समाजवादी जी उर्फ़ प्यारेलाल भारतीय / मुकेश मानस

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पहला सोमवार

मौसम गर्मियों का था और शाम का वक्त था। इंडियन काफ़ी हाउस के एक कोने में बैठा हुआ, मैं अपने दोस्तों का इंतजार कर रहा था। अधिकतर कुर्सियां खाली पड़ीं थी और पूरा काफ़ी हाउस एक उजाड़ बीयाबान सा लग रहा था। मैं वक्त से काफी पहले आ गया था इसलिए बोर हो रहा था और खुद को कोस रहा था। कनाट प्लेस में रीगल बिल्डिंग के पास मोहन सिंह प्लेस नाम की ईमारत की छत पर बना हुआ था ये काफ़ी हाउस। जहां इस वक्त कोई चहल-पहल नहीं थी। मगर इमारत की निचली मंजिलों में काफी चहल-पहल थी। कायदे से इस इमारत का नाम मोहन सिंह जींस बाजार होना चाहिए था। दरअसल यह इमारत जींस के कपड़े का केन्द्र है। इसमें जींस के कपड़े बेचने और सिलने वालों की सैकड़ों दुकानें हैं। मोहन सिंह प्लेस के इन दर्जियों के बारे में मशहूर है कि इधर आपने कपड़े का चुनाव किया नहीं कि उधर आपकी पैंट एकदम तैयार। दिर भर में सैकड़ों मीटर कपड़ा सिल डालते होंगे ये लोग। सुबह से लेकर देर रात तक धड़-धड़ करती सैकड़ों मशीनें चलती रहती हैं। पूरी इमारत तरह-तरह की आवाजों के शोर से भरी रहती है। मगर ये शोर ऊपर काफ़ी हाउस तक नहीं पहुंचता है। शाम खत्म होते-होते वहां दूसरी किस्म का शोर उठने लगता है। देखते-देखते सैकड़ों लोग यहां पड़ी कुर्सियों पर आसन जमा लेते और काफ़ी हाउस बंद होने के ऐन वक्त पर ही कुर्सियां छोड़ते हैं। माहौल में सिगरेट का धुंआ और तरह-तरह की आवाजों का शोर फैल जाता हैं। बेयरे भुनभुनाते हुए इस मेज से उस मेज पर दौड़ते रहे हैं। पर अभी तो यहां मुर्दनी पसरी थी और बेयरे मक्खियां मार रहे थे।

धीरे-धीरे लोग आने लगे। धुएं के छल्ले और आवाजों का शोर उठने लगा। मेरे ख़्याल में इस काफ़ी हाउस में लोग दो वज़हों से आते हैं- काफ़ी पीने और बौद्धिक बहसनुमा गप्पबाजी करने। मगर ये दोनों वज़हें अक्सर मिलकर एक ही हो जाती हैं। बात कुछ यूं है कि जब काफ़ी हाउस अपने पूरे सुरूर पर होता है तब ये जान पाना बहुत मुश्किल होता है कि लोग काफ़ी पीने आए हैं या गप्पबाजी करने। वर्षों से काफ़ी का रंग और स्वाद एक ही है मगर गप्पबाजियों का रंग समयानुसार कभी राजनीतिक, कभी आर्थिक, तो कभी साहित्यिक हो जाता है। लेकिन लोग वहीं होते हैं। बस संख्या घट या बढ़ जाती है। कभी साहित्यकारों की संख्या बढ़ जाती है तो माहौल साहित्यिक हो जाता है। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की संख्या बढ़ने से माहौल राजनीतिक हो जाता है।

मेरे दोस्तों के आने का वक्त हो गया था पर कोई अभी तक आया नहीं था। मेरी निगाहें उस दरवाजे पर टिकी थीं जहां सीढ़ियां नीचे से ऊपर आती थीं। सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आने वालों को देखते-देखते मैं ऊब चुका था। तभी ज़ीने के दरवाज़े पर समाजवादी जी नमूदार हुए। दरवाज़े पर खड़े-खड़े उन्होंने इधर-उधर नजरें घुमाकर देखा। वह शायद उन समाजवादियों को देख रहे थे जिनके साथ बैठकर वह गप्पबाजी करते थे। लेकिन उनके दोस्त लोग भी अभी तक आए नहीं थे। उन्होंने मुझे देखा और मैंने उन्हें। वह धीमे