समय की विसंगतियों से टकराती 'समीप' की गज़लें / शिवजी श्रीवास्तव

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हरेराम समीप चयनित ग़ज़लें, संस्करण-2023, मूल्य: 200₹, पृष्ठ: 108, प्रकाशक-न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110012 आज के हालात बतलाना जरूरी हो गया

इसलिए मुझको ग़ज़ल गाना ज़रूरी हो गया।

अनेक विधाओं के सिद्धहस्त रचनाकार श्री हरेराम 'समीप' जी की एक ग़ज़ल का यह मतला उनके रचना-सरोकारों को स्पष्ट करने का एक उदाहरण मात्र है। समीप जी एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं, उनकी प्रतिबद्धता जन सामान्य की बेहतरी और खुशहाली के प्रति है। जन सामान्य की पीड़ाओं, बदहाली, जीवन-संघर्षों और व्यवस्था के छल से उपजे द्वंद्वों को उनकी ग़ज़लें प्रभावी ढंग से स्वर प्रदान करती हैं। अभी हाल ही में 'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' ने समकाल की आवाज शृंखला के अंतर्गत उनकी सौ प्रतिनिधि ग़ज़लों का एक संग्रह 'हरेराम समीप चयनित गज़लें' शीर्षक से प्रकाशित किया है। संग्रह में संकलित सभी ग़ज़लों में उनकी ये प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। संग्रह की समस्त गज़लें वर्तमान के विद्रूप को उद्घाटित करती हुई समय के ज्वलंत प्रश्नों से लगातार जूझती दिखलाई देती हैं। अपनी गज़लों के विषय में उन्होंने स्वयं ही संग्रह की भूमिका में लिखा है-

आज ये जो भयावह स्थितियाँ हमारे सामने हैं-सृजन पर विध्वंस का आक्रमण हो रहा है, संरक्षण से अधिक विनाश की शक्तियाँ बलवती हो रही हैं, छल, कपट, लालच, आतंक और क्रूरता मूल्यों में बदल रहे हों, जहाँ जीवन पर हमारा दृढ़ विश्वास भी दरकने लगा हो, आस्थाएँ खण्डित हो रही हों और बाज़ार तथा कट्टरता ने बर्बरता की सभी सीमाएँ लाँघ दी हों, तब ये गज़लें क्रूर वास्तविकताओं की पड़ताल करते हुए अपने समय से टकराना चाहती हैं और मानवता की रक्षा करना चाहती हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि समीप जी की ग़ज़लें समय की भयावह सचाइयों को न केवल सामने लाती हैं अपितु उनसे टकराती भी हैं। उनकी ग़ज़लें व्यवस्था के छद्म को बेनकाब करने का प्रयास करती हैं, वे स्पष्ट कहते हैं-

" समय का रावणी अब आचरण है

जहाँ देखो सीताहरण है।

सियासत की चलो पर्तें उधेड़ें

जहाँ अब आवरण ही आवरण है।

सियासत में आवरण ही आवरण इसलिए हैं; क्योंकि सत्ता में चाहे जो हो व्यवस्था का चरित्र वही रहता है। नेतृत्व किसी का हो उसे पहले व्यवस्था के हितों का पोषण करना होता है-

ये रहे या वह रहे अंतर नहीं है,

आज सच्चा कोई भी लीडर नहीं है।

इक सफर के बाद हम पहुँचे जहाँ पर

उस जगह भी ज़िंदगी बेहतर नहीं है।

वर्तमान परिदृश्य ऊपर से भले ही मोहक दिखलाया जा रहा हो पर वस्तुस्थिति भिन्न है। ये बाज़ार का युग है। पूँजीवाद का ये सबसे विकृत और छली रूप है। बाज़ार का विस्तार मनुष्य की निजता को खण्डित करते हुए उसे अकेला कर रहा है। बाज़ार अपने सम्मोहन में व्यक्ति को वैसे ही उलझा रहा है जैसे मकड़ी अपने जाल में शिकार को उलझाती है, विडम्बना यह है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सत्ताएँ भी बाज़ार के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं-

