समष्टि और व्यक्ति / नरेंद्र देव
व्यक्ति और समष्टि का विवाद बहुत पुराना है। दार्शनिकों में भी दोनों मतवादों के पक्षपाती पाए जाते हैं। प्लेटो ने अपनी 'रिपब्लिक' में समष्टिवाद का समर्थन किया है। हेगेल ने अपने दार्शनिक विचारों में इसी वाद को आश्रय दिया है। हेगेल के अनुसार सर्व समष्टि के प्रतिरूप इस बाह्य जगत में संस्थाओं का आकार धारण करते हैं; भाषा, राज, कला, धर्म इसी प्रकार की संस्थाएँ हैं। इन संस्थाओं की अंतरात्मा को आत्मसात करने से ही व्यक्तिगत विकास होता है। संस्थाओं के विरुद्ध व्यक्तियों के इसमें कोई आध्यात्मिक अधिकार नहीं हैं। यह ठीक है कि इतिहास बताता है कि संस्थाओं में परिवर्तन होता है, किंतु यह परिवर्तन विश्वात्मा का काम है। विश्वात्मा अपने महापुरुषों का वरण करता है। यही उसके उपकरण हैं। इनसे अन्यत्र व्यक्तियों का कोई हाथ नहीं होता।19वीं शती के अंतिम भाग में हेगेलवाद का सम्मिश्रण जीव-शास्त्र के विकास-सिद्धांत से हो गया। 'विकास' (Evolution) वह शक्ति है जो अपने लक्ष्य में परिणत होता है। इसके विरुद्ध व्यक्तियों के भाव और उनकी इच्छाएँ अशक्त हैं अथवा इन्हीं के द्वारा 'विकास' अपना कार्य संपन्न करता है। हेगेल के कुछ अनुयायियों ने सर्व समष्टि और व्यक्ति का सामंजस्य करने की चेष्टा की। उन्होंने समाज को समुदाय-मात्र न मानकर एक अवयवी माना। इसमें संदेह नहीं कि व्यक्तिगत योग्यता के प्रयोग के लिए सामाजिक संगठन का होना आवश्यक है। किंतु समाज को अवयवी मानने का यह अर्थ होता है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक मर्यादित स्थान और उसकी एक नियत वृत्ति है और उसकी पूर्ति अन्य अवयवों और वृत्तियों से होती है। इसकी उपमा शरीर से दी जाती है। शरीर के विभिन्न अवयवों को अन्योन्य संबंध होता है तथा शरीर के साथ एक विशेष संबंध होता है। प्रत्येक अवयव की वृत्ति नियत है। वह इस विषय में स्वतंत्र नहीं है। अपनी नियत क्रिया को संपन्न करने में ही अवयव की कृतकृत्यता है और इसी प्रकार शरीर की स्थिति संभव है। इस दृष्टांत को समाज में लागू करने का यह फल होता है कि समाज के संगठन में वर्गों का जो विभेद है उसको दार्शनिक आश्रय प्राप्त होता है।
समाज-शास्त्रियों में ऐसे विचार के भी हैं जो व्यक्ति पर समाज की प्रधानता स्वीकार करते हैं। ये समाज का भी अपना एक व्यक्तित्व मानते हैं। इनके अनुसार समाज व्यक्तियों का समुदाय-मात्र नहीं है। समाज के व्यक्तित्व को ये मानव के व्यक्तित्व की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा मानते हैं। इसके अनुसार समुदाय तथा समाज राष्ट्र, राज्य का ही वस्तुतः व्यक्तित्व है। व्यक्ति एक क्षुद्र, अकिंचन अंश-मात्र है, समाज-रूपी बृहत् शरीर का एक तुच्छ कण है।
इस विचार-सरणि का 20वीं शती पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। फासिज्म को इसी से प्रेरणा मिली थी। राष्ट्र और राज्य सब-कुछ है, व्यक्ति कुछ नहीं है। राष्ट्र और राज्य के व्यक्तित्व में अपने व्यक्तित्व को विलीन करने में ही व्यक्ति की सफलता और परिपूर्णता है। इसी विचार ने राज्य को सर्वोपरि बना दिया और उसको मनुष्य के जीवन के सब विभागों पर पूर्ण आधिपत्य प्रदान किया।
