समय के शिल्प में एक प्रेम का कथ्य / विमल चंद्र पांडेय

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लड़का बार-बार लड़की का फोन मिला रहा था कि यह खुशखबरी सबसे पहले उसे सुना सके पर उसका फोन बिजी था। आज एक लंबे समय के बाद लड़का खुश था।

‘मैं हमेशा लड़की बने रहना चाहती हूँ। ‘लड़की अक्सर तब कहती जब सुरमई शाम उसके बालों में खो चुकी होती और लड़का उसके बालों में उसे ढूँढ़ रहा होता। जगह कोई भी हो सकती थी, लड़के के घर का टेरेस या किसी पब्लिक पार्क का कोई कोना।

बदले में अक्सर लड़के के चेहरे पर एक नटखट मुस्कान उतर आती और वह झुककर लड़की के कान में कुछ कहता कि लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो जाता। वह तुनक जाती और थोड़ा मान मनौवल करने पर मान जाती। इस बार जब वह बातों को सिरा लेकर दौड़ती तो लड़का उसे ढीला छोड़ देता।

‘और तुम हमेशा लड़के बने रहो।’ यह वाक्य भी उन दिनों उसका पसंदीदा था।

‘देखो, अमूमन मैं ऐसा कहता नहीं हूँ।’ लड़का उन दिनों अमूमन हर बात की शुरुआत में ऐसा ही कहता था। ‘पर जैसा तुम सोचती हो दुनिया वैसे नहीं चलती। हर लड़की फिल्मों, गीतों, कहानियों, कविताओं और सैर सपाटों से आगे जाकर कुछ जिम्मेदारियाँ लेती है जैसे शादी, फिर बच्चे, फिर उनकी परवरिश।’

‘नहीं, मैं नहीं चाहती कि मैं खूसट औरतों की तरह चालीस में जाऊँ तो मेरे आस पास जेब खर्च के लिए सिर खानेवाले टीनेजर बच्चे हों और मैं समय निकाल कर टीवी के सड़े सास बहू वाले धारावाहिक देखूँ। मेरा बदन थुलथुल हो जाए ओर मैं कोई कविता सुनूँ तो कुछ देर अपना सिर खुजलाऊँ फिर किचेन में जाकर छौंकन बघारन करूँ। मैं बूढ़ी होने पर भी इतनी क्षमता चाहती हूँ कि कविताएँ पढ़ और समझ सकूँ।’

ये एक कठिन निर्णय के दिन थे जिसमें लड़का कभी खुद को मजबूत पाता तो कभी लड़की को। लड़का परेशान और विचलित होने पर जिंदगी पर कविताएँ लिखता जैसे लडकी के साथ लंबा समय बिताने पर बादलों, नदियों और पहाड़ों के बहाने लड़की पर लिखा करता था। लड़की उसकी कविताओं की प्रथम श्रोता थी और प्राय: अंतिम भी। चूँकि कविताओं की प्रेरणा लड़की थी, उसका हर भाव कविता में दर्ज होता।

लड़की एक धैर्यवान और अच्छी श्रोता थी। जिस दिन कोई कविता लड़की को बहुत ज्यादा पसंद आ जाती वह लड़के के लिए एक सुनहरे मौके की तरह होता। वह चुंबन से भी आगे जा सकता था और लड़की ना नुकुर नहीं करती थी।

लड़की कविताओं को किसी पत्रिका में छपवाने के लिए जिद करती ताकि वह दुनिया को बता सके कि वह कितनी ऊँची चीज है। लड़का हर बार मना कर देता। वह कहता कि लड़की के कान उसके लिए हर पत्रिका से बढ़कर हैं जिसकी प्रतिक्रिया वह उसकी आँखों में देख लिया करता है। कान की तुलना उसे खासी बायोलॉजिकल और अनरोमांटिक लगती पर अचानक में उसे कोई और बेहतर उपमा सूझती नहीं थी।

