है। जीवन में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते-जुझते गंतव्य की ओर अग्रसर होने में ही उसकी सार्थकता है। कवि ने इसके लिये दृढ़ संकल्प का होना आवश्यक समझा है। यह संकल्प मनुष्य के स्नानुयों को झंकृत कर उद्दीप्त करता है। इससे नैराश्य के बादलों में दामिनी कौंध उठती है। आस्था का सूर्य उदित होता है। आत्म प्रत्यय विकसित होता है -

'आँसू मत टपकाओ

आँसू मत टपकाओ।

मुझको प्रत्येक बूँद

छाती पर

पिघले लोहे जैसी लगती है।

स्वयं आस्था बन इस माथे का तिलक करो।' 4

साठोत्तरी काल में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अनेकानेक परिवर्तन आए। इसके चलते देश की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था भी प्रभावित हुईं। इसी कालावधि में पूँजीवादी सभ्यता के आगमन ने भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत की नींव हिला दी। साहित्य जगत में समष्टि के स्थान पर व्यष्टि को प्रतिष्ठित किया। अज्ञेय ने एतद्पूर्व 'नदी के द्वीप' शीर्षक कविता में कहा था 'तो हमें स्वीकार है यह भी।' परंतु 'बूढ़ा पुल' शीर्षक कविता में श्रीकांत ने व्यक्त किया है -

'आह! मुझे ढहा दो।

मैं हूँ इस नदिया का बूढ़ा पुल।

कब तक अपनी जड़ता बोहूँ

मुझको भी यात्रा में परिणत कर दो।' 5

औद्योगिक विकास के परिणमस्वरूप महानगरीय सभ्यता फलने-फूलने लगी। महानगरीय परिवेश में मानव-अस्तित्व का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण हुआ। महानगर की भाग-दौड़, अबाध गति से संचालित यांत्रिक जीवन ने कवि को गहरे रूप में प्रभावित किया। कस्वाई जीवन के चितेरे श्रीकांत पर महानगरीय जीवन का गहरा प्रभाव पड़ा। पाश्चातय साहित्य के प्रभाव को भी अस्वीकारा नहीं जा सकता। महँगाई, बेरोजगारी, प्रतिस्पर्धा, स्वार्थलिप्सा ने मिलकर मनुष्य को संकुचित करना शुरू कर दिया। कवि ने इसे प्रत्यक्ष रूप से देखा। मानव जीवन के सकारात्मक पहलुओं - आस्था और संघर्ष - में विश्वास करने वाला कवि अनास्था, हताशा, पराजय, निरर्थकता एवं अकेलेपन के त्रासद को झेलता है। तत्पश्चात अभिव्यक्त करता है :

'क्या मैं करूँ

समाचार पत्रों से मोह?

मैं क्या करूँ? क्या मैं जीने की कोशिश में

किसी और दुनिया में

जा मरूँ?' 6

ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध से निकटता के कारण उनके जीवन-मूल्यों से भी प्रभावित रहे। परंतु श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध की तरह घोषित मार्क्सवादी नहीं थे। यद्यपि मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। 'वामपक्षी समाजवादी समाज' में उनका विश्वास था। मानवता के लिए इसे ही एकमात्र रास्ता समझते थे। इसलिए युग-बंधनों से जकड़े मनुष्य को उत्पीड़न एवं पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति का प्रयास श्रीकांत की कविता में उपलब्ध है। पूँजीवादी व्यवस्था की विसंगतियों से आक्रांत कवि का सच व्यक्तिगत नहीं रह जाता। वह उसे सामूहिक सच में तब्दील करता है। कवि की मनःस्थिति केवल उसकी नहीं रह जाती बल्कि उसके समय में जीने वाले मनुष्य मात्र की बन जाती है जो महानगर का हिस्सा बन चुका होता है। पूँजीवादी मानसिकता ने आत्मीयता, भाईचारा, सौहार्द्र, प्रेम, अंतरंगता आदि हृदयगत संवेदनाओं को निरंतर दमित किया है। पूँजी की संस्कृति को फलने-फूलने दिया है। 'अजनबीपन' को उत्पन्न किया है। यह 'अजनबीपन' की परिधि दिनोंदिन प्रसारित होती जाती है। रागात्मक संबंध तक को अपने चंगुल में फाँस लेती है, समाज और देश में तो रहता ही है। कवि के शब्दों में -