लोग धोखा खा गए इस बार फिर मतदान में

फँस गए मजदूर जैसे कोयले की खान में

जाल मकड़ी बुन रही है यूँ निराले ढंग से

हर कोई फँसता मिला बाज़ार की मुस्कान में।

लोकतंत्र में आम जन चुनी हुई सरकार पर विश्वास करता है, वह वोट देकर अपने हितों की सरकार चुन लेने के भ्रम में जीता है पर वह जिन्हें अपना रहनुमा समझता है जिन पर अटूट विश्वास करता है वे भी बाज़ार के साथ खड़े नजर आते हैं-

सूरज दिखाके हमको नए इश्तिहार में

ले जा रहा वह रहनुमा अंधकार में।

सब कुछ तो बेचने पर तुला है वह आजकल

पानी, हवा, प्रकाश, ज़मीं कारोबार में।

बाज़ार के विस्तार ने मनुष्य को बहुत अकेला करके उसे त्रासद स्थितियों में जीने को अभिशप्त कर दिया है। वर्तमान की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि व्यक्ति ने स्वयं को सामाजिक सरोकारों से पृथक् कर लिया है। भीड़ भरे स्थलों पर, सड़कों पर नृशंस अपराध होते रहते हैं पर चलती हुई भीड़ सबसे निरपेक्ष बनी रहती है कहीं कोई संवेदना नहीं दिखती, कहीं कोई हलचल नहीं, अपराध और अपराधियों के प्रतिरोध में कहीं एक स्वर नहीं उठता-

तमाचा मार लो, बटुआ छुड़ा लो, छ भी कर डालो,

ये दुनियादार शहरी हैं, इन्हें गुस्सा नहीं आता।

आदमी के मनोबल के गिरने का मूल कारण यही है कि उसे धीरे-धीरे अकेला किया गया है उसे समस्याओं में उलझाया गया, परस्पर लड़ाते हुए कमजोर किया गया इसके साथ ही भ्रष्ट तंत्र को खाद-पानी देकर पुष्ट किया गया। ये सिलसिला लंबे अंतराल से चल रहा है, सत्ता कोई भी हो व्यवस्था के चरित्र में बदलाव नहीं आया। ऐसी अवस्था में आम आदमी असहाय और कमजोर हुआ है-

एक लंबी यात्रा उपरांत जो ये घर मिला

उसके हर कोने में हमको सिर्फ डर ही डर मिला।

वो मिला तो हमने समझा हो गई पूरी मुराद

देवता की शक्ल में लेकिन वह सौदागर मिला।

झूठ, लो लुपता और परस्पर के झगड़े वर्तमान की तीखी सच्चाइयाँ हैं। अकाल हो या दंगे अर्थसत्ता अपने लाभ के रास्ते खोज लेती है, इस तथ्य को समीप जी बड़ी सादगी से कह देते हैं-

क्या हुआ जो अकाल है यारो

शेयरों में उछाल है यारो।

वक्त का ये कमाल है यारो

झूठ अब मालामाल है यारो।

समाज में बढ़ता वैमनस्य और विद्वेष रोज ही नए झगड़ों को जन्म दे रहा है। लोग परस्पर अनावश्यक मुद्दों पर उलझ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। इन झगड़ो की जड़ें कहाँ है कोई नहीं जानना चाहता। इस तथ्य को समीप जी बड़े प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त करते है-

क्या हुआ क्यों बाग के सारे शज़र लड़ने लगे,

आँधियाँ कैसी हैं, जो ये घर से घर लड़ने लगे।

मेरा साया तेरे साये से बड़ा होगा इधर,

बाग में इस बात पर दो गुलमोहर लड़ने लगे।

ऐसे भयावह समय में साहित्यकार का दायित्व कुछ और बड़ा हो जाता है। एक साहित्यकार ही है जो आम आदमी के हक की लड़ाई लड़ सकता है, व्यवस्था के विरोध में खड़ा हो सकता है, पर विडम्बना यह है कि साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग भी अपने दायित्त्व से विमुख होकर चारणों की भूमिका में आ गया है। समीप जी अपने वर्ग के इस चरित्र पर भी तीखा कटाक्ष करते हैं-