लड़की यूँ तो तुनकमिजाज नहीं थी पर लड़के के सामने खूब दुलराती और छोटी बातों पर भी अक्सर तुनक कर मुँह फुला लेती। लड़का बाधाओं में से अवसर ढूँढ़ निकालने में अभ्यस्त हो गया था। लड़की एक दो बार सॉरी बोलने पर नहीं मानती तो वह उसे पीछे से अचानक उसे पकड़ लेता और उसकी सुराहीदार गर्दन (हालाँकि यह उपमा भी उसे खासी इन्फेक्शनवाली लगती थी क्योंकि उसे अपने कमरे में रखी सुराही याद आ जाती) पर अपने होंठ रख कर बोलता, ‘सॉरी...।’ इस युक्ति से लड़की दस में से नौ मर्तबा मान जाती।

लड़का बहुत कोशिशों के बावजूद बारोजगार नहीं हो पाया। लड़की बहुत विरोधों के बावजूद अपने घरवालों को अपनी शादी तय करने से नहीं रोक पाई।

दोनों सच्चे प्रेमियों ने साथ आत्महत्या करने की सोची। ऊँचाई से नदी में कूद कर मरने में लड़की रजामंद थी पर लड़का ऊँचाई से खौफ खाता था। लड़के को हाथ पकड़कर ट्रेन के सामने कूद जाने का विचार खासा रोमांचक लगा पर लड़की इससे इत्तफाक नहीं रखती थी। वह ऐसी मौत नहीं मरना चाहती थी जिसमें शरीर क्षत-विक्षत हो जाए।

‘फाँसी लगाकर...?’ लड़के ने काफी सोच विचार कर पूछा।

‘ उंहूँ... उसके लिए ऐसा घर चाहिए जिसमें दो कमरे हों।’

लड़के की नजर में कोई ऐसा कमरा नहीं था। था भी तो उन दोनों को उसमें मरने की सहूलियत नहीं मिलने वाली थी।

‘आग...?’ लड़की ने प्रस्ताव दिया।

‘और तुम्हारा चेहरा...?’ प्रस्ताव वापस।

दोनों चुप हो गए। समंदर की लहरें दोनों के पाँवों को छूकर वापस जा रही थीं। भुने हुए चने खत्म हो गए तो लड़के ने लिफाफा फेंक दिया और टॉपिक भी बदल गया। लड़का उन दिनों गम, जाम और जिंदगी पर दर्दभरी कविताएँ लिख रहा था। लड़की सुनती और एक दर्दभरी और निरर्थक मुस्कान बिखेरती। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें उन दिनों हमेशा पनियाई रहने के कारण और भी बड़ी लगने लगी थीं। जैसे उसे आनेवाले वक्त में खूब आँसू खर्च करने हों, लड़की उन दिनों सारे आँसू बचाने लगी थी।

इन सब घटनाओं के कुछ समय पहले तक लड़के के दोस्त अगर लड़की के बारे में कुछ अश्लील, जो उन दिनों उनका प्रिय काम था, बातें करते तो लड़का अपने दोस्तों पर हाथ तक उठा देता। कुछ दोस्त अगर थोड़े गंभीर तरीके से उसे और लड़की को लेकर मांसलता की बात, जिसे वह ऐसी-वैसी बात कहता था, करते तो वह गंभीर हो जाता और शून्य में घूरता हुआ कहता, ‘मैं उससे सच्चा प्रेम करता हूँ। उसे कभी इस नजर से नहीं देखता।’

यह कहते हुए उसके चेहरे पर रात की ओस में धुली पत्तियों का ताजापन और तेज उतर आता। दोस्त उसे अपनी विराट्ता में लघु (कभी-कभी तो वह उन्हें वासना में डूबे कीड़े तक कह डालता) लगते। प्रेम उसके लिए गुलाब की सुगंध की तरह था। वह जब भी लड़की की हथेलियों को चूमता तो खुद को देवदूत महसूस करता। कुछ अनुभवी दोस्तों ने उसे सलाह दी कि वह लड़की के होंठ चूमे। वह हिचकिचाता था। वह होंठ चूमना चाहता था पर पहल करने से खौफ खाता था। होंठों को चूमना उसे आँखों को चूमने से ज्यादा उत्साहजनक लगता था और इसमें शारीरिक संबंध बनाने जैसी भौतिकता भी नजर नहीं आती। शेष इतिहास रह गया।

