समय के दो भाई / चन्दन पाण्डेय

Gadya Kosh से
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पता नहीं कौन से समय की बात है कि उसके दो भाई थे। पहले का पुकार नाम बड़े था और दूसरे का - बहुत बड़े। दोनों अमीरजादे, ख्याली, शराबी और आलसी थे। इसलिए चिंतक भी। ये दोनों भाई शराब की ही नींद उठते थे। सुबह का कुल्ला बीयर से और निबटान आदि का काम सस्ती शराब से करते। स्नान करते हुए शराब की बाल्टी में दो बूँद डेटॉल डालना कभी जो भूले हों। किसी स्त्री को चूमते, हालाँकि ऐसे मौके जाहिलों की जिंदगी में कम ही आते हैं, तो उसके होठों या अन्य जगहों पर शराब की धार रख कर ही चूमते थे। पढ़ना लिखना इसलिए नहीं सीखा क्योंकि स्याही शराब नहीं थी।

दोनों के बोलते ख्यालों से संघातियों, पड़ोसियों के कान घायल हो चुके थे। पीने की कामना सँजोए लोग आते, पीते और इनकी खाम ख्यालियों से चोटिल होते। पहला घूँट अंदर जाते ही बहुत बड़े की आँखें मुँद जाती और ‘बड़े’ कागज, कलम, इंचटेप, रंगीन पेंसिल लेकर बैठ जाता। इनके पैसे से पीने वाले चापलूस इनकी मटमैली करतूत देखते।

इन दोनों लखेरों को बिरसे में इतनी जमीन मिली हुई थी कि हर दिन पीने के बाद नए नए कारखाने और उद्योग धंधे लगाते। योजनाओं की लकीर खींचने में माहिर हो चुके थे। पिनक में ‘बहुत बड़े’ कारोबार सुझाता और बड़े उसका नक्शा खींच कर दिखा देता। कारखाना लगाने के बाद मजदूरों के लिए घर बनाता। उन घरों को सस्ते ब्याज पर अपने ही मजदूरों को बेचता। बाद के दिनों में कारखाने से नजदीक ही बड़े बड़े फ्लैट भी बनाए। उनके आजू बाजू जो तरणताल बनाए। उसमें हंस, बत्तख और दुनिया की सभी रंगीन मछलियाँ भी रख आए। इससे जो मुनाफा हुआ उससे उन्होने खूब सारी शराब खरीदी। वो शराब उन साथियों को पिलाई जो वहाँ बैठे उनका ख्यालनामा सुन रहे थे।

शराब की लत तो धर्म जैसी ही बुरी होती है।

धीरे धीरे शराब ने अपना रंग दिखाया। इनके लिए वो कम पड़नी शुरु हुई। पीने का आलम यह था कि अपना पैमाना भर लेने के बाद दूसरे पैमानों पर नजर रखते। जैसे ही कोई अंजान या दुखियारा अपनी ग्लास नीचे रखता, दोनों भाई उसे गटक जाते। दुखियारा अपना सा मुँह भी नहीं रख पाता था।

वो हर सुबह सोचते, किसी तीसरे पियाक को आमंत्रित नहीं करेंगे। तैयारी करते, आज से सारा काम खुद ही करना है। शाम होते न होते दोनों कुछ घूँट से गला खंगाल कर सोचते, सलाद कौन काटेगा? चखना कौन बनाएगा? और सबसे महत्वपूर्ण यह कि किसिम किसिम के पैग कौन बनाएगा? इसलिए, शराब कम पड़ जाने की कीमत पर भी लालची शराबियों को जमा कर लेते और फिर शराब और ख्याली पुलावों का दौर शुरु होता।

जब से उनकी शराब कम पड़नी शुरु हुई उन्होने हर बार शराब के कारखाने सँजोए। नक्शा अलग होता और उससे बनने वाली शराब भी। बीच बीच में मजे लेने के लिए साथी पियक्कड़ भी दो चार राय उड़ेल देते। दीवाल शराब के रंग की होनी चाहिए। शराब की टंकियाँ अलमुनियम के नल से जुड़ी हों तो कितना अच्छा रहे। या ऐसी ही कोई सलाह। दोनों भाई साथियों के सलाह तब तक मन से सुनते जब तक शराब बची रहती।

ऐसा ही कोई अनगढ़ दिन रहा होगा कि इनके शराबी साथियों के साथ एक नया आदमी चला आया था। नौउम्र ही था और इनकी कारस्तानियों से नावाकिफ था। दौर शुरु हुआ। पहले या दूसरे पैग के बाद जहाँ दोनों भाइयों ने शराब का कारखाना लगाना शुरु किया वह इस नए आदमी की बस्ती से सटे हुए मैदान पर था। उसे यह सारा जतन अजूबा अजूबा लगा। शराब के कारखाने की बात से उसे आश्चर्य कम हँसी अधिक आ रही थी। चूँकि नया नया था इसलिए दोनों भाइयों की बातों के चक्कर में उसे सारा कुछ सच में तब्दील होता लगा। लगा कि शराब के कारखाने से उसकी बस्ती न उजड़े तो बाकी चीजें बर्दाश्त की जा सकती हैं। इन ख्यालों में खोने से पीने की उसकी गति कम हो गई थी।

