समाज की कुंडली का सर्पदोष / जयप्रकाश चौकसे

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समाज की कुंडली का सर्पदोष
प्रकाशन तिथि :20 अगस्त 2016


दलितों को समानता देने के मुद्दे पर अशोक कुमार अभिनीत 'अछूत कन्या' 1938 में प्रदर्शित हुई थी और फिल्म बनाने की प्रेरणा भी गांधीजी द्वारा दलितों के पक्ष में दिए गए बयान थे। अभिनय के लिए अनिच्छुक अशोक कुमार इसी फिल्म से सितारे बने थे। भैरप्पा के उपन्यास से प्रेरित फिल्म थी गिरीश कर्नाड की 'संस्कार'। इसकी कथा इस प्रकार थी कि एक ब्राह्मण ताउम्र दलित स्त्री के साथ रहता है और उसकी मृत्यु हो जाने पर वह दलित स्त्री मृतक के बाल सखा रहे ब्राह्मण से यह पूछने के लिए जाती है कि क्या उनके मित्र का अंतिम संस्कार ब्राह्मण की तरह होगा? इस सवाल से नायक को दुविधा होती है कि वह क्या निर्णय दे, क्योंकि समाज उस व्यक्ति को उसी समय बाहर कर देता है, जब वह दलित स्त्री के साथ रहने लगता है। जन्म से ब्राह्मण और कर्म से 'पापग्रस्त' होने के कारण क्या निर्णय दिया जाए। इस दुविधा में नदी से स्नान करके लौटते समय दलित स्त्री के मादक शरीर के कारण निर्णय देने वाला भी उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है और उस अनुभव के बाद वह निर्णय देता है कि उसके मित्र का दाह संस्कार ब्राह्मण रीति-रिवाज से होगा और वह स्वयं करेगा।

प्रेमचंदजी की कहानी पर सत्यजीत रॉय ने ओमपुरी अभिनीत 'सद्गति' बनाई थी, जिसमें दलित व्यक्ति मुहूर्त निकलवाने के लिए ब्राह्मण के पास आया है। वह कहता है कि उसके आंगन में पड़ी लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े कर दे, तब तक वह पंचाग देखकर उसकी बेटी के विवाह का मुहूर्त निकाल देगा। भूखा-प्यासा दलित घंटों तेज धूप में लकड़ियां काटता रहता है और ब्राह्मण को उस पर दया नहीं आती। यहां तक कि पूरी दोपहर गुजर जाती है और दलित पूरी तरह थककर चूर हो गया है। अब ब्राह्मण को यह चिंता है कि यह लकड़ियां काटते हुए मर गया, तो इसकी मृत देह को बाहर फेंकने के लिए उसे दलित को स्पर्श करना होगा। रणधीर कपूर निर्देशत 'कल आज और कल' में ठाकुरों का भोज चल रहा है और एक अछूत बालक अपनी रबर की गेंद लेने वहां आता है, सारे लोग भोजन छोड़कर उठ जाते हैं कि दलित का स्पर्श हो गया। लंदन से पढ़कर आया युवक जो इस दावत का मेजबान भी है। वह बच्चे के पक्ष में खड़ा हो जाता है और इस बात पर अपने परंपरावादी दादा से टकरा जाता है। राजकपूर की 'प्रेम रोग' में ठाकुर परिवार की आर्थिक मदद से ब्राह्मण का अनाथ भांजा शहर से पढ़-लिखकर लौटता है और ठाकुरों द्वारा पोषित कुरीतियों के खिलाफ युद्ध करता है। इस फिल्म के ठाकुर दलित स्त्री के साथ सोते जरूर हैं, परंतु उसका छुआ पानी नहीं पीते, जिसकी देह से परहेज नहीं किया। ग्रामीण अंचल में कोई भी दलित स्त्री सुरक्षित नहीं है।

तमाम कानूनों और परिवर्तनों के बाद भी दलित वर्ग के प्रति उच्च वर्ग के लोगों का व्यवहार नहीं बदला है। आए दिन अखबार में दलितों के साथ हो रहे अन्याय की खबरें हम पढ़ते हैं, परंतु सच तो यह है कि अन्याय की कम खबरें ही प्रकाशित हो पाती हैं। अनेक प्रकरणों की कोई शिकायत भी दलित वर्ग नहीं करता। हमारे सरकारी महकमों में भी जातिवाद का जहर इस तरह फैला है कि न्याय होना तो दूर, रपट तक नहीं लिखवाई जाती है। समाज के सभी तबकों में उसे नहीं बदलने वाला मान लिया है। इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है?

अदूर की एक फिल्म में दलित समुदाय अपने शोषण के खिलाफ सशस्त्र क्रांति कर देता है। अंतिम दृश्य में दलित के हाथ में तलवार है तथा उसके परिवार का शोषण करने वाला पराजित हो चुका है। दलित तलवार उठाता, परंतु मारता नहीं है। तलवार फेंककर चला जाता है। सदियों से शोषित पिटते-पिटते पीटना भूल गया है।

राजनीति क्षेत्र में वोट बैंक का हव्वा छाया है और आज उच्च जाति वर्ग को खौफ है कि दलित वोट बैंक मुस्लिम वोट बैंक से जुड़कर सारे चुनावी समीकरण बिगाड़ सकता है। इसी खौफ के कारण राजनीतिक दल अपनी केंचुल उतार फेंक रहे हैं। वे मन ही मन प्रार्थना कर रहे हैं कि अदूर की फिल्म की तरह दलित तलवार फेंक दे और झाड़ू ही पकड़े रहे। वे चाहते हैं कि भले ही तलवार वे झाड़ू की तरह पकड़ें, झाड़ू कहीं तलवार न बन जाए। दलित साहित्य अत्यंत समृद्ध है।