समय नदी के तट पर तीन उत्सव? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 मई 2016
इस समय पानी का अपव्यय करने वाला क्रिकेट का तमाशा जारी है, जो इतना बड़ा व्यवसाय और व्यसन है कि वणिक कालखंड का कोई मठ उसे रोक नहीं सकता। ग्रीष्म ऋतु में यह आयोजन होता है, क्योंकि प्रायोजक शीतल पेय बेचते हैं। इस समय का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन कुंभ है और प्राकृतिक आपदा ने इसे हानि पहुंचाई है परंतु आत्मतुष्ट सरकार को बदइंतजामी छिपाने को बहाना मिल गया है। 'जाको राखे प्राकृतिक आपदा, उसे मार सके न कोय।' तीसरा आयोजन हमारी संसद और राज्यसभा के नियमित रूप से होने वाले सत्र हैं। ये सारे सत्र जनतंत्र राग का 'स्थायी' है। आश्चर्य यह है कि इस तीसरे तमाशे का पूरा विवरण कोई जानना ही नहीं चाहता। यह उदासीनता गंभीर बीमारी का लक्षण है। हमारे महान संत कवि तुलसीदास भी किसी अन्य संदर्भ में लिख गए हैं, 'कोऊ नृप हो हमें का हानि।' हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों के सभी नेता इस तथ्य को जानते हैं। उनमें से कोई मूर्ख नहीं है वरन उन्होंने असंभव बात को संभव कर दिया है कि अपनी संवेदना पर अभेद्य कवच ढंक लिया है। यह कवच सूर्य देवता द्वारा कर्ण को दिए गए कवच से भी अधिक शक्तिशाली है। सारी राष्ट्रीय आपदाएं इस कवच की ताकत में वृद्धि ही करती है। किसी भी आपदा को प्राकृतिक कहने से अपने गुनाह का भार कम हो जाता है, जबकि अधिकांश आपदाएं मनुष्य निर्मित ही होती हैं।
हिमालय की अंतड़ियों में घुसपैठ जारी है। उधर चीन ने अपने स्वभाव की तरह आकी-बाकी राहें बना ली हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं पर दैनिक भास्कर राजस्थान के संपादक लक्ष्मी प्रसाद पंत ने प्रामाणिक एवं पठनीय किताब लिखी है। हिमालय बहुत दूर है, इसलिए अनेक लोग इस गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं कि उससे जुड़ी आपदा निकट भविष्य में नहीं होने वाली है। आज क्रिकेट में सट्टा अकल्पित धन का खेला जा रहा है। एक जमाने में चीनी लोग जुआ खेलने के शौकीन होते थे, आज भारत में सबसे अधिक क्रिकेट का जुआ खेला जाता है। वर्तमान सरकार ने चुनाव के समय वादा किया था कि विदेशों से जमा काला धन लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करेंगे। विदेश से काला धन नहीं लाया गया परंतु क्रिकेट तमाशे में सारा सट्टा काले धन से ही खेला जा रहा है। इस तरह की गतिविधियों के संचालनकर्ता नेताओं का हिस्सा बड़ी ईमानदारी से देते हैं। शायद देश का यह तबका ही पूरी तरह भयमुक्त है। इन पर जनता का मन रखने के लिए पूर्व सूचना देकर दबिश डाली जाती है। अत: एक तरफ दो वेतन पाने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है। वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अगर हो भी जाएं तो क्या है बतर्ज 'प्यासा' में साहिर साहब की रचना 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' कुंभ की अवधि एवं तिथि तय है परंतु व्यवस्थाहीनता बारहमासी है। हम इसके इतने अभ्यस्त हैं कि यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि सब न्यायपूर्ण एवं समानता स्थापित होने पर क्या होगा। यह बात गौरतलब है कि धार्मिक उत्सवों का त्रुटिहीन पचांग रचने वाले देश ने ही यह असमानता व अन्याय भी रचा है। दोनों के बीच आखिर रिश्ता क्या है? एशिया में सबसे अधिक धर्म और दर्शन का उदय हुआ और उसी में बसे देश अत्यंत गरीब हैं। सारे ज्ञान पर कब्जा किसका और कैसे हो गया? दयनीय वर्तमान देखकर शंका होती है कि कहीं वैभवशाली अतीत अफसाना तो नहीं? नेहरू जैसे इतिहास बोध वाले व्यक्ति ने गौरवमय अतीत की पुष्टि की है।
इतिहासकार टॉयनबी भी पुष्टि करते हैं। इन तमाम तथ्यों से सर्वव्यापी भूख तो मिट नहीं सकती। क्रिकेट तमाशा, कुंभ में व्यवस्थाहीनता और संसद सत्र इत्यादि के परे या इनके ही मंच पर यह विचार किया जाना चाहिए कि तमान अफसानों, आख्यानों, उत्सवों और प्राकृतिक आपदाओं का तर्कसम्मत वैज्ञानिक अध्ययन क्यों नहीं किया जाता। किसी भी मान्यता पर किंचित-सी शंका प्रकट करते ही कुछ लोग इतने आक्रामक क्यों हो जाते हैं। वे ये भूल जाते हैं कि किसी पूजनीय आख्यान में ही लिखा है, 'मैं ब्राह्मण हूं और शंका करता हूं।' हमने वैज्ञानिक परीक्षण को निरस्त क्यों किया? सावित्रीबाई फुले की रचना 'पहल' को साभार सहित प्रस्तुत है- 'विद्या बिना मति गई, मति बिना नीति गई, नीति बिना गति गई, गति बिना वित्त गया वित्त बिना शूद्र टूटे, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।'