समानता / अमित कुमार मल्ल

Gadya Kosh से
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इलाहाबाद विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र से एम 0 ए 0 करते करते इतना आत्म विश्वास आ गया कि अब हमने समाज के बारे में, बहुत कुछ जान लिया है। भारतीय समाज के द्वापर, त्रेता, सतयुग, कलयुग को पढ़ लिया।पश्चिमी दृष्टियों से भी समाज के विकास को पढ़ लिया। डार्विन के सिद्धांत को भी पढ़ लिया है। बाज़ार के सिद्धांत को भी पढ़ लिया है कि हर आदमी मुनाफे की ओर भागता है। अर्थात जहाँ मुनाफा होगा, आदमी वही जायेग।

छुट्टियो में जब गाँव जाता तो गाँव के समाज को, उसके अर्थ शास्त्र को, उसकी जड़ता को, उसके गत्यात्मकता को, उसके आंतरिक ताने बाने को किताबी सिद्धांतों व व्याख्याओं से समझने की कोशिश करता। अधिकतर, किताबी ज्ञान अनुभव से पुष्ट हो जाता।

इस बार जब मैं गाँव पहुँचा तो अपने बड़े ताऊ जी को बहुत परेशान पाया। पूछने पर उन्होंने बताया,

धान कटाई के लिये तैयार है, लेकिन मजूर (मजदूर) नहीं मिल पा रहे हैं।

पिछले साल बड़ी मुश्किल से मजूरन (मजदूरिन) मिली थी, इस साल कोई नहीं मिला जिससे कटाई बिल्कुल ठप्प हो गया है।

ऐसा क्यों हो रहा है ?

मुझे भी समझ नहीं आ रहा है।

मजूरी कम तो नहीं है।

नहीं गाँव में लोग चार सेईया देते हैं हम लोग तो पांच सेईया दे रहे हैं। तब भी मजूर नहीं मिल रहे हैं।

ऐसा तो नहीं पड़ोसी गाँव में इससे अधिक मजूरी नहीं मिल रही हो, इस लिये मजूर उधर चल गए हो।

मैंने पूछा?

पता कराता हूँ पूरे जवार में 4 सेईया ही मजदूरी चल रही है फिर भी पता कराता हूँ।

ताऊ बोले।उन्होंने बात को आगे बढ़ाई-

धान पका हुआ है जल्दी काटना ज़रूरी है नहीं तो यदि बिना मौसम बरसात हो गयी तो बहुत नुक़सान होगा। बालियों से दाने गिर जाएँगे,जो पानी में सड़ जाएँगे। यदि दाने न गिरे तो दाने भीग जाएँगे, जिसे सुखाकर कुटाई करने पर, चावल पर काला दाग लग जायेगा, जिसके खरीददार कम मिलेंगे, रेट कम मिलेगा।

बात ख़त्म करते करते ताऊ के आवाज़ में चिंता महसूस होने लगी।

यह सही है कि हम लोग ख़ुद हल नहीं चलाते, रोपिया, कटाई नहीं करते।लेकिन खेती से जुड़े लोगों की नियति एक-सी रहती है। संयुक्त परिवार के मुखिया के रूप में ताऊ को कुछ विशेष अधिकार थे, लेकिन विशेष कर्तव्य भी उन्ही के मत्थे था।घर में पर्याप्त धन की व्यवस्था करना, उन्ही की जिम्मेदारी है। ज़रिया भी एक ही है - खेती। खेती में यदि कही ऊँच नीच हो गयी तो उसका असर पूरे परिवार की व्यवस्था पर पड़ना था।

अगले दिन ताऊ ने पता कराया, पता चला कि मजदूरन दूसरे गाँव नहीं गई है, वे इसी गाँव के एक शौकीन युवा खेतिहर के यहाँ 4 सेईया मजदूरी पर धान की कटिया कर रही है।ताऊ के लिये, यह स्थिति नई थी।उन्हें यह नहीं समझ में आ रहा था कि अधिक मजदूरी देने पर भी, धान कटाई के लिये,उनके यहाँ मज़दूर क्यो नहीं आ रहे हैं ?