कदमों से चलते हुए मेरे पास आए। “कहिए लेखक जी” उनकी आवाज़ बेहद थकी हुई थी। पता नहीं कैसे उन्हें पता चल गया था कि मैं लेखक हूं। तब से वो मुझे लेखक जी कहकर ही पुकारते थे। “आज तो इधर भी मैदान साफ़ लग रहा है।” उनका इशारा मेरे दोस्तों की तरफ़ था। वे अपनी मरियल सी देह लिए मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठ गए। उनके आने से मेरी ऊब ज़रा कम हुई। “हां। कामकाजी लोग हैं। फंस गए होंगे।” मैंने जवाब दिया। “गजब सरकारी अफसर हैं आपके दोस्त भी। लगता है देश की नैया पार लगाकर ही दम लेंगे।” वह खीं-खीं¸ करके हंसने लगे। इस बीच बेयरा आ गया। मैंने काफ़ी का आर्डर किया। समाजवादी जी की गड्ढ़ों में धंसी आंखें चमक उठीं। “और सुनाइए।” मैंने बातचीत शुरू की “हम क्या सुनाएं।” हम तो ऐसी पोखर हैं जिसके अन्दर कोई हलचल नहीं। बाहर से कोई हिलाए तो हिलें।¸ “क्यूं आपकी यूनियन क्या हुई?” “अजी गोली मारिए यूनियन-फूनियन को।” वह मेरे साथ कोई पालिटिकल बात करने के मूड में नहीं थे शायद। “आप सुनाइए। कुछ नया लिखा इन दिनों।” उन्होंने बातचीत मोड़ दी। उनका ये सवाल मुझे अच्छा लगा। मेरे दोस्तों ने भी आज तक मुझसे ये सवाल नहीं पूछा था। मेरे लेखक होने की बात को वो भूल गए थे शायद। “नहीं, कुछ नया नहीं लिखा।” “आपके स्वर में कुछ उदासी झलक रही। आप लेखन के प्रति उदासीन हो रहे हैं शायद।” “नहीं ऐसी बात नहीं है। कुछ नया सूझता ही नहीं।” “कमाल है आप जैसे आदमी को कुछ नहीं सूझता। अभी तो आप जवान हैं और अभी से ये हाल है।” “हां क्या लिखूं, कुछ समझ नहीं आता।” “ये तो बड़ी गंभीर समस्या है। कहीं आप समझदारी के चक्कर में तो नहीं पड़ गए। जवान आदमी कुछ करने से पहले अगर सोच में पड़ जाए तो उसके जोश का कुंडा हुआ समझिए।” उन्होंने अजीब-सा मुंह बनाया। “हां सही कहते हैं आप।” मैंने मरियल-सा जवाब दिया। “एक बात पूछूं। हालांकि मेरी उमर को देखते हुए ये बात आपको अजीब-सी लग सकती है।” “ऐसी कोई बात नहीं।” “अच्छा ये बताइए। कभी किसी से प्रेम का चक्कर चलाया है।” उनकी आवाज थोड़ा थरथराते हुए संयत हो गई। मैं भी हंस पड़ा। “देखिए ये हंसने की बात नहीं। सच-सच बताइए।” “लेकिन आप ये बताइए कि लिखने से प्रेम के चक्कर का क्या संबंध है।” “अजी बहुत बड़ा संबंध है। ये आपको बाद में पता चल जाएगा। पहले जो मैंने पूछा सो बताइए।” “नहीं” “तभी तो......तभी तो मैं कहूं।” उन्होंने मेरा मर्म समझ लिया था शायद। “तभी तो मैं कहूं कि इस अच्छे-खासे जवान आदमी को हो क्या गया जो हम गड्ढ़ों की तरह मिमिया रहा है।” वो खीं-खीं करके हंसने लगे और उनके हास्य से भरे शब्द प्रयोग ने मुझे भी हंसा दिया। देखिए ऐसा करिए। दो-चार प्रेम के चक्कर चला डालिए। फ़िर देखिए कमाल। आपकी रुकी हुई कलम खुद-ब-खुद चल पड़ेगी।