समुद्रगाथा / शैवाल

Gadya Kosh से
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वे अभी एक घंटा और बैठेंगे यहाँ। छह बजकर तीस मिनट पर उठ जायेंगे। घुटनों पर हाथ रखकर सीढ़ियाँ चढ़ेंगे। एक... दो... बारह... पंद्रह। ऊपर पहुँचकर डूबते सूरज की तरफ चेहरा करेंगे। चश्मा उतारकर पोछेंगे। फिर पहनेंगे। फिर बुदबुदायेगे, " दिस इज द लास्ट ऑबर ऑफ आल द साइट्ज... गुड इवनिंग सन, वी मस्ट मीट अगेन ऑन द फर्स्ट डे ऑफ नेक्स्ट लाइफ..." ठीक यही तीन वाक्य वे बराबर इस घाट से लौटते हुए कहेंगे। आप ध्यान दें, तो पता चल जायेगा। आदत होती है न अलग-अलग... अब क्या पता, क्यों यही तीन वाक्य बोलते हैं! हो सकता है, इन तीन वाक्यों में उनकी जिंदगी का कोई महत्वपूर्ण रहस्य छिपा हो। वैसे आपने दिलचस्पी दिखलाई, इसलिए उनके बारे में बता रहा हूँ। मेरा कोई लगाब नहीं है उनसे। मेरा तो उनसे पुराना झगड़ा है। बी.ए. के इम्तिहान में इन्होंने मुझे रेस्टीकेट करवा दिया था। हालांकि जानते थे कि उनका बेटा मेरा साथी है, अजीज दोस्त है, साथ- साथ पढ़ता है और वाजवक्त लफंदरी भी करता है। लेकिन कहते हैं न कि कुछ लोग बोरिया-बिस्तर के साथ किसी-किसी चीज के पीछे पड़ जाते हैं, सो उसी श्रेणी के हैं यह। आदर्शवादी हैं। बेटा रहे, बेटे का दोस्त रहे, चाहे अपना बाप रहे, सबके साथ एक-जैसा सलूक करेंगे। कसम खायी है न जिन्दगी भर साथ निभाने की, सो निभा रहे हैं। कुछ पूछना है इनसे ? पूछकर देखिए। कतरायेंगे बोलते हुए। या फिर हाँ-हूँ करके टाल देंगे... घर में भी यही आचरण बरकरार रखते हैं। उनकी चुप्पी से बच्चे खौफ खाते हैं। एक कोने में सरक जाते हैं, छिप जाते हैं। कागज पर गणित के सवाल हल करने लगते हैं। घर जाने का एक बंधा हुआ समय है इनका... और घर में रहने का भी। इस बीच रेडियो नहीं बजेगा, कोई कुछ भी जोर से नहीं बोलेगा। खाना हो तो रसोईघर में बैठ जाइये। रोटियाँ आ जायेंगी, दूँग लीजिए। उनके रहने तक कहीं बाहर नहीं जा सकते। जायेंगे तो ? क्या कहूँ साहब, इनका गुस्सा

भाप की तरह खतरनाक है। आपके हाथ में भाप लगी है कभी? लगी है न, तब तो जानते होंगे कि कितना बड़ा फफोला उठता है... वह जो उनका बेटा था, इन फफोलों का अंतर्भूत दर्द वही समझता था। घर में घर- जैसा कुछ था नहीं। माँ थी, तो सौतेली। अपने बेटे-बेटियों में लगी रहती थी... कतई नहीं, में उसके दोषों पर अंगुली नहीं उठा रहा हूँ। महज बात कह रहा हूँ। अब आप भी सहज होकर जरा सोचिए न, आपने अपनी चढ़ती उमर में इधर- उधर ताक-झाँक न किया होगा? यही उसने भी किया था। एकदम जर्रा भर ताक- झाँक। प्रोफेसर साहब को पत्नी से पता लगा कि 'विद्याभूषणवां शीबू मास्साव की लड़कियों से संझौकी वक्त बतिया रहा था।' वस शामत आ गयी। प्रोफेसर साहब घर से तुरंत निकल गये। आधे घंटे में हाँफते-हाँफते लौटे। बेटे को मैदान में बैठा दिया, तपती धूप में। हाथ-पैर में बेड़ी डालकर लुढ़का दिया। एक पड़ोसी दौड़कर आये, पूछा कि क्या हुआ, सो सर्व आवाज में बोले, "थोड़ी सी दिमाग में खरावी आ गयी है।" फिर सिर झुकाकर घर में घुस गये। उनका बेटा मात्र अंडरवियर पहने घास पर ओघड़ा हुआ फफक रहा था- "माई हम कुछो नहीं किया... कुछो नहीं।" उसकी बेलोस आवाज आस-पास इस तरह छितरा रही थी, जैसे घर्र-र्र-घूं करती कोई वैलगाड़ी गुजर रही हो और उस पर लदे बोरे से, चावल के दाने पिघले कोलतार की सड़क पर झरते जा रहे हो...। वह लड़का बस जैसे किसी संशय में ठहरा हुआ था। में कभी-कभी उसके पास बैठता तो वह अपनी डायरी निकालता, सुनाता 'लाइफ इज लाइक अ रॉटेन लॉग...' या ऐसी ही बातें, जिनमें फिलॉसफी कम और सेंटिमेंट अधिक होता। खलील जिब्रान और अमृता प्रीतम को यह खूब पढ़ता था। वबतियाते-बोलते हुए उन्हें बराबर कोट करता। गंभीर बातें करते वक्त बैठने की उसकी खास मुद्रा थी। माथा टेबुल पर रख देता, दोनों हाथ सिर के अगल- बगल बिखेर देता। फिर ठहर ठहरकर बोलता, हल्का-हल्का ठेका लगाता अंगुलियों से, या फिर गाता-'पिंजरा लेके उड़ जा रे पंछी... जा साजन के पास... पंछी काहे होत उदास..." पढ़ने में बीहड़ माना जाता था। वारह-तेरह घंटे पढ़ता। सिर धो-धोकर। हर बार फर्स्ट डिवीजन पाता। मैट्रिक में राष्ट्रीय छात्रवृत्ति मिली थी। वस्तुतः इसी