इस विचार के फैलने के कई कारण हैं। पूँजीवादी युग के जनतंत्र की असफलता और बड़े पैमाने के उद्योग, व्यापार की अतिशय वृद्धि इसके मुख्य कारण हैं। राजनीतिक जनतंत्र व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की रक्षा करता है और प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार देता है, किंतु वह गरीबी और बेकारी की समस्या को हल नहीं करता। इसका इलाज तो यह था कि अधूरे जनतंत्र को पूर्ण किया जाए आर्थिक क्षेत्र में भी जनतंत्र का प्रयोग किया जाए और इस प्रकार व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की रक्षा करते हुए गरीबी और बेकारी को दूर किया जाए। किंतु ऐसा न करके जनतंत्र को आघात पहुँचा और लोग यह समझने लगे कि राजनीतिक जनतंत्र एक प्रकार का ढोंग है। लोगों का विश्वास जनतंत्र के उन मूल्यों पर से उठने लगा जिनको पश्चिमी यूरोप में अनेक कष्ट सहकर और अनेक संघर्षों के पश्चात प्राप्त किया था। इससे फासिज्म को बल मिला।
पूँजीवाद के प्रसार ने छोटे पैमाने के उद्योग-व्यापार को छिन्न-भिन्न कर दिया। बैंकों के पास अथाह पूँजी हो गई और वे भी इस पूँजी को प्रत्यक्ष रूप से उद्योग-व्यवसाय में लगाने लगे। बड़े-बड़े व्यवसायियों ने छोटे दुकानदारों पर भी धावा बोल दिया और उनके व्यापार को खत्म कर दिया। व्यवसायियों के बड़े-बड़े समुदाय बन गए और इनका मुकाबला करना असंभव हो गया। पूँजीवाद के विकास का यही प्रकार है। आर्थिक क्षेत्र में जब यह व्यवस्था उत्पन्न हो गई तब इसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ने लगा। जिस समाज में धन का सबसे अधिक महत्व हो उस समाज में आर्थिक पद्धति सामाजिक जीवन के सब आकारों को प्रभावित करने लगती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति का महत्व केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि समस्त जीवन में बँट गया। व्यक्ति एक बड़ी मशीन का कल-पुरजा-मात्र रह गया और बृहत् समुदाय की तुलना में तुच्छ और नगण्य हो गया। इस परिस्थिति में अपने क्षुद्र व्यक्तित्व के विकास की बात सोचना अर्थशून्य हो गया और जो इस प्रकार सोचता है वह समाज का शत्रु और व्यक्तिवादी समझा जाता है। राष्ट्र और राज्य के हित ही सर्वोपरि हैं और उनके लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का बलिदान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। नागरिक अधिकार, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य आदि व्यर्थ की बकवास है, और यदि वस्तुतः जन-साधारण सकल अधिकार और स्वत्व का प्रभाव और उद्गम स्थान है जो राज्य, जो जन-साधारण का प्रतिनिधित्व करता है, व्यक्ति पर प्रधानता पाने का अधिकारी है। इसीलिए शासक अपने शासक को सच्चा जनतंत्र घोषित करते हैं।
समाजवादी भी इस विचारधारा से प्रभावित हुए। उन पर हेगेल के विचारों की छाप है। रैमजे मैकडोनाल्ड तक ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि व्यक्ति उस दैवी घटना का उपकरण-मात्र है जिस ओर सारी सृष्टि बढ़ रही है। राज्य सर्व समष्टि के राजनीतिक व्यक्तित्व का प्रतिनिधि है, वह समष्टि के लिए सोचता-विचारता है।
