समाधि / ओशो

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प्रवचनमाला

समाधि क्या है?

किसी ने कहा है : बूंद का सागर में मिल जाना।

किसी ने कहा : सागर का बूंद में उतर जाना।

मैं कहता हूं : बूंद और सागर का मिट जाना। जहां न बूंद है, न सागर है, वहां समाधि है। जहां न एक है, न अनेक है, वहां समाधि है। जहां न सीमा है, न असीम है, वहां समाधि है।

समाधि सत्ता के साथ ऐक्य है।

समाधि सत्य है। समाधि चैतन्य है। समाधि शांति है।

'मैं' समाधि में नहीं होता हूं, वरन जब 'मैं' नहीं होता हूं, तब जो है, वह समाधि है।

शायद, यह 'मैं' जो कि मैं नहीं है, वास्तविक 'मैं' है।

'मैं' की दो सत्ताएं हैं : अहं और ब्रह्मं। अहं वह है, जो मैं नहीं हूं, पर जो 'मैं' जैसा भासता है। ब्रह्मं वह है, जो मैं हूं, लेकिन जो 'मैं' जैसा प्रतीत नहीं होता है।

चेतना, शुद्ध चैतन्य ब्रह्मं है।

मैं शुद्ध शाक्षि चैतन्य हूं; पर विचार-प्रवाह से तादात्म्य के कारण वह दिखाई नहीं पड़ता है। विचार स्वयं चेतना नहीं है। विचार को जो जानता है, वह चैतन्य है। विचार विषय है, चेतना विषयी है। विषय से विषयी का तादात्म्य मूच्र्छा है। यही समाधि है। यही प्रसुप्त अवस्था है।

विचार विषय के अभाव में जो शेष है, वही चेतना है। इस शेष में ही होना समाधि है।

विचार-शून्यता में जागरण सतता के द्वार खोल देता है। सत्ता अर्थात वही 'जो है'।

उसमें जागो- यही समस्त जाग्रत पुरुषों की वाणी का सागर है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)