'प्रत्येक सुबह तुम लगती हो

कुछ और अधिक अजनबी मुझे।' 7

उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य को आधा-अधूरा बना दिया है। इसने मनुष्य में अतृप्ति की खाई इतनी गहरी कर दी है कि परिवार और कर्तव्य उसे महज बोझ-सा प्रतीत होता है। वह बोझ ढोने के लिए मानव मजबूर है, विवश भी। उसकी अंतर्वृत्ति न तो उससे पूर्णतः जुड़ पाती है और न मुक्त हो पाती है -

'सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग है।

लेकिन! क्यों लगता है मुझे

प्रेम

अकेले होने का ही

एक और ढंग है।' 8

बाजारवाद ने सब कुछ 'बाजारू' बना दिया है। इसने मानवीय संवदेनाओं का भी बाजारीकरण कर दिया है। बाजार की चकाचौंध में व्यक्ति की आँखें चौंधिया रही हैं। कवि जानता है कि वह मृगतृष्णा है। कुछ है ही नहीं। परंतु उस मृगतृष्णा के पीछे भागना उसकी नियति बन चुका है -

'इसीलिए

चल ही रहा हूँ

क्या करूँ, दूसरी नियति नहीं, गो

पीछे नहीं कुछ

करने को याद। बिलकुल बेस्वाद। आगे है बलात्कार

आशंका छीन-झपट, आत्मघात, दूसरी नियति नहीं।' 9

मीडिया ने मनुष्य के विवेक को अपने अधीन कर लिया है। उसे पंगु बनाकर छोड़ दिया है। उसके चटपटे अंदाज ने व्यक्ति को विवेकशून्यता के गर्त में धकेल दिया है। अनिश्चित भविष्य को व्यक्ति अपनी नियति ही नहीं मानता बल्कि इससे उसे आत्मतुष्टि होती है। इस विडंबनात्मक स्थिति का शब्दबद्ध रूप है -

'मैं जो चाहे, उसके, दाँव पर लगना चाहता हूँ

उमंग में भरा हुआ मैं, यह भी नहीं पूछता

अगला पड़ाव

कितनी दूर है?

है भी या नहीं है?' 10

आज सामाजिक विसंगतियाँ दिनोंदिन उभरती जा रही हैं। समाज में उपभोक्ता वर्ग तमाम वस्तुओं का उपभोग करता है तो एक अन्य वर्ग है जो अपनी लालसाओं को दमित करते रहता है। कुंठाग्रस्त हो जाता है। सामाजिक-आर्थिक वैषम्यमूलक व्यवस्था में शोषक की दिन दूनी रात चौगुनी होती है। शोषितों की स्थिति दयनीय हो जाती है। चिरकाल से पीड़ित, शोषित एवं उपेक्षित समुदाय ने अपने श्रम के बल पर विशाल अट्टालिकाओं का निर्माण किया है। परंतु न तो वह सपना देख सकता है उन महलों का और न ही कभी उसके इर्द-गिर्द मँडरा सकता है। उपभोग करना तो दूर की बात। इस पीड़ित वर्ग की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि उसे अपने दुख के बारे में भी कुछ पता नहीं -

'अपने दुख में स्वयं अपरिचित लोग

नहीं जानते हैं वे

झगड़ रहे हैं अथवा पीड़ा में चीत्कार रहे हैं।

औरों को निष्कासन नहीं दे रहे हैं वे

अपने दुख से भाग रहे हैं

...कोई सुखी नहीं है।'

श्रीकांत वर्मा ने समाज में व्याप्त जर्जर मान्यताओं, रूढ़िग्रस्त मूल्यों, अविश्वासों, अनैतिकताओं, अवसरवादियों पर कुठाराघात किया है। वज्रप्रहार किया है। अपने समय की स्वार्थपरता और अवसरवादिता को अत्यंत कुशलता के साथ कवि ने चित्रित किया है। 'एक मुर्दे का बयान' शीर्षक कविता की चंद पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