जो दिन उसने लड़की के होंठ चूमने के लिए चुना वह एक अनोखा दिन था और उसकी शाम और भी अनोखी थी। अपने कमरे के मद्धम अँधेरे में जब उसने एक लंबी अंदरूनी जद्दोजहद के बाद लड़की को चूमना शुरू किया तो लड़की आश्चर्यजनक रूप से उससे ज्यादा उत्साहजनक तरीके से उसका साथ देने लगी। फिर उसके हाथ ऐसी-ऐसी हरकतें करने लगे जिसका खाका खींचने पर उसके दोस्त उससे मार तक खा जाया करते थे। कुछ देर में वह दोनों वह सब कुछ कर रहे थे जो उसकी नजर में प्रेम की महानता के आगे क्षणिक आनंद की संज्ञा पाता था पर इसमें अपूर्व सुख था।

लड़के के जीवन और कमरे में पहली बार दो देहों की जुगलबंदी का मधुर संगीत बज रहा था।

खुद को देवदूत माननेवाला लड़का उस दिन के बाद से अचानक खुद को एक इनसान मानने लगा, एक जिम्मेदार इनसान। अचानक बैठे-बैठे मुस्करा देता और अक्सर समझदारों की तरह दुनियादारी की बातें करता। दोस्त उसे नादान और भोले बच्चे लगते और जिन बातों पर पहले दोस्तों पर कुढ़ता चिल्लाता था, उन पर लजीली मुस्कराहट बिखेरता। बच्चों का रोना उसे अब उबाऊ नहीं लगता। युगल गीतों में एक अजीब सा रस मिलता और किसी दूसरी भी लड़की को देखने पर लड़की की ही याद आने लगती।

लड़का किशोर लड़कों को बाप की नजर से देखने लगा हालाँकि उम्र का अंतर अधिकतम 7-8 वर्ष ही होता। कमसिन किशोरियों को बच्ची कहने लगा। जबकि उसके कई दोस्त अभी भी किशोरियों को देखते हुए मन के घोड़े खुले छोड़ देते थें और वह खुद भी कुछ समय पहले तक कई चुनिंदा किशोरियों को प्रेम की उच्छृंखल कल्पनाओं के चश्मे से देखा करता था।

देहों के मिलन की वर्जना एक बार टूटी तो टूटती गई। लड़का आदमी से धीरे-धीरे पति हो गया और लड़की पत्नी हालाँकि शादी अभी दूर की कौड़ी थी। दोनों आपस में अपने नितांत रहस्यमय और गोपनीय कोने खोलने लगे। लड़का लड़की की शारीरिक समस्याओं के लिए चिंतित रहता और उसकी माहवारी की तिथि उसे हमेशा याद रहती। लड़की मोटा होने का कोई न कोई नुस्खा लड़के को रोज बताती और अच्छी सेहत के लिए सुबह जल्दी उठने की सलाह देती। जिन बातों को छिपाकर लड़का लड़की के सामने स्मार्ट बना रहता था, उसे अब बिना हिचक लड़की से बाँटता। लड़की भी। लड़का उसे बताता कि उसके बाल आजकल बहुत तेजी से झड़ रहे हैं और उसे डर है कि कहीं वह बहुत जल्दी टकला न हो जाए। लड़की उसे बताती कि आजकल उसकी गैस बहुत परेशान कर रही है और पिछला दाँत सड़ गया है जिससे बदबू आ रही है।

उन दोनों की एक अदृश्य दुनिया थी, सुंदर, निश्चिंत और निश्छल। इस बदसूरत, भयग्रस्त और चालबाजी की दुनिया के बिल्कुल समानांतर। वहाँ भी सब कुछ वैसा ही था जैसा यहाँ चलता है, सिर्फ कुछ मुख्तसर से फर्क थे। यहाँ भरोसा था, उम्मीद थी और सपने थे। भाषा में शब्द कम और खामोशियाँ ज्यादा थीं। उनकी दुनिया में वे दो ही थे और बिना किसी और की जरूरत के पूरी तौर पर मुकम्मल थे।

