समरकंद / बावरा बटोही / सुशोभित

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समरकंद
सुशोभित


यह शहरनामा समरकंद के बाबत है।

तो क्या हुआ, अगर मैंने अपनी इन फ़ानी नज़रों से कभी समरकंद को नहीं देखा?

फ्रांत्स काफ्का ने भी ‘अमरीका’ पर एक पूरा नॉवल लिख डालने से पहले अमरीका को कहाँ देखा था? उसने महज़ बेंजामिन फ्रैंकलिन की आत्मजीवनी पढ़ी थी और उसी की बुनियाद पर अमरीका के नक्शो-नुक़ूश को अपने ज़ेहन में उतार लिया था। अलबत्ता काफ्का का वह नॉवल चार्ल्स डिकेंस की शैली से प्रेरित था, लेकिन ‘दो शहरों की दास्तान’ लिखने वाले चार्ल्स को भी लंदन और पेरिस के बारे में जितना मालूम था, उतना ब्रुकलिन और मैनहट्टन के बारे में कहाँ मालूम था?

तो क्या हुआ, अगर मैंने अपनी इन नश्वर आंखों से कभी समरकंद को नहीं देखा?

खोर्खे लुई बोर्खेस ने जब ‘बनारस’ पर कविता लिखी थी, तो उसने बनारस को ही कहाँ देखा था? फिर भी ब्यूनस आयर्स में बैठकर ही अंतर्बोध की रौशनी में उसने अनश्वरता के उस शहर को पूरे का पूरा चीन्ह लिया था, जो गंगा नदी के घाटों पर अमरत्व की घास की तरह उगा हुआ है।

जबकि इतालो कल्वीनो ने तो इससे दूसरी तरफ़ यात्रा की थी। वह वेनिस को भलीभांति जानता-पहचानता था, लेकिन 55 कपोल-कल्पि‍त शहरों की कहानियाँ सुनाते समय उसने वेनिस को वैसे एक ‘अदृश्य शहर’ में तब्दील कर दिया था, जो क़ुब्लाई ख़ान की बेमाप सल्तनत का तज़किरा करते वक्त मार्को पोलो की कल्पनाओं का आलम्बन बन गया था। कल्वीनो की वो किताब ‘इंविज़िबल सिटीज़’ पढ़ते समय आपको बारम्बार यही ख़याल आता रहता है कि वो वेनिस को पूरी क़ायनात का आईना बना देने पर आमादा है।

ग़रज़ ये कि एक शहर के लैंडस्केप के साथ आप कई क़िस्म के सलूक़ कर सकते हैं। यह सब आपकी कल्पनाओं पर निर्भर करता है।

सच में इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि मैंने कभी समरकंद की सैर नहीं की? वैसे भी समरकंद को देखने के लिए एक जोड़ी आंखें काफ़ी कहाँ हैं? क़िस्सा-कोताह तो यही है कि रेशम के रास्ते पर नीली रौशनियों का यह शहर एक लंबे समय से मेरे लिए अचरज और कौतूहल और रोमांच का सबब बना रहा है।

एक उज़बेक कहावत है कि ‘धरती ने सूरज को अपना जो सबसे हसीन चेहरा दिखाया है, वह समरकंद है।’ मैं इसमें यह जोड़ देना चाहूंगा कि अगर समरकंद धरती का सबसे हसीन चेहरा था तो बल्ख़ और बुख़ारा उसकी दो आंखें थीं। बाद उसके फिर मुद्दतें बीतीं और हक़ीक़तों के साये अफ़सानों में तब्दील होते चले गए।

बेबीलोन, कार्थेज, एथेंस और मोहनजोदड़ो की तरह समरकंद भी मिथकों और दास्तानों का शहर है।

ये अकारण नहीं है कि साल 1913 में जब जेम्स एलरॉय फ्लेकर ने ‘समरकंद’ के नाम अपनी वह मशहूर कविता लिखी थी, तो उसने पश्चिम की कल्पनाशीलता में ‘एटलांटिस’ के उस तसव्वुर को जगा दिया था, जो उनके ख़यालों में हमेशा बसा रहने वाला मिथकों का शहर है। ‘वी टेक द गोल्डन रोड टु समरकंद’, उसी कविता की टेक थी।

