समर्पण / एक्वेरियम / ममता व्यास
हाँ, तुम मेरे जीवन में अपरित्याज्य ही हो। तुमसे दूर होकर ही मैंने जाना कि तुमसे दूर नहीं रहा जा सकता। तुम्हें त्याग कर ही जाना तुम अपरित्याज्य हो। तुमने जब-जब हाथ छुड़ाया मैंने खुद को गहरी खाई में गिरता हुआ पाया। जैसे किसी ने आसमान से धक्का दिया हो और मैंने घबराकर आंखें बंद कर लीं और तुमने एनवक्त पर आकर मेरे पैराशूट का बटन ऑन कर दिया और मैं फिर से उडऩे लगी। तुम फिर गायब हो गए.
देखो-देखो अभी तो थे उस हरे पहाड़ के ऊपर। मैंने तुम्हारे पास आना चाहा तो तुमने दूर से ही इशारा किया। चुपचाप उड़ती चलो, यहाँ मत आना और नीचे भी मत देखो, बस आंखें बंद करो। ये मत सोचो कितनी ऊंचाई से कूदी हो और ना ये देखो कितनी गहराई में जा रही हो। हाँ, तुम्हारा इस तरह से निर्देश देना मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि मैंने हमेशा लोगों को निर्देश दिए, उन्हें राह दिखाती रही, सहेजती रही, संभालती रही, लेकिन तुम्हारे पास आकर मैं अपने सारे हुनर भूल जाना चाहती हूँ। तुम्हारी बाहों में छिपकर में अंधी, बहरी, गूंगी हो जाना चाहती हूँ।
सुनो! लेकिन तुम हो कहाँ? देखो मैं अकेली उड़ रही हूँ आसमान में, अब उड़ा नहीं जा रहा अकेले, थक गयी मैं। अब मैं विश्राम चाहती हूँ। क्या विश्राम का मतलब मृत्यु है। न सर पर आसमान ना जमीन ये कैसी उड़ान जिसकी कोई सीमा ही नहीं। मैं उडऩा बंद कर रही हूँ। सुन रहे हो न तुम? तुम्हारे भीतर ही लापता हो जाना है।
तुमने हमेशा सही वक्त पर ही हाथ थामा है। लेकिन सोचो तो इतनी बड़ी दुनिया में मुझे किसी भी हाथ पर भरोसा भी तो नहीं। कितना पवित्र, निर्मल अहसास होता है जब हम किसी के पास होते हैं। जी भर के सांस लेती हूँ मैं। सच कहते हो तुम प्यार का नाम जीवन है। सच कहा तुमने तमाम ज़रूरतें, उपयोगिता, सभी अनुमति और सहमति व्यर्थ लगती है न अब...अब समर्पण के सिवाय कोई विकल्प नहीं।