¸ अब तो मुझसे रुका नहीं गया। हंसी का फ़व्वारा फूट पड़ा। “आप भी कमाल करते हैं। एक नहीं दो-चार। क्या बात है।” “हां एक से काम नहीं चलेगा। एक साथ कई चक्कर चलाइए। फ़िर देखिए कमाल हो जाएगा। सबसे पहला कमाल तो यही होगा कि आपकी निष्क्रियता फ़ुर्र हो जाएगी। दूसरा कमाल ये होगा कि आपको सब सूझने लगेगा, सब दिखने लगेगा। क्या इमोशंश, क्या ड्रामा, तरह-तरह के टिविस्ट और क्लाइमेक्स ...... इन सबके अनुभव मिलेंगे आपको। फ़िर देखिएगा, कहानियां ही कहानियां सूझने लगेंगी आपको।” “लेकिन प्रेम करना क्या इतना आसान है।” बदौलत उनके, मैं फ़िर मिमियाया “यही खराबी है आप लोगों में। हर बात में तर्क को घुसा देते हैं। अजी मैं प्रेम करने की नहीं, प्रेम के ‘चक्कर’ चलाने की बात कर रहा हूं। समझे आप।” समाजवादी जी फ़िर से हंसने लगे। मैं सोच में पड़ गया। वो सचमुच कोई गंभीर बात कर रहे हैं या सिर्फ़ कोई मज़ाक कर रहे हैं। लेकिन मुझे उनकी बातों में मजा आ रहा था। इसी बीच काफ़ी आ गई। उन्होंने बड़ी तेजी से अपने कप को उठाया और एक लम्बी चुस्की ली। उनके चेहरे की थकान काफूर हो गई। मुझे लगा मानो यही वो पीड़ा थी जिसके लिए इतनी मग़ज़मारी की जा रही थी। “अच्छा अगर चक्कर नहीं चला सकते तो दूसरी बात बताते हैं।” काफ़ी पीने के बाद उनका मूड बदल रहा था। “हां बताइए।” मेरी उत्सुकता बढ़ी। “ऐसा करिए इस काफ़ी हाउस पर ही लिख डालिए।” मैं हंसने लगा। “भई हंसने की बात नहीं। एकदम सीरियस बात है।” साथ ही वह भी हंस पड़े। “हां सच। आपने इधर अभी तक नजर ही नहीं डाली है। कितने अजब-गजब करक्टर है यहां, किसी पर भी लिख मारिए। और लिखने से पहले सोचिए बिल्कुल मत।” “ठीक है।¸ मैंने एक अच्छे शिष्य की तरह जवाब दिया।” “मैं जानता हूं आप पत्रिकाओं के संपादकों और हिन्दी के आलोचकों से त्रस्त हैं।” “आपको कैसे पता।” “लग रहा है भाई। आप लिखने से पहले ये सोचते हैं कि पत्रिका का संपादक उसे छापेगा या नहीं। या कोई आलोचक उस पर क्या टिप्पणी करेगा?” “शायद” “शायद नहीं पक्का। अजी गोली मारिए पत्रिकाओं के संपादकों और आलोचकों को। आप बस लिखिए। समझे” “अच्छा आपको भी इन संपादकों और आलोचकों के बारे कुछ-कुछ पता है।” “अजी कुछ नहीं सब कुछ पता है। आपके इन संपादकों और आलोचकों को मैं अच्छी तरह जानता हूं। कुछेक को छोड़कर बाकी सब अपनी दुकान चलाते हैं। जो उनकी सेवा करे वो मेवा पाए और जो ना करे उसकी ऐसी तैसी हुई समझिए।” समाजवादी जी खीं-खीं¸ करके हंसने लगे। मेरी भी हंसी फूट पड़ी। “आप इनके बारे में इतना सब कैसे जानते हैं?” “मैं यहां होने वाली अधिकतर सभाओं-गोष्ठियों में जाता ही रहता हूं। आपकी साहित्य वाली गोष्ठियों में भी। हालांकि इन गोष्ठियों में जाने का मेरा मकसद दूसरा ही होता है।” “ये दूसरा मकसद मुझे बताएंगे।” “बात ये है कि इन प्रोग्रामों में अपने खाने-पीने का इंतजाम हो जाता है।” यह बात कहते ही वह फ़िर हंसने लगे। “बात तो आपकी ठीक ही है। वैसे भी दिन भर चलने वाली गोष्ठियों में खाने-पीने का इंतजाम अगर न हो तो वहां कुत्ता भी ना मूते।” “हां बिल्कुल सही समझे आप।’ इतने में मेरे दो दोस्त आ गए और समाजवादी जी को भी अपने जुगाडिए दिख गए। वो उठकर चले गए। मगर उनकी बातों का असर मुझ पर जम गया। दोस्तों के साथ बातचीत में मेरा मन नहीं लगा। वहीं मुझे ये ख्याल आया कि क्यों ना समाजवादी जी पर ही एक कहानी लिखी जाए। यह शायद मेरे लिए प्रेम के चक्कर चलाने से ज्यादा आसान है।


