समाजवाद मांगेंगे, पूँजीवाद नहीं / मुकेश मानस

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4 फरवरी 2006 को राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पृष्ठ पर नजरिया शीर्षक के तहत दलित बुद्धिजीवी श्री चंद्रभान प्रसाद ने ‘दलित कैपिटलिज्म का मार्च’ शीर्षक से अपने लेख में लिखा है कि अमरीका में रहने वाले श्री के पी सिंह की अगुआई में आगामी अक्टूबर को एक लाख सूटेड-बूटेड पढ़े-लिखे दलित लोग जंतर-मंतर पर मार्च करेंगे और दलित कैपिटलिज्म की मांग करेंगे। भारत के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व परिघटना होगी। अगर यह मार्च वाकई क्रियान्वित हो जाए तो भारत के दलित आंदोलन के लिए यह एक गौरवशाली मार्च होगा। ये दलित कैपिटलिज्म क्या है? इसकी रूपरेखा क्या हैं और किस तरह यह दलितों की मुक्ति का आधार बन सकता है? क्या यह ‘दलित कैपिटलिज्म’ उस पूंजीवाद के जैसा होगा जो आज लगभग सारी दुनिया के अधिकतम देशों में चल रहा है या यह उससे भिन्न किस्म का पूंजीवाद होगा? दलित कैपिटलिज्म वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था से किस प्रकार भिन्न होगा? इन तमाम बातों का खुलासा श्री चंद्रभान प्रसाद ने अपने लेख में नहीं किया है। उनके लेख के जवाब में ही यह लेख लिखा गया था जो किसी कारणवश अप्र्काशित ही रह गया था।


भारत का पूरा दलित समाज और उसका आंदोलन एक जबर्दस्त संक्रमण काल से गुजर रहा है। पूरा दलित समाज जबरदस्त हिलोरें ले रहा है और उसके दलित आंदोलन में कई तरह के जरूरी सवालों पर विचार-मंथन चल रहा है। इन सवालों में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल ये है कि दलितों की सर्वांगीण मुक्ति का रास्ता क्या है? लगातार चलने वाले इन बहस-मुबाहिसों में एक बात बार-बार निकल कर आ रही है कि दलितों की सर्वांगीण मुक्ति एक ऐसे समाज की स्थापना करने में निहित है जिसमें जात-पात न हो, अमीर-गरीब न हों, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर आधरित हो और जिसमें कोई किसी का शोषण न कर सके, जिसमें सबको फूलने-फलने का पूरा मौका और स्वतंत्रता मिले। और ऐसा समाज पूंजीवाद तो कतई नहीं हो सकता चाहे, वह अमरीकी पूंजीवाद हो या दलित पूंजीवाद।

इस देश में आज भी अम्बेडकर से बड़ा दलितों का हितैषी कोई नहीं है। अपनी मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद भी वह दलितों के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं बल्कि दलितेत्तर समाजों में भी वह लगातार प्रासंगिक होते जा रहे हैं। कहा जा सकता है कि इस देश के आगामी सुखद परिवर्तनों का आधार भी डा. अम्बेडकर ही साबित होते जा रहे हैं। आजादी के बाद इस देश की व्यवस्था कैसी हो? इस बारे में उनके विचार क्रांतिकारी थे। वे लगातार इस देश की व्यवस्था को एक राजकीय समाजवादी व्यवस्था में बदलने की वकालत करते रहे। उन्होंने भूमि समेत तमाम उत्पादन शक्तियों के राष्ट्रीयकरण जैसी रणनीतियां भी पेश कीं जो देश को एक समाजवादी व्यवस्था की तरफ ले जाने वाली आधार भूमि को तैयार करने में मददगार साबित हो सकती थीं। मगर यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि उनकी इन बातों को दरकिनार कर दिया। लेकिन आज उनके यही सिद्धांत दलित मुक्ति आन्दोलन के प्राण हैं