इधर दोनों भाइयों ने शराब का कारखाना लगा तो लिया था पर वहाँ तक पहुँचने के रास्ते में बस्ती आ रही थी। गटागट पीते हुए बहुत बड़े ने सुझाया, अगर बस्ती वालों को कारखाने की मजदूरी दे दें तो वो शायद जमीन छोड़ दें। यह सलाह सबको पसंद आई, सबने इशारे से हुँकारी भर दी। मुँह किसी ने नहीं खोला। वजह? पीने का क्रम रुक जाता। घूँट रोककर बोलना पड़ता और इतनी देर में मौजूद पियाक लोग सारी शराब खाली कर देते। नए साथी के साथ यह दिक्कत नहीं थी। उसने कुछ कहने के लिए ग्लास नीचे रखा तब तक बहुत बड़े ने व्यंग्य बाण छेड़ दिए, क्यों साहब, जो पीने में इतना धीरे हो वो जीवन में कितना होगा?

अपमानित नया साथी बोल पड़ा, जी, मैं पीकर आया हूँ। इस जवाब से चकित हो सबने एक स्वर में पूछा, कहाँ? कहाँ पी आए? नए साथी ने अपना समय लिया, घूँट भरकर बड़े की ओर इशारा करते हुए कहा, इनकी फैक्ट्री से। बहुत बड़े को इस जवाब पर यकीन नहीं हुआ। अपने को होश में लाने के लिए शराब से मुँह धोया और उसके ही छींटे मारे, पूछा, कब? नया आदमी का जवाब, शाम ही को तो।

उस रात दोनों भाइयों की नींद कहीं बह गई थी। बेचैन। करवट-करवट। आधी रात के वक्त बहुत बड़े ने कहा, अब? बड़े गुमसुम था। दो चार पहर बाद जो कुछ बोला उसे सुन कर बहुत बड़े जान गया कि यह उसके ही सवाल का जबाव था। बड़े ने कहा था, इधर हम प्यासे रहते आए और हमारे ही कारखाने से शराब चोरी होती रही। बहुत बड़े ने फिर पूछा, तब? तब क्या? दोनों ने एक साथ जवाब सोचा, इस तरह तो ये बस्ती वाले एक दिन सारी शराब पी जाएँगे।

दोनों आलसी भाइयों में जाने कहाँ से ऊर्जा भर गई थी। उन्होने पुलिस वालों को किराए पर उठाया और बस्ती को आग के हवाले कर दिया। बस्ती वाले नींद के सताए हुए थे, आग की मार कहाँ झेल पाते। भगदड़ - भगदड़। पल भर में आठों दिशाएँ लोगों से भर गई और बाकी बची दो दिशाएँ उनके शोर से। अगलगी के मुहाने से बाहर निकलते ही उन पर पुलिस की लाठियाँ पड़ रही थीं। बड़े और बहुत बड़े ने भी मोर्चा सँभाल रखा था। लोगों को पीट पीट कर पूछ रहे थे : और पियोगे शराब? चोर सब। और शराब पियो, सालों। पैर तो रखो कारखाने में, काट दिया जाएगा।

किसी ने अपने अंतर्मन में इस घटना या इन दो बदमाशों ‘बेचारों’ का समर्थन नहीं किया। सैकड़ों लोग जले थे। गरीबों के जीवन में बमुश्किल जुटे संसाधनों का भयानक नुकसान हुआ था। मीडिया के भले लाचार गुस्से में आकंठ डूबे हुए थे। वो तो दुनियादारी के तकाजे थे वरना सभी अखबार और मीडिया वालों ने इनकी इस जली हुई करतूत के खिलाफ मोर्चा कस लिया होता। इसलिए इस खबर को लिखने के बाद शहर का सबसे नामी पत्रकार दो मिनट अपने झूठ पर उदास हुआ, फिर यह सोच कर खुश हुआ कि जब वह इतना सफेद झूठ बोल सकता है तब वह अपनी किस्मत साहित्य में क्यों नहीं आजमाता। उसने खबर यह बनाई थी : दैवीय चमत्कार - काल्पनिक शराब फैक्ट्री में लगी आग से बस्ती स्वाहा।

सुनने में आया, कोतवाल साहब उन दोनों पर सख्त नाराज हैं और उन्हें बंद करना चाहते हैं पर वो क्या करें। बेचारे वचन से बँधे हुए हैं। वो दोनों बच्चे कोतवाल को मामा कह कर पुकारते हैं। हकीकत यह है, कोतवालिन ने बहुत बड़े की निगाहों में छुपे चोर का जिक्र नहीं किया कि जब वो कोतवालिन को मामी कहता है तो उसके ऐंठे हुए शब्दों से और निगाहों से कैसी दुर्गंध उठती है।

न्यायाधीश के गुस्से का भी पारावार नहीं था और वह खरा गुस्सा था। वो तो जैसे सचमुच उसी आग में जल आए थे। आज कहने वाले जो भी कहें पर न्यायाधीश साहब जानते हैं कि उनके मन में जल चुके लोगों के लिए क्षोभ और दया का भाव था। वो उन लोगों के लिए कुछ करना चाहते थे पर नहीं कर सके। जान पहिचान का दु:ख उन्हें साल रहा था, काश वो सारे अमीर उमरा अपरिचित होते तो सजा सुनाई जा सकती थी।