जब लड़की की शादी तय होने लगी तो लड़के ने कई जन्म लिए। उसकी सबसे कीमती चीज उससे छीनी जा रही थी और वह असहाय था। मरने से पहले भागना तय हुआ पर लड़की शुरुआती रजामंदी देकर पीछे हट गई।

‘मैं इतना गिरा और स्वार्थी कदम नहीं उठा सकती।’

लड़का भी आश्वस्त हुआ। जब से उसने भागना तय किया था, उपयुक्त शहर/जगह के बारे में सोचकर दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। खाली और फटी जेब जीभ निकाल कर उससे पूछती, ‘दो दिन,चार दिन, उसके बाद क्या?’

मगर लड़की उसके लिए जीने का एकमात्र संबल थी। उसके बिना वह कैसे जिएगा? उसका वजन उसकी लंबाई के हिसाब से काफी से कम है, फिर भी लड़की उससे प्रेम करती है। उसकी शक्ल और नैन-नक्श औसत से भी बहुत नीचे हैं, फिर भी लड़की उसे चूमती है। उसके बाल तेजी से झड़ रहे हैं और वह अट्ठाईस का होकर भी बेरोजगार है, फिर भी लड़की उसके साथ हमबिस्तर होती है। वह लड़की के साथ बहुत खुश है। लड़की उसके साथ बहुत संतुष्ट है।

लड़का उन दिनों बुद्धू सा नजर आने लगा था। उसे हर वक्त लगता कि कोई चमत्कार होगा और वे दोनों इस जाल से निकलने का रास्ता पा लेंगे। अक्सर उसे यह भी लगता कि लड़की कोई रास्ता अंततः इजाद कर लेगी जिससे दोनों एक हो सकेंगे।

मगर उनकी दुनिया की तुलना में इस दुनिया में विकल्प कम थे। इस कारण आशाएँ कम थीं, स्वप्न कम थे और खुशियाँ कम थीं।

दुख ज्यादा थे। लड़की की माँ बुरी तरह बीमार पड़ गई। इस प्रेम को बलिदान करने के निर्णय ने जितना लड़के को तोड़ा उससे कहीं ज्यादा लड़की को। लड़की ने कहीं न कहीं एक मरी सी उम्मीद बचा रखी थी कि लड़का एक दिन अचानक आकर कहेगा कि मेरी नौकरी लग गई है। क्यों न हम यहाँ से कहीं दूर भाग चलें।

जब शादी की तिथि निश्चित हो गई तो दोनों ही अचानक शिथिल पड़ गए। लड़का दिन भर कमरे में निढाल पड़ा रहता और लड़की शादी के माहौल में भी मौका निकाल, बहाना बना लड़के के कमरे पर भाग आती। फिर दोनों एक दूसरे से इस तरह चिपकते मानो कभी अलग नहीं होंगे। दो देहों के मधुर संगीत के साथ दो आवाजों का रोना भी शामिल होता। लड़की लड़के को चुप कराती, लड़का लड़की को और इस सम्मलित प्रयास में दोनों के रोने की आवाजें मिलकर खासी बेसुरी सुनाई देतीं।

‘मैं शादी के बाद तुम्हारे बच्चे की माँ बनना चाहती हूँ।’ लड़की ने एक दिन रोते-रोते कहा। दोनों एक दूसरे में खोए थे।

लड़का चौंक गया। लड़की उसे कितना चाहती है। वह उसका मुँह चूमने और सिर थपकने लगा जैसे सांत्वना दे रहा हो।

‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूँगी। शादी मेरी चाहे जिससे हो रही है, प्रेम मैं हमेशा तुमसे करती रहूँगी। इस प्रेम की याद के लिए प्लीज... मेरा पहला बच्चा तुम्हारा होगा।’ लड़की बेतहाशा रो रही थी।