कारण से पढ़ाई जारी रख पाया वह। वरना प्रोफेसर साहब से उम्मीद नहीं थी कि वह उसका चेहरा चूमकर कहते, 'सेकेंड डिवीजन आया तो क्या हुआ... डैम केयर... अगली बार अच्छा करना... और प्रोफेसर साहब भी तो अंदर से बेहद लाचार थे। दूसरी पत्नी से तीन बच्चियाँ और दो लड़के थे। सब कुछ वेतन से ही करना था। बच्चियों की शादी के लिए पैसे जोड़ना, सबको पढ़ाना, खाने-पीने और कपड़े-लत्ते का इंतजाम करना समझिए एक कतार थी जिम्मेदारियों की। कैसे आशा रखी जा सकती थी कि वे घर के अन्य सदस्यों के छोटे-मोटे सुख को उस पर न्यौछावर कर दें... कहाँ और किसमें दोष था, में नहीं बता सकता। जनाब, यह सब तो अब भी चालू है। एक बेटा आई.एस.सी में पढ़ रहा है। एक लड़की आई.ए. में पढ़ रही है। एक लड़का मैट्रिक में पढ़ रहा है। छोटी लड़की दसवीं में है। सब कुछ बदस्तूर रुटीनी तौर पर चल रहा है। दुर्घटना... उसकी बाबत मत पूछिए, साहब! जितना जानते हैं आप, उतना ही जानिए। ज्यादा जानकर क्या होगा? उस दुर्घटना का तो अब कोई निशान भी नहीं है। बीता, सो बीता। हुआ, सो हुआ। प्रोफेसर साहब क्या कर लेंगे निशान रखकर या पहले ही क्या कर लेते ? सब लोग थोड़े दिनों तक रो-धोकर चुप हो गये। फिर मान लिया कि इसे होना था, सो हो गया। कभी-कभी कोई पुराना स्कूली दोस्त विद्याभूषण को ढूँढ़ने आता है घर पर, तो उसकी माँ बाहर निकलती हैं, घूंघट किए हुए, कहती हैं "बबुआ नइखे आइल..." "लेकिन दशहरे की छुट्टियों में तो सब आये हैं!" "हाँ.." उसकी माँ धीमे से दरवाजे का पल्ला भेड़ती हैं, भीतर की फफकन को जबर्दस्ती रोकती हैं। विद्याभूषण का छोटा-भाई बाहर आता है। आगंतुक को सब बता देता है। आगंतुक लौटता है तो उसके चेहरे पर आँखों में, पैरों की आहट और हर 'एक्टिविटी' में एक सर्व आवाज कौंधती है- "बबुआ नइखे आइल...।" छुट्टियों में न आने का क्रम तो शायद उसने तभी से बंद कर दिया था, जब वह इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में था... उस बार छुट्टियों के तीन दिन गुजर गये,

