समाजवादी क्रान्ति का सपना और यथार्थ / शिवदयाल
वह चमत्कार से कम न था। या कि वह एक महाविस्फोट था जिसने दुनिया भर के तत्कालीन यथास्थितिवादी, सामान्यतया पूँजीवादी सत्ता-प्रतिष्ठानों की चूलें हिला दी थीं। 1917 में रूस में लेनिन के नेतृत्व में जो बोल्शेविक क्रान्ति हुई थी उसने युग के प्रवाह को जैसे मोड़ दिया। रूस में तब औद्योगिकीकरण अपने उत्कर्ष पर नहीं था जब लेनिन ने मार्क्सवाद को जमीन पर उतार दिया, सर्वहारा के अधिनायकवाद का सपना साकार किया। इसके लिए रुसी जनता ने उस दौर के शायद सबसे शक्तिशाली और निरंकुश जारशाही को उखाड़ फेंका। और 1992 में भी वह चमत्कार ही था जबकि रुस के लोगों ने ही, जो प्रथम समाजवादी राष्ट्र के निर्माता थे, समाजवादी व्यवस्था से अपने को इस कदर अलग कर लिया - जैसे वे कभी इसका हिस्सा थे ही नहीं।
एक बार जरुर आशंका हुई थी कि स्टालिनवाद फ़िर से रुसी जनता को अपने शिकंजे में ले लेगा जब कि सन् 1991 में येनायेव के नेतृत्व में गोर्वाचेव की सत्ता के खिलाफ विद्रोह हुआ। किन्तु इस सदी में दूसरी बार रुसी लोगों ने अपनी मुक्ति के लिए अपने प्राण न्योछावर करने की संकल्प शक्ति के साथ पिछले 70-75 सालों का इतिहास पलट दिया। किन्तु येनायेव का विद्रोह विफल होने के पश्चात गोर्बाचेव के हाथों से सत्ता जाने, फिर सोवियत संघ के बिखरते चले जाने की प्रक्रिया और येल्तसिन के धुर दक्षिणपंथी रुझान को देखते हुए ऐसा लगा जैसे पूर्व सोवियत संघ के लोगों की मुक्ति के उस सपने का जैसे अपहरण हो गया हो जो उन्होंने ग्लासनोश्त और पेरेस्त्रोइका के दौर में देखे थे। यह कुछ-कुछ ऐसा ही रहा जैसे लेनिन के बाद स्टालिन काल में समाजवाद के नाम पर लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्राता और नागरिक अधिकारों का निर्ममता से दमन किया गया था और लोग उन अत्याचारों को ‘‘संक्रमण काल की विवशता’’ मान कर झेलते रहे।
एक व्यवस्था के रूप में सोवियत संघ सहित पूरे यूरोप में समाजवाद समाप्त हो चुका है, और जहाँ कहीं यह जीवित है प्रायः संशयग्रस्त है, चाहे वह चीन हो या क्यूबा या कोरिया। बल्कि दुनिया भर में समाजवादी आन्दोलन से जुड़े लोग आज बचाव की मुद्रा में हैं चाहे वे सत्ता में हो या सत्ता के विरुद्ध। मोटे तौर पर जैसे मान लिया गया है कि मार्क्सवाद एक विफल और मूलतः अव्यवहारिक विचारधारा है, और कि समाजवादी व्यवस्था कहीं ज्यादा उत्पीड़क व्यवस्था सिद्ध हुई है। तो क्या वास्तव में समाजवादी मूल्य अप्रासंगिक हो गए हैं और मार्क्सवाद एक विचारधारा के रूप में अकाल मृत्यु को प्राप्त कर चुका है?