डा. अम्बेडकर ने कभी इस तरह के कैपिटालिज्म की कोई मांग नहीं की। पूंजीवाद के खतरों से वह पूरी तरह वाकिफ़ थे। जिस चीज की वकालत कभी डा. अम्बेडकर तक ने नहीं की, आज कुछ लोग उसी चीज की मांग कर रहे हैं? क्या ये लोग डा. अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी हैं? क्या ये लोग व्यापक दलित समाज के हितैषी हैं? ये दलित कैपिटलिज्म किस प्रकार का होगा? इस बात का खुलासा करने के लिए यह जानना जरूरी है कि दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले ये कौन लोग हैं। और वे दलित कैपिटलिज्म की मांग क्यों और किसके लिए कर रहे हैं।

श्री चंद्रभान प्रसाद ने दलित समाज के ऐसे लोगों की श्रेणी बनाई है। वह लिखते हैं कि इस श्रेणी के अधिकतर दलित अंग्रेजी बोलने वाले या अंग्रेजी समझने वाले होंगे। अंग्रेजी बोलने या समझने वालों की श्रेणी को प्रतीक की तरह लेना चाहिए। ये वही लोग हैं जो आरक्षण का सहारा पाकर एक सुविधा सम्पन्न स्थिति में आ गए हैं। इनको ही दलित समाज की ‘क्रीमी लेयर’ कहा जाता है। इन्हीं के बीच एक ऐसे वर्ग का भी उदय भी हो चुका है जिसको आर्थिक तौर पर उच्च और समृद्ध वर्ग कहा जा सकता है। इस वर्ग में छोटे बड़े व्यापारी, पूंजीपति और उद्योगपति आदि की खासी तादात है। ये ज्यादा-से ज्यादा आर्थिक समृद्धि पाने के रास्ते खोज रहे हैं लेकिन जाति इनके रास्ते की रुकावट बन रही है। पर आश्चर्य की बात ये है कि जाति तोड़ने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। दरअसल इनका एकमात्र उद्देश्य जाति को सीढ़ी बनाकर अपनी समृद्धि को बढ़ाना है। इसलिए ये दलित कैपिटलिज्म की मांग कर रहे हैं। लेकिन सिर्फ़ अपने लिए, पूरे दलित समाज के लिए नहीं?

आखिर दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले ये लोग क्या चाहते हैं? श्री चंद्रभान प्रसाद के मुताबिक उनकी मांगें तो बहुत-सी हैं। लेकिन मुख्य मांग है कि दलितों के स्वामित्व में बड़े-बड़े उद्योग होने चाहिए। दूसरे अर्थों में कुछ दलित अरबपति होने चाहिए। सैकड़ों दलित करोड़पति तथा लाखों दलित लखपति होने चाहिए। तुरंत दिमाग में आने वाला एक सवाल है कि अरबपति होने वाले दलित ‘कुछ’ क्यों हों, लाखों क्यों नहीं? कैसी जबरदस्त मांग है। अरबपति हों मगर ‘कुछ’ हों सभी न हों। यानि दलित कैपिटलिज्म की मांग से एक तो पहले ही एक ऐसी आबादी को बाहर कर दिया है जो न अंग्रेजी बोल सकती है और न समझ सकती है, और न जो सूटेड-बूटेड हो सकती है। दूसरे, सूटेड-बूटेड वर्ग में भी कुछ की ही उच्चतम समृद्धि हो, सबकी न हो। क्या डाइवर्सिटी है जनाब! डाइवर्सिटी है या शुद्ध पूंजीवाद है?

आइए देखें इस दलित कैपिटलिज्म में क्या होगा? दलित कैपिटलिज्म की मांगों के अनुसार कुछ लोग अरबपति, सैकड़ों करोड़पति और लाखों करोड़पति हों। मगर सवाल ये है कि कौन बनाएगा? डाइवर्सिटी का सिद्धांत मानकर भारत की सरकार बनाएगी। कुछ लोग मिलों, कारखानों कम्पनियों, मीडिया सेंटरों के मालिक हो जाएंगे। यानि इन सूटेड-बूटेड, पढ़े-लिखे दलितों में से बहुत से दलित पूंजीपति हो जाएंगे। लेकिन बाकी दलित जनता का क्या होगा? क्या ये दलित पूंजीपति दलित जनता के श्रम का शोषण किये बिना मुनाफ़ा कमा पाएंगे? क्या बिना मुनाफ़ा कमाये ये लोग पूंजीपति बने रहेंगे। पूंजी की प्रवृति लगातार कुछ हाथों में सीमित होते जाने की रही है। क्या गारंटी है कि आज जो लाखों लखपति बनेंगे, गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में कल भी बने रह पाएंगे। क्या ये दलित पूंजीपति भी अन्य पूंजीपति से भिन्न रह पाएगें?