तो प्रोफेसर साहब बोरिया-बिस्तर बांधकर सिन्द्री पहुँच गये। उसे साथ लेते आए। वह अधमरी मक्खी की तरह पीछे-पीछे घिसटता हुआ आया। मैं उस वक्त सामने की छत पर था, विशु दा से गप्प लड़ा रहा था। न आने का कारण... घर में तो उसने बताया कि तबीयत खराब हो गयी थी, लेकिन मुझसे उसने दूसरी बात कही। बताते वक्त उसकी आवाज में विचित्र ग्लानि भाव था- "अवि, इस बार फेल कर जाऊंगा..." कहकर वह रुआंसा हो गया था। " पढ़ा नहीं इस बार क्या? तू तो बीहड़ पढ़ाकू है..." "पता नहीं, कैसे क्या हो गया! तमाम चीजों को, अपने अभाव को, अपनी मजबूरियों को जानता-बूझता भी फँस गया..." वह थोड़ी देर रुका। मैंने कोई कमेंट नहीं किया। उसने टेबुल से सिर भेड़ दिया। अंगुलियों से ठक-ठक की आवाज करता हुआ कहने लगा "मुझे एक लड़की से इश्क हो गया है... मैंने बहुत कोशिश की बचने की, लेकिन..." आगे वह क्या बोला, पता नहीं चला। अंगुलियों की आवाज घनी हो गयी। सब कुछ उस संघनित ठक-ठक की आहट में डूब गया। मुझे कुछ कहना चाहिए था, लेकिन उस वक्त पता नहीं चला कि क्या कहूँ। मुझे लग रहा था, दीवार पर घास उग आयी है। तेज धूप काँच की तरह टूट रही है। इन दोनों के बीच विधु का भयाक्रांत-असुरक्षित चेहरा है और वही सर्व आवाज गूंज रही है- "माई! हम कुछो नहीं किया..." उस सर्द आवाज को कभी-कभी कवर करता हुआ पार्श्व संगीत, अवरोह पर डूबता हुआ... फिर उससे नत्थी होते सेंटिमेंट के पैरों की थाप ऐ मेरे दिल कहीं और चल... छुट्टियों के बीच में ही वापस चला गया था वह, बहाना बनाकर कि अगले साल की तैयारी शुरू करनी है। दस दिनों के बाद रिजल्ट निकला था। वह फेल हो गया था। प्रोफेसर साहब उसी रात सिन्द्री के लिए रवाना हो गये थे... सुना, हॉस्टल पहुँचकर उसके कमरे

में गये थे। वह और उसके तीन दोस्त ताश खेलकर जी बहला रहे थे। विधु उन्हें देखकर स्तब्ध हो गया था। प्रणाम-पाती भी भूल गया था। प्रोफेसर साहब ने उसका टेना पकड़ा था, जमीन पर पटक दिया था, फिर बेतरह पीटने लगे थे। उसकी कमीज फाड़ दी थी। मुँह नोच लिया था। और यह कहते हुए वापस लिवा लाये थे "अब तू चल, चल स्साला! पढ़ने-लिखने की कोई जरूरत नहीं। तेरे हाथ- पैर तोड़कर, बिठाकर खिलाऊंगा..." विधु यहाँ आ गया। दिन भर खिड़की के पास बैठा रहता। वैसे ही टेबुल पर सिर टेककर... बराबर नहीं, लेकिन अकसरहां। शाम के वक्त बाप के निकल जाने के बाद सिर झुकाए हुए घर से निकलता। हम लोगों को लगा था, अब विधु का कैरियर खत्म हो गया। बाप ने उसे चाट लिया। अब या तो विधु कहीं भाग जायेगा, या रिवोल्ट कर देगा। लेकिन इन दोनों में से कुछ नहीं हुआ। प्रोफेसर साहब को प्रिंसिपल साहब ने काफी डाँट पिलायी। समझाया। विधु को बुलाकर समझौता करवाया। विधु ने सिर झुकाकर शपथ ली कि अब वह ठीक ढंग से पढ़ेगा। और इस शपथ ग्रहण के दो दिन बाद दिखाई दिया कि विधु के घर के आगे रिक्शा लगा है। विधु के अनुज रिक्शा पर सामान लाद रहे हैं। फिर विधु निकला। बाप और माँ के पैर छुए। रिक्शा पर बैठा। फिर असुरक्षित यात्रा में शामिल होने के लिए आगे बढ़ गया... सुना, बतौर सजा विधु को पॉकेट-खर्च के लिए दी जाने वाली रकम में कटौती कर दी गयी है। हर सप्ताह बाप की कड़ी चि‌ट्ठी जाती है- "दिस इज द लास्ट वार्निंग, नोट इट... फर्दर यू विल नॉट गेट एनी चांस।" और ऐसी ही अनेक धमकियाँ। पाँच महीने तक खामोशी छायी रही। फिर एक तेज धमाका हुआ। हम लोगों के ही एक साथी ने जिसने उसी वर्ष सिन्द्री में दाखिला लिया था, लिखा- "विधु का फादर आया था। विधु के बिस्तरे के नीचे से लड़की की तस्वीर और शराब की बोतल मिली। विधु को बहुत मारा। उसे हॉस्पिटलाइज किया गया।

