समाज धर्म एवं दर्शन / परंतप मिश्र

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भूमण्डल पर काल के सापेक्ष अविरल प्रवाहित समाज, धर्म एवम् दर्शन की अनन्त प्राचीन व नवीन धाराओं ने अपने हस्ताक्षर अंकित किये हैं। अवधारणाओं की सतत विकास शृंखला में पुरातनता ने नवीनता के कलेवर धारण किये हैं। पूर्व और पश्चिम के दो ज्ञान ध्रुवों के बीच विशाल सागर की तरह समृद्ध दर्शन लहराता हुआ जीवंतता का बोध कराता है।

असीमित ज्ञान ज्योति के आलोक में कितने ही पुष्ट सिद्धांतों की सरिता आज भी प्रवाहित है, तो वहीं कितने ही सिद्धांतों को तर्क-वितर्क की कसौटी से केवल अवशेष के रूप में स्थापित कर दिया। उनमें अब प्रवाह नहीं वे केवल एक तालाब की ही तरह रह गए हैं।

जीवन के पथ पर लिए गए निर्णय भले ही जटिल हों पर तत्कालिक अवसर और दूरगामी परिणाम के संवाहक होते हैं। शब्दों में परिभाषित हमारे दृष्टिकोण सदियों तक समाज की शून्यता में उपलब्ध प्रतिध्वनि करते हैं। आचरण की सभ्यता, मर्यादा कि नींव पर धर्म को परिभाषित करने के लिए निषिद्ध नहीं है। समस्त परिणामों के सामंजस्य का समुच्चय दर्शन की दिशा को आधार प्रदान कर अनन्त की यात्रा करता है।

ब्रह्माण्डीय संरचना में कुछ भी नश्वर नहीं है, अपितु स्वरुप परिवर्तन मूल का प्रवर्तन मात्र है। लौकिक एवं पारलौकिक घटनाएँ परपर विरोधी परिणामों के लिए समान रूप से उत्तरदायी हैं। विकास-विनाश, दिन-रात, सुख-दुःख, दिन-रात इत्यादि परस्पर विरोधी होते हुए भी एकदूसरे की उपादेयता को सुनिश्चित करते हैं।

क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत के फलस्वरूप अनुभवजन्य परिणाम सुखद और दुखद परिस्थितियों के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं, सामान्यतया इनको अंगीकार करना प्रकृति की अनिवार्यता है। नियति और कर्म दो स्वतंत्र विचारधाराएँ हैं जो जीवन की प्रगति का आकलन प्रस्तुत करती हैं। ये बहती हुई नदी के दोनों तटों की भांति साथ-साथ तो चलते हैं पर कभी मिलते नहीं। नियति यदि कर्म है तो कर्म ही नियति है।

प्रारब्ध की डोर से बंधा जीवन लौकिक जगत के अन्धकार में प्रकाश की उपस्थिति मानना एक नियति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जबकि निष्काम अथवा सकाम कर्म किसी के उपग्रह न होकर स्व्दीप्त हैं। नियति की अपनी एक विवशता है क्योंकि वह नियत है तो अपरिवर्तित होता है। इसकी मात्र भी सुनिश्चित है। पर कर्म परिणाम दायक अनंत फलदायी व परिवर्तनशील है।

शारीरिक संरचना में शरीर की लम्बाई की एक सीमा है जो नियत होती है। एक निश्चित अवधी के बाद हम इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। नियति की तरह पर शरीर का वज़न हम नियंत्रित कर सकते हैं जिसप्रकार हम अपने कर्मों को नियंत्रित कर फल के परिणाम को प्रभावित करते हैं।

पृथ्वी से ऊपर की और फेंकी गयी कोई भी वास्तु अंततः लौट कर नीचे ही आती है पर इसे नियति मान कर चलना थोड़ी भूल होगी। जब हम गुरुत्वाकर्षण के नियमों का अनुशीलन करते हैं तो इस प्रक्रिया को पुर्णतः समझ पाते हैं। परिणामस्वरूप हम पृथ्वी से फेंकी गई हर वस्तु के नीचे आने की अनिवार्यता को समाप्त कर पाते हैं। अर्थात यह कर्म का ही प्रभाव रहा जो हम आकर्षण की सीमा को पार कर पाने में सफलता अर्जित कर पाए।

आकाश में उड़ते विमान इसका उदाहरण हैं जो अपनी गति से गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर विचरण करते हैं। अन्तरिक्ष में प्रवेश करते प्रक्षेपास्त्र विज्ञानं के प्रकाश में कर्म की सफलता है। ग्रहों और उपग्रहों की भी यात्रा इसका विस्तार खा जा सकता है।

एक क्षण भी अनन्त कालचक्र का प्रतिनिधित्व करता है। उत्पन्न परिस्थितियों की गंभीरता में बढे हुए क़दम निर्णय की परिणिति अपने परिणाम को सुरक्षित कर जाती है।

जिसकी परिपक्व मिट्टी से सनी संवेदनशीलता पर स्वांसों की बेल नश्वरता से अमरता कि ओर प्रयास रत है, असीमित संभावनाओ के प्रकाश में अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करता मानव विकास के रथ पर सवार है।

अनन्त सागर की एक बूँद की झलक मात्र मानव का जीवन है। ज्ञान का यह अपरिमित भण्डार समाज, धर्म एवं दर्शन के संगम का पुण्य लाभ है।