दूसरा सोमवार तो चलिए, इस कहानी के हीरो यानी अजब-गजब कैरेक्टर समाजवादी से आपका थोड़ा परिचय करा दूं। थोड़ा इसलिए कि पूरी तरह से तो समाजवादी को मैं भी नहीं जानता हूं और मैं क्या यहां काफ़ी हाउस में बैठा कोई भी आदमी यह दावा नहीं कर सकता कि वो समाजवादी जी को ‘पूरा’ जानता है। बात ये है कि काफ़ी हाउस का परिचय काफ़ी हाउस तक ही सीमित होता है। यहां लोगों को उतना ही जाना जाता है जितना वे खुद को ‘जनाते’ हैं। इसलिए अपनी कहानी के इस हीरो को मैं भी उतना ही जानता हूं जितना पिछले दो-तीन साल की मुलाकात में उन्होंने खुद मुझे बताया है। और समाजवादी जी पर लिखी जा रही यह कहानी भी उतनी ही कहानी है जितनी उन्होंने बताई है।

खैर मैं उनसे आपका परिचय करवाता हूं। एक दुबली-पतली और मरियल सी देह के मालिक हैं समाजवादी जी। हिन्दी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी कवि मुक्तिबोध का चेहरा याद है आपको..... बिल्कुल वैसा ही चेहरा। दो गहरे गड्ढ़ों में झांकती पैंनी आंखें, उन गड्ढ़ों के बीच एक पतली लम्बी नाक और होंठ ऐसे कि दूर से दिखाई ही ना पड़ें। कद दरमियाना है और उम्र होगी कोई साठ-सत्तर के बीच। आमतौर पर उनके गले से निकलने वाली आवाज इतनी धीमी और मरियल होती है कि उनके साथ खड़े व्यक्ति को भी मुश्किल से सुनाई पड़े। और उनकी हंसी ...... उनकी हंसी तो ऐसी होती है जैसी आजकल प्लास्टिक का कूड़ा-करकट खाने वाली दिल्ली की गायों की आवाज होती है। समाजवादी जी को काफ़ी हाउस आकर काफ़ी पीने और गप्पबाजी करने की लत है। यह एक ऐसी लत है जो उन्हें हर शाम काफ़ी हाउस खींच लाती है। इसलिए एक वो हर शाम काफ़ी हाउस में कुछ लुटे-पिटे और थकेहारे समाजवादी चेहरों के साथ बैठे दिखाई पड़ जाते हैं।

समाजवादी जी का वास्तविक नाम प्यारेलाल है मगर वह अपना पूरा नाम प्यारे लाल भारतीय बताते हैं। उन्हें अपने नाम के पीछे लगे इस भारतीय शब्द से बहुत प्यार है। यहां प्यारेलाल के नाम से उन्हें कोई नहीं जानता है। सब उन्हें समाजवादी जी ही कहते हैं। प्यारेलाल सिर्फ़ नाम के ही समाजवादी नहीं हैं वो सचमुच के समाजवादी हैं। बात ये है कि उनकी पूरी जिन्दगी ही समाजवादी आंदोलन का एक चलता-फ़िरता इतिहास है। उन्होंने जिन्दगी भर समाजवादी आंदोलन में काम किया है और समाजवाद के हर रूप में उन्होंने समाजवादी बने रहने की कोशिश की है। मगर वो समाजवादी आंदोलन के कोई नामी गिरामी नेता नहीं हैं। समाजवादी आंदोलन का कोई बड़ा नेता उन्हें नहीं जानता मगर वो जार्ज फ़र्नानडिस से लेकर लालू प्रसाद यादव तक सबको जानते हैं। और बकौल उनके ‘वो सब उनके आगे बच्चे हैं।’ मगर समाजवादी जी को गुमनामी पसंद है और वो गुमनाम ही बने रहना चाहते हैं।

समाजवादी ने विवाह नहीं किया। समाजवाद का व्रत जो ले लिया था। मगर वो कभी अकेले नहीं रहे। दरियागंज इलाके की एक अंधेरी कोठरी में वो पिछले कई सालों से रह रहे हैं। उस कोठरी में हमेशा उनके साथ दो-तीन लोग रहते हैं। लोग समय-समय पर बदल जाते हैं मगर संख्या वही रहती है। अपनी रोजी-रोटी और काफ़ी चलाने के लिए वो दरियागंज में ही एक रिहायशी मकान में बने एक कारखाने में काम करते हैं। तनख्वाह इतनी मिल जाती है कि उनका गुजारा हो जाता है। कारखाने का सबसे पुराना वर्कर होने के नाते उन्हें कई छोटी-बड़ी छूटें मिल जाती हैं। वैसे कुछ सालों पहले इसी कारखाने में उन्होंने एक छोटी-मोटी यूनियन बना रखी है जो यूनियन कम एक पारिवारिक समिति जैसी ज्यादा लगती है। यह यूनियन एक असाधारण यूनियन है। कारखाने का मालिक भी इस यूनियन का सदस्य है। है ना मजे की बात है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आपने आज तक किसी ऐसी यूनियन के बारे में नहीं सुना होगा।

