समय की जंजीरें / अशोक भाटिया
यह कहानी भारत के एक छोटे-से शहर की है।
शहर ने देखा, कि उसके एक छोटे-से स्कूल में एक वक्ता भाषण दे रहा था- ‘‘हमें बराबरी का व्यवहार करना चाहिए...नया इतिहास तभी लिखा जा सकेगा... समय तभी बदलेगा...‘‘
यह सुनकर इतिहास ने अपने पाँच हजार साल पुराने, घायल पंख फड़फड़ाये। उसके पंखों पर जाति और धर्म के अनवरत प्रहारों के असंख्य जख्मों के निशान थे। वक्ता का भाषण सुनकर समय की ज़ंग - लगी ज़ंजीरें कुछ समय के लिये हिलीं।
किसी छात्र ने कुछ पूछना या कहना हो, तो कह सकता है’- भाषण खत्म होने पर मंच-संचालक ने कहा।
अपने इतिहास के जख्मों को एक तरफ करते हुए, एक साहसी लड़की उठी। वह अपने साँवले माथे से पसीना पोंछते हुए कुछ कहने को तत्पर हुई। इतिहास ने उसे ध्यान से देखा। समय का ध्यान अपनी जंजीरों की तरफ गया। इससे पहले कि वह लड़की कुछ बोल पाती, उसे देखते ही, दो और लड़कियाँ खड़ी हो गईं। उन्हें अपने इतिहास पर गर्व था। दोनों लड़कियों ने साँवली लड़की को ऐतिहासिक उपेक्षा से देखते हुए अपनी बात पहले कहने की मुद्रा बना ली। यह स्थिति देखकर इतिहास के घायल पंखों में फिर पीड़ा हुई। समय की जंजीरें फिर कस गईं।
साँवली लड़की की आँखों में पाँच हजार वर्षों की पीड़ा साकार हो उठी। उसमें अपनी बात कहने की कसमसाहट थी। स्थिति की गंभीरता को देखकर इतिहास उठा और बारी-बारी से उपस्थित श्रोताओं की आँखों में झाँकने के बाद स्कूल की प्रधानाध्यापिका के सामने आकर खडा़ हो गया। उसके मन में भी पीड़ा के इतिहास का एक अंश विद्यमान था।
‘आप दोनों बैठ जायें...पहले वह छात्रा अपनी बात बात कहेगी जो पहले उठी थी...।‘ प्रधानाध्यापिका ने आदेशात्मक संकेत करते हुए कहा।
मानो दबी हुई गेंद पर से किसी ने पैर का दबाव हटा दिया हो, वह छात्रा अपनी बात कहने लगी। कहने लगी, तो कहती गई, कहती ही गई....
इतिहास ने अपनी भारी-भरकम देह के जख्मों पर थोड़ा मरहम महसूस किया।
समय की ज़ंग - भरी ज़ंजीरों में कसमसाहट हुई...