'मैं एक कविता था। मैं एक झूठ था।

मैं एक बीमा कंपनी का एजेंट था।

मैं एक सड़ा हुआ प्रेम था

मैं एक मिथ्या कर्तव्य था

मौका पड़ने पर नेपोलियन था

मौका पड़ने पर शहीद था।' 11

जब ऐसी मौकापरस्ती में जीवन-मूल्य क्षरित होते जा रहे हों, व्यर्थता से ओतप्रोत हो जीवन तब श्रीकांत अपने को कवि के रूप में परिचित कराना नहीं चाहते। इसलिए वे समय की सच्चाइयों को देखते हुए सावधान करते हैं -

'मगर खबरदार! मुझे कवि मत कहो।

मैं बकता नहीं हूँ कविताएँ

ईजाद करता हूँ

गाली

फिर उसे बुदबुदाता हूँ।

मैं कविताएँ बकता नहीं हूँ।

मैं थकता नहीं हूँ

कोसते।'12

श्रीकांत वर्मा अपनी काव्य-यात्रा में छटपटाते हैं, तनावग्रस्त होते हैं, लहूलुहान होते हैं। खीझ, तिलमिलाहट, नफरत, मुहब्बत आदि भी उनकी काव्य-यात्रा में शामिल हो जाती हैं। इन तमाम भावों की अनथक खोज जारी रहती है। आधुनिक मनुष्य की इन मार्मिक भावों की अभिव्यक्ति श्रीकांत की कविता में सार्थक हुई हैं। 'मायादर्पण' अर्थात इन भावों का दर्पण बनकर पाठकों के सामने प्रस्तुत है। इसमें एक ओर आधुनिक मनुष्य की यथास्थिति का वर्णन है तो दूसरी ओर उसकी निरर्थकता का चित्रण। साथ ही यहाँ वर्णित है मूल्य मात्र की निरर्थकता और मनुष्य की महत्वाकांक्षा की क्षुद्रता की पहचान -

'मैं कई साल से

पता नहीं अपनी या किसकी

शर्म में

गड़ा हूँ!

मैं जानता हूँ

सारी दुनिया के

बनविलावों को

हमेशा से जो बैठे हैं

ताक में

काफी दिनों से मैं

अनुभव करता हूँ तकलीफ

अपनी

नाक में।

मुझे पैदा होना था अमीर घराने में

अमीर घराने में

पैदा होने की यह आकांक्षा

साथ-साथ

बड़ी होती है।

हरेक मोड़ पर

प्रेमिका की तरह

मृत्यु

खड़ी होती है।'13

औपनिवेशिक शक्तियाँ देश के प्रशासन-तंत्र को अपने हाथ की कठपुतली बना रही हैं। उपनिवेशवाद एक ओर साम्राज्यवादी नीतियों को विस्तृत कर रहा है तो दूसरी ओर नागरिकों के गणतांत्रिक अधिकारों का हनन। साम्राज्यवादी शक्तियों ने समाज में अराजकता, संत्रास, हत्या, मृत्यु, घुटन को भी प्रश्रय दिया है। इस व्यवस्था में कमजोर, असहाय और निर्दोष मारा जाता है तथा हत्यारा सीना ताने घूमता रहता है। श्रीकांत वर्मा ने इस घिनौने यथार्थ का नग्न रूप अक्षरशः प्रस्तुत किया है -

'(भुनभुनाता हुआ) यह कहता हुआ हत्यारा गया

वह आदमी इस काबिल नहीं था कि मारा जाय

केवल अनिर्णय में मारा गया।' 14

श्रीकांत की कविताओं में भावुकता का विरोध है। उनकी रचनाशीलता में यथार्थ के प्रति आग्रह है। कठोर सत्य का चित्रण है। इसलिए उन्होंने कहा है - 'मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ, किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता; मेरे न होने से कुछ भी नहीं हिलेगा।' 15 कवि ने शुरू से लेकर अंत तक अपने को अपने परिवेश को लिखा। फलस्वरूप व्यक्तिगत परेशानियाँ, अनैतिकता, भ्रष्टाचार आदि उनकी कविता में बड़ी शिद्दत के साथ चित्रित हैं। श्रीकांत ने नंगी आँखों से जो देखा और महसूस किया उसे लोगों को दिखाया। उनके शब्दों में -

