समाज परिवर्तन में सिनेमा की भूमिका / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :07 फरवरी 2018
बड़े परदे पर भंसाली की इतिहास प्रेरित 'पद्मावत' के प्रदर्शन पर कुछ प्रांतों में विवाद जारी है परन्तु छोटे परदे पर इसी श्रेणी का 'पोरस' दिखाया जा रहा है। सिनेमाघर पर पत्थर फेंका जा सकता है परन्तु अपने घर के टीवी सेट पर कैसे कोई पत्थर फेंके? नापसंद आने वाले कार्यक्रम के प्रसारण के समय हम चैनल बदल सकते हैं। सिनेमाघर मालिकों ने भी पीले चावल भेजकर किसी को आमंत्रित नहीं किया है। टिकट खरीदने वाले दर्शक को अपना मनोरंजन चुनने की आज़ादी है जिसे हथियाने का प्रयास किया जाता है।
चैनल बदलने का अधिकार और बड़े परदे पर अपना मनोरंजन चुनना समान बातें हैं। ऐसा आभास होता है मानो अवाम असंतुष्ट और नाराज है परन्तु उसकी अभिव्यक्ति के लिए किसी फिल्म को निशाना बनाने का कोई औचित्य नहीं है। पेट दर्द होने पर आप डॉक्टर से यह नहीं कहते कि घुटने में दर्द है। आजकल छोटे परदे पर 'पोरस' एवं 'तेनाली राम' ये दो इतिहास प्रेरित कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इन पर कहीं कोई एतराज दर्ज नहीं कर रहा है।
उपरोक्त घटनाओं का संकेत स्पष्ट है कि सार्वजनिक सम्पत्ति को हानि पहुंचाई जा सकती है परन्तु अपने घर के सामान को सुरक्षित रखा जाता है। संकेत यह भी है कि एक व्यक्ति अपने घर में सामान्य बना रहता है परन्तु वही व्यक्ति सड़क पर आते ही बदल जाता है और बेबात ही हिंसक भी हो जाता है। यही व्यक्ति विधानसभा या संसद में पहुंचते ही पूरी तरह बदल जाता है। कहीं वह चाबी भरा खिलौना होता है और कभी-कभी स्वचलित होने का आभास भी देता है। दक्षिण भारत का 'तेनाली राम' सादगी से बनाया गया सीरियल है जिसकी ताकत उसका विट है परन्तु सिद्धार्थ तिवारी का 'पोरस' भव्य पैमाने पर बनाया गया है परन्तु उसमें 'विट' नहीं है। 'पोरस' पर 'बाहुबली' का गहरा प्रभाव है। सैट्स, पोषाख, संवाद इत्यादि सभी पूरी तरह एस.एस. राजामौली की 'बाहुबली' से प्रभावित हैं। 'बाहुबली' ने बॉक्स ऑफिस पर आय के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं। किसी भी फिल्म की सफलता उस काल खंड की प्रवृतियों पर कुछ प्रकाश डालती हैं और कभी-कभी ऐसी फिल्में बनती हैं जो समाज और समय को बदलने की क्षमता रखती हैं। शांताराम की 'दहेज' के प्रदर्शन के बाद दहेज प्रथा के खिलाफ कानून बनाए गए। 'दो आंखें बारह हाथ' के बाद कैदियों को मनुष्य मानकर उनके प्रति व्यवहार बदला गया। जब उटकमंड में राजकपूर 'जिस देश में गंगा बहती है' बना रहे थे तब विनोबा भावे चंबल में डाकुओं से आत्मसमर्पण करा रहे थे।
राजकुमार हीरानी की फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' के प्रदर्शन के बाद अनेक शहरों में 'गांधीगीरी' की गई। माहौल कुछ ऐसा बना मानो गांधीगीरी भ्रष्टाचार का उन्मूलन कर देगी। कुछ दिनों बाद सब कुछ सामान्य हो गया। भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी रहा। अण्णा हजारे के आंदोलन का भी यही हश्र हुआ। यहां तक कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े कुछ लोग, कालांतर में सत्तासीन हुए और आजकल जेल में सजा काट रहे हैं। यह क्या माजरा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया आंदोलन भ्रष्टाचार को ही जन्म देता है। महात्मा गांधी ने अहिंसा का मंत्र फूंका और वे राजनैतिक स्वतंत्रता दिलाने में सफल भी हुए परन्तु उनके जीवन काल में ही उनके आदर्श ध्वस्त हुए तथा बंटवारा हुआ। एक मत तो यह भी है कि भारतीय व्यक्ति जन्मना हिंसक है और अहिंसा गांधी का आविष्कार था जो उनकी हत्या के कुछ पहले ही भंग भी हो चुका था। पुरानी कथा है कि दुष्यंत द्वारा शकुंतला को दी गई अंगूठी एक मछली निगल गई और मछुआरे द्वारा रिश्वत दिए जाने पर ही वह राजमहल के कर्मचारी द्वारा खरीदी गई। इस तरह वह अंगूठी दुष्यंत तक पहुंची। शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र का नाम भरत था जिस प्रेरणा से भारत नामकरण हुआ गोयाकि राष्ट्र की कुंडली में ही भ्रष्टाचार मौजूद है।
दरअसल अवतार अवधारणा जनमानस में इतनी गहरे पैंठी है कि अवाम हमेशा कामना करता है कि कोई आकर उनके लिए लड़े, उनके लिए सोचे और आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए मर भी जाए। गणतंत्र व्यवस्था सुचारू रूप से उसी समय चलती है जब मनुष्य स्वयं निर्णय करे। गणतंत्र व्यवस्था एक बहुसितारा फिल्म की तरह है जिसमें हर मनुष्य तर्क सम्मत विचार करे और अपने निर्णय ले। इस समय भीड़तंत्र चल रहा है। स्वतंत्र विचार प्रक्रिया का विकास ही विकास के अन्य क्षेत्रों में सफलता दिला सकता है। विकास को नारा बना दिया गया है और बाजार ने उसे स्थापित भी कर दिया।