समय / गोपाल चौधरी
समय भी डायरी लिखता है! पढ़ी है कभी! जिसने पढ़ी वह भी समय की तरह शाश्वत हो जाता है! वह समय ही हो जाता है: एक अर्थ मे। ये समय और स्थान स्व का, हमारे वास्तविक स्वरूप का प्रतिक्षेपन है। ये हमसे हैं, हम उनसे नहीं जैसी कि सामान्य मान्यता है। नहीं तो उसे हमारे बाद और पहले भी होने चाहिय होता! पर कहाँ होता समय! हमारे होने के पहले और हो चुकाने के बाद!
हमारे साथ शुरू और हमसे ही खत्म होनेवाले समय व स्थान! हमसे कैसे अलग हो सकते हैं! अगर ऐसा नहीं होता तो समय और स्थान, देश और काल कहाँ होता जब हम नहीं होते! हमारे साथ ही शुरु और हमारे साथ ही खत्म। कम से कम व्यक्ति और व्यष्टि विशेष के स्तर पर ऐसा होता लगता है!
समय भी पूर्ण और समग्र होता है। उसमे इतिहास और संस्कृति की तरह एकांगता नहीं होती है। ना ही व्यक्तिगत और अन्य स्वार्थपूरक वृतिओ का समावेश होता है। कहीं कुछ दबा हुआ या छिपा हुआ नहीं। बिल्कुल दर्पण की तरह साफ़! समय का कोई विकल्प नहीं होता जैसे ब्रह्म का नहीं होता। आखिर इसी ब्रह्म में सब हैं।
हम सब: हमारी सभ्यता और संस्कृति, समाज, देश दुनिया—सभी इस समय का प्रतिफलन है! और देश, काल, स्थान—सभी इस स्व, हरेक व्यक्ति और समष्टि के निज स्वरूप यानी आत्मा या चेतनता से शुरू होता है और फिर इसी के साथ समाप्त भी हो जाता है। जैसे दुनिया और इसके दृश्य क्षण प्रति क्षण बदलते होते हैं। पर इन सबों का दर्शक और साक्षी आत्मा और हमारी चेतनता अपरिवर्तित और असंग रहती, वैसे ये समय है। ये सतत क्रियशसील रहता। इसका प्रतिफलन ही हैं ये देश दुनिया, संस्कृति और सभ्यता।
समय एक है। पर उसकी चलायमन गति और दिशा से लोगों को भ्रम हो जाता है और लोग इसे अपने-अपने रंग में रंगने लगते है। उसकी कहानी, उसकी इबारत को लोग अपने-अपने हिसाब से देखते है। उसकी व्यख्या, उसके गुण दोष का निरूपण कर उस पर अपना रंग चढ़ा देते है!
उसी समय की बात है: कलेंडरों पर लटका, घड़ी की सुइयों में अटका। कोल्हू के बैल की तरह रात और दिन, दिन और हफ्ते, महीने, साल, शताब्दी और युग: चलता ही रहता है। कहने को तो प्रगति और विकास का डंका पीटा जाता! हरेक पीढ़ी पिछली से अच्छा मानती हुई: हरेक युग पिछले को छिछला बताते हुए अपने को शिखरतम मानता हुआ!
फिर भी इसी भूल भुलैया में भटकता: दुख और सुख के बीच डोलता, हर्ष और विषाद के बीच झूलता! जीवन के प्रतिक्षण बदलते दृश्यों और परिदृश्यों में अटका! घड़ी की सुइयों के बीच फंसा और बदलते कलेंडर की परवशता से आक्रांत! वही अपनों और परायों की कबीलाई मानसिकता! वही सब कुछ। पल-पल डरता हुआ आगत से, विगत से आक्रांत वह वर्तमान को भी गवां बैठता। यानी जीवन को प्रतिफल खोता हुआ।
शाशवत समय की बात हो रही है। वह समय जिसे सांख्य में सर्व-व्यापक, साक्षी और चैतन्य का विस्तार माना गया है। कई प्रसिद्ध तत्व-विचरकों ने इसकी पुष्टि भी की है। समय का विस्तार जीवात्मा और जीवात्मा का ही विस्तार समय भी है। एक व्यक्ति का समय होता है, उसके साथ शुरू होता है और उसी के साथ खत्म। व्यष्टि के समय भी उसके साथ शुरू और उसके विनाश तक जारी रहता है।
खैर छोड़िए इन गूढ़ और तत्व की बातों को! इसके बावजूद की वे हमे छोड़ते नहीं हैं! पर अभी जो ये भूमिका तैयार की गई है, वह एक देश की कहानी बताने के लिए! ऐसा देश जो हो कर नहीं हुआ-सा लगता। वैसे तो सभी होने में लगे है, जो है उसे विस्मृत करते हुए या ताक पर रखते हुए। पर जो हो कर भी न हुआ-सा लगे, वह तो न होने से भी अधिक खराब स्थित में है! न होने में तो होने की संभावना बनी रहती है। पर हो कर भी न हुए के बारे में की क्या कहा या किया ही जा सकता है!
जो है उसे नकारते हुए होने में रत हैं: लोग और देश-काल। अस्तित्व की ऐसे ही भूल भुलैया में फंसे हैं शायद! होने की चक्कर में न केवल है को गंवा बैठते हैं, बल्कि उस होने से, जो हुआ नहीं है, उससे बंध जाते हैं। स्व गौण हो जाता है, मूर्त या सुशप्त हो जाता है। एक तरह से पल-पल स्व की मृत्यु ही है! पर यहाँ इसे ही जीवन क़हते हैं शायद!