समाज में व्याप्त निराशा का कारण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 मार्च 2016
फिल्म उद्योगमें आरके स्टूडियो में होली खेलने सभी सितारे जाते थे और यह सिलसिला राज साहब की मृत्यु के बाद समाप्त हो गया। अमिताभ बच्चन ने अपने बंगले पर फिल्म उद्योग की होली का आयोजन कुछ वर्ष तक किया। अब कहीं भी फिल्म उद्योग का सामूहिक होली आयोजन नहीं होता और सफाई यह दी जाती है कि रंगों से ढंके चेहरे के कारण असामाजिक तत्वों के भय के कारण होली नहीं मनाई जाती। यह कमजोर और लचर बहाना है, क्योंकि विशेष निमंत्रण-पत्र के द्वारा इस खतरे से बचा जा सकता है। सच तो यह है कि फिल्म उद्योग में ही नहीं वरन् पूरे देश में पारंपरिक उत्सवों के लिए अवाम में जोश कम हो गया है और 'वेलेंटाइन डे' तथा 'न्यू ईयर इव' जैसे नए उत्सव युवा वर्ग में लोकप्रिय हो गए हैं। इसे पाश्चात्य संस्कृति का हमला कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि संस्कृतियां तरल होती हैं और एक-दूसरे में घुलमिल जाती हैं। संस्कृतियां आक्रामक भी नहीं होतीं, वे मूलत: अहिंसक होती हैं। अब जीवन पर पड़े विविध प्रभावों के छिलके उतारने पर हमें कुछ भी हाथ नहीं आता। छिलके ही अब सार रह गए हैं। सारी गहराइयां खोखली लगती हैं। भारतीय अवाम हमेशा उत्सवप्रिय रहा है परंतु कौन-सी नकारात्मक शक्तियां हैं, जिन्होंने हम से हमारी उत्सवप्रियता का हरण कर लिया है? आसान और सुविधाजनक उत्तर यह है कि महंगाई के कारण उत्सवप्रियता घटी है परंतु यह सच नहीं है, क्योंकि महंगाई कभी घट नहीं सकती, इस तथ्य को अवाम ने आत्मसात कर लिया है। राजनीतिक दलों को कम से कम नारे गढ़ने में तो मौलिक होना चाहिए।
भांग का सेवन प्राय: होली के साथ जुड़ा हुआ है और अनेक फिल्मों में भी भांग के नशे में गाने-बजाने के दृश्यों का समावेश हुआ है जैसे यश चोपड़ा की 'सिलसिला' में 'रंग बरसे' का और इसके फिल्मांकन में अमिताभ बच्चन और रेखा अपने जीवन साथियों की मौजूदगी में अभद्रता की सीमा तक जाते दिखाए गए हैं। इसी दृश्य में संजीव कुमार के वेदना विदिर्ण चेहरे पर असहायता का भाव अपनी पूरी दयनीयता के साथ उजागर हुआ है। उनके जैसा अभिनेता कभी-कभी ही जन्म लेता है। इस फिल्म के प्रदर्शन पूर्व जारी संगीत में गीतकार का नाम हरिवंशराय बच्चन दिया गया है परंतु बाद के संस्करणों में हटा दिया गया, क्योंकि यह उत्तरप्रदेश के ग्रामीण अंचल का लोकगीत रहा है।
हमारी उत्सवप्रियता के हरण का मुद्दा समाज में छाई नैराश्य की भावना से जुड़ा है। हमारा सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक आंदोलनों से मोहभंग हो चुका है। अब 'अण्णागिरी' का भव्य शो दोबारा नहीं गढ़ा जा सकता। हमें नए तमाशों की तलाश हमेशा रहती है। तमाशों की कोई 'रिपीट वैल्यू' नहीं है। यह भी संभव है कि अगले चुनाव में मतदान प्रतिशत बहुत गिर जाए, क्योंकि अवाम ने सारे विकल्प आजमा लिए हैं और सोनिया गांधी कभी अपने पुत्र की जगह दल में मौजूद अन्य युवा प्रतिभाशाली लोगों को अवसर नहीं देंगी। राजनीति और फिल्म में सितारे का रहस्यमय 'केमिकल लोचा' समझना कठिन है। एक बार असफलता का ठप्पा लगने के बाद उसे हटाया नहीं जा सकता और इस 'दाग' को धो सकने वाला डिटर्जेंट अभी तक नहीं बना है। यह सितारा रसायन हमेशा अबूझ ही रहेगा। फिल्म उद्योग में शशधर मुखर्जी ने सबसे अधिक नए सितारे गढ़े परंतु वे लाख जतन करके भी अपने किसी पुत्र को सितारा नहीं बना पाए। सितारा 'वही जो अवाम मन भाए' परंतु अवाम मन का रसायन कोई समझ नहीं पाता। सामूहिक अवचेतन का विधिवत अध्ययन भी कोई ठोस नतीजे नहीं देता।
वर्तमान में केवल बच्चों में उमंग देखी जा सकती है। एक अलग संदर्भ में निदा फाज़ली ने कुछ इस आशय की पंक्तियां लिखी थीं कि इन मासूम बच्चों को भारी-भरकम किताबों से बचाया जाए, क्योंकि दो-चार किताबें बांचकर यह हमारी तुम्हारी तरह हो जाएंगे। बचपन की मासूमियत की रक्षा ही हमारा भविष्य के प्रति एकमात्र दायित्व है। इस क्षेत्र में भी शिक्षा प्रणाली कभी कभी इस मासूमियत का हरण कर लेगी। संवेदना समाप्ति का सबसे अधिक प्रभाव मध्यम वर्ग पर पड़ा है। यही वर्ग हर संक्रमण रोग का पहला शिकार होता है। एकदमसाधनहीन वर्ग के पास जाने कैसे टिके रहने का अद्भुत माद्दा है। ये निहत्थे सैनिक ही जीवन संग्राम में अपराजेय ैं। धर्मवीर भारती की पंक्तियां हैं, 'हम सबके माथे पर दाग, हम सबकी आत्मा में झूठ, हम सब सैनिक अपराजेय, हमारे हाथों में तलवारों की मूठ।'