किसी ज़माने में हुआ करता था एक ‘सिल्क रूट’।

अदब की ज़बान में इसका तर्जुमा अगर करें तो उसे ‘रेशमी राह’ कहकर भी पुकार सकते हैं, या ‘रेशम का रास्ता’। जब शाइर ने कहा था : ‘इन रेशमी राहों में / इक राह तो वो होगी / तुम तक जो पहुंचती है / इस मोड़ से जाती है’ तो कौन जाने उसके ज़ेहन में ‘सिल्क रूट’ का ही ख़याल हो, ये और बात है कि ‘सिल्क रूट’ का सरोकार मोहब्बत से इतना नहीं था, जितना तिजारत से!

जब-जब ‘सिल्क रूट’ का नाम लिया जाता है, तब-तब समरकंद की याद आती है।

एक ज़माने में ये शहर पूरब और पच्छिम के बीच सबसे बड़ी ‘चौकी’ हुआ करता था। पूरब से आने वाला रेशम और पच्छिम से आने वाला सोना समरकंद से गुज़रे बिना इधर से उधर नहीं होता था। रेशम की उस सड़क का वो इक़बाल भले ही आज ना रहा हो, लेकिन समरकंद गुज़रे दौर की एक निशानी की तरह आज भी वहाँ मौजूद है, गुज़रे वक्त के आईने की तरह, अतीत के प्रतिबिम्बों को दिखाता हुआ।

समरकंद को सबसे पहले सिकंदर ने जीता था।

जिन-जिन शहरों को सिकंदर ने जीता था, उन सभी को उसने एक-एक कर अपने मुकुट में नगीनों की तरह जड़ लिया था। उसने उन सभी शहरों को यूनानी नामों से पुकारा था, जिससे उसे उनके नामों में अपने शहर ‘मकदूनिया’ की अनुगूंजें सुनाई दें। इसी तर्ज पर समरकंद को उसने नाम दिया था : ‘माराकान्दा’।

फिर आया यूक्रेडाइटिस और समरकंद की रेत पर अपनी अंगुली से दस्तख़त किए। लेकिन ज़रफ़शान नदी की एक ही पूर ने उस नाम को मिटा दिया और अपने पीछे छोड़ गई सोने की वो कनियाँ, जिनके कारण उस नदी को ‘ज़रफ़शान’ कहकर पुकारा गया। फिर सोने की उन कनियों को चुनने के लिए आए ‘सोगरिदयान’ और ’समरकंद’ को उसका यह नाम दिया, जिस नाम से उसको आज तलक दुनिया में दरयाफ्त किया जाता है।

फिर आए ‘उम्मेद’, और फिर आए ‘समानिद’।

सन् 1220 में मंगोलों की फ़ौज लेकर चंगीज़ ख़ां आया और उसने समरकंद को रौंद डाला, ठीक वैसे ही, जैसे इसके अगले साल यानी 1221 में चंगीज़ के बेटे तोलुय ने फ़ारस के निशापुर पर धावा बोलना था और रौंद डालना था ‘परिंदों की मजलिस’ लिखने वाले फ़रीदुद्दीन अत्तार के उस शहरे-मुबारक़ को।

और तब, ये दोनों शहर हज़ारों-हज़ार घावों से रिसती हुई लहू की नहर में तब्दील हो गए।

साल 1369 में आया तैमूर, और उसने नए सिरे से समरकंद का ख़ाका खेंचा और अपने ‘टिमरिड एम्पायर’ यानी तैमूरी सल्तनत की राजधानी इस शहर को बनाया।

फिर बंजारों की तरह भटकते हुए आए ‘उज़बेक’ और समरकंद में गाड़ दिए अपने चाक़ू और चिमटे।

अठारहवीं सदी में बुख़ारा के अमीर का दिल समरकंद पर आया तो उसने उस पर कब्ज़ा कर लिया। सोवियत सत्ता ने अपने विस्तारवादी मनसूबों के तहत बीसवीं सदी में मध्येशि‍या के जिन चौदह सूबों को अपने में मिला लिया था, उनमें समरकंद भी शुमार था।

