समरांगण / मेहरुन्निसा परवेज
दिल्ली शहर की पराठेवाली गली जिसमें ढेर सारी मिठाइयों की दुकाने थीं। पराठेवाली गली की शुद्ध मिठाइयाँ दूर-दूर तक तक प्रसिद्ध थीं। दूर से लोग खरीदने आते थे वहाँ मिठाई की सारी दुकानें कश्मीरी पण्डितों की थीं। यही लोग यहाँ मिठाई बनाकर बेचते थे। मुगलों के शाही परिवारों की हिंदू बेगमों के यहाँ तथा ठाकुरों की हवेलियों में रोज़ाना पूजा के लिए यहीं से मिठाइयाँ पाबंदी से जाती थीं।
पंड़ित गोपीलाल आज ज़रा तड़के ही घर चल पड़े थे, सोचा था ज़रा दुकान की सफाई करवा लेंगे। उन्होंने आकर अपनी मिठाई की दुकान खोली ही थी और सोच ही रहे थे कि दुकान पर काम करने वाला लड़का आ जाए तो ज़रा सफ़ाई करवा कर बर्तन धुलवा लेंगे। दो दिन से आँधी-तूफान लगातार आ रहा था। इस कारण भी कोई काम नहीं हो पाता था। चारों तरफ़ धूल-ही-धूल समा गई थी। अभी वह दुकान ढंग से खोल भी नहीं पाए थे कि शोर सुनाई देने लगा। लोग भाग रहे थे। कुछ लोग दुकानें लूटने लगे थे। मार-काट, वाही-तबाही मचने लगी थी। भगदड़-सी मच गई। अचानक जैसे कोहराम मच गया। साथ के सभी मिठाई वाले जल्दी-जल्दी दुकानें बंद करने लगे। लोग छुपने लगे, भागने लगे। बेहद नफ़ासत, तहज़ीब पसंद दिल्ली देखते ही निपट गँवार, जाहिल, बेअदब हो गई थी। किसी का लिहाज़-पर्दा अदब-क़ायदा रह गया था। घोड़ों की टाप से गलियाँ गूँज उठीं लोग सहम गए। भागो ! मारो ! कत्ल करो की आवाज़ चारों ओर से आ रही थी। अंग्रेज सैनिक बेखटके घरों में, दुकानों में घुस रहे थे। जिसको जहाँ जगह मिल रही थी, वहीं छुप रहा था। भाग रहा था। लोग बदहवास से भाग रहे थे।
पंडित गोपीलाल ने जल्दी से अपनी दुकान बंद की सामने दरवाज़े पर ताला ठोंका और बग़ल में छाता दबाकर धीरे से दुकान के पीछे वाली गली में उतर गए थे। धीरे-धीरे, लुकते-छिपते आगे बढ़ते गए। सकरी गलियों में अभी कोई बावेला नहीं मचा था। गलियाँ इतनी सकरी थीं। कि एक समय में एक ही व्यक्ति पैदल-पैदल आ-जा सकता था। लहरदार-चक्कर गलियाँ थीं। एक बार यदि कोई आदमी धोखे से भी इन गलियों में उतर आए तो फिर चक्कर पार कर ही घंटे-दो-घंटे में ही बाहर आ सकता था।
एक बार उन्होंने मिठाई की दुकान वाले अपने मित्र रतनलालजी से सकरी गलियों का रोना रोया था, तो उन्होंने बताया था, कि यह सकरी गलियाँ बड़ी ही सुरक्षित होती हैं। पुराने लोग ऐसी ही सकरी गलियों में रहना पसंद थे, ताकि कोई दुश्मन यदि धोखे से आ जाए तो जल्दी लौटकर नहीं जा पाए। घोड़ा तो ख़ैर इन गलियों में चल ही नहीं सकता। घोड़ा मुड़ ही नहीं सकता था। इस कारण इन गलियों को सकरा रखा गया था, ताकि कोई ख़ून करके, लूटकर भाग न सके। आज उन्हें अपने मित्र रतनलालजी की बात सोलह आने सत्य लग रही थी। रतनलाल जी की बात की सत्यता का परीक्षण इतने बरसों बाद वह भी संकट का समय हो पाया था।
संकरी गली में अधिकतर लोगों के पिछवाड़े वाले दरवाजे़ ही खुलते थे। कहीं-कहीं तो दरवाज़े भी नहीं थे, बस घरों की दीवारें बनी थीं। दीवारों ने जैसे एक पर-कोटा सा बना दिया था। इन दीवारों में छोटी –छोटी मेहराबें बनी थीं। उन मेहराबों में सुना है कई दंगा फसादी लोग अपना गोला-बारूद छुपाकर रखते थे। कहीं दंगा होता था, करना होता तो झट से गलियों में घुसकर अपना गोला-बारूद निकालते और फ़रार हो जाते थे। बची सामग्री, जुटी सामग्री भी तत्काल यहीं लाकर छुपा देते थे। दंगाइयों के लिए यह गलियाँ बड़ी ही सुरक्षित, सुविधाजनक होती थीं।