'नाटक की समाप्ति पर

आँसू मत बहाओ

रेल की खिड़की से

हाथ मत हिलाओ।' 16

कहा जा चुका है कि श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध से प्रभावित थे। मुक्तिबोध की प्रगतिशीलता ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। श्रीकांत अपने को वामपंथी रुझान के भी मानते थे। यह अलग बात है दिल्ली में आकर तत्कालीन सत्तासीन दल के साथ उनका संपर्क हुआ। राममनोहर लोहिया के भी संपर्क में आए। कविता में राजनीतिक तत्व को आवश्यक मानने वाले श्रीकांत प्रत्यक्ष जीवन में राजनीतिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष भागीदारी कर चुके थे। श्रीकांत की कविता में अभिव्यक्त राजनीतिक दृष्टि पर विचार करने के पहले उनके निबंध 'कविता और राजनीति' की निम्न पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं -

'राजनीति के साथ ही युग की बनावट में भी परिवर्तन होता है और उसी के साथ-साथ स्त्री-पुरुषों के, राज्य और व्यक्ति के, रचनाकार और रचना के संबंधों में परिवर्तन होता है। बदले हुए संबंधों को पहचानना और उन्हें अर्थ देना ही कला की सार्थकता है।' 17

अपने युग और उसकी राजनीति से साक्षात्कार करना आवश्यक है अन्यथा रचना अपने विशाल संदर्भों और गहरे अर्थों से जुड़ नहीं पाती है। हालांकि श्रीकांत वर्मा ने राजनीति की परिणतियों पर भी प्रकाश डालते हुए कहा है -

'कविता कवि से आत्महत्या की माँग नहीं करती बल्कि उस मृत्यु से साक्षात्कार का आह्वान करती है जो अदृश्य है, भीतर है, गुमनाम है। सोवियत सभ्यता के लिए यदि पॉस्तेरनाक की संगति अधिक है तो इसका कारण यह नहीं कि पॉस्तेरनाक ने सोवियत क्रांति की विफलताओं का ब्यौरा प्रस्तुत किया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने समूची सभ्यता के संकट से साक्षात्कार किया। राजनीति की सामाजिक और आध्यात्मिक परिणतियाँ कविता के लिए चुनौती होती हैं और बदले में कविता की स्थूल परिणतियाँ राजनीति के लिए चुनौती बनती हैं। कविता परिणतियों के स्तर पर राजनीति से साक्षात्कार करती है और राजनीति भी कविता की परिणतियों के स्तर पर उससे मुठभेड़ करती है।' 18

कविता निरर्थकता को सार्थकता प्रदान करती है। कविता किसी भी विषय के लिए बाधक नहीं बनती। उसका अनुभव का संसार व्यापक है। राजनीति के छल-कपट से वह परिचित है। इस संदर्भ में कवि श्रीकांत ने कहा है - 'कविता का दूसरा, अनुभव का संसार वास्तव में कवि का संसार है जिसमें वह रहता है, झेलता है, जीता और मरता है; राज्य-क्रांतियों में हिस्से लेता और राजनेताओं के तलुए चाटता है, राजनीति के मंच से क्रांति का आह्वान करता और क्रांति-विरोधी मंच से पुरस्कार ग्रहण करता है। कवि का संसार बहुत विवाद योग्य नहीं। बहुत हद तक वह आम आदमियों का संसार है जिसमें पाप, आत्महत्याएँ, क्रांतियाँ, उत्थान और पतन, कवि और आलोचक सबका अस्तित्व है और कविता किसी के आड़े नहीं आती। बल्कि कविता कवि को इस संसार में अधिक से अधिक हिस्सा लेने की छूट देती है। ...कविता इसी अर्थहीन संसार को अर्थ देने की प्रक्रिया है।' 19 इन उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि कवि श्रीकांत की राजनीतिक दृष्टि में अत्यंत पारदर्शिता थी। अपने समय के यथार्थ को चित्रित करते हुए कवि ने चतुर्दिक व्याप्त मिथ्या और प्रवंचनाओं से बचने का आग्रह किया है -

'कई साल

हुए

मैंने लिखी थीं कुछ कविताएँ!

तृष्णाएँ

साल खत्म होने पर

उठकर

अबावालों की तरह

टकराती, मँडरात चिल्लाती हैं।' 20

कवि श्रीकांत की 'समाधि लेख' कविता में असहायता की पीड़ा उभरकर पाठकों के सामने आती है। कवि अपनी अपारगता को छिपाता नहीं बल्कि उसे उघाड़ता है। उसे मालूम है कि उसके हाथ-पाँव बँधे हैं। वह स्वयं को अपनी विफलताओं का स्रष्टा मानता है। अपने युगीन संत्रास को अभिव्यक्त करते हुए कवि शब्द-चित्र अंकित करता है -

'यह मेरा सवाल नहीं है

बल्कि

उत्तर है :

'मैं क्या कर सकता हूँ!'