बग़दाद, बैरूत, निशापुर, ग़ज़नी, इश्फ़हाँ, बुख़ारा और दमिश्क़ बनते रहे, बिगड़ते रहे, एक नीली लौ की तरह समरकंद रेशमी राहों पर हमेशा टिमटिमाता रहा।

ये और बात है कि समरकंद की वह बुलंदी हिंदुस्तान के लिए बुरी ख़बर साबित हुई।

कारण, फ़रगना वादी के अन्दीज़ान शहर में बाबर नाम का एक मुग़ल जन्मा था, जो समरकंद को जीतने के ख्वाब देखता रहता था। उसने समरकंद पर चढ़ाई की, लेकिन इस शहर की जवांमर्दी से बार-बार हारता रहा।

उन दिनों समरकंद पर शैबानी ख़ान नाम के उज़बेक सुल्तान का राज था, जिसने बाबर को इस शहर के भीतर पांव जमाने की मोहलत नहीं दी। तब समरकंद की ईरान से शत्रुता थी और बाबर ने इसका फ़ायदा उठाने की गरज़ से ईरान के शासक शाह इस्माइल से दोस्ती गांठी थी। कहते तो यह हैं कि उसने शि‍या पोशाक भी धारण कर ली थी, लेकिन इसके बावजूद समरकंद बाबर के लिए एक नामुमकिन ख्वाब ही रहा।

इस्माइल और शैबानी की दुश्मनी के बाबत एक दीगर अफ़साना मुझको एक दफ़ा मेरे एक आिलम दोस्त ने सुनाया था, जिसके मुताबिक़ शाह इस्माइल और शैबानी ख़ान के बीच हुई लड़ाई का अंजाम शैबानी की मौत के रूप में हुआ था। तब शाह इस्माइल ने शैबानी की खोपड़ी को सोना मढ़वाकर शराब के प्याले के रूप में इस्तेमाल करने के लिए अपने पास रख लिया था। वैसा उसने इसलिए किया, क्योंकि शैबानी ख़ान शाह इस्माइल को भि‍खारी कहा करता था, क्योंकि शाह के पुरखे सूफ़ी थे।

मेरे एक दूसरे दोस्त ने मुझे हिदायत दी थी कि इस अफ़साने की ताईद करने के लिए मुझे ‘बाबरनामा’ के वरक़ उलटने चाहिए। वहीं एक तीसरे साथी का सुझाव था कि इसके लिए उर्दू में लिखा एक सफ़रनामा पढ़ना चाहिए, जिसका शीर्षक है : ‘लाहौर से ता ख़ाक़ बुख़ार व समरकंद।’

समरकंद को जीतने के अपने नाकाम ख्वाब को पूरा करने की गरज़ से ही बाबर ने क़ाबुल के रास्ते हिंदुस्तान पर धावा बोला था, और हिंदुस्तान तो जैसे हारने के लिए तैयार ही बैठा था।

ओह समरकंद, काश के तुम इतने ख़ुदमुख्तार ना होते, या फिर हम िहंदुस्तानी ही दुश्मनों के लिए इतने दिलदार ना होते! बहरहाल, समरकंद का अंत:स्तल रेगिस्तान कहलाता है, जहाँ उलुग बेग़, शेर दोर और तिल्ला कोरी की अध्ययनशालाएं हैं। उसके तनिक आगे बीबी ख़ानिम और गुरे अमीर के मक़बरे हैं।

समरकंद इस्लामिक आर्किटेक्चर का परचम है।

ओरहन पमुक ने अपने नॉवल ‘माय नेम इज़ रेड’ में ‘वेनेशि‍यन’ आर्ट के बरअक्स ‘तुर्क मिनिएचरों’ की श्रेष्ठता के बहुत गुण गाए हैं। लेकिन अगर वो आर्किटेक्चर की बात कर रहा होता, तो यक़ीन है कि वो समरकंद का नाम बहुत ही बुलंद तरीक़े से लेता। दरअस्ल, इस्लामिक आर्किटेक्चर बहुत ही ‘ओर्नेट’ और ‘डिटेल्ड’ होता है। बहुत ही शैलीकृत और अलंकृत। उसमें वे लोग ‘ब्रीदिंग स्पेस’ की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं, जो कि ‘पोस्ट मॉर्डन’ आर्ट की धुरी है। इतालवी में वो लोग इस शैली को ‘बारोक एक्सेस’ कहकर पुकारेंगे।