कुछ समाजवादियों का कहना है कि भविष्य के आदर्श समाज में मनुष्य अपने व्यक्तित्व का अनुभव ही नहीं करेगा बल्कि हर प्रकार से समुदाय में विलीन हो जाएगा। उसका जीवन सामुदायिक जीवन हो जाएगा, उसके विचार, उसकी वेदना और उसकी अभिलाषाएँ सामुदायिक हो जाएँगी।
यह विचार-सरणि व्यक्ति के महत्व को सर्वथा विनष्ट कर देती है और उसकी बलिवेदी पर समुदाय के महत्व को बढ़ाती है। किंतु मार्क्स तथा एँगेल्स की शिक्षा के यह सर्वथा प्रतिकूल है। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में मार्क्स ने कहा है कि प्रत्येक के स्वच्छंद विकास से सबका स्वच्छंद विकास होता है। एक-दूसरे स्थल पर मार्क्स कहते हैं कि श्रमजीवी तभी स्वतंत्र है जब वह अपने उपकरणों का मालिक है। यह स्वामित्व दो में से एक रूप धारण करता है और जब व्यक्तिगत स्वामित्व का नित्य लोप होता जाता है तब उसके लिए केवल सामुदायिक स्वामित्व रह जाता है। समाजवाद के उपक्रम के इतिहास पर यदि हम विचार करें तो मालूम होगा कि वह उस पूँजीवादी समाज के विरोध में उत्पन्न हुआ था जो मनुष्य को वस्तु-उपकरण-मात्र बनाकर गुलाम बनाना चाहता था। मार्क्स व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए समाजवाद की स्थापना चाहते थे। समुदाय का अपना ऐसा कोई आंतरिक माहात्म्य नहीं है। इसकी आवश्यकता स्वतंत्रता की गारंटी देने के लिए है। समाज में रहकर ही व्यक्ति का विकास संभव है और उद्योग-व्यवसाय के युग में राष्ट्र की संपत्ति के सामाजीकरण से ही इस स्वतंत्रता और पूर्ण व्यक्तित्व का आधार संभव है। किंतु सामाजीकरण का फल यह होता है कि राज-कर्मचारियों की प्रधानता हो जाती है और जब राजनीतिक और आर्थिक शक्ति राज्य में केंद्रित हो जाती है तब सारा झुकाव समुदाय को प्रधानता देने का हो जाता है। तब समुदायत्व ही सिद्धांत बन जाता है और जो आरंभ में एक लक्ष्य के पाने का उपकरण-मात्र था वह स्वयं लक्ष्य हो जाता है। इस दोष का निवारण हो सकता है और व्यक्ति-स्वातंत्र्य और सामुदायिक आर्थिक जीवन में कोई नैसर्गिक विरोध नहीं है।
समष्टिवाद के विरुद्ध कंठ व्यक्ति को किसी बाह्य उद्देश्य की पूर्ति का साधन नहीं मानता। उसका विचार है कि प्रत्येक मानव स्वतः उद्देश्य-स्वरूप है। उसका महत्व सबसे अधिक है। मानव गौरवपूर्ण है, उसके व्यक्तित्व का विकास सर्वोत्कृष्ट नियम है। इसे व्यक्तिवाद कहते हैं। किंतु कुछ लोगों ने इसे अतिव्यक्तिवाद का रूप दे दिया। उनका कहना है कि व्यक्ति के विकास के लिए जाएदाद पर उसका स्वामित्व होना आवश्यक है। स्वामित्व की कोई सीमा निर्धारित करनी चाहिए। ये अनियंत्रित उद्योग व्यापार के समर्थक हैं। उनका मत है कि इस स्वतंत्रता का प्रतिषेध करना व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का प्रतिषेध करना है।