मानव समाज में वर्ग रहते चले आए हैं। अलग-अलग युगों या कालखण्डों में अलग-अलग इनका स्वरूप रहता चला आया है। मार्क्सवाद दरअसल इन वर्गों के अध्ययन की एक पद्धति है - वैज्ञानिक पद्धति , जो वर्गों को उनके ऐतिहासिक विकास-क्रम में देखती-समझती है और उस आधार पर सामाजिक संबंधों को परिभाषित करती है। और यहीं मार्क्सवाद सामाजिक परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में भी व्यवहृत होने लगता है क्यों कि अपने उद्देश्यों में मार्क्सवाद एक वर्गविहीन, शोषण-विहीन मानव समाज की स्थापना का आग्रह रखता है। यह शोषण-दोहन, उत्पीड़न तथा तमाम तरह के मानवीय दुःखों का कारण वर्ग-भेद को मानता है। इसलिए मार्क्सवाद वर्गविहीनता को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। इन उद्देश्यों में कहीं न कहीं यह स्थापना अन्तर्निहित है कि इस प्रकार की वर्गविहीनता में जब कि राज्य नामक संस्था की अनिवार्यता भी समाप्त हो जाएगी, वास्तव में मानव मात्रा की संपूर्ण मुक्ति निहित है। एक मायने में मार्क्सवाद राज्य के अस्तित्व को पूँजीवाद से समाजवाद की ओर संक्रमण करने वाले दौर तक ही आवश्यक मानता है जबकि सर्वहारा वर्ग राज्य-शक्ति पर नियंत्राण स्थापित करके ‘सर्वहारा वर्ग का अध्निायकत्व’ स्थापित करेगा। इस संक्रमणकालीन अवस्था में सर्वहारा वर्ग द्वारा पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली, वितरण व्यवस्था तथा यहाँ तक कि पूँजीवादी आग्रह रखने वाले साहित्य, सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं को भी जबरन बदलने की अनिवार्यता होगी। ऐसे व्यक्तियों या समूहों का भी उन्मूलन किया जाएगा जो येन-केन-प्रकारेण समाजवादी व्यवस्था के विरुद्ध षड्यंत्र रच सकते हैं। मार्क्सवाद का आग्रह है कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के बिना समाजवादी व्यवस्था का अभ्युदय हो ही नहीं सकता। तथापि यह एक संक्रमणकालीन व्यवस्था है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि समाजवादी व्यवस्था स्थायीत्व प्राप्त कर चुकी है। तो कहीं न कहीं राज्य के अस्तित्व को मार्क्सवाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के काल तक ही सीमित रखना चाहता है, किन्तु इसमें कोई समयबद्धता नहीं है क्योंकि यह सब कुछ देश, काल, परिस्थिति पर निर्भर करेगा। किन्तु लेनिन ने समाजवाद में राज्य के अस्तित्व के बारे में विचार व्यक्त किया था कि हर समाज में कुछ न कुछ लोग प्रतिगामी रहेंगे ही, यह एक वास्तविकता है इसलिए राज्य का अस्तित्व समाजवाद में बना रहेगा।
सन् 1917 की रुसी क्रान्ति के पश्चात समाजवाद के बारे में अनुभव क्या हैं? चाहे वह सोवियत संघ हो अथवा दूसरी दुनिया के अन्य देश - पूर्वी यूरोप, चीन हो या कोरिया या क्यूबा, मार्क्सवाद एक व्यवस्था के रूप में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की अवस्था से कहीं भी आगे नहीं निकल पाया, राज्य नामक संस्था के विलोपीकरण की बात तो खैर बहुत दूर की है! इसका नतीजा क्या निकला? नतीजा यह निकला कि मार्क्सवाद का एक व्यवस्था के रूप में जो चित्रा बना वह सिर्फ दमन, उत्पीड़न का बना, उसका मानवीय स्वरूप उभर कर सामने नहीं आ सका। व्यवस्था को उदार बनाने की हर मांग को फौजी बूटों तले कुचला गया। सुधर का आह्वान करने पर ख्रुश्चेव पदच्युत किए गए, बीजिंग का तियानयेनमन चौराहा नागरिक अधिकार एवं लोकतंत्र की माँग करने वाले छात्रों के खून से रंगा गया। तब सवाल यह उठता है कि इन समाजवादी देशों ने संक्रमण की इस अवस्था से वास्तव में आगे निकलने का ईमानदारी से प्रयास किया? फिलहाल हम उदारीकरण और नागरिक अध्किारों की बात तो छोड़ ही दें। सोवियत अनुभव क्या कहता है?
हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं कि लेनिन का उत्तराधिकारी स्टालिन के बदले कोई और होता तो समाजवाद का कैसा मॉडल हमारे सामने आता। बहरहाल, स्टालिन की दमनकारी नीतियों के बावजूद द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका ने उसको समाजवादी होने के साथ-साथ एक सबल एवं स्थिर राज्य के रूप में स्थापित कर दिया। इससे स्टालिन जिस ‘‘लौह आवरण’’ का निर्माण कर रहा था वह और पुख्ता होता चला गया। इस आवरण के बाहर न अन्दर की चीखें सुनाई दे सकती थीं न ही बाहर की हवा अन्दर प्रवेश पा सकती थी। सारे दरवाजे बन्द, वातायन बन्द, रोशनदान बन्द! इसके साथ ही शुरू हुआ एक सर्वथा नए तरह के युद्ध का दौर जो दरअसल पूँजीवादी हितों और समाजवादी विचारधरा के बीच था। इस नए तरह के युद्ध में बन्दूकें तो तनती थीं पर कंधे औरों के हुआ करते थे। इसे शीत-युद्ध नाम दिया गया। इसी दौर में दुनिया को आणविक अस्त्रों के ढेर पर बैठा दिया गया - पूरी दुनिया पर छा जाने की होड़ में। छोटे-बड़े कई देश इसकी बलि चढ़े - कोई लोकतंत्र के नाम पर तो कोई समाजवाद के नाम पर। वियतनाम और कोरिया जैसे देश अखाड़ा बन कर बँट भी गए। इस बीच लौह आवरण का न केवल शिकंजा कसता चला गया बल्कि उसका फैलाव भी होता चला गया। साम्राज्यवाद विरोध्ी मुहिम के नाम पर छोटे-बड़े पड़ोसी गणराज्यों सहित हँगरी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, अफगानिस्तान, आदि देश सोवियत टैंकों के नीचे कुचल दिए गए। सर्वहारा के अधिनायकत्व की जय होती रही।
आवरण के अन्दर लेकिन मुश्किल यह थी कि थीसिस का एण्टीथीसिस तैयार हो रहा था। सर्वहारा के अधिना- यकवाद के दौरान विपुल शक्ति पाकर शासनकर्त्ता वर्ग जो सर्वहारा-शक्ति का बिम्ब था या प्रतिनिधि था, सर्वहारा रहा ही नहीं, वह सर्वजयी हो गया। उस पर सवाल नहीं दागे जा सकते थे, संशय नहीं किया जा सकता था, अवहेलना तो खैर की ही नहीं जा सकती थी। यहाँ तक कि ‘‘पार्टी लाइन’’ से थोड़ा भी मतान्तर प्रतिक्रियावादी अथवा प्रतिक्रान्तिकारी होना सिद्ध करता था और इसके लिए कन्सन्ट्रेशन कैम्प में दिमाग की सफाई का प्रावधान था। कहा यह जाता था कि सोचने-समझने-विचारने का काम सिर्फ पार्टी कर सकती है। व्यक्ति नहीं। यदि व्यक्ति सोचेगा, विचारेगा तो उसमें उसका वर्गजनित आग्रह होगा। इस प्रकार पार्टी की भूमिका वैसी ही हो गई जैसे कि एक धार्मिक समाज में पुजारी वर्ग की होती है। एक संस्था के रूप में राज्य की शक्ति में उत्तरोत्तर वृ होती गई जबकि उत्तरोत्तर उसे कमजोर पड़ना चाहिए था। राज्य स्वयं अपने आप में एक प्रभु वर्ग बनता गया जो सर्वसत्तावादी था, जिसके हाथों अर्थव्यवस्था, शिक्षा, संस्कृति, राजनीतिक व्यवस्था - सब कुछ कठोरतापूर्वक नियंत्रित था। आम आदमी को कोई स्वायत्तता नहीं थी, यहाँ तक कि उसे जीने का अध्किार भी नहीं