अब समाजवादी जी के बारे में एक आखिरी बात और ......!!! लेकिन आपको वायदा करना होगा कि कि इस बात को लेने के बाद आप उस बात को हंसी नहीं समझ लेंगे जो मैंने अभी-अभी आपको उनके बारे में बताई हैं। बात ये है कि वो बड़े मज़ाकिए हैं। सारा काफ़ी हाउस उन्हें एक बड़ा मसखरा मानता है क्योंकि वो बड़े ही अजब-गजब मजाक करते हैं। सो उनकी बातों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। मगर मैंने जान लिया है कि इसी मसख़रेपन में उनकी असाधारणता छुपी है। वह अपने मसख़रेपन में कुछ भी कर सकते हैं। और कहानी के अगले हिस्से में शायद वो ऐसा ही कर रहे हैं।

तीसरा सोमवार दिल्ली में एक जर्जर और धूल भरे एक घटिया-से दफ़तर में एक साफ़-सुथरे और आंखों में चमक वाले एक चुनाव अधिकारी के सामने समाजवादी जी खड़े थे। अधिकारी उनका नामांकन प्रपत्र जांच रहा था। फ़ार्म जांचते-जांचते अचानक अधिकारी ने उन्हें ही जांचना शुरू कर दिया। मैली-कुचैली कमीज, घटिया-सा बदरंग पैंट। समाजवादी जी को उसने इतना ही देखा। उसकी आंखें आश्चर्य से भर उठीं मानो दुनिया का आठवां अजूबा देख लिया हो। उसने अपने बाएं हाथ की उंगली में पहनी सोने की अंगूठी को दाएं हाथ की उंगलियों से निकालना-डालना शुरू किया। वह शायद कुछ बोलना चाह रहा था। मगर....... मगर क्या कहे “क्या हुआ भाईजान”.....!!!¸ समाजवादी जी शायद उसकी मन:स्थिति ताड़ गए थे। “क…क…कुछ नहीं” अधिकारी थोड़ा हड़बड़ाया। वह फ़िर से नामांकन प्रपत्र जांचने लगा। “तुम सचमुच चुनाव लड़ेंगो?” अधिकारी से अपनी जिज्ञासा छुपाई न गई। “पर्चा भरा है तो लड़ेंगे ही” समाजवादी जी के स्वर में दृढ़ता थी। “तुम.....तुम कैसे?” “एक बात बताइए। आपको मुझे ‘आप’ कहने में कोई परेशानी है।” समाजवादी जी ने फ़र्माया “नहीं....ऐसी बात तो नहीं।” अधिकारी मिमियाया “तो फ़िर मुझे आप कहिए। अपनी महान संस्कृति का ख्याल करिए।” “अच्छा ठीक है। आप किस पार्टी से लड़ेंगे।” “क्यों? चुनाव लड़ने के किसी पार्टी से होना जरूरी है क्या?” “नहीं ऐसी बात नहीं। मतलब आप निर्दलीय लड़ेंगे।” “निर्दलीय नहीं। क्योंकि दल तो है हमारा मगर उसकी कोई पार्टी नहीं। हम निरपार्टी लड़ेंगे।” समाजवादी जी खीं-खीं करके हंसे। “ठीक है। ठीक है।” अधिकारी खिसिया गया। वह समझ गया था कि उसका पाला किसी ऐरे-गैरे से नहीं पड़ा है। “आपने प्रापर्टी वाले खाने में कुछ नहीं लिखा?” “है ही नहीं तो क्या लिखेंगे।” “फ़िर आपकी जमानत?” “हमारी जमानत पूरा देश है।” “ये देश कहां है। उसे बुला लाइए।”अब अधिकारी अपना अधिकारीपन दिखाने लगा। “आपके सामने तो खड़ा है।” बाल बिखरे हुए, गाल पिचके हुए, जेब उधड़ी हुई। क्या यही है देश? अधिकारी ने सोचा। “अच्छा आप खुद भारत देश हैं।” “क्यों? आपको कोई शक है..!!” “नहीं मैं सोच रहा था कि अगर आप भारत देश हैं तो मैं क्या हूं?” “आप इंडिया हैं।” समाजवादी जी का जवाब सुनकर अधिकारी हंस पड़ा। उसकी हंसी समूचे भारत पर राज कर रहे ढाई प्रतिशत इंडिया की हंसी थी। “नामांकन की फ़ीस” “लीजिए।