लड़का उसे चुप कराने लगा।

‘शादी के बाद हमारा न मिलना ही ठीक होगा। मैं चाहूँगा कि तुम एक आदर्श और वफादार पत्नी बनो, साथ ही एक आदर्श माँ।’ लड़के को आश्चर्य हुआ कि उसने यह सब कैसे कहा। वह ऐसा कुछ कहना बिल्कुल नहीं चाहता था।

‘तुम्हारे जैसे अच्छे सब क्यों नहीं होते?’ कह कर रोती लड़की ने उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में भर लिया और ताबड़तोड़ चूमने लगी।

‘क्योंकि तुम्हारे जैसे भोले और प्यारे सब नहीं होते।’ और लड़का भी इस संवाद के साथ उसका साथ देने लगा।

जिस दिन लड़की के घर बारात आई, लड़के के कमरे पर घटाएँ आईं और टूट कर बरसीं। लड़का अपने एक करीबी दोस्त के साथ, जो लड़की की शादी तय होने के बाद से और भी करीबी हो गया था, रात भर शराब पीता रहा और रोता रहा। दोस्त उसे रात भर समझाता रहा कि रात के बाद सवेरा होता है, किसी की वजह से जिंदगी खत्म नहीं होती, गिर कर उठना ही जिंदगी है वगैरह वगैरह।

लड़का कई दिनों तक अवसाद में रहा। जब वह सुबह उठता तो उसे लगता जैसे उसका कोई करीबी अभी थोड़ी देर पहले मर गया हो। अक्सर रोने लगता। दोस्त कमर कस कर उसके दुख को दूर करने में जुट गया था, कुछ अजीब प्रयासों से। उसने लड़के की तीन-चार कविताएँ कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेज दी और लड़के के पहले प्रेम कैमरा जो पिछले कुछ वर्षों से दूसरा हो गया था, से उसे जोड़ने की जुगतें भिड़ा रहा था।

शादी के कुछ दिनों बाद लड़के के मोबाइल पर लड़की को फोन आया। लड़के की आँखें फैल गईं। उसने काँपते हाथों से फोन उठाया।

दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई।

लड़का भी काफी देर तक चुप रहा।

‘कुछ बोलते क्यों नहीं?’ लड़की की धीमी आवाज आई।

‘क्या बोलूँ?’ लड़के की आवाज में गुस्सा, दर्द और शिकायतें मिली थीं।

‘यही पूछ लो कि मैं कैसी हूँ?’

‘कैसी हो ?’

‘ठीक हूँ। और तुम...?’

‘मैं...? मैं तुम्हारे बिना...। मैंने कभी सोचा नहीं...। पूरी दुनिया मेरे लिए...।’ लड़का दो-तीन ऐसे वाक्य बोल कर रोने लगा जिन्हें आपस में जोड़ने पर कोई अर्थ नहीं निकलता था।

‘चुप... चुप चुप हो जाओ जानूँ... प्लीज। तुम्हें मेरी कसम।’ लड़की उसे यूँ चुप कराने लगी गोया उसकी माँ हो।

लड़का कोशिश करके संयत हुआ। लड़की ने समझाया, ‘देखो, ऐसे नहीं चलेगा। मैं भी उतनी ही कमजोर हूँ जितने तुम। तुम ऐसे करोगे तो मेरा क्या होगा? मुझे भी यहाँ का अजनबीपन खाए जा रहा है पर मैंने खुद को सँभाला हुआ है। तुम भी प्लीज खुश रहने की कोशिश करो।’

‘आई लव यू।’ लड़का यह तब बोलता था जब वह बहुत कुछ कहना चाहता था पर सारी भावनाएँ एक में गुँथ जाती थीं और वह कुछ नहीं कह पाता था।

‘आई लव यू टू डार्लिंग।’ लड़की ने कहा और लड़के को अच्छा लगा। लड़की अब भी उसकी ही है।

उसने फिर एक बार लड़की का फोन ट्राइ किया। फोन अब भी बिजी था।

लड़की शुरू-शुरू में तो बहुत फोन करती थी पर धीरे-धीरे फोनों की संख्या घटने लगी। कुछ परिवर्तन भी आए। पहले लड़की अपनी ससुराल और पति के विषय में लड़के को कुछ नहीं बताती थी पर अब बातों में ज्यादा हिस्सा ये ही घेरते।

