समलैंगिकता: संसद का सद्विवेक और भारतीय समाज का कल्याण / संतलाल करुण
समलैंगिकता से सम्बन्धित धारा-377 को समाप्त करने की पुनर्विचार याचिका को उच्चतम न्यायालय ने ख़ारिज़ कर दिया है। भारतीय जन-जीवन के आचार-व्यवहार को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने बहुत अच्छा किया है। भारतीय दंड संहिता से धारा-377 को हटा देने से संसर्ग संबंधी विकृति को सर्वजनीन मान्यता मिल जाती। मानव-जीवन की जितनी भी बुराइयाँ हैं, उनकी जड़ें कितनी ही गहरी क्यों न हों, उनका चलन कितना ही प्राचीन क्यों न हो, पर आज तक भारतीय समाज द्वारा उन्हें सार्वजनिक रूप से कभी भी मान्यता नहीं दी गई।
पश्चिम में समलैंगिकता को मान्यता मिल जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में उसे स्वीकार कर लिया जाए। जीभ और जाँघ की संवेदनाओं को लेकर पश्चिम ने प्रयोगों की अति कर दी है। वैवाहिक जीवन से जब उनका मन नहीं भरा तो समारोहपूर्वक उन्होंने नाइट-क्लबों में कुछ समय के लिए पत्नियों की अदला-बदली का खेल खेला। आगे चलकर वे खुलकर फ्री सेक्स पर उतारू हो गए। फिर भी भोग को लेकर प्रयोग-पर-प्रयोग करने का उनका दुस्साहस न तो कभी थमा और न ही वे कभी तृप्त हुए। विवाहेतर सम्बन्ध उनके लिए सामान्य-सी जीवन शैली है। उनकी विकृत इच्छाएँ किसी सीमा को कहाँ मानने वाली थीं ? फलतः वेबसाइट आदि के सहारे सुकुमार कमसिन लड़कियों को शिकार बनाने की हवस देश-दुनिया में फैलने लगी। आगे चलकर सारी सीमाएँ तोड़ते हुए वे समलैंगिकता तथा पशुपरक सम्भोग पर उतर आए। आज ऐसी सभी शारीरिक और मानसिक विकृतियों को वे पूरी दुनिया में फैलाना चाहते हैं और भारतीय समाज को भी अपने लपेटे में लेना चाहते हैं।
यह पूरब और पश्चिम सभी जानते हैं कि तेजी से फ़ैलने वाली एड्स-जैसी घातक बीमारी को बढ़ावा देने में स्वतन्त्र शारीरिक सम्बन्ध और समलैंगिकता-जैसी विकृतियों का बहुत बड़ा हाथ है। पश्चिम में विकृत भोगेच्छा और उससे सम्बन्धित दुष्प्रयोग रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं; किन्तु भारतीय समाज में आज भी विवाह-संस्था की दृढ़ता के कारण आदर्श प्राकृतिक संसर्ग, चारित्रिक गरिमा, पारिवारिक सम्बन्धों और रक्त संबंधों की शुद्धता का विशेष महत्तव है। ऐसे में पश्चिम की मान्यताओं को आधार बनाकर भारतीय समाज, यहाँ के न्यायालय अथवा संसद द्वारा समलैंगिकता को मान्यता दिया जाना कतई उचित नहीं है।
भारतीय समलैंगिक पश्चिम का हवाला देते हुए अनेक कुतर्कों का सहारा लेते हैं, जो भारतीय दृष्टिकोण और तार्किकता के निकष पर खरे नहीं उतरते; जैसे कि—
1. समानता का अधिकार; किन्तु समानता का यह अभिप्राय नहीं कि नाक, आँखें, मुख आदि को सपाट करते हुए चेहरे को समतल बना दिया जाए। पर्वत और समुद्र समान तल में समतल नहीं किए जा सकते। इसलिए प्राकृतिक भेद-विभेद पर समानता का अधिकार लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में भी आरक्षित वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग, क्षेत्रीय विशेषाधिकार आदि पर समानता का अधिकार कहाँ लागू होता है ?
2. स्वतंत्रता का अधिकार; किन्तु स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि यदि विकृत भोगेच्छा लैंगिक-यौनिक सीमाएँ नहीं समझती और प्रकृति के विरुद्ध शरीर के सभी द्वारों के उपयोग-सम्भोग में अंतर नहीं मानती तो उसे देश भर में बेलगाम धमा-चौकड़ी के लिए स्वच्छंद छोड़ दिया जाए। समस्त भारतीय समाज के जीवन को खुले तौर पर गन्दा करने की मान्यता कैसे दी जा सकती है ?
3. समलैंगिकता का आदिम काल से प्रचलन; किन्तु प्राचीनता और प्रचलन में केवल समलैंगिकता ही नहीं है। चोरी, दस्युवृत्ति, हत्या, बलात्कार आदि ऐसे अनेक अपकर्म हैं, जो प्राचीन काल से प्रचलित हैं, तो क्या मात्र प्राचीनता और प्रचलन के कारण राज्य और समाज द्वारा इनके प्रतिबन्धों को लेकर किए गए सारे उपायों को समाप्त कर देना चाहिए ? ..कतई नहीं।
4. काम का पुरुषार्थ और खजुराहो आदि की मैथुन-मूर्तियाँ; किन्तु काम का मार्ग भी आराधना की तरह प्रकृति के अनुरूप तथा सात्विक होना चाहिए। काम मानव-सृष्टि का नियामक है, उसका भक्षक नहीं। आखिर, तमाम बाहरी परिदृश्यों से होकर जब हम ऐसे मंदिरों के भीतर गर्भगृह तक पहुँचते हैं, तो वहाँ परात्पर शिव के ही दर्शन होते हैं।
अन्ततः उच्चतम न्यायालय द्वारा जिस प्रकार एक नहीं, दो बार भारतीय जन-जीवन, उसकी सामूहिक चेतना, मानसिकता और चरित्रादर्श का ध्यान रखा गया तथा विवेकपूर्ण न्याय से भारतीय जन-जीवन के कल्याण की प्रतिष्ठापना की गई, उसी प्रकार अवसर आने पर भारतीय संसद को भी इस शारीरिक-मानसिक विकृति को मान्यता देने से इन्कार करना होगा। इसी में संसद का सद्विवेक और भारतीय समाज का कल्याण निहित है।