पंड़ित गोपीलाल सोचते-विचारते मन ही मन ईश्वर को याद करते अपने घर की ओर बढ़ने लगे। अपने प्राणों की चिंता तो थी ही पर अपनी नई ब्याहता पत्नी सुहासनी की चिंता उन्हें ज़्यादा सता रही थी। जाने कब घर पहुँच पाएँगे ? जाने सुहासनी किस हाल में मिलेगी ? मिल पाएँगे भी या नहीं। कोई भरोसा नहीं ? दंगे में तो सब कुछ हो सकता है ? घंटाघर के पास की एक गली में वह रहते थे। आजकल सुहासनी एकदम अकेली रहती थी। पिताजी और माँ तो गाँव चले गए थे। वैसे तो घंटाघर के पास कुछ कश्मीरी पंडितों के घर थे, पर क्या ऐसे संकट के समय में वह एक दूसरे की मदद कर पाए होंगे ? संकट में दूसरे की सुध किसे रहती है ?
ग़दर का खटका कई दिनों से लग रहा था, पर सब कुछ-इतने जल्दी हो जाएगा, उन्होंने सोचा नहीं था। सोच ही रहे थे इस बार किसी त्यौहार पर कश्मीर गए तो सुहासनी को गाँव छोड़ आएँगे। दिल्ली में राजनीतिक वातावरण काफ़ी पहले से ख़राब था। भीतर-ही-भीतर आग सुलग रही थी, यह सभी समझ रहे थे। विस्फोट इतना जल्दी होगा सोचा नहीं था।
गली के समाप्त होते ही उन्होंने झाँक कर देखा, बड़ी सड़क पर भयानक मारकाट मची थी। चीत्कार, कोलाहल चारों तरफ फैला था। पंडित गोपीलाल को लगा अब आगे नहीं बढ़ सकते, इतनी मारकाट में आगे बढ़ना कठिन काम था। बहुत देर तक वह गली के मुहाने पर छुपे रहे। दिन धीरे-धीरे ढलने लगा था, शाम होने लगी थी। साथ ही उनकी चिन्ता बढ़ने लगी थी, जाने सुहासनी कैसी होगी ? सुरक्षित मिलेंगे भी या नहीं ? भय और चिंता के कारण गोपीलाल का गला सूखने लगा, आँख के आगे अंधेरा-सा छाने लगा। साहस करके लुकते-छुपते साक्षात मृत्यु के तांडव के बीच से वह सरकते-सरकते आगे बढ़े।
घंटाघर जब पहुँचे तब तक अँधेरा हो चुका था। दिन ढल गया था। सारा दिन लग गया था। उन्हें घर पहुंचने में, चिंता ने उन्हें सुखा-सा दिया था। भयभीत काँपते हाथों से गोपीलाल ने अपने घर के किवाड़ की कुंडी खटखटाई। किवाड़ की कुंडी उन्होंने धीरे से खटखटाई थी, भीतर कोई आहट नहीं हुई कोई हरकत नहीं हुई। हरकत सुनाई नहीं दी। मन की वेदना, घबराहट और बढ़ गई। माथे का पसीना पोंछते हुए उन्होंने दोबारा किवाड़ खटखटाए। किवाड़ों की दरार से भी झाँका, भीतर घुप्प अँधेरा दिखा। उन्होंने दोनों हथेलियों की ओक में अपना मुँह फँसाया और धीरे से आवाज़ लगाई। ‘‘सुहासनी.....सुहासनी, मैं हूँ द्वारा खोलो ?’’ भीतर थोड़ी आहट मिली। कोई सरक कर रेंग रहा था। बहुत देर बाद धीरे से किवाड़ खुले, झट से वह भीतर हो गए और जल्दी से भीतर से किवाड़ की कुंडी लगा लिया। भीतर भयानक अँधेरा था। अचानक कोई उनसे लिपट गया और रोने लगा, स्पर्श से वह जान गए घबराई सुहासनी है। अपनों के जीवित स्पर्श ने जैसे उन्हें विचित्र-सा सुख दिया। बेहद थके होने के कारण भी उन्हें अपनों के बीच पहुँच कर संतोष-सा हुआ, लगा जैसे जीवन का सबसे बड़ा सुख मिल गया है।
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