वस्तुतः व्यक्ति और समष्टि में कोई नैसर्गिक विरोध नहीं है। आज के युग में आर्थिक क्षेत्र में समुदायत्व अनिवार्य है। इस समुदायत्व को स्वीकार करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं, यही मानव का उत्कृष्ट मूल्य है। उसको पूर्ण विकास का अवसर मिलना चाहिए। आज करोड़ों लोग इस अवसर से वंचित हैं। परिस्थितियाँ ऐसी हैं जो उसको विकास का अवसर नहीं देती। इन परिस्थितियों को बदलना चाहिए। स्वतंत्र वातावरण में ही व्यक्तित्व निखरता है, उसका विकास होता है। किंतु स्वतंत्रता का अर्थ उच्छङख्लता नहीं है, मर्यादाहीनता नहीं है। विकास-प्राप्त मानव सुसंस्कृत है और जो दूसरों की स्वतंत्रता का ध्यान रखता है, वह संयत होता है। समाज में रहकर ही मानवोचित गुणों का विकास होता है। दया, भ्रातृत्व, त्याग आदि गुण समाज में रहकर ही प्रादुर्भूत होते हैं। समाज द्वारा ही मानव का विकास हुआ है। किंतु यह विकास कुछ मर्यादा स्वीकार करके ही हो सकता है। अंतर इतना ही है कि एक मर्यादा या नियंत्रण स्वेच्छा से स्वीकार किया जाता है, दूसरा बाहर से आरोपित होता है। समाज में रहकर तरह-तरह के नियम मानने पड़ते हैं,अन्यथा समाज विश्रृंङख्ल हो जाता है और किसी को भी विकास का अवसर नहीं मिलता। अतः सबकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उचित मर्यादा को स्वीकार करना आवश्यक है। किंतु यदि राज्य की ओर से व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण होता है, यदि उसके नागरिक अधिकार सुरक्षित नहीं हैं, यदि उसको अपने भावों के व्यक्त करने तथा दूसरों के साथ सहयोग कर किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संगठन बनाने की स्वतंत्रता नहीं है, तो व्यक्ति के विकास में बाधा पहुँचती है।
प्राचीन भारत में वर्णाश्रम की व्यवस्था थी। इसकी रक्षा करना राज्य का कर्तव्य था। सामाजिक संगठन में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होता था। समाज वर्णों में विभक्त था। प्रत्येक वर्ण की जीविका नियत थी, सामाजिक नियंत्रण कुछ बातों में कठोर था। खान-पान, विवाह-संबंध और जीविका के विषय में कठोर नियंत्रण था, किंतु विचार की स्वतंत्रता थी। आप चाहे ईश्वर के अस्तित्व को मानें या न मानें, आपका धर्म चाहे वेद-बाह्य हो, आप समाज से बहिष्कृत नहीं हो सकते। किंतु जिस काल में प्रतिलोम विवाह मना था उस काल में प्रतिलोम विवाह करने पर समाज से पृथक् होना पड़ता था और जिस काल में केवल सवर्ण विवाह की ही अनुज्ञा थी उस काल में असवर्ण विवाह करने पर समाज से अलग होना पड़ता था। इसी प्रकार अंत्यज अपनी जाति के रिवाज और नियमों से बँधे हुए थे। जो अधिकार द्विजों को प्राप्त था वह शूद्रों और दूसरे लोगों को नहीं था। आजीविका के कुलागत होने के कारण और प्रत्येक वर्ण की आजीविका के नियत होने के कारण स्वाभाविक विकास में रुकावट होती है। किंतु जो संन्यास ग्रहण करता था और घर-बार छोड़कर आध्यात्मिक चिंतन में लगता था उसके लिए सामाजिक नियम नहीं थे। श्रमण सब कोई हो सकते थे और निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो सकते थे। मोक्ष परम पुरुषार्थ है। उपनिषदों में लिखा है कि मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ नहीं है। स्वर्ग और नरक भोग-भूमियाँ हैं। मनुष्य-जन्म में ही मोक्ष की साधना हो सकती है। भव-चक्र से छुटकारा पाना और सब बंधनों से विनिर्मुक्त होना जीवन का चरम लक्ष्य समझा जाता है। सब दर्शनों का ध्येय मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस या निर्वाण है। इस अर्थ में सब दर्शन मोक्ष-शास्त्र हैं। जो परम पुरुषार्थ के लिए यत्नशील है वह साधारण जन के समान आचरण नहीं करता। उसकी चर्या भिन्न है, उसका समाज में सबसे अधिक आदर होता है, उसके लिए समाज के बंधन नहीं हैं। अतः हमारे देश में आध्यात्मिक जीवन के विषय में व्यक्ति-स्वातंत्र्य था। किंतु सामाजिक बंधन कुछ बातों में कठोर था। प्राचीन काल में सब देशों में अपने समाज पर व्यक्ति को बहुत-कुछ आश्रित रहना पड़ा था। यही बात यहाँ भी थी। इसीलिए व्यक्ति पर समाज का नियंत्रण भी अधिक होता है। कुल इकाई समझा जाता है, व्यक्ति नहीं। मनुष्यों का संगठन कुल-कबीलों से गुजरकर राष्ट्र के स्तर तक पहुँचा है और अब वह सब साधन एकत्र हो रहे हैं जो एक संसार, एक राज्य की भावना को साकार कर सकते हैं। पश्चिमी यूरोप का व्यक्ति किस प्रकार कुल और धार्मिक संस्थाओं के नियंत्रण से स्वतंत्र हुआ है और किस प्रकार उसने राज्य के विरुद्ध लड़कर नागरिक अधिकार प्राप्त किए हैं, इसका इतिहास बड़ा रोचक है। प्राचीन काल में हमारे यहाँ राज्य की ओर से कोई ऐसे नियंत्रण न थे जिनसे विचार-स्वातंत्र्य को क्षति पहुँचे। समाज का नियंत्रण अवश्य था। उसकी ओर से भी विचार की स्वतंत्रता में कोई बाधा न थी। किंतु कुछ विषयों में कार्य की स्वतंत्रता न थी। समष्टि का इन विषयों में व्यक्ति पर अक्षुण्ण अधिकार था।
यह स्पष्ट है कि व्यक्ति को अमर्यादित स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती, क्योंकि सब व्यक्तियों की स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। मर्यादा को स्वीकार करके ही व्यक्तित्व का विकास संभव है। व्यक्ति को यह स्वीकार करना पड़ेगा। यह ठीक है कि व्यक्ति पर परिस्थिति का प्रभाव पड़ता है, किंतु यह भी सत्य है कि व्यक्ति परिस्थिति को बदलता है। मानव और प्रकृति की एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता का लोप हो जाए और कानून, परंपरा और रूढ़ि द्वारा उसको स्वतंत्र रीति से सोचने और काम करने का अधिकार न दिया जाए, तो समाज की उन्नति का क्रम बंद हो जाए और मानवोन्नति असंभव हो जाए। इतिहास बताता है कि जिस समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण किया गया और राज्य या समाज की ओर से विचारों का दमन हुआ उस समाज में गत्यवरोध हुआ और उसका ह्रास और पतन हुआ। विचार और संस्था के इतिहास में एक समय आता है जब वह जड़ और स्थित हो जाती है। परिस्थितियाँ बदल जाती हैं और वे नए विचारों और नई संस्थाओं की माँग करती हैं। किंतु पुराने विचार और पुरानी संस्थाएं मनुष्य पर ऐसा प्रभाव जमाए रहती हैं कि वह नए सिरे से सोचने को तैयार नहीं होता। अतः समाज के स्वस्थ जीवन के लिए ऐसे केंद्र चाहिए जहाँ से पुराने विचारों और संस्थाओं की आलेाचना होती रहे और जिनसे नए विचारों के उपक्रम में सहायता मिलती रहे, जिससे जीवन का प्रवाह कभी रुके नहीं और जीवन किसी सोते में आबद्ध न हो इसके लिए विचार-विनिमय की स्वतंत्रता अपेक्षित है।
यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी मर्यादा को समझे तो व्यक्ति और समष्टि में कोई झगड़ा नहीं है। आखिर, यह व्यक्ति का विकास है क्या? अपनी निहित शक्तियों का पूर्व आविर्भाव। यह कार्य समाज में रहकर ही होता है, अन्यथा नहीं। ज्यों-ज्यों समाज ऊँचे स्तर में उठता है त्यों-त्यों व्यक्तित्व के विकास की गहराई बढ़ती जाती है। एक कबीले के व्यक्ति और राष्ट्र के व्यक्ति की परस्पर तुलना करने से मालूम होगा कि राष्ट्र के विचार, अनुभव और कल्पना में कितना आकाश-पाताल का अंतर हो गया है। धीरे-धीरे व्यक्तित्व समृद्ध होता है। पुनः एक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति, जो सकल विश्व को अपने व्यक्तित्व में समा लेता है, राष्ट्र की सीमा का उल्लंघन करता है; जाति, धर्म, रंग का भेद न करके मनुष्य-मात्र के प्रति आदर और प्रीति का भाव रखता है तथा विश्व-बंधुत्व की भावना से प्रेरित हो अपने सब कार्यों को करता है। उसके व्यक्तित्व की उदारता, समृद्धि तथा वैचित्र्य का क्या कहना? उसकी सूक्ष्म दृष्टि, उसकी गंभीर और कोमल अनुभूति सकल विश्व से उसका तादात्म्य स्थापित करती है। ऐसा मनुष्य जगद्वन्द्य है। ऐसे व्यक्ति के लिए स्वच्छंद वातावरण चाहिए। अतः व्यक्ति और समष्टि के बीच सामंजस्य का होना जरूरी है। समाज का उचित हस्तक्षेप कहाँ और किस दरजे तक हो सकता है तथा वह कौन-सा क्षेत्र है,उसकी क्या सीमाएँ हैं जिनमें व्यक्ति का एकमात्र आधिपत्य होना चाहिए - इन बातों का निर्णय होना आवश्यक है।
हमारे समाज में विचार-स्वातंत्र्य रहा है। इसके कारण धार्मिक सहिष्णुता भी रही है। इसी कारण आज भी हम स्त्रियों को या हरिजनों को राजनीतिक अधिकार देने का विरोध करते। यूरोप को या रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटों को वोट के सामान्य अधिकार के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा है। हाँ, हमारे यहाँ सामाजिक अधिकार देने के लिए अवश्य विरोध किया जाता है, क्योंकि सामाजिक संग्रंथन ही हिंदू-धर्म की विशेषता है। इस विचार-स्वातंत्र्य की, जो हमारी सबसे बड़ी निधि है, हमको रक्षा करनी चाहिए और उसकी युग के अनुकूल वृद्धि भी करनी है। बिरादरी के बंधन ढीले हो रहे हैं,व्यक्ति उनके कठोर नियंत्रण से मुक्त हो रहा है। किंतु एक और अति-व्यक्तिवाद का भय है और दूसरी ओर यह भय है कि कहीं भविष्य में अति-समष्टिवाद व्यक्ति को ग्रसित न कर ले। हमको इन दोनों भयों का प्रतिकार करना है और एक ऐसी व्यवस्था के लिए प्रयत्नशील होना है जो व्यक्ति और समष्टि का उचित समन्वय कर सके। इसमें संदेह नहीं कि मानव से श्रेष्ठतर कोई वस्तु नहीं है। किंतु यह भी सत्य है कि समाज में रहकर ही मानव इसका अधिकारी बन सकता है। समाज से वह अपनी शक्तियों के विकास के लिए सामग्री पाता है, समाज में ही वह अपनी शक्तियों का प्रयोग करके उनको विकसित करता है और समाज को ही अपना सर्वस्व देकर पूर्ण और कृतकृत्य होता है।