‘जानते हो ये कविताएँ बिल्कुल नहीं समझ पाते लिखना तो बहुत दूर की बात है। इंजीनियर लोग तो इसे बेकार की चीज मानते हैं... टाइम पास।’ और वह हँसने लगी। लड़के को बुरा लगा। वह गुमसुम सा हो गया। लड़की समझ गई।

‘तुम लिखते रहोगे न मुझ पर कविताएँ...?’ लड़की पूछ रही थी।

‘हाँ, एक लिखी है नई... सुनाऊँ?’ लड़के ने पूछा।

‘हाँ हाँ।’ लड़की उत्साहित हो गई।

‘मैं तुम्हें अब याद नहीं करता।

सचमुच !

शायद तुम्हें विश्वास न हो

पर अब मैं तुम्हें याद नहीं करता।

हर रात बिस्तर पर दिख जाती हैं वे सरसराती बाँहें

जो कसना चाहती हैं

मेरे बदन के इर्दगिर्द

अक्सर नजर आते हैं वे लरजते होंठ

जे देते हैं तुझे कई जन्म जीने की ताकत

तकिए पर पड़ ही जाती है नजर

उन आँखों में

जो निमिष भर देखकर मेरी तरफ

झुक जाती हैं लाज से

कँपकँपाते कुचों पर पड़ ही जाती है दृष्टि

जिनका स्पर्श है सागर की लहरों सा

चिहुँकाने वाला

सचमुच !

वियोग के इन क्षणों में मैं तुम्हें याद नहीं करता

क्योंकि इन दिनों

तुम पहले से भी पास हो मेरे

हर दिन, हर क्षण।

लड़की पूरी कविता खत्म होने से पहले ही रोने लगी। धीरे-धीरे, सुबकने की तरह। ‘तुम बहुत दुखी हो न? तुम्हें मेरी कसम। तुम खुश रहने की कोशिश करो। हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं, इस बात को स्वीकार करना होगा तुम्हें। यह मेरे लिए भी उतना ही कष्टकारक है जितना तुम्हारे लिए। किसी अच्छी लड़की से शादी कर लो। अपनी खुशी ढूँढ़ लो ताकि मुझे कुछ सुकून मिले।’

ऐसा लड़की अक्सर कहती क्योंकि लड़का अक्सर ऐसी ही बातें करता।

लड़के ने एक बार लड़की से मिलने आने की इच्छा व्यक्त की।

‘नहीं। हम अब न मिलें तो ही ठीक होगा। तुमने ही तो कहा था ना?’

लड़के को लगा कि वह लड़की को याद दिलाए कि उसने क्या कहा था शादी के पहले पर चुप रहा। हर फोन में लड़की लड़के से सिर्फ एक बात कहती कि वह खुश रहे और अपनी खुशी खोजने की कोशिश करे।

लड़का ऐसी कोई कोशिश नहीं कर रहा था। उसे कोई लड़की अब तक पसंद नहीं आई थी और किसी लड़की की तरफ देखने की इच्छा नहीं होती थी। सारी लड़कियाँ उसकी छवि के सामने कमजोर लगतीं।

इन दिनों लड़के का दोस्त काफी सहायक सिद्ध हुआ। उसने अपने जुगाड़ों का एड़ी चोटी को जोर लगाते हुए लड़के के लिए एक काम का जुगाड़ कर दिया जिसे नौकरी कतई नहीं कहा जा सकता था। इसमें एक भी पैसा नहीं मिलना था पर काम सीखने का मौका था। लड़का सोचता था कि अब वह यह काम नहीं कर सकेगा। पर दोस्त के जोर देने पर जाने लगा। दोस्त लड़के का पुराना रोग जानता था। यह एक ऐसी संस्था थी जो सामाजिक मुद्दों पर वृत्तचित्र और लघुफिल्में बनाती थी। निर्देशक बनना लड़के का तब का स्वप्न था जब उसकी वय के लोग निर्देशक नाम के प्राणी का नाम तक नहीं जानते थे। लड़के को काम में मजा आने लगा। एक अच्छी लघु फिल्म बन रही थी और लड़का बतौर निर्देशक के सहयोगी काम करने लगा।

