समर्पण / अजय नावरिया

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समर्पण

अपनी उस परम्परा को जिसने स्वाभिमान, समानता और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करना सिखाया...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मिसेज देशमुख ने एक दिन मुझे उनके सामने ही खींच लिया था। देशमुख की उपस्थिति मुझे हताश कर रही थी। वे वृद्ध थे।

‘‘ऐसा है?’’

देशमुख को दिखाते हुए मिसेज देशमुख ने मेरा गुप्तांग हथेली में भरकर ऐसे उठाया था जैसे भाला उठाते हैं, फेंकने से पहले। देशमुख की आँख एकबारगी पूरी खुली थी, फिर मुँद गई थी। आँख की कोर से दो बूँद चू गई थी चुपचाप। मिसेज देशमुख ने भी देखा था। मिसेज देशमुख के चेहरे पर मैंने एक आध्यात्मिक सुकून देखा था। यह प्रतिशोध की आध्यात्मिकता। ऐसा ही आध्यात्मिक सुकून मैंने हमेशा बाबा के चेहरे पर भी पाया था। उस दिन उन्होंने मुझे ज्यादा पैसे दिए थे। मैंने चुपचाप पैसे रख लिए थे पर आँखों में सवाल चुपचाप नहीं बैठे थे। शायद उन्होंने वह इबारत पढ़ ली थी।

‘‘तुम मेरे प्रतिशोध में सहयोगी बने इसलिए।’’ वह बोली थी।

‘‘मौत एक घटना है सुजाता बस...।’’

भास्कर ने सुजाता के चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से थामकर अपने चेहरे के सामने किया। एक सत्य घटना, इस सच से हमें ताकत मिलनी चाहिए न कि यह हमारी सारी ताकत को सोखने का कारण बने। और देखो, यह गाढ़ा सच हम रोज देख रहे हैं, तब तो हमें अपने जीने की ताकत और मौत की तरफ उदासीनता को और बढ़ा देना चाहिए। मौत एक सच है, जीवन भी एक सच है....दोनों ही सम्भावनापूर्ण सच हैं...जब तक जीवन है, हमें उसकी एक-एक बूंद निचोड़ लेनी चाहिए। अगर हम मौत सीखेंगे तो सूफियों से सीखेंगे और जिन्दगी सीखेंगे तो सन्तों से सीखेंगे। सुजाता एक अन्तरंग साथी की तरह भास्कर को सुन रही थी। उसके चेहरे पर वही अमृतपूर्ण आलोक बरस रहा था, जिसे लोग सामान्यतः प्रेम कहते हैं, वही आलोक भास्कर की आँखों में रोशन था।

‘‘तय करो सुजाता कि हम जिम्मेदार जीवन के लिए लड़ेंगे न कि मृत्यु और मृत्यु के बाद की अमृत्यु के लिए।’’

भास्कर के आसपास जीवन की प्रभा दिपदिपाने लगी थी, सुजाता उसी घेरे में थी। इसी रास्ते पर चलकर हम हमेशा जिन्दा रहेंगे, भले यह संसार मर जाए ! हम जीवन के अनुयायी हैं, किसी व्यक्ति के नहीं।