समुद्र: एक प्रेमकथा / इला प्रसाद

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उसने जीवन में कभी समुद्र नहीं देखा था। और देखा तो देखती ही चली गई। अपनी छोटी-छोटी लहरों से हाथ हिला-हिलाकर पास बुलाता समुद्र... किनारों से टकराता, सिर धुनता, अपनी बेबसी पर मानो पछाड़ खाता समुद्र और अंत में सब कुछ लील जाने को आतुर, पागल समुद्र !

उसे लगा, समुद्र तो उसकी सत्ता ही समाप्त कर देगा। वह घबराकर पीछे हट गई।

लेकिन, तब भी समुद्र के अपने आसपास ही कहीं होने का अहसास उसके मन में बना रहा। बरसों। उसे लगता, अब समुद्र कहीं बाहर न होकर उसके अंदर समा गया है और वह एक भंवर में चक्कर काट रही है... विवृति उसकी नियति नहीं है।

वह रह-रह कर चौंकती। समुद्र उसके आसपास ही है कहीं। वह लौट नहीं आई है और न समुद्र उससे दूर है। फिर उसने पहचाना, समुद्र भयानक था लेकिन उसका उद्दाम आकर्षण अब भी उसे खींचता है। वह लौटने को बेचैन हो उठी।

उसने खुद को अर्घ्य-सा समर्पित करना चाहा।

लेकिन, ज्वार थम गया था। लौटती लहरें उसे भिगोकर किनारे पर ही छोड़ गईं। उसके पैर कीचड़ और बालू में सन गए।

समुद्र ने उसे कहीं नहीं पहुँचाया था। बस, मुक्त कर दिया था। मुक्ति का बोध उसे था लेकिन, उसने स्वीकारना नहीं चाहा। अब सचमुच समुद्र उसके अंदर भर गया था। वह चुपचाप, अकेले में लौटने को बेचैन, रोती-बिसूरती, अपने ही अंदर डूबती-उतराती, अपने पर पछाड़ खाती, किनारों से टकरा-टकराकर टूटती रही। फिर एक दिन उसने सुना,समुद्र में फिर तूफान आया था और किसी ने लहरों पर खुद को समर्पित कर अपनी नियति पा ली।

उसने महसूसा, उसके अंदर कुछ मर गया।

वह जानती थी, समुद्र में अब कभी तूफान नहीं आएगा...।