मुझसे नहीं होगा कि दोपहर को बाँग दूँ। या सारा समय

प्रेम-निवेदन करूँ। या फैशन-परेड में

अचानक धमाका बन फट पड़ूँ।' 21

व्यक्ति जब अपनी सच्चाई और सीमाओं को जान लेता है या जान लेने का साहस अर्जित कर लेता है तो वह दृढ संकल्प के साथ घोषणा कर पाता है - 'मुझसे नहीं होगा...' कवि श्रीकांत ने 'बुखार की कविता' में लिखा है -

'कोई लाचार नहीं

जो वह नहीं है

वह होने को।'22

चारों ओर समस्याएँ हैं। प्रश्नाकुल मन हैं। उत्तर कहीं नहीं। पहले कवियों ने उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास किया परंतु वे असफल रहे। उन्होंने गुरु दायित्व सौंप दिया किसी और पर। किसी और ने सौंप दिया राजनीति पर। ऐसे में प्रश्न प्रश्न बनकर रह जायेंगे, समस्याएँ और विकट रूप धारण कर सकती हैं। कवि श्रीकांत की राजनीति पर अनास्था प्रकट हुई है -

'जो न उम्मीद करता हो

न अपने से छल

जो न करता हो प्रश्न

न ढूँढ़ता हो हल।

हल ढूँढ़ने का काम

कवियों ने ऊबकर

सौंप दिया है

गणितज्ञ पर

और उसने

राजनीति पर।' 23

राजनीति में विवेकहीनता पटी पड़ी है। मानवीयता को हासिए में कर दिया गया है। आम आदमी दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए विवश है। अवसरवाद का चक्रवात जोरों से प्रवाहित है। कवि ने अपना आक्रोश व्यक्त किया है 'अंतिम वक्तव्य' शीर्षक कविता में -

'आत्माएँ

राजनीतिज्ञों की

बिल्लियों की तरह

मरी पड़ी है

सारी पृथ्वी से

उठती है

सड़ांध!'24

कवि ने देखा कि अंधेर नगरी के साम्राज्य में आम जनता पीस रही है। अव्यवस्था सर्वत्र फैली हुई है। न्याय की गुहार फीकी पड़ रही है। अंधा कानून चतुर्दिक शासन कर रहा है। ऐसे में क्या भी उम्मीदों का पुल बांधा जाए? जनता इस कुशासन से परेशान है, थकी-माँदी सो गई है। ऐसी स्थिति में शब्द भी भोथरे हो जाते हैं। कवि की संवेदना स्पष्ट हो जाती है -

'न्यायालय बंद हो चुके हैं, अर्जियाँ हवा में

उड़ रही हैं

कोई अपील नहीं

कोई कानून नहीं,

कुहरे में डूब गई हैं प्रत्याशाएँ,

धूल में पड़े हैं

कुछ शब्द!

जनता थककर सो गई है।'25

लचर होती जा रही न्याय व्यवस्था के मूल में राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरता है। 'जनसेवा' 'देशसेवा' के नारे लगाने वाले नेतागण 'स्व-सेवा' में तल्लीन रहते हैं। वोट, लोकतंत्र आदि श्रीकांत के 'भटका मेघ', 'माया दर्पण', 'जलसाघर' आदि काव्य संकलनों में व्यंग्यात्मक रूप में चित्रित हैं -

'कुछ लोग मूर्तियाँ बनाकर

फिर

बेचेंगे क्रांति की (अथवा षड्यंत्र की)