मुझे भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि सामान्य मान्यता (आदमी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है) के विपरीत कम मजदूरी पर क्यो काम करेगा ? अर्थशास्त्र के अधिकतम संतुष्टि के नियम के,यह विपरीत था। किताब के नियम के विपरीत व्यवहार में हो रहा था।

क्या नियम ग़लत हैं? मेरे मन की शंका को मेरे मन ने ही खारिज किया। ये नियम सैकड़ों साल पुराने है, पूरे विश्व में लागू है, इन पर हजारो शोध पत्र लिखे जा चुके हैं- फिर यह ग़लत कैसे होंगे। फिर मन में एक प्रश्न कौंधा - कही ताऊ मारते पीटते तो नहीं है, इसलिये मज़दूर नहीं मिलते हैं।

इस सवाल का उत्तर यदि घरवालो, शिरवाह, हरवाह से पूछा जाता तो वे इसका ऋणात्मक उत्तर ही देते। इसलिए मैंने गाँव की छोटी बाज़ार की शरण ली। इस बाज़ार में गाँव की सारी गतिविधियाँ सांकेतिक रूप से उपस्थित रहती। वहाँ गाँव का जीवन ग्राफ दिखता है।वहाँ पता चला कि ताऊ मारते पीटते नहीं है। अपने काम से काम रखते हैं। उनका तरीक़ा है कि पूरा काम करो और पूरी मजदूरी लो।

मेरी समस्या वैसे की वैसे ही रही। अधिक मजदूरी छोड़कर कम मजदूरी पर क्यो कोई काम करेगा ? फिर मन ने एक संभावित कारण ढूँढा -मजदूर कामचोरी के वजह से ताऊ के यहा न जाना चाह रहे हो। कामचोरी तो एक दो व्यक्तियों में होगी, सभी में नही। फिर मुनाफे का नियम तो सार्वभौमिक है, सर्वव्यापी है।

अब मुझे लगा कि इस विसंगति की जानकारी एक ही तरीके से संभव है - उन मजदूरन से ही पूछ जाय और इस तरह से पूछा जाय कि उन्हें यह भनक न लगे कि मैं ताऊ के परिवार का हूँ।मैंने पता किया कि शौकीन युवा खेतिहर के खेत में कटाई कहाँ हो रही है और वह कटिया होते समय खेत पर कब नहीं रहता। मैं बाहर पढ़ता था इसलिए गाँव की अधिकतर औरते मुझे नहीं पहचानती कि मैं इसी गाँव का हूँ और ताऊ के घर का हूँ, लेकिन अधिकतर पुरुष पहचानते थे। पता चला कि युवा खेतिहर अगले दिन दोपहर को तहसील जाएगा इसलिये शाम को खेत पर नहीं रहेगा। अब अगले दिन मुझे जिज्ञासा का निवारण करना था।

उस शौकीन युवा खेतिहर का खेत पड़ोसी गाँव को जोड़ने वाले कच्चे रास्ते पर था।मैंने साईकल ली। ग़मछा लेकर कत्ती बाँधी। कुर्ता पजामा पहन उस गाँव की ओर शाम को चल पड़ा। उसके खेत तक पहुचते पहुचते सूरज डूब रहा था। मजदूरन कटिया करके सुस्ता रही थी,अब वे कटे धान के बोझों को खेत से खलिहान लाने की तैयारी कर रही थी।

मैंने साईकल रोकी। मजदूरिनो से पूछा,

मजदूरी क्या चल रही है ?

चार सेई।

उनमे से एक ने जबाब दिया।

बस ! चार सेई !

हा

बाजार में कोई बता रहा था कि इसी गाँव में 5 सेई की मजदूरी चल रही है।

पूरे गाँव में चार सेई ही मजदूरी चल रही है केवल एक जगह 5 सेइ मजदूरी दे रहे हैं।

फिर, 5 सेई छोड़कर 4 सेइ मजूरी पर क्यो तुम लोग काम कर रही हो ?

यहाँ मजदूरी कम ज़रूर मिलती है, लेकिन इस खेत का मालिक हम लोगों को बराबर मानकर हंसी ठिठोली करता है। जिससे काम बोझ नहीं लगता है। उनके यहाँ (ताऊ के यहाँ) मजदूरी अधिक मिलती है लेकिन काम बोझ लगने लगता है। क्योंकि ऐसा लगता है कि हमे नौकर समझ कर काम ले रहे है।

मुझे लगा कि मेरे बौद्धिकता की, तर्कशास्त्र की नीव हिलने लगी - मैंने इतनी किताबे पढ़ डाली। डिग्रियाँ ले ली।लेकिन यह तो किसी किताब में था ही नही।मुझे समझ में आया - पढ़ तो बहुत लिया लेकिन अभी बहुत कुछ जानना / समझना बाक़ी है।