काम चलता रहा। लड़की के फोन आते रहे। वह खुश रहने की कोशिश करता रहा और कुछ अधूरापन महसूस करता रहा।

यह एक ऐसा दिन था जो उसे न जाने क्यों उस दिन की याद दिला गया जब उसने पहली बार अपने कमरे में लड़की को अनावृत्त किया था। वह एक अँधेरे काले कमरे में बैठा था। भरे-पूरे सन्नाटे में सामने के बड़े पर्दे पर फिल्म चल रही थी और सभी साँसें रोके उसे देख रहे थे। जब फिल्म खत्म हुई तो काले पर्दे पर कई नामों के बाद उसका भी नाम उभरा। बतौर निर्देशन सहयोग। वह कुछ देर तक पर्दे पर देखता रहा और उसकी आँखों से दो बूँद आँसू निकल कर उसकी हथेलियों पर जा गिरे। सबने एक सुर में निर्देशक को बधाई देना शुरू कर दिया था कि निर्देशक अचानक मुड़ा और उसने लड़के का हाथ थामते हुए कहा, ‘मुझसे ज्यादा बधाई का हकदार यह है।’ जब वह प्रफुल्लित मुद्रा में घर लौटा तो पाया कि एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका घर पर उसका इंतजार कर रही है जिसमें उसकी कविताएँ छपी हैं।

लड़की का फोन बहुत देर से इंगेज था। लड़के ने हार कर मोबाइल एक तरफ रख दिया और फिल्म के बारे में सोचने लगा। उसने पाया कि आज करीब आठ महीने बाद उसके पास सोचने को कुछ ऐसा है जिसमें लड़की शामिल नहीं है फिर भी वह उसके विषय में सोच कर आनंदित हो सकता है। वह खुश है। उसने अपनी खुशी खोज ली है। कम से कम उस रास्ते पर चल तो पड़ा है। यह बात लड़की को बतानी बहुत जरूरी है।

अचानक उसका मोबाइल बजा। लड़की थी। उसने लपक कर फोन उठाया।

‘क्या हुआ? तुम इतने उतावले क्यों हो जाते हो?’ लड़की ने कोमल आवाज में पूछा।

‘मैं... तुमसे कुछ बताना चाहता हूँ।’ लड़के की आवाज का उत्साह अलग से महसूस किया जा सकता था। लड़की ने भी किया।

‘क्या... क्या हुआ? तुम ठीक तो हो न जानूँ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’ लड़की ने चिंतित स्वर में पूछा।

‘हाँ डीयर, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और आज बहुत खुश हूँ बहुत खुश। जानती हो क्या वजह है मेरी खुशी की...?’ लड़का बहुत तेज आवाज में चीखा।

‘कुछ भी हो, तुम इतनी तेज आवाज में क्यों चीख रहे हो? जानते हो यह घर है, तुम्हारी आवाज बाहर तक जा सकती है।’

लड़की की नाराजगी पर लड़का सहम गया। ‘मैं आज बहुत खुश हूँ जानूँ। तुम हमेशा कहती थी न कि खुश रहने की कोशिश करो। अपनी खुशी ढूँढ़ो। मिल गई मुझे। मैं बहुत खुश हूँ डार्लिंग। पूछो क्यों...?’ लड़का फिर भी अपने उत्साह पर काबू नहीं पा पाया था।

लड़की अचानक उखड़ गई।

‘ठीक है पर पहले तुम जरा बोलने की तमीज सीखो। मैंने कितनी बार तुम्हें कहा है कि मुझे अब जानूँ मत बुलाया करो। मैं सिखाती सिखाती मर जाऊँगी पर तुम नहीं सीखनेवाले। रखो फोन, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी।’

फोन कट गया। लड़का हतप्रभ था। उसे समझ में नहीं आया कि अचानक उससे क्या गलती हो गई।