कुछ और लोग

सारा समय

कसमें खाएँगे

लोकतंत्र की।'26

श्रीकांत की काव्य-शक्ति उनके विद्रोह में है। उन्होंने संघर्ष से इस विद्रोह को प्राप्त किया है। कविता और राजनीति के द्वंद्व-युद्ध को रोकने के लिए कवि ने सदा प्रयास किया है। इस प्रयास में श्रीकांत स्वयं लहूलुहान हो गए पर हार मानना उन्होंने नहीं सीखा। कवि ने कहा भी है - 'मैं असल में अपने भीतर चौबीसों घंटे तक लड़ाई लड़ता हूँ और इसमें कोई जख्मी नहीं होता, कोई मेरे हाथों मारा नहीं जाता, सिर्फ मैं लहूलुहान होता हूँ। कभी राजनीति कविता पर हमला करती है, कभी कविता राजनीति पर। मैं दोनों का द्वंद्वयुद्ध रोकने के प्रयत्न में स्थायी तौर पर जख्मी होकर रह गया हूँ - जख्मी, मगर अपंग नहीं।' यही है कवि की जिजीविषा जो जीवन में तमाम निराशाओं के बावजूद आस्था और सहानुभूति का स्वर सुनाती है। संवेदना का स्वर उभर कर आता है। जीवन की यांत्रिकता को नकारते हुए नैसर्गिक को महत्व दिया जाता है। कवि खोजता है एक घर जिसमें मनुष्य रहे, मानवता जीवित रहे, तमाम मानवीय गुण मौजूद रहें। उसी घर के संधान में निकला हो मानो कवि -

'कहाँ है तुम्हारा घर? अपना देश खोकर कई देश लाँघ

पहाड़ से उतरती हुई

चिड़ियों का झुंड

यह पूछता हुआ ऊपर-ऊपर

गुजर जाता है : कहाँ है तुम्हारा घर

दफ्तर में, होटल में, समाचार-पत्र में,

सिनेमा में

स्त्री के साथ एक खाट में?' 27

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ और औद्योगिक क्रांति ने पूरे विश्व में यांत्रिकता को बढ़ावा दिया है। बड़े और घने जंगलों को काटकर दैत्याकार उद्योग स्थापित किए जा रहे हैं। विदेशी कंपनियाँ भारत में अपनी जड़ जमाने में व्यस्त हैं। पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। कवि इस समय को अस्वीकारते हुए कहता है - 'बंद करो कपड़ा बुनने वाली मिल!'

पूँजीवादी सभ्यता का विस्तार हुआ तो समाज-स्थितियाँ भी प्रभावित हुईं। ईमानदारी, नैतिकता, कर्तव्यपरायणता, न्याय, सदाचरण, विवेकशीलता जैसे नागरिक गुणों-मूल्यों की तिलांजलि दे दी गई। भयानकता, संत्रास, वीभत्सता आदि से मानव-जीवन कराह उठता है। श्रीकांत ने इस स्थिति का चित्रण किया है -

'इस भयानक समय में कैसे लिखूँ

और कैसे नहीं लिखूँ!

सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूँ

घृणा नहीं, प्रेम करो -

किससे करूँ प्रेम? मेरे

चारों ओर हत्यारे हैं।

नागरिकों! सावधान, रास्ते के दोनों ओर

वधिक हैं -' 28

तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिम्मत हारना कवि के लिए अग्राह्य है। उनकी कविता में क्षोभ है तो करुणा भी। अनास्था है तो आस्था भी। अनास्था अपने समय की अराजकता से तो प्रबल आस्था जनता से। शब्द भोथरे हो सकते हैं पर शब्द हैं। जनता सुषुप्तावस्था में हो सकती है परंतु उसे जगाया जा सकता है -