उसका फादर हॉस्पिटल जाने के बजाय ट्रेन पकड़ने के लिए चला गया। विधु की दिमागी हालत ठीक नहीं है। क्या लड़का था, देखकर लगता है कि नेपोलियन के डाउन फॉल वाला चैप्टर पढ़ रहा हूँ..." लोग कहते हैं, उसी हॉस्टल में रहते हुए विधु की एक जिन्दगी खत्म हो गयी। दूसरी बार फेल होने के बाद जो विधु घर लौटा, वह दूसरा विधु था- लाफिक, बदमिजाज, निष्क्रिय और संवेदनहीन। चाहे जितनी मार पड़े, रात के वक्त दारू पीता ही था। हंगामा करता था, फाश गालियाँ वकता था और बाप से मार खाने के बाद रोते हुए या हल्ला मचाते हुए कहीं भी सो रहता था... उस दिन की बात मुझे कभी नहीं भूलती। मैं और विशु दा छत पर लेटे हुए थे, बेसिलसिलेवार गप्प लड़ा रहे थे। मायावी चाँदनी बिखरी थी चारों ओर। सड़क सूनी थी। प्रोफेसर साहब के कंपाउंड में बीमार पड़ा पिल्ला कभी-कभी रोता था, सन्नाटा भंग करता था। युक्लिप्टस जादूगर की तरह अपना सिर धुन रहा था। जिस वक्त करीमन का टमटम लौट रहा था, उसी वक्त एक जोरदार आवाज हुई थी। प्रोफेसर साहब के घर का दरवाजा खुला था। फाटक के पास आकर दोनों रुके फिर प्रोफेसर साहब पीछा करते हुए निकले। फाटक के पास आकर दोनों रुके फिर प्रोफेसर साहब ने उसे कंधे की ऊँचाई तक ऊपर उठा लिया। हवा में दो बार चक्कर खिलाकर जमीन पर पटक दिया। 'माई रे माई' की तेज चीख गूंजी। प्रोफेसर साहब आश्वस्त होकर घर के भीतर चले गये। थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। फिर देखा, विधु अपने कपड़े खोल रहा है। पूरी तरह निर्वस्त्र होकर उसने दस-पाँच बार बैठक लगयी। फाटक के खंभे पर दो-चार घूंसा मारकर ताकत की आजमाइश की। फिर घर की परिक्रमा करने लगा। खिड़की-दरबाजों पर घूंसा मारने लगा, चीखने लगा- "इंकलाब जिन्दाबाद... साले अंग्रेज, बाहर आओ।" थोड़ी देर बाद जब पूरी तरह थक गया, तब बीमार पिल्ले के पास आकर पड़ गया। फटी-फटी आवाज में गाने लगा "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है... देखना है जोर कितना बाजू- ए-कातिल में है..."

नीरव सन्नाटे में उसकी आवाज के साथ मात्र झींगुरों का एक समूह साथ दे रहा था झीं-झीं-झीं-ई-ई। पिल्ला सकते की हालत में चुप पड़ा हुआ था। जब विधु लस्त-पस्त होकर सो गया, तो फिर मरी-मरी आवाज में वह रोने लगा। नहीं, मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ कि सारा दोष विधु के पिता का है। मैं यह भी नहीं मानता कि सारा दोष विधु का है।... बंधु ! वाकई हमारी कोई गलती नहीं है। हम जिसे देख रहे हैं, उसे अपनी तरफ से दोषी मान रहे हैं। लेकिन हमें पता होना चाहिए कि हम जिसे देख रहे हैं, उसके पीछे भी कोई है... जिसे हम नहीं देख रहे हैं, जाहिर है कि वह हमारी तरफ से निश्चित है। वह अपनी ताकत बढ़ा रहा है। हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं। हमारी विवशता बढ़ती जा रही है... इस मंहगाई से, असुरक्षित भविष्य से, ढेर सारे दायित्वों से और एक अदृश्य दबाव से दबकर एक-दूसरे से पृथक हो गये हैं। इकाई वाली दराज में एक गुप्त चिट्ठी की तरह बंद होकर हम नहीं सोचते कि जो दूसरी दराज में है, वह भी हमारी तरह अपने को गुप्त रखकर शरीफ बने रहने की कोशिश करने वाली गलत पते पर लिखी गयी बेमानी चिट्ठी है। दरअसल हम जिससे लड़ रहे हैं, वह तो महज एक लाल पर्दा है, जो हमें बेदिमाग सांड़ समझकर टांग दिया गया है। पर्दे के पीछे जो भी है, वह जानता है कि इसी लाल पर्दे के जरिये भरमा-भरमाकर हमारी शक्ति को तोड़-फोड़कर वह हमें मार सकता है... और हमें मरना ही है, तो हम विधु बनें या प्रोफेसर साहब, बात बराबर ही है। आगे के छः महीनों में बहुत सारी घटनाएं घट गयीं। विधु मेंटल हॉस्पिटल गया और लॉट भी आया। लौटने के तुरंत बाद ही उसकी बहाली डाक एवं तार विभाग में पोस्टल क्लर्क के पद पर हो गयी। नौकरी लगने के एक माह बाद उसकी शादी हो गयी।