“ समाजवादी जी ने गुड़ी-मुड़ी करके मुट्ठी में भींच रखे रुपए उसे थमा दिए। बहरहाल, किस्सा-ए-मुख्तसर ये है कि समाजवादी जी का नामांकन भरा गया। उन्होंने ‘भारत देश की जय’ का नारा लगाया और चुनाव दफ़तर से बाहर आ गए। ऐसा लगा मानो सारा भारत चुनाव के दफ़तर से बाहर आ गया। शाम को समाजवादी जी नियत समय पर काफ़ी हाउस में पहुंचे। मैं आज फ़िर अकेला बैठा हुआ था। वो मेरे पास आ गए। “कहिए लेखक जी... कोई कहानी सूझी।” वो खीं-खीं करके हंसे। “हां सूझ तो गई। लिख रहा हूं।” “तो कुछ हमें भी बताइए। क्या प्लाट-उलाट है।” “अभी नहीं बाद में। जब पूरी हो जाएगी तब।” मैं उन्हें बताना नहीं चाहता था कि कहानी उन्हीं पर लिखी जा रही है। “आप सुनाइए” मैंने उन्हें बातचीत शुरू करने को प्रेरित किया। इस बातचीत के दौरान ही वो कोई ऐसी घटना बता सकते थे जिससे उन पर लिखी जा रही कहानी में कोई नया मोड़ आ जाए। इसलिए उन्हें मोटिवेट करना जरूरी था। “आज तो एक बड़ा सट्टा लगाया है।” “क्या?आप सट्टा भी लगाते हैं?” मुझे आश्चर्य हुआ। इनके पास सट्टा लगाने को पैसे कहां से आते होंगे। मैं सोचने लगा। “हां कभी-कभी तो लगाते ही हैं।” “अच्छा क्या सट्टा लगाया।” मैं जानने को उत्सुक था। “आज चुनाव का पर्चा भरा है।” समाजवादी जी खीं-खीं करके हंसे। “किसने?” “किसने क्या, हमने..” “आपने” मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा था। ये तो कहानी में अजीब टिविस्ट था। मेरा फटेहाल हीरो अब चुनाव लड़ेगा। “अरे...इसमें आश्चर्य की बात क्या है। लोकतंत्र है, कोई भी चुनाव लड़ सकता है।” “तो क्या आप सचमुच....!!!” “हां भाई सचमुच! हम सचमुच चुनाव लड़ेंगे।” “मगर......!!!” “मगर क्या....!!!” “मगर आप तो हार जाएंगे।” “अरे आप ज्योतिषी भी हैं क्या। अभी पर्चा भरा और आपने अनुमान भी लगा लिया कि हम हार जाएंगे। फ़िर हार जीत सोचकर तो पर्चा भरा नहीं है। हमने तो लड़ने के लिए पर्चा भरा है।” समाजवादी जी फ़िर हंस पड़े। “तो क्या आप जीत भी सकते हैं।” “तभी तो सट्टा कहा है।” “मगर ये तो बड़ा अजीब सट्टा है। सट्टे में तो फ़िर भी जीतने की आस होती है मगर यहां तो...!!!” “अरे ये बड़ा सट्टा है। इसलिए बड़ा रिस्क है।” “और बड़ा रिस्क कोई हिम्मत वाला ही ले सकता है” “हां अब आए लाइन पर।” “काफ़ी पीएंगे” मैंने पूछा “हां पीने के लिए ही तो आए हैं। मगर जेब में कुछ नहीं। सब चुनाव अधिकारी के यहां लुटा आए।” मैंने बेयरे को बुलाया और काफ़ी का आर्डर दिया। “क्या आप पहले भी चुनाव लड़े हैं!” “हां कई बार!” “वाह कमाल है।” “कमाल कुछ नहीं।” “अच्छा अब आप क्या करेंगे।” “हम क्या करेंगे। हमें क्या करना है। अब जो कुछ करना है, हमारे इलाके की जनता को करना है।” तभी काफ़ी आ गई और मेरे दोस्त भी। वो काफ़ी पीकर चले गए।