संगेमरमर पर ‘गुलकारी’ के असंख्य पैटर्न बनाए बिना वे लोग कोई इमारत तामीर ही नहीं कर सकते थे, और समरकंद तो जैसे इस्लामिक स्‍थापत्‍य का संग्रहालय है। अपने आपमें एक मक़बूल म्यूज़ियम।

अलबत्ता कहने वाले कहते हैं कि साल 1398 में जब मंगोलों ने तैमूर की सरपरस्ती में सिंध का दरिया लांघा और दिल्ली को नेस्तनाबूद कर दिया, तो यहाँ से लौटते वक्त मंगोल हिंदुस्तान के बेहतरीन संगतराशों को भी अपने साथ ले गए थे, और इन्हीं ने समरकंद का कशीदा रचा था।

जो भी हो, इससे तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि नीले रंग की जितनी क़ि‍स्में समरकंद ने ईजाद की हैं, उतनी दुनिया के किसी और शहर ने नहीं की होंगी। बाज़ वक्तों में तो ये शहर बारिशों और बादलों से बने किसी क़शीदे सरीखा मालूम होने लगता है। बाबी ख़ानिम के मक़बरे के ग़ुम्बद की सलवटें तो इतनी महीन हैं कि समंदर में आई लहरों सी जान पड़ती हैं।

जब मैं उर्दू ज़बान का क़ायदा सीख रहा था, तो यह तैशुदा ही था कि अरबी से भी अपना वास्ता पड़ता। दुनिया में अगर चीनी भाषा सबसे ‘पिक्टोरियल’ है तो अरैबिक सबसे ‘कैलिग्राफ़ि‍क’ है। इसका फ़ायदा यह था कि इस्लामिक इमारतों में वो लोग ‘गुलकारी’ के साथ ही अरबी की आयतों को भी उकेर दिया करते थे, जो दूर से किसी पैटर्न सरीखी ही जान पड़ती थीं। ग़ौरतलब है कि इस्ला‍म में ‘सेकुलर आर्ट’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। ख़ैर।

लेबनान के बहोत ही वाहिद नॉवलिस्ट अमीन मलूफ़ ने समरकंद और उमर ख़य्याम के रिश्तों पर ‘समरकंद’ शीर्षक से ही एक किताब लिखी है। ख़य्याम समरकंद के ही बाशिंदे थे। किताब की शुरुआत इस वाक़ये के साथ होती है : ‘अटलांटिक समंदर की तलहटी में एक किताब दफ्न है, मैं आपको उसी किताब का अफ़साना सुनाना चाहता हूं।’

वो किताब ख़य्याम की ‘रुबाइयात’ थी।

कम ही लोगों को ये जानकारी होगी कि चौदह अप्रैल, उन्नीस सौ बारह की जिस रात को ‘टाइटैनिक’ जहाज़ अटलांटिक समंदर में डूब गया था तो उसके साथ ही उमर ख़य्याम की ‘रुबाइयात’ की मूल प्रति भी नष्ट हो गई थी।

उमर ख़य्याम ने वो किताब समरकंद के एक क़ैदख़ाने में उसी तरह लिखी थी, जैसे लाओत्से ने चीन के एक चुंगीनाके पर बैठकर ‘ताओ तेहकिंग’ लिखा था।

अमीन मलूफ़ की वो किताब निहायत ‘एवोकेटिव’ तरीक़े से समरकंद के मौसमों और रंगतों और अफ़सानों को याद करती है, उनका एक मायूस जश्न-सा मनाती है।

इस बात से सचमुच क्या फ़र्क पड़ता है कि मैंने अपनी इन आंखों से कभी समरकंद को नहीं देखा?

लेकिन ये मनसूबा तो मैंने अपने दिल में बांधा है ना कि एक दिन समरकंद की सड़कों पर पैदल चलना है, और चलते वक्त इन्हीं तमाम ख्वाबों में ऊभचूभ होना है!

और ये, समरकंद की बुलंदी के सामने बाबर की शि‍क़स्त की तरह तय है!