समूह भोज / दीपक मशाल
रोज-रोज के उसी एक जैसे खाने से ऊब गया था वह, महीनों से तो खाता आ रहा था वही रोटी और अचार। तभी तो जब आज सुबह माँ ने गाज़र का हलवा, तली हुई हरी मटर और पूड़ी टिफिन में रखी तबसे उसका मन पढ़ाई में ना था, बस इंतज़ार था कि कब मध्यावकाश हो और वह उन सब पकवानों का मज़ा ले। मध्यावकाश के समय पंक्तियों में बैठे सभी छात्रों ने जैसे ही भोजन मंत्र समाप्त किया कि मास्टर जी की कड़क आवाज़ ने अपने-अपने टिफिन को खोलने को बढ़ते हाथ रोक दिए। आदेश हुआ कि “आज वार्षिक सामूहिक भोज का दिन है। प्रेम और भाईचारा बढ़ाने एवं भेदभाव दूर करने के लिए ऐसे आयोजन आवश्यक हैं। इसलिए आज सभी का भोजन एक बाल्टी में एकत्रित किया जाएगा। फिर उसे मिश्रित कर सबमे बांटा जाएगा। जिसके हिस्से जो पड़ेगा उसे प्रेम से खाना होगा।”
वो हलवे और पूड़ी का लज़ीज़ स्वाद याद करते हुए उन्हें बाल्टी में समाहित होते देखते रहने के सिवा कुछ ना कर सका। एकबार फिर उसके हिस्से किसी और के यहाँ की बनी गली सी रोटी और अचार ही पड़ा। पानी पीने के बहाने उठते हुए उसने सबके हिस्से में पड़े भोजन पर एक नज़र डाली। मगर गाज़र का हलवा और पूड़ी किसी के पास ना दिखा, ना ही वो तली हुई हरी ताज़ी मटर। जाने क्यों उसकी नज़र अध्यापक कक्ष की ओर उठ गई जहाँ से ठहाकों की आवाजें आ रही थीं।