चौथा सोमवार तकरीबन एक महीने बाद समाजवादी जी का दरवाजा खटखटाया गया। कौन आ गया सुबह-सुबह, हमारी ऐसी-तैसी करने¸ समाजवादी जी ने भुनभुनाते हुए दरवाजा खोला। दो होमगार्ड के जवान अपनी-अपनी नाकों पर रूमाल धरे उनके सामने खड़े थे। “कहिए” “यहां प्यारेलाल कौन है?” एक ने पूछा “आपके सामने खड़ा हूं?” “अच्छा तुम्हीं हो...!!” “क्यों आपको कोई शक।” “नहीं वो बात नहीं। क्या तुमने ही सांसद के चुनाव का पर्चा भरा है।” अबकी बार दूसरे ने पूछा। “हां भरा तो है। मगर एक बात बताओ। तुम कहां रहते हो?” “क्या मतलब??” “मतलब है पहले बताओ” “जी शक्ति नगर में।” “शक्ति नगर कहां है?” “दिल्ली में।” “दिल्ली कहां है?” होमगार्डों को लगा समाजवादी जी उनका मज़ाक बना रहे हैं। एक अकडने लगा। “साफ़-साफ़ पूछ?” “साफ़-साफ़ तो पूछा है कि दिल्ली कहां है?” “दिल्ली भारत में है।” “अच्छा बताओ क्या भारत में अपने से बड़ों को ऐसे ही बोलते हैं।” होमगार्ड खिसिया गए। “जी नहीं....।” “अच्छा बताओ यहां किसलिए?” “जी हम आपकी सिक्योरिटी के लिए लगाए गए हैं।” “क्यों। क्योंकि आप निर्दलीय उम्मीदवार हैं। और आपकी जान को खतरा है।” होमगार्ड के जवान को ‘आप’ कहने में बड़ा जोर लगाना पड़ रहा था। “हमारी जान को खतरा है! बड़ी ताज्जुब की बात है। हमारी जान को खतरा है और हमेंही नहीं मालूम।” समाजवादी जी खीं-खीं करके हंसे। “हमें नहीं मालूम। मगर हमें आर्डर है जब तक चुनाव न हो जाएं हमें आपकी सिकोर्टी करनी है।” “अरे भाई। मुझे कोई खतरा नहीं। जाकर अपने अफ़सर से कह दो। मुझे सिकोर्टी की कोई जरूरत नहीं।” “हम नहीं जाएंगे। हम चौबीसों घंटे आपके साथ रहेंगे जब तक चुनाव न हो जाएं।” “तुम्हारी मर्जी।” यह कहकर समाजवादी जी ने दरवाजा बंद कर लिया। दोनों होमगार्ड हक्के-बक्के से बाहर खड़े रह गए। लगभग आधे घंटे बाद दरवाजा फ़िर खटखटाया गया। “अब क्या है? क्यों मेरी नींद खराब कर रहे हो। अभी मैं साढ़े नौ बजे तक सोऊंगा” समाजवादी जी भुनभुनाए। “सर हमें पेशाब लगा है।” “तो जाओ मूत आओ” “कहां?” “अरे यहीं कहीं नाली में कर लो या किसी दीवार पर धार मार दो। इस देश के बाशिन्दे होकर इतना भी नहीं जानते।” समाजवादी जी ने फ़िर दरवाजा बंद कर लिया। साढ़े नौ बजे दरवाजा खुला, समाजवादी जी बाहर आए। होमगार्ड के दोनों जवान उन्हें देखकर सतर्क हो गए। समाजवादी भी तेजी से चल पड़े। “सर जरा धीरे चलिए।” “क्यों?” “हम इतनी तेज नहीं चल सकते क्योंकि हमारे पास रैफ़ल है।” “तो फैंक दो इन्हें नाली में। अगर हमें देर हो गई तो कारखाना मालिक भीतर नहीं घुसने देगा।” समाजवादी जी ने और तेज चलना शुरू कर दिया। कई गलियां पार करके समाजवादी जी एक दडबेनुमा कारखाने में घुस गए। लंच में समाजवादी जी बाहर आए। बगल में एक चाय की दुकान थी। वो वहां जाकर बैठ गए और अखबार पलटने लगे। थोड़ी देर बार वो फ़िर कारखाने की तरफ बढ़े। “सर” जवान किंकियाया “क्या है?” “चाय तो पिला दीजिए।” “चाय के लिए मेरे पास पैसे कहां। अगर होते तो मैं चाय न पीता, अखबार क्यों उलटता। मैंने तुम्हें नहीं बुलाया। सरकार ने भेजा है। चाय पिलाने की जिम्मेदारी भी उसी की है, मेरी नहीं।” कहकर समाजवादी जी कारखाने में दाखिल हो गए। होमगार्ड के जवान देखते रह गए। शाम को समाजवादी जी कारखाने से बाहर निकले। दोनों वहीं खड़े थे। “अभी तक यहीं हो? अब तो मेरा पीछा छोड़ो।” इससे