था। इससे न सिपर्फ तंत्रा लगातार कठोर और अपरिवर्तनीय होता चला गया बल्कि एक विचारधरा के रूप में मार्क्सवाद का विकास भी अवरुद्ध हो गया। सोवियत संघ के कर्णधर पूरी दुनिया में समाजवाद के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ भी करने को तैयार और तत्पर थे किन्तु स्वयं कोई विचार ग्रहण करने के प्रति घृणा की हद तक उनमें अरुचि का भाव था। इसी बीच वर्त्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे परिवर्तनों से उन्होंने आँखें मूँद लीं। ईश्वर सारे दुःखों को हर लेता है उसी प्रकार मार्क्सवाद सारे अन्तर्विरोधें को सोख सकता है, यह दुराग्रह उनके अर्थतंत्र के लिए अभिशाप बन गया। आर्थिक शक्तियों का अंधाधुंध केन्द्रीकरण, गिरती हुई राष्ट्रीय आय, उद्योग में प्रेरणा-प्रोत्साहन का अभाव, आर्थिक क्रियाकलापों में पार्टी का सीध हस्तक्षेप, बढ़ती हुई उत्पादन-लागत और घटती जाती उत्पादकता और गुणवत्ता, एक अवस्था तक पहुँचने के पश्चात उत्पादक शक्तियों का विकास अवरुद्ध हो जाना - ये सब आर्थिक अवनति के कारण बनते गए। न सिपर्फ सोवियत संघ के लिए अपनी अंतराष्ट्रीय ‘प्रतिबद्धताओं’ को पूरा करने का सामर्थ्य नहीं रहा, बल्कि संघ में शामिल राष्ट्रीयताओं का उभार रोकने की भी क्षमता जाती रही। दरअसल सोवियत संघ की घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि विचारों की अपरिवर्तनशीलता अथवा उनको अटल, अचल रखने का आग्रह कितना आत्मघाती सिद्ध होता है।
हालाँकि यह मानना गलत होगा कि व्यवस्था में सुधार के लिए कोई पहल नहीं हुई। ख्रुश्चेव ने स्टालिन काल में किए गए अपराधें का खुलासा किया, साथ ही एक अपेक्षाकृत उदार और मानवीय भविष्य का आश्वासन भी दिया। तथापि ख्रुश्चेव ने स्टालिन के एक नेता के रूप में भर्त्सना तो की परन्तु उस व्यवस्था का कोई जिक्र नहीं किया जिसमें स्टालिन जैसा सर्वसत्तावादी बनता है। यदि खु्रश्चेव ने तत्कालीन समाजवादी ढाँचे पर सवाल खड़े किए होते तो उन्हें सहारा देने को क्रान्ति के दिनों के मुकाबले कहीं बहुत अध्कि शिक्षित और प्रबुद्ध जन समुदाय सामने आ सकता, किन्तु सम्भव है ख्रुश्चेव के पास कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं रहा हो। और यहीं गोर्बाचेव उनसे आगे निकल गए। आन्द्रोपोव के उत्तराधिकारी के रूप में गोर्वाचेव ने सर्वप्रथम ब्रेझनेव युग के प्रभामण्डल से अपने देश को मुक्त करने का प्रयास शुरू किया। ब्रेझनेव के जाने के बाद कट्टरपंथी समाजवादी आन्तरिक तौर पर कमजोर भी पड़े थे। गोर्बाचेव ने ग्लासनोश्त (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) की शुरुआत करके पुराने अथवा प्रचलित तंत्र पर चोट की, फिर धीरे-धीरे इस बात को उजागर किया कि क्या-कुछ कैसे गलत होता चला आ रहा है, कि सर्वहारा के अधि नायकत्व की वास्तविकता क्या रही, यथार्थ क्या रहा!
यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल सामने आता है कि स्टालिन और ब्रेझनेव काल का दमन क्या वास्तव में मार्क्सवाद के अनुरूप था? यदि नहीं, तो क्या वास्तव में गोर्बाचेव को एक पथभ्रष्ट कम्यूनिस्ट कहा जा सकता है? वास्तव में समाजवाद को जनवाद के साथ संयुक्त करने का उन्होंने पीड़ा उठाया और यह चुनौती स्वीकार की कि आम सोवियतजनों को व्यवस्था के बारे में पूछने और जानने का पूरा हक है। उन्होंने जीवन के सभी पहलुओं में व्यापक जनवादीकरण का एजेंडा हाथ में लिया और पेरेस्त्रोइका को एक और क्रान्ति के रूप में परिमापित किया। इसके लिए उन्होंने लेनिन के उस कथन का आधार लिया जिसमें वे कहते हैं कि ‘‘समाजवाद आम जनता की जीती- जागती सृजनात्मकता है।’’ उनके अनुसार समाजवाद कोई पहले से ही सिद्ध सैद्धान्तिक स्कीम नहीं है जिसके अनुसार समाज दो गुटों में बँटा है - वे लोग जो आदेश देते हैं, और वे जो उनका पालन करते हैं।
सोवियत संघ की अत्यन्त तेजी से बदली परिस्थितियों ने गोर्बाचेव को एक ईमानदार और प्रतिबद्ध कम्यूनिस्ट साबित करने का अवसर ही प्रदान नहीं किया वरना एक व्यवस्था के रूप में समाजवाद इस तरह शायद अकाल-मृत्यु को प्राप्त नहीं होता तथा एक विचारधरा के रूप में उसके भविष्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता। इस स्थिति के लिए अगस्त 91 में सत्ता पर अवैध् ढंग से कब्जा करने वाले तथाकथित पक्के और प्रतिबद्ध कामरेड कम जिम्मेदार नहीं थे। विद्रोह की इस घटना के बाद रुसी जनता का रहा-सहा धैर्य भी जाता रहा, उन्हें कम्यूनिस्टों से इस कदर विरक्ति हो गई कि उन्होंने कम्यूनिज्म से सम्बन्ध्ति हर पहचान को जैसे दफन करने की कसम खा ली। उन्हें टैंकों-तोपखानों का भी कोई भय न रहा। इसी दौरान बोरिस येल्तसिन नए नायक बन कर उभरे तो रुसी जनता ने उन्हें अपना सारा विश्वास अर्पित कर दिया।
इस कम्यूनिस्ट विरोधी उन्माद जिसे एक मायने में हर्षोन्माद ही कहना चाहिए, में हुआ यह कि नवीन व्यवस्था समाज को एकदम धुर दक्षिणपंथ की ओर लेकर चली गई। तब बदला क्या? पूँजीवाद का विकल्प ;या कि अनिवार्य परिणति समाजवाद और समाजवाद का विकल्प फिर से पूँजीवाद? चीन में यही हुआ, लेकिन जरा हट के। वहाँ राज्य-पूँजीवाद की पताका फहरा रही है। यानी समय की सूई एक मायने में फिर पीछे की ओर घूमी है जब कि सारा संसार खासकर तीसरी दुनिया के तमाम देश सोवियत संघ के बाद चीन की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे कि वहाँ नया कुछ होगा। लेकिन हुआ यह कि सोवियत संघ टूट गया, समाजवादी व्यवस्था ध्वस्त हो गई जबकि चीन को नागरिक स्वतंत्राता और मानवाधिकारों की माँग को कुचलने के लिए अपने ही युवाओं के खिलापफ तियानयनमेन जैसी घृणित कार्रवाई करनी पड़ी, तब भी अपने को बचाए रखने के लिए पूँजीवाद का रास्ता अपनाना पड़ा। संभवतः आज की वैश्विक परिस्थितियों में पूँजीवाद से पूरी तरह बचना संभव नहीं है। अपने देश में भी वामपंथी सरकारों ने अपनी जनता के लिए पूँजीवादी विकास की अनिवार्यता स्वीकार की है और इस ओर कदम बढ़ाए हैं। उत्पादन, उपभाग अथवा खपत और वितरण की जो व्यवस्था चल रही है उसमें निजी स्वामित्व और बजार के वर्चस्व को पूरी तरह अस्वीकार करना संभव नहीं है। वैश्विकीकरण अथवा भूमंडलीकरण इसी व्यवस्था की अनिवार्य परिणति है जिसके प्रभाव से दुनिया की कोई भी आबादी अछूती नहीं रह सकती। चीन ने आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए खुद को तैयार किया और इस तरह उसने समाजवाद का एक और ही मॉडल खड़ा कर दिया।