'कुहरे में डूब गए हैं कुछ नारे

धूल में पड़े हैं

कुछ शब्द,

उठाओ, इन शब्दों को उठाओ,

क्रांति की प्रतीक्षा करती हुई

जनता सो गई है!' 29

श्रीकांत वर्मा ने अपनी कविता में अतीत और वर्तमान का सुंदर समन्वय किया है। कवि ने साहित्यिक उत्प्रेरणाओं के लिए अतीत यानी इतिहास को सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार किया है। प्राक् स्वतंत्रता काल में ही नहीं बाद के रचनाकारों ने भी अतीत के गौरवगान द्वारा वर्तमान को दिशा-निर्देश देने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में श्रीकांत वर्मा का 'मगध' अन्यतम है। 'मगध' एक ऐतिहासिक गाथा ही नहीं है बल्कि यह कवि के दार्शनिक चिंतन का भी प्रतिफलन है। यह अतीत का स्मृतिलेख ही नहीं, वर्तमान का यथार्थ भी है। इसमें श्रीकांत का काव्योत्कर्ष है। इतिहासबोध भी। 'कविता की समकालीनता' में डॉ. बली सिंह ने श्रीकांत की कविताओं में वर्णित इतिहास पर चर्चा करते हुए कहा है - 'अनेक आक्रमणकारी आए, उन्होंने रक्तपात किया, अनेक बड़े-बड़े राजा हुए जैसे अशोक, बिंबसार, बाबर इत्यादि जिन्होंने सत्ता के लिए बहुत सारी लड़ाइयाँ लड़ीं और अनेक नगर बसाए, लेकिन अंततः क्या हुआ, न आक्रमणकारी रहे, न राजा रहे और न नगर, सब के सब धीरे-धीरे काल के गर्त में चले गए, सब नष्ट हो गए, जो नगर बचे भी हैं, उनका मूल स्वरूप नष्ट हो गया, अब वे वहीं नहीं हैं जो पहले थे।' 30 काल की शाश्वतता में सब कुछ विलीन हो जाता है। चीजें तो नश्वर होती ही हैं, राज-पाट, वैभव भी विनष्ट हो जाता है। शहर वही रहता है परंतु शहर का चरित्र बदल जाता है। लोग वही रहते है परंतु वे अर्थहीनता के बोध से ग्रसित हो जाते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी पाशविक-वृत्तियों का भी विनाश करे, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हेतु प्रयास करें :

'उज्जयिनी

उज्जयिनी नहीं रही जैसे कि

मगध

मगध नहीं रहा

काशी में

शवों का हिसाब हो रहा है

मिथिला में

विश्वामित्र, वशिष्ठ

कोई नहीं रहा

महाराज! सभी नश्वर हैं

कोई अमर नहीं।' 31

विचारों की कमी हो तो देश का पराभव निश्चित हो जाता है। विचारों की कमी की उद्घोषणा पूरे देश के लिए एक चेतावनी है। टिके रहने के लिए, अस्मिता को बचाये रखने के लिए विचारों का होना जरूरी है। विचारों का अभाव देश में सर्वनाश का मूल कारण बन जाता है। श्रीकांत ने कहा है -

'कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,

कोसल में विचारों की कमी है।'32

घोटाले की दुनिया में भ्रष्टाचार आम बात बनकर सामने आ रहा है। श्रीकांत ने इस भ्रष्टाचार के नग्न रूप को अपनी आँखों से साक्षात्कार किया और उसका खुला चित्रण भी प्रस्तुत किया है। राजनेताओं की सुरा-सुंदरियों में आसक्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। कवि ने अपने समय के जनप्रतिनिधियों का चित्रण किया है। इसमें इतिहास को आधार बनाया गया है। यूँ कह सकते हैं कि इतिहास यानी अतीत के बहाने अपने समय का सच प्रस्तुत है -

'मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे

जो थे

वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण

इस लायक

नहीं रहे।' 33

बात केवल मगध की नहीं, अवंती, कोसल, विदर्भ आदि तमाम जनपदों की है यानी पूरे भारत की स्थिति है। कानून, व्यवस्था, धर्म, समाज आदि तमाम अंग अपंग हो रहे हैं। परंतु 'लोकतंत्र' जीवित है। लोकतंत्र के बहाने राजतंत्र पनप रहा है। कवि ने कहा भी है -

'फैसला हमने नहीं लिया

सिर हिलाने का मतलब फैसला लेना नहीं होता

हमने तो सोच-विचार तक नहीं किया।'34

इसलिए श्रीकांत वर्मा का कवि 'जनतंत्र' के नाम पर हो रहे नाटक का खुलासा करना चाहता है। व्यवस्था में घुन लग चुका है। दुर्नीति, दुराचरण, असत्य का राजमार्ग खुल चुका है। भाई-भतीजावाद, अलगाववाद, रक्तपात, हिंसा, दमन, असहिष्णुता, कट्टरवादिता वैश्विक स्तर पर तांडव-नृत्य कर रहे हैं। इन्हें हमारे राजनेता छल, झूठ, धोखाधड़ी, जालसाजी, षड्यंत्र के अस्त्रों से भड़काने में लगे हैं। ऐसे तथाकथित देशसेवियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए कवि प्रहार करता है -