पहले कि जवान कुछ बोल पाते समाजवादी ने तेजी से चलना शुरू कर दिया। वो आगे-आगे, दोनों जवान पीछे-पीछे। समाजवादी जी ने उन्हें चकमा दिया और दरियागंज की गलियों में भटकने को छोड़ दिया। समाजवादी जी सीधे काफ़ी हाउस पहुंचे। वो एक कुर्सी पर बैठे ही थे कि एक सफ़ेद खद्दरधारी हाथ में एक सूटकेस लिए उनके पास आकर बैठ गया। “मैंने आपको पहचाना नहीं” समाजवादी जी ने सामने बैठे आदमी से जान-पहचान करनी चाही। “मगर मैं आपको पहचानता हूं?” “ये तो बड़े ताज्जुब की बात है!!” समाजवादी जी हंसे। “मुझे शर्माजी ने आपके पास भेजा है....!” “ओ! ओ अच्छा। अब मैं समझा। कहिए क्या हाल हैं उनके।” “जी ठीक है।” खद्दरधारी थोड़ा संयत हो गया “मगर उन्होंने आपको मेरे पास भेजा है।” “ये तो आप अच्छी तरह से जानते है।” “अच्छा कमाल है…!!!” समाजवादी जी फ़िर हंसे। “अच्छा कहिए, क्या कहा है उन्होंने।¸” समाजवादी जी ने पूछा “जी उनका निवेदन है कि आप बैठ जाएं।” “बैठा तो मैं हूं ही।” “ये वाला बैठना नहीं, वो वाला बैठना” “वो वाला बैठना..... भाई वाह!!” समाजवादी जी फ़िर हंसे “उन्होंने कहा है कि पचास हजार देंगे।” “पचास हजार......!!!” “साठ हजार..…” “साठ हजार......!!!” “पिचहत्तर हजार” “पिचहत्तर हजार...!!!” “एक लाख....” “एक लाख...!!!” “पांच लाख....!!!” “पांच लाख....भाई वाह.... पांच लाख” अब समाजवादी जी हंसते गए। सामने वाले का पसीना छूटने लगा। तभी होमगार्ड के दोनों जवान भी हांफ़ते-हांफ़ते पहुंचे। “आइए-आइए, बैठिए।” समाजवादी जी ने उनको कहा। दोनों जवान बैठ गए। समाजवादी जी फिर से सामने बैठे खद्दरधारी को मुखातिब हुए। “ऐसा कीजिए। आप पसीना पोंछिए। अपने शर्माजी को कहिए कि हम नहीं बैठने वाले। सारा इंडिया भी हमें नहीं खरीद सकता।” “आप एक बार और....” “नहीं भइया...” “ऐसा मौका बार-बार नहीं आएगा।” “अरे बार-बार यही मौका आता है। अब आप जाइए।” “जी अच्छा। लेकिन मैं फ़िर आऊंगा।” “आपकी मर्ज़ी” सफ़ेद खद्दरधारी उठकर चला गया। मैंने उसे समाजवादी जी के सामने से उठता देख लिया था। “कौन था?” “कौन?” “अभी जो उठकर गया।¸” “अच्छा वो। किसी इंडियन कंपनी का पर्चेज़िंग आफ़िसर था।” “मगर यहां क्या करने आया था?” “खरीदने आया था।” “किसे?” “किसे क्या? हमें भई।” मैं समझ गया। “....कितने में....??” “पांच लाख में……” समाजवादी जी हंसे “फ़िर??” “फ़िर क्या? हमने भगा दिया। हम तो अनमोल हैं भई। वो पांच लाख में खरीदने आया था।” मुझे समझ आ गया। मामला अब गंभीर हो रहा था। या यूं कहें कि कहानी क्लाइमेक्स पर पहुंचने वाली थी।



पांचवा सोमवार यानी क्लाइमैक्स समाजवादी जी अकेले बैठे थे। मैं उनके सामने जाकर बैठ गया। “कहिए क्या हुआ?” मैंने पूछा “क्या हुआ?” “आपके चुनाव का नतीजा?” “हार गए” “हार गए....!!!” “आप इतने गंभीर क्यों हो गए?” “क्यों आपको कोई गम नहीं?” “गम किस बात का?” “अपनी हार का?” “नहीं बिल्कुल नहीं।“ “कमाल है?” “इसमें कमाल क्या है?” “आप तो लगता हारने के लिए ही चुनाव लड़ते हैं।” “नहीं भाई, हारने के लिए नहीं। हम इस देश के लोकतंत्र की लाज रखने के लिए चुनाव लड़ते हैं।” और समाजवादी जी खीं-खीं करके हंसने लगे।

                          समाप्त