चीन ने आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों का आकलन करने के पश्चात आर्थिक सुधरों को अपरिहार्य माना। इसकी कोशिश तेंग शियाओ पेंग ने अस्सी के दशक में ही शुरू कर दी थी। 14वीं पीपुल्स कांग्रेस में देश के लिए मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को निर्णायक रूप से अपनाया गया और यह माना गया कि इसके लिए गैरबराबरी को सहन किया जा सकता है। ‘‘समाजवादी बाजार अर्थव्यवस्था’’ को दीर्घकालीन अर्थनीति घोषित करते हुए चीनी नेतृत्व ने वास्तव में एक नई बहस की शुरुआत की। देश की जनता को सन् 2050 तक अमेरिका से भी उन्नत जीवन-स्तर का आश्वासन दिया गया। इसके लिए चीन न सिपर्फ विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बना बल्कि विदेशी निवेश के लिए अपने दरवाजे खोल दिए। द्रुत आर्थिक विकास के उपायों के तहत ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रा’(SEZ) स्थापित किए गए। ‘शेन्जेन’ जैसा पिछड़ा इलाका दस वर्षों के अंदर विशेष आर्थिक क्षेत्रा के रूप में उभर कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना सका। चीन की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेज रफ्रतार अर्थव्यवस्था बन सकी। दूसरी ओर राज्य और शासन तंत्र में किसी भी प्रकार की ढील की सम्भावना को नकार दिया गया और राजनीतिक मामलों में पार्टी का एकछत्रा नियंत्राण सुनिश्चित किया गया। ऐसे अन्तर्विरोध् में आर्थिक सुधार सम्बन्धी प्रयास किस हद तक सफल हो सकते हैं और कब तक - यह तो समय ही बताएगा। किन्तु यह बात निश्चित प्रतीत होती है कि मुक्त अर्थव्यवस्था का दवाब चीन की राजनीतिक व्यवस्था पर अवश्य पड़ेगा। यदि चीन का नेतृत्व इस बात को समझकर कर अभी से इस दिशा में प्रयास शुरू करे तो तियानयेनमन चौक काण्ड की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है। दरअसल दमन की अनिवार्यता इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं व्यवस्था टूट रही है।
सोवियत संघ बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यक लोच का प्रदर्शन करने में असफल रहा और अंततः वहाँ समाजवादी व्यवस्था ध्वस्त हो गई।फिर भी अगर लेनिनग्राद का सेंट पीटर्सबर्ग बनना वास्तव में एक विशेष समाजवादी मॉडल का नहीं बल्कि समाजवादी मूल्यों का ही अन्तिम संस्कार है तो भय है, रुसी लोगों को अगले कुछ दशकों बाद फिर से एक मुक्तिपर्व का आयोजन करना पड़ेगा। तब क्रेमलिन की घड़ी की सूई पता नहीं क्या समय बताएगी।
लेकिन दुनिया के वे तमाम साधरण लोग जो वास्तव में इस ग्रह की गतिविध्यिाँ संचालित करते हैं, अपनी सामूहिक मुक्ति और सुखमय जीवन के लिए एक तीसरा रास्ता चाहते हैं। यह तीसरा रास्ता कैसा हो?
