समीक्षक जी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
श्री मेलारामजी मेलों में चावल छोले बेचा करते थे। इसी बीच वे खोए-खोए से रहने लगे। मुहल्ले वालों से बोलना छोड़ दिया। पत्नी से भी रूखा व्यवहार करने लगे। यार लोगों को देखकर तोते की तरह आँखें फेरना शुरू कर दिया। पता चला कि मेलारामजी ने नामवरसिह और रामविलास शर्मा कि पुस्तकों के कुछ वाक्य रट लिये हैं। इन वाक्यों की सहायता से अब इन्होंने समीक्षा लिखना शुरू कर दिया है। इन्हें जब किसी पुस्तक की समीक्षा लिखनी होती है, तो ये निर्धारित वाक्यों की प्रश्न-ज्योतिष का काफ़ी लाभ उठा लेते हैं। कोई व्यक्ति साहित्यकार है या नहीं इसके निर्धारण का गुरु-भार अब इनके दुर्बल कंधों पर आ गया है। काजी की मारी हलाल। जिसको ये कहें वह बड़ा साहित्यकार, जिसको अस्वीकृत कर दें, वह चिरकुट।
जिस प्रकार हर धर्म की विवाह पद्धति, अंत्येष्टि क्रिया आदि भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार आलोचनाएँ भी कई तरह की होती हैं। उदाहरण स्वरूप 'श्री अखण्ड जी' की कृति 'टूटा हुआ पुल' का कथानक बहुत कमजोर है। भाषा भी उखड़ी हुई है। छपाई असंतोषजनक है। मूल्य अधिक है। अतः पुस्तक जनसाधारण की पहुँच से परे है। ' ऐसी स्थिति में आप यह नहीं पूछ सकते कि जब पुस्तक हर प्रकार से घटिया है, तो इसकी समीक्षा लिखकर अपना और दूसरों का माथा क्यों खराब कर रहे हो? क्या आपके गुरु दुर्वासा ने आपको कोई शाप दिया था कि घटिया पुस्तकों की समीक्षा लिखना ही आपके भाग में बदा है। जो पुस्तक अच्छी नहीं है, क्या उसे बलपूर्वक बाज़ार में बिकवाना चाहते हैं। भले आदमी उन हज़ारों दीमकों का तो ख़्याल किया होता, जिनका जीवन इन्हीं पर निर्भर है।
मेलाराम जी ने समीक्षक बनने के साथ-साथ कवि बनने का भी क्रूर निश्चय किया। दुर्भाग्य ही कहिए कि दोस्तों ने इनके संग्रह की कई-कई प्रतियाँ लेकर रख लीं; परन्तु समीक्षा के नाम पर दो पंक्तियाँ भी नहीं लिखीं। अधिकतर ने तो पूरी पुस्तक पढ़ने की ज़हमत भी नहीं उठाई। हारकर इन्होंने अपनी पुस्तक की समीक्षा ख़ुद ही लिख डाली और उसे 'कालजयी कृति' क़रार देते हुए अपने पी-एच-डी.तूणीरधारी गुरु द्रोणाचार्य के पास भेज दिया-"मेरी इस कृति की समीक्षा नगर के प्रसिद्ध साहित्यकार ने लिखी है। वे समीक्षा के क्षेत्र में गुमनाम रहकर ही सेवा करना चाहते हैं। समीक्षक की जगह मैंने आपका नाम लिख दिया है। आशा है आप इस आलेख पर हस्ताक्षर करके किसी पत्रिका में भिजवा देंगे।"
डॉ.द्रोणाचार्य ने गुमनाम साहित्यकार को मन ही मन नमन किया और उक्त समीक्षा पर अपने हस्ताक्षर करके 'महासागर' के सम्पादक को प्रेषित कर दिया। मेलारामजी कवि के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गए। द्रोणाचार्य ने अवैध संतान को अपनी संतान मानकर और अपना नाम देकर सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित की।
इनकी समीक्षा के वाक्य कुछ इस प्रकार होते हैं-'अंधे को अंधा मिला' काव्य संग्रह में कवि कुछ आश्वस्त करता प्रतीत होता है। 'ऊँट की पूँछ' का कहानीकार जनवादी चेतना के सरोकार का पूर्णतया निर्वाह नहीं कर पाया। इसमें व्यवस्था के प्रति कुंठित आक्रोश, जीवन के भोगे हुए यथार्थ, समाज की कटुता एवं विद्रूपता को बेनकाब किया गया है। 'सूली ऊपर खाट हमारी' उपन्यास का रचनाकार सामाजिक प्रतिबद्धता से मुकरने का प्रयास करता हुआ प्रतीत होता है। मानवीय सम्बन्धों की अनिवार्यता, सामाजिक सजगता का पालन करते हुए भी चौपट जी का शिल्प कमजोर है। अच्छा हो कि चौपट जी झण्डू का केसरी जीवन लें। इससे रचना का शिल्प और रचनाकार का तन दोनों मज़बूत होंगे।
भीड़ होने पर कुछ समीक्षाएँ अपने मि्त्रों से भी लिखवा लेते हैं। उनका आशय ऐसे निर्देशित कर दिया जाता है-" आप इस रचनाकार को महत्त्व देते हुए (महत्त्वहीन होने की स्थिति में) या फलाँ कवि की खाल उधेड़ते हुए (क्योंकि वह हमेशा हमारा विरोध करता है) शीघ्र ही समीक्षा लिखकर मेरे पास भिजवा दें' यह बात दीगर है कि पाठक इन पुस्तकों को पहली एवं अन्तिम बार अख़बार के समीक्षा वाले कालम में ही पढ़ते हैं। बुक स्टाल पर बैठकर, जब ये किताबें काफ़ी धूल हजम कर लेती हैं, तब विक्रेता इन्हें कारावास देने के लिए फालतू किताबों वाले गोदाम में पटक देता है। लेखक की आत्मा सीलन-भरी कोठरी में छटपटाती रहती है। अख़बार में छपे समीक्षक जी पुड़िया बनने के लिए वैद्यजी की बैठक में प्रतीक्षा करते रहते हैं या मंगल हलवाई के यहाँ जलेबी का दोना बनने का गौरव प्राप्त करते हैं।