हमको सोने की कलम, चाँदी की स्याही चाहिए,

शेर कहने के लिए साकी, सुराही चाहिए।

रख दिए हैं ताक पर सबने ही अब जलते सवाल,

आज के फनकार को बस वाहवाही चाहिए॥

समस्या इतनी ही नहीं है कि एक बड़ा वर्ग चारण-मुद्रा में है बल्कि जो लोग सच के पक्ष में अपनी आवाज उठा रहे हैं उन्हें हतोत्साहित करते हुए उस मार्ग से विरत करने की कोशिशें हो रही हैं; पर सच्चे साहित्यकार को मालूम है कि व्यवस्था से लड़ने के पास उसके पास यही अब आखिरी हथियार है; अतः उसे छोड़ना सम्भव नहीं-

शाम होते ही हमेशा सुबह का पीछा करूँ,

रोशनी की खोज में चलता रहूँ चलता रहूँ।

दोस्तों की राय है मैं शायरी अब छोड़ दूँ

जंग में ये आखिरी हथियार कैसे डाल दूँ।

जिसे शायर आखिरी हथियार कह रहा है, वह उसके पास एकमात्र ऐसा हथियार है, जिससे व्यवस्था को भय लगता है। उसी हथियार से वह व्यवस्था पर भरपूर चोट करते हुए उनके छद्म चेहरे को सामने लाता है। व्यवस्था के चरित्र पर प्रहार करते हुए शायर कहता है-

देखना फ़रमान ये जल्दी निकाला जाएगा,

जुर्म होते जिसने देखा मार डाला जाएगा।

मसखरों के स्वागतम में गीत गाए जाएँगे,

शायरों को बज़्म से बाहर निकाला जाएगा।

समीप जी की ग़ज़लों में कथ्य के साथ ही कहने के अंदाज़ की सादगी भी दिल में उतर जाती है। उनके कुछ बिम्ब सर्वथा अनूठे हैं। यथा-

सादगी अब हो गई घर का पुराना रेडियो

जिसको दादाजी चलाएँ शून्य में खोए हुए।

इसी प्रकार आज की स्त्री के तेज को चित्रित करता यह शेर-

होठों पर मुस्कान समेटे रोष दमकती आँखों में

आज बगावत का है दफ्तर हर औरत की आँखों में।

अपनी बात कहने के लिए समीप जी भारी भरकम शब्दों का सहारा नहीं लेते। उनकी हर ग़ज़ल में सीधी सादी शब्दावली का प्रयोग होता है जहाँ आवश्यक होता है वे प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी खूबसूरती के साथ करते हैं-

वक्त के इस 'शार्पनर' में ज़िंदगी छिलती रही,

मैं बनाता ही रहा इस पेंसिल को नोकदार।

इसी प्रकार-

कोई 'आल्टरनेट' उसका है नहीं अब,

ये समय के प्रश्न का उत्तर नहीं है।

कथ्य और शिल्प के साथ ही समीप जी की ग़ज़लों का वैशिष्ट्य उनके सरोकारों में है जिसके विषय में वे स्वयं लिखते हैं-...प्रत्येक रचनाकार का सबसे बड़ा सरोकार यथास्थिति को बदलना है। मैं भी अपनी गज़लों के जरिए जनमानस के मन में जीवन के प्रति आस्था, आत्मीय भाव और प्रगतिशील चेतना को जगाते रहना अपना अभीष्ट समझता हूँ।

इसी आस्था और चेतना जगाने के प्रयास में जुटे समीप जी कहते हैं-

आइए कुछ देर बैठें प्यार की बातें करें,

ख्वाब में देखे नए संसार की बातें करें।

सोचिए कैसे बचे खूशबू हमारे बाग की,

हर शिकस्ता पेड़ के उपचार की बातें करें।

दुष्यंत कुमार ने तो घोषणा की थी-चलो यहाँ से चलें और, उम्र भर के लिए। ...पर समीप जी कुछ आगे की बात करते हुए नया स्वप्न देखते हैं-

चलो ज़माने का नक्शा नया बनाते हैं

बिगड़ गया है अब ये दूसरा बनाते हैं

बनी बनाई किसी राह पर चलें कब तक

चलो सफर का नया मसविदा बनाते हैं।

निःसन्देह समीप जी की ग़ज़लें ज़माने का नया नक्शा बनाने के लिए नई राहों को खोजने की यात्रा पर हैं। -0-