हम इस सवाल को ऐसे लें कि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ क्या हैं जिनकी सम्पूर्ति उसके सभ्य एवं सुसंस्कृत अस्तित्व के लिए नियामक हैं। भोजन, वस्त्र, आवास उसकी मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं किन्तु एक चिंतनशील प्राणी होने के नाते आत्मप्रकाशन अथवा अभिव्यक्ति भी उसकी एक मूलभूत आवश्यकता है। मनुष्य की आत्मप्रकाशन की चाहना में निहित हैं न सिर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा नागरिक अधिकारों सम्बन्धी अवधारणाएँ, बल्कि उसकी समस्त सृजनात्मक क्षमताएँ और प्रवृत्तियाँ जबकि उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसके मानवीय अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं। भौतिक आवश्यकताओं एवं अभिव्यक्ति की चाहना के बीच ऐसा कोई अन्योन्याश्रय सम्बन्ध् नहीं है किन्तु यह माना जाता है कि भूखे आदमी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि खाली पेट वह किसी दुर्लभ कलाकृति का निर्माण कर सकता है। यह बहुत कुछ संतुष्टि के स्तर पर भी निर्भर करता है तथा व्यक्ति-दर-व्यक्ति इसके परिणाम भिन्न हो सकते हैं। तो इस अर्थ में भौतिक आवश्यकताओं और आत्माभिव्यक्ति सम्बन्धी आवश्यकताओं के बीच परस्पराश्र्रित सम्बन्ध् हैं। पहले प्रकार की आवश्यकताओं में बनती है सभ्यताएँ - जीवन का भौतिक मानदण्ड निर्धरित होता है जबकि दूसरे प्रकार की यानी आत्मप्रकाशन सम्बन्धी आवश्यकताओं में निर्मित होती है संस्कृति, क्योंकि उनसे जनमती है कला, उससे विकसित होते हैं जीवन-मूल्य, विचारधाराएँ। तो यह दोनों ही प्रकार की आवश्यकताएँ मनुष्य के अर्थवान एवं गरिमामय अस्तित्व का आधार हैं।
मार्क्सवाद का एक विचारधारा अथवा समाजवादी मूल्यों के उत्तरोतर विकास के लिए आवश्यक है कि उसमें मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति सम्बन्धी आवश्यकताओं का भी समावेश है। तब मार्क्सवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार व लोकतंत्र जैसी अवधरणाओं से जुड़कर और समृद्ध और मानवीय बनेगा। एक बन्द किताब की तरह इस्तेमाल न होकर वह एक खुली किताब बने और अलग-अलग देशों के, समाजों के अनुभवों से सीखे। एक बात बिल्कुल तय है - स्वतंत्रता के बिना समानता का कोई अर्थ नहीं, बल्कि वह व्यर्थ है। इसीलिए समाजवाद में जब तक लोकतंत्र नहीं जुड़ेगा वह पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता। भारत में समाजवादी आंदोलन का आदर्श यही रहा है। सिर्फ लोकतंत्र अथवा लोकशक्ति को विकसित करके ही राज्य-शक्ति को कम से कमतर किया जा सकता है। राज्य के हाथों अंधाधुंध शक्ति देना आखिरकार एक विभीषिका को ही आमंत्रित करना है। गांधीजी जी ने कहा था ‘‘... राज्य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मिल्कियत या पूँजीपतियों की हिंसा कम हानिकारक है। लेकिन यदि राज्य की मिल्कियत अनिवार्य ही हो तो मैं भरसक राज्य की कम से कम मिल्कियत की सिफारिश करूँगा।’’
तो फिलहाल दुनिया के जो बचे हुए समाजवादी देश हैं वे मार्क्सवाद का, समाजवादी व्यवस्था का एक दूसरा चेहरा संसार के सामने पेश कर सकते हैं यदि वे गैर-मार्क्सवादी विचारधराओं से भी कुछ ग्रहण करना सीखें और यह आग्रह छोड़ें कि यह मार्क्सवाद ही है जिसका सत्य पर एकाधिकार है। यह समझना होगा कि व्यक्ति भी एक महत्वपूर्ण इकाई है। मनुष्य वर्गीय प्राणी ही नहीं बल्कि मूल रूप से एक सामाजिक प्राणी है। किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधि मात्र होने से एक व्यक्ति के रूप में उसकी निजता, उसकी अस्मिता की अवहेलना नहीं की जा सकती। जिस व्यवस्था में मनुष्य अपनी आत्माभिव्यक्ति देखता और महसूस करता है उसका उससे रागात्मक लगाव भी बनता है। यह रागात्मक लगाव संतुष्टि के अत्यन्त उच्च स्तर को प्रदर्शित करता है। इन्हीं अर्थों में साध्य और साध्न के अन्तर को कम से कमतर करना भी एक अत्यन्त महत्व का विषय है। प्रकृति और मनुष्य के अंतर्सम्बन्धों तथा तकनीक के उपयोग के बारे में नई दृष्टि बनानी होगी। इस तथाकथित विकास के पूरे तामझाम को नए सिरे से समझना होगा और विकल्प के रास्ते तलाशने होंगे। विचारधरा कोई भी हो, उसे तालाब के पानी की बजाए निर्झर बनना चाहिए। आखिरकार मानव जीवन एक निश्चित और तयशुदा फार्मूले में कैद हो सकने की चीज नहीं है। कोई भी विचारधारा अधिक से अधिक मानव जीवन को सुखमय और सारमय बनाने में अपने हिसाब से एक रास्ता ही सुझा सकती है।
समाजवादी क्रान्तियों का अनुभव कहता है कि खूनी क्रान्ति मनुष्य जाति के लिए बहुत महँगा सौदा है, और उसके मुकाबले उसका हासिल, उसकी प्राप्ति कतई ऐसी नहीं जिस पर गर्व या संतोष किया जा सके। अब तक ऐसी किसी एक क्रान्ति ने नई व्यवस्था में एक पूर्ण तो क्या संतुष्ट मनुष्य का निर्माण नहीं किया। उल्टे जो व्यवस्थाएँ बनीं उनमें सिद्धांत के नाम पर आदमी ने आदमी पर अत्याचार के नए तरीके इजाद किए और हदें पार कीं।
हिंसा चाहे कितनी भी जायज या औचित्यपूर्ण लगे, प्रतिहिंसा को जन्म दिए बिना नहीं रह सकती। इससे साथ-साथ रहने वाले असंख्य जीवनों को जोड़ने वाले कोमल और सूक्ष्म तंतुओं की जो क्षति होती है, उसकी भी भरपाई नहीं हो पाती, जबकि ये धागे हजारों वर्षों के सह-अस्तित्व और साझे सरोकारों से निर्मित होते हैं। रक्त-क्रांति बहुत बड़ी कीमत वसूलती है, और अगर वह विपथगा हो जाए तो इसका भी कई गुना मोल साधरण लोगों को चुकाना पड़ता है।
भारतीय स्वतंत्रता-संघर्ष की विरासत हमें ही नहीं, पूरी दुनिया को यह सीख देती है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए बाहरी औजारों - मनुष्य को मारने वाले हथियारों पर निर्भरता अपरिहार्य नहीं। हमें स्वतंत्रता भी मिली, बिना किसी ‘प्रतिक्रांति’ की कीमत वसूले, विभाजन का मामला अलग है, और बासठ वर्षों से हम लोकतंत्र चला रहे हैं। भले ही इसमें अनेक कमियाँ हों, विभेदकारी स्थितियाँ हों, शोषण और दमन हो, लेकिन आखिरकार हम सर्वसत्तावाद से बचे हुए हैं और तमाम प्रतिकूल स्थितियों के रहते लोकतंत्र हमारी सबसे मजबूत और ठोस पहचान बन रहा है।
दुनिया के छत्तीस देशों में समाजवादी शासन स्थापित हुआ, आज बस आठ देश समाजवादी रह गए, कितने समाजवादी, यह ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है। इन देशों के लोगों ने समाजवाद के लिए भारी कीमत चुकाई है। लाखों लोगों को जान गँवानी पड़ी। इनमें से जितने लोग समाजवाद स्थापित करने के लिए बलिदान हुए, लगभग उतने ही समाजवादी शासन में खेत रहे। इस उत्सर्ग के बदले उनको जो रोजी-रोटी या सुविधाओं की गारंटी की गई, उसे तुच्छ ही माना जाएगा, वह भी तब जबकि उनकी स्वतंत्रता भी हर ली गई हो।
हाल की वैश्विक मंदी ने पूँजीवाद की सीमा फिर से उजागर कर दी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका प्रभाव उन देशों पर कम पड़ा जहाँ अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बाजार के हवाले न कर राज्य के नियंत्रण की कुछ गुंजाइश रखी गई थी, यानी एक संतुलन बनाये रखा गया था। यहाँ से दुनिया को एक नए रास्ते पर ले जाया जा सकता है जिसमें प्राकृतिक और मानव संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगाकर इस ध्रती पर जीवन की सम्भावना को बचाकर रखा जा सके।
दुनिया भर में समाजवादी आन्दोलनों से जुड़े लोगों के लिए आज यह सबसे बड़ी चुनौती है।