समृद्धि का