विधु की पोस्टिंग हजारीबाग के एक भीतरी भाग में हो गयी थी। वह कभी-कभी छुट्टियाँ लेकर घर आता, रहता, फिर लोट जाता। वह किसके लिए आता था, क्यों आता था, यह सब में नहीं बता सकता। लेकिन यह जरूर बता सकता हूँ कि उसका दिमाग अव भी अपने डाउन फॉल के कारण एक संक्रामक रोग से ग्रस्त था। वह कभी-कभी बैठे-बैठे उत्तेजित हो उठता, हाथों में कागज का टुकड़ा लेकर फाड़ने लगता, कागज को चिन्दी-चिन्दी करते वक्त उसके चेहरे पर आक्रोश तथा हताशा के जो भाव उभरते, उससे प्रकट होता कि वह अंदर से एकदम बिखर गया है... थोड़े दिनों तक अकेलेपन में जीने के बाद वह बौखला गया था। हर सप्ताह चिट्ठियाँ लिखत - "माई, बाबूजी से कहना कि विधु अपनी पत्नी को साथ ले जाना चाहता है...।" हो सकता है कि माँ ने विधु की इस इच्छा को प्रोफेसर साहब के सामने रखा हो और वे नकार गये हों। हो सकता है कि प्रोफेसर साहब के दिमाग में यह बात गफ गयी हो कि 'अघपगला विद्याभूषण मेहरारू को ठीक से रखने के काबिल नहीं हुआ! क्या पता कब किस बात को लेकर फिर पगला जाये...।' या हो सकता है प्रोफेसर साहब को आसार अच्छे नजर नहीं आये हों, यह भान हो गया हो कि विद्याभूषण अपनी पत्नी को साथ ले गया तो उन्हें देखने नहीं आयेगा, पैसे नहीं भेजेगा, सारे संबंध तोड़ लेगा। कुछ बात होगी बंधु, जिसके कारण प्रोफेसर साहब ने विधु को टरकाये रखा कोई-न-कोई बहाना करके। पहले विधु दो महीने पर घर आता था। बाद में दो महीने पर चिट्ठी आने लगी और छह महीने पर वह खुद आने लगा। फिर एकाएक उसका आना बंद हो गया। चिट्ठियाँ भी अटक गयीं। प्रोफेसर साहब ने किसी खतरनाक आशा से ग्रस्त होकर हजारीबाग शहर के एक रिश्तेदार को इस बारे में खत लिखा। रिश्तेदार का खत एक सप्ताह में आया। लिखा था - विद्याभूषण एक बंगालिन के फेर में फंस गया है। उसी माह प्रोफेसर साहब की बेटी की शादी थी। विधु को निमंत्रण-पत्र गया। विधु का जवाब आया- एक शर्त पर आ सकता हूँ, मेरे साथ आने वाली को

भी स्वीकार कीजिएगा। प्रोफेसर साहब ने खत को फाड़कर फेंक दिया। कोई जवाब नहीं भेजा। शादी का सारा बोझ अकेले उठा लिया। शादी करके प्रोफेसर साहब खाली पड़े... सुस्ताये, तब विधु का सवाल फिर उभरकर सामने आया। अपने उसी रिश्तेदार को स्मरण-पत्र भेजा। उसने सारे मामले की केस-हिस्ट्री दी। लिखा कि वह बंगालिन उस पोस्टमास्टर की लड़की है, जो विधु के आने से पहले वहाँ के पोस्ट ऑफिस में तैनात था। ट्रांसफर हो जाने के बाद भी वह परिवार नहीं ले गया। विधु से बोला कि वह भी साथ रहे, बतौर गार्जियन उसी फैमिली की देख-रेख करता रहे। विधु धीरे-धीरे उसे फैमिली का सदस्य हो गया। फिर प्रेम चला। लड़की को शायद मालूम नहीं हुआ कि विधु विवाहित है। संभव है, विधु ने भी नहीं बताया हो।... विधु कुछ महीने पहले एक अन्य रिश्तेदार के पास एक हजार रुपये मांगने गया था। कारण पूछने पर सिर्फ इतना बोला कि नौकरी का सवाल है। रिश्तेदार न 'इंटेलिजेंस' वटोरकर लिखा था कि बंगाली परिवार विधु को चूस रहा है। विधु की विचित्र हालत हो गयी है। एक फटी हुई पैंट, एक शर्ट, एक बनियान और एक गमछे के सहारे दिन काट रहा है। आखिर वेतन का पैसा क्या हो जाता है?

