समाज के ठेकेदार / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समाज के दो तथाकथित ठेकेदार, अपने-अपने घर निकलकर, आंगन में खडे होकर, एक दूसरे पर, मुंह की तोपें चला रहे थे, बहस करते हुए वे अमर्यादित बातें भी कह जाते थे,

एक ने दूसरे से कहा:-कुछ थोडी बहुत शर्म-वर्म बची है कि सब बेच खाए?

दूसरे ने कहा:-साफ़-साफ़ कहो, आख़िर तुम कहना क्या चाहते हो?

पहला:-ज़्यादा मत्र बनो, तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ,

दूसरा:-अरे भाई, जब तक तुम अपने मन की बाते नहीं बतलाओगे, कोई भला क्या समझ पाएगा, जो भी कहना है जल्दी कहो, मुझे और भी काम है,

दूसरा अपनी लौंढिया पर कंट्रोल रखो, क्या उटपटांग कपडे पहनती है, उसका पूरा शरीर कपडॊं में से बाहर झांकता है, दूसरी बात यह कि वह आवारा लडकों के बीच घूमती-फ़िरती है, यदि आप लोगों को यहाँ रहना है तो समाज के बनाए कानुन के मुताबिक चलना होगा, यदि नहीं तो कोई दूसरा मोहल्ला ढूँढ लो,

पहला:-बडा आया समाज का ठेकेदार, पहले अपने गिरहबान में झांककर देख, तेरा बडा बेटा रेप केस में जेल में सड रहा है, दूसरा जेबकतरा है और तीसरा ठर्रा पीकर नाली में पडा रहता है, पहले अपना घर ठीक कर, फिर दूसरों पर ऊंगली उठाना, रही मेरी बेटी की बात, तो सुन, वह फ़िल्मों में काम कर रही है, उसे कैसे रहना है, कैसे कपडॆ पहनना है, किस-किस के बीच उठना-बैठना है, वह भली-भांति जानती है, फिर मैंने अपनी बेटी को लडकों की तरह पाला-पोसा है, यदि वह लडकों के जैसे रहती है तो इसमे तुझे क्या आपत्ति है,

पहले वाले के पास अब कहने-सुनने के लिए कुछ बचा नहीं था, "इन फ़िल्म वालों ने पूरी दुनिया को बिगाड कर रख दिया है" , कहते हुए वह अपने दडबे में घुस गया था।