'हत्या करता है शकटार

चंद्रगुप्त गले से लगाता है

कभी-कभी हत्या करता है चंद्रगुप्त

शकटार गरदन झुकाता है।' 35

शासक प्रजाओं की भला क्यों सुने? प्रजा पर उसका अखंड प्रताप बना रहना चाहिए। इसके लिये प्रजाओं में डर और फैलाने की आवश्यकता महसूस करता है। दहशत उत्पन्न करता है। प्रजा से दूरी बनाये रखता है। 'लोकतंत्र' को हिटलरी शासन का जामा पहनाता है। बोलने का अधिकार छीन लेता है। कवि के शब्दों में -

'कोई नहीं सुनता।

हस्तिनापुर में सुनने का रिवाज नहीं

जो सुनते हैं

बहरे हैं या

अनसुनी करने के लिए

नियुक्त किए गए हैं।' 36

श्रीकांत वर्मा ने 'मगध' के बहाने समकालीन भारत के सच को उज्जीवित किया है। अपने समय के विद्रूप यथार्थ की अभिव्यक्ति की है। इस संकलन की कविताओं में मनुष्य की असमर्थता को रेखांकित किया गया है। उसके कुछ न पाने की पीड़ा को बार-बार उकेरा गया है। यंत्रणादायक परिस्थितियों पर कवि-चिंता प्रकट हुई है। इतना सब कुछ होने पर भी भयावह परिस्थितियों को परिवर्तित करने की एक अगाध आस्था है। प्रबल विश्वास से भरकर श्रीकांत वर्मा का कवि-मन कहता है -

'मित्रो,

तीसरा रास्ता भी है।' 37

श्रीकांत आजीवन अपने से लड़ते रहे, जूझते रहे। उनकी कविताओं में उनका जीवन तो है ही साठोत्तरी निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन का भी आरेखन है। जहाँ वे अन्याय, छल, छद्म, असत्य, असदाचरण, हिंसा, अत्याचार, अमानवीयता की क्रूरता एवं विद्रूपता की दुखद गाथा प्रस्तुत कर रहे हैं वहाँ उनके मन में मानवता को बचाये रखने का एक प्रयास दिखाई पड़ता है। वस्तुतः उनकी कविताओं का केंद्रबिंदु मनुष्य है। मनुष्य के सुख-दुख, आनंद-विषाद, आशा-निराशा की गाथा को कवि ने अपने तरीके से बेहद निराले रूप में प्रस्तुत किया है। श्रीकांत ने अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक यथार्थ का दर्पण समाज के समक्ष खड़ा कर दिया है। उस दर्पण में मनुष्य समाज की संपूर्ण स्थितियाँ बिंबित होती हैं।

संदर्भ

1. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 16

2. यथोपरि, पृ. 7

3. वर्मा श्रीकांत, भटकामेघ, पृ. 49

4. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 24

5. यथोपरि, पृ. 24

6. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 42

7. वर्मा श्रीकांत, प्रतिनिधि कविताएँ, पृ. 36

8. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 64

9. वर्मा श्रीकांत, जलसाघर, पृ. 25-26

10. यथोपरि, पृ. 100-101

11. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 29

12. यथोपरि, पृ. 36

13. यथोपरि, पृ. 37

14. वर्मा श्रीकांत, गरुड़ किसने देखा है, पृ. 12

15. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 38

16. यथोपरि

17. यथोपरि, पृ. 332

18. यथोपरि, पृ. 331

19. यथोपरि, पृ. 329-30

20. यथोपरि, पृ. 68

21. यथोपरि, पृ. 69

22. यथोपरि, पृ. 70

23. यथोपरि, पृ. 73

24. यथोपरि, पृ. 77

25. यथोपरि, पृ. 99

26. यथोपरि, पृ. 72

27. यथोपरि, पृ. 73-74

28. यथोपरि, पृ. 96

29. यथोपरि, पृ. 97

30. सिंह बली, कविता की समकालीनता, पृ. 76-77

31. वर्मा श्रीकांत, मगध, पृ. 22-23

32. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 115

33. यथोपरि, पृ. 121

34. वर्मा श्रीकांत, मगध, पृ. 17

35. यथोपरि, पृ. 91

36. यथोपरि, पृ. 20

37. वाजपेयी उदयन (सं), श्रीकांत वर्मा संचयिता, पृ. 123