प्रोफेसर साहब ने उसी दिन कॉलेज से छु‌ट्टी ली। दिन भर सोचते रहे। कई बार खत लिखा और फाड़ा। अंततः जिस खत को पोस्ट किया, उसमें उन्होंने लिखा था- तुम उस फैमिली को परेशान करवाओ। ऐसा कुछ करो कि वे लोग क्वार्टर छोड़कर भाग जायें।

दो सप्ताह की चुप्पी। जिस दिन प्रोफेसर साहब हजारीबाग जाने के लिए सोच रहे थे, उसी दिन रिश्तेदार की चिट्ठी आ गयी बंगाली परिवार पर कोई असर नहीं हो रहा है... सब्जीवाले को मना कर दिया कि उसके क्वार्टर की ओर न जाये। कुएं से पानी भरकर लाने वाली और अन्य ऐसे ही काम करने वाली दाई

को भगा दिया गया। मेहतरानी को मना कर दिया गया कि उनके यहाँ सफाई करने न जाये। ऐसे ही अन्य कई तरीकों से उनका सोशल बायकॉट किया गया है... परेशान किया गया है, लेकिन वे अब तक अपनी जगह पर बने हुए हैं। आप बहू को लेकर शीघ्र आ जायें। बहू पंद्रह दिनों से बीमार चल रही थी, इसलिए प्रोफेसर साहब की यात्रा स्थगित हो गयी। उन्होंने विधु को उसी दिन खत डाल दिया- अगले सप्ताह मैं बहू को साथ लेकर आ रहा हूँ। नोट इट, आई शैल कम ऑन... प्रोफेसर साहब नियत तारीख को वहाँ पहुँच गये। रिक्शा से वे, बहू और विधु की माँ उतरकर पास के पेड़ के नीचे बैठ गये। प्रोफेसर साहब ने थोड़ी देर हाथ-पैर सीधा किया। एक सिगरेट फूंक लिया। इस बीच पंद्रह-बीस मिनट बीत गये थे, लेकिन उन्हें रिसीव करने के लिए कोई नहीं आया। पास के कुंए पर एक आदमी नहा रहा था। नहाते हुए फूहड़ गीत की दो तीन पंक्तियाँ बार-बार दोहरा रहा था- करेजऊ... करेजऊ... करेजऊ... प्रोफेसर साहब ने नाक-भाँ सिकोड़कर उसे देखा। फिर आवाज को पूरी तरह गंभीर और भारी बनाकर पूछा, "ऐ भाई, पोस्टमास्टर साहब का क्वार्टर किधर है?"

"केकर (किसका)? दारूबजा के (शरावी का)...?" आदमी ने नहाना रोककर प्रश्न किया। प्रोफेसर साहब ने उसके प्रश्न को पचा लिया था। अपनी भद्रता का रौब गालिब करने के अंदाज में कहा, "मैं विद्याभूषण श्रीवास्तव को ढूंढ़ रहा हूँ।" "आप उसके कोन हैं?" वही ढीठ, गंवारू अंदाज । प्रोफेसर साहब ने चश्मा उतारकर ग्लास पोंछना शुरू किया। "बताया नहीं?"