पूंजीवाद के बारे में सारी दुनिया की जनता का अनुभव यह बताता है कि पूंजीवाद किसी भी देश में जनता के हित में नहीं रहा है। यह जनता का शोषण करने वाली एक खूनी व्यवस्था है। पूंजीवाद का इतिहास शोषण, दमन और नृशंसताओं का इतिहास है। क्या गारंटी है कि दलित कैपिटलिज्म इस खूनी खेल में शामिल नहीं होगा। वह मजदूरों-किसानों, गरीबों, महिलाओं का शोषण नहीं करेगा। इस बात की गारंटी शायद दलित कैपिटलिज्म के अजेंडे में नहीं है।

इस बात की भी जांच-पड़ताल होनी चाहिए कि अमरीका जाकर डा. के.पी. सिंह को ऐसी कौन-सी जड़ी-बूटी मिल गयी कि एकाएक दलित कैपिटलिज्म की मांग करने लगे। फिर विदेशी दलितों को दलित कैपिटलिज्म में दिलचस्पी क्योंकर पैदा होने लगी। आज भी पूरे देश में चल रहे दलित आंदोलन को इन विदेशी दलितों से कोई खास मदद नहीं मिलती है। दलित कैपिटलिज्म में दिलचस्पी दिखाने की कोई न कोई तो खास वजह होगी? वजह एकदम साफ है। भारत में तेजी से उपभोक्ताओं की तादात बढ़ रही है और इन उपभोक्ताओं में एक बड़ी तादात दलितों की है जिसकी सहानुभूति पाने और जिसे अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए विदेशी पूंजी यह खेल खेल रही है।

अमरीका जाने वाले एक डा. के.पी. सिंह ही दलित नहीं हैं, डा. अम्बेडकर भी अमरीका गए थे। मगर वे वहां से दलित कैपिटलिज्म आयात करके नहीं लाए थे। उन्होंने अपने देश की और देश के दलितों की वस्तुस्थिति का अध्ययन करके ही दलित मुक्ति का रास्ता निकाला था। इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद में कभी किसी की मुक्ति नही होती। श्रमिकों का शोषण करके मुनाफ़ा अर्जित करने वाले पूंजीपति की भी नहीं। दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले इस देश की व्यापक दलित जनता के हितों के संरक्षक नहीं दुश्मन हैं। वे डाइवर्सिटी के पूंजीवादी जाल में फंसकर दलित जनांदोलन को सीमित और कमतर बना देना चाहते हैं जैसे अमरीका में ‘ब्लैक मूवमेंट’ को बनाया गया। डाइवर्सिटी के चक्कर में आज अमरीका के ‘ब्लैक मूवमेंट’ की धार कुंद हुई है। ये हो सकता है कि डाइवर्सिटी के चलते कुछ अश्वेतों की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी हो गई हो मगर अश्वेतों की अधिकांश आबादी अभी भी बदहाली और बेरोजगारी की शिकार है। कैटरीना तूफ़ान के दौरान अश्वेत पीड़ितों के साथ राहत सामग्री बंटवारे में किया गया भेदभाव यह बताता है कि अमरीका में नस्लभेद की मानसिकता आज भी जड़ जमाये है। यही अमरीकी डाइवर्सिटी का कटु सच है।

दलित कैपिटलिज्म की मांग दरअसल एक ऐसी ही समाज व्यवस्था को यथावत बनाए रखने की मांग है जिसमें कुछ अमीर हों और शेष जनता गरीब, जिसमें कुछ शोषक हो और बाकी शोषित। ऐसी व्यवस्था में दलितों की मुक्ति नहीं हो सकती? दलितों की मुक्ति का एक ही रास्ता है समाजवाद का रास्ता। अगर किसी से कुछ मांगना ही है तो दलित जनता समाजवाद मांगेगी, पूंजीवाद नहीं। समाजवाद में ही दलितों की और शेष शोषित जनता की संपूर्ण मुक्ति होगी, पूंजीवाद में नहीं। 2006

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