"मैं उनका पिता हूँ।" प्रोफेसर साहब ने एक-एक शब्द को चबा-चबाकर कहा। आदमी वाल्टी ऊपर उठाये हुए ही रह गया, एक मिनट के लिए भाँचक होकर देखता हुआ। फिर पत्थर की मूरत की तरह गूंगा बनकर उसने अंगुली से एक किनारे बाले क्वार्टर की ओर इशारा कर दिया। प्रोफेसर साहब ने मुड़कर अपनी पत्नी और बहू को इशारा किया। वे सब पीछे-पीछे आने लगीं - सिर झुकाये हुए। आदमी अब तक इस काफिले को आँखें फाड़कर देख रहा था। क्वार्टर के सामने आकर रुके प्रोफेसर साहब। दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटक रहा था। ढेर सारा सन्नाटा आस पास छितराया था। पाखाने की उबकाई लाने वाली महक भी। क्वार्टर के करीब नीम के नीचे निमकौड़ियां बटोरते बच्चे सहम गये थे। "ऐ बेटा! पोस्टमास्टर साहब का घर..." "हं, येही हय।" बच्चे ने सहमते हुए जवाब दिया। "पोस्टमास्टर साहब कहाँ गये हैं?" "ऑफिस!" बहू और पत्नी क्वार्टर के बरामदे में बैठ गयी थीं, आंचल से नाक ढँककर। प्रोफेसर साहब सिर झुकाये लंबा-लंबा डग भरते हुए ऑफिस की ओर बढ़ गये थे। खेत, पोस्ट ऑफिस का पिछवाड़ा, फेंसिंग, बरामदा, दरवाजा लांघते हुए वे अंदर पहुँच गये। विधु के सामने खड़े हो गये, "चाभी दो।" विधु ने सिर ऊपर उठाकर देखा, रूखी आंखों से। पेंट में हाथ डाला। बिना कुछ कहे चाभी निकालकर आगे रख दी। प्रोफेसर साहब ने चाभी उठा ली। पूछा, "क्वार्टर कब आओगे?"

"कोनो ठिकाना नइखे।" एक सर्द-भरी आवाज कानों से और दारू की गंध नाक से टकरायी। प्रोफेसर साहब के ललाट पर एक क्षण के लिए शिकन आयी। फिर लुप्त हो गयी। मुड़कर, सिर झुकाये लौटने लगे। ऑफिस-ऑवर खत्म हो जाने के बाद भी विधु क्वार्टर नहीं लौटा। शाम हो गयी। प्रोफेसर साहब ने एक आदमी को भेजकर दाल-चावल मंगाये। खाना बनने लगा। वे क्वार्टर के आगे कुर्सी डालकर बैठ गये। इंतजार करने लगे। रात गहराने लगी। प्रोफेसर साहब की आँख लग गयी। नींद में कराहने लगे। ...थोड़ी देर बाद लगा, कोई कंधे पर हाथ रखकर झकझोर रहा है। "के?" आँख खोलते-खोलते उन्होंने पूछा। "खड़े हो जाओ!" एक कठोर आवाज उनके कानों से टकरायी। और भीतर तक उतर गयी। अपनी जगह पर खड़े हो गये।... नीम की डाल से बल्ब लटक रहा था। उसकी रोशनी में दो प्रेत-छायाएं एक-दूसरे के सामने-कांपने लगीं- जमीन पर। साथ-साथ आबाजों की उड़ती रेत । तुमको किसने बुलाया यहाँ... मेरा घोंसला उजाइने... तुम बाप हो ? चालाकी करने आये हो? संबंध स्थापित करने आये हो? रेत का बगूला धीरे-धीरे मारक यंत्रणा देने वाला बन गया। वातावरण में फाश गालियों का धुँआ उड़ने लगा। फिर एक जवान फटी-फटी आवाज तेज गति के साथ पोस्ट ऑफिस की तरफ दौड़ गयी "कहाँ है वाँस... रमधनवा !... दे तो रे... बाँस दे... जल्दी... हम इसका कपार फाड़ दें..." उसके बाद एक तेज हंगामा। भीड़। फाश गालियाँ बकते हुए बाप को मारने के लिये आमादा विधु। चुप... गुमसुम, सिर-पैर कंपाते हुए... प्रदर्शनी की चीज बने हुए प्रोफेसर साहब...

दूसरी सुबह प्रोफेसर साहब अपनी पत्नी को लेकर वापस लौट गये थे। बहू को भी चलने के लिए कहा। लेकिन उसने रोते हुए कहा, "मुझे यहीं छोड़ दीजिए... मैं यहीं मर जाऊँगी..." घर पहुँचकर उन्होंने अपने एक रिश्तेदार को सारी बातें लिख दी थीं। फिर प्रार्थना की थी कि विधु का ट्रांसफर दूसरी जगह कर दिया जाये... संभव हो तो घर पर ही। रिश्तेदार डाक-तार विभाग में बड़े अफसर थे। प्रोफेसर साहब बहू की चिट्ठियों का इंतजार करने लगे थे। कभी-कभी एक सुनहरी आशा अपने पंख फैलाकर नाचने लगती थी- शायद बहू... लेकिन उनकी यह आशा फली नहीं। एक दिन अलस्सुबह उन्होंने देखा, बहू अकेली लौट आयी है। बरामदे के खंभे से सिर भेड़कर रो रही है। हाथ-मुँह धोकर, थोड़ा आराम कर लेने के बाद बहू अपनी रामकहानी कहने लगी, जिसका सारांश यह था कि विधु पत्थर का आदमी हो गया है। जितने दिन बहू रही, वह सिर्फ खाने के वक्त क्वार्टर आता। खा लेता, चला जाता। कभी बहू एकाध रोटी और लेने की बात करके उसके अंदर प्यार जगाने की कोशिश करती, तो वह आग की तरह जलने लगता। पीटने लगता। कभी देखने भी नहीं आता कि घर में क्या घट गया है। पैसे भी नहीं देता। बहू ने अपने रुपयों के जरिये इतने दिनों तक खर्च चलाया। जब पैसा खत्म होने को आया और यह महसूस होने लगा कि अब कुछ नहीं होगा, तो लौट आयी। उस बंगालिन के बारे में पूछने पर बहू ने बताया, "पता लगा कि हर शनिवार को रांची चले जाते हैं, उसी के पास। सोमवार को दफ्तर में लौट आते हैं।"

पूरी शाम बंद कमरे में पड़ा रहा। रात उतर आयी। रोशनी जलाने की हिम्मत नहीं पड़ी। प्रच्छन्न अंधकार में विधु की बातें गौरेया की तरह इधर-इधर उड़ने लगीं... दीवारों से टकराकर गिरने लगीं...

लाइफ इज लाइक अ रॉटन लॉग... अवि, दूसरी बार भी इश्क कर बैठा... पता नहीं एक साबुत घर पाने की कैसी उत्कट इच्छा मेरे अंदर पैदा हो गयी है... में आवारा नहीं हो गया, अवि !... मुझे प्यार चाहिए... स्वच्छ ममता चाहिए। पता नहीं इसकी तलाश में कहाँ-कहाँ भटकूंगा... अवि, एक कविता सुनो - बेहला बजाने वाले ! तू जिसके लिए गाता था पता है तुझे वह समंदर मर गया है... एक तेज ज्वार। संवेगमय अहसासों के नीचे शीशे की तरह चिटखने लगा मन ! पता नहीं कब फूट-फूटकर रोने लगा। वातों की गौरेया एक कोने में गिरकर मुर्दा हो गयी थी... प्रोफेसर साहब ने उसी दिन बहू के वापस आने के दिन, अपने उस रिश्तेदार को, जो डाक एवं तार विभाग में बड़ा अफसर था, खत डाला - विधु का ट्रांसफर करवाइये... इसे हजारीबाग से हटाइये... वह जंगली हो गया है... मैं आपके पैर पड़ता हूँ... अगले सप्ताह रिश्तेदार का खत आया मैंने विधु का ट्रांसफर पटना करवा दिया है... फिर तीसरे दिन की सुवह ही हजारीबाग शहर में रहने वाले रिश्तेदार का भेजा हुआ टेलीग्राम मिला- 'कम सुन।' और उसी दिन की डाक से विधु का खत टपक गया- ट्रांसफर करवा कर क्या समझ लिया, मैदान मार लिया?... जान लो यहाँ से जाते-जाते सारा हिसाब साफ कर लूँगा... प्रोफेसर साहब उसी दिन हजारीबाग के लिए रवाना हो गये थे। उस वक्त सड़क सोयी हुई थी। कभी-कभार झकरहवा पीपल पर कचवचिया चिड़िया तेज

आवाज में बोलने लगती। युक्लिप्टस के नीचे वीमार पिल्ला आज शांत सो रहा था। ऐसे स्तब्ध-वातावरण में करीमन के टमटम की खड़-खड़ की आवाज एकाएक गूंजने लगी। टमटम प्रोफेसर साहब के घर के आगे रुका। प्रोफेसर साहब उतरकर खड़े हुए। फाटक खोला। दरवाजे पर आये। दस्तक देने लगे। कोई दो मिनटों के बाद बत्ती जली। दरवाजा खुला। विधु की माँ बाहर आयी। फिर एक जोर का आर्तनाद वातावरण में व्याप गया- "सनेह के अम्मा, विधु नइखे आइल रे..." दीवारों ने उस आवाज को वापस लौटा दिया। नीरव सन्नाटे में एक धरधराती हुई गूँज काँधी - "विधु नइखे आइल रे..." फिर प्रोफेसर साहब धाराशायी हो गये। हम लोगों ने गौर से देखा, जमीन पर गिरते बक्त प्रोफेसर साहब के हाथों से छूटकर एक लाल शर्ट दूर सीढ़ियों पर जा गिरा है। दूसरी सुबह पता लगा, विधु ने आत्महत्या कर ली हजारीबाग छोड़ते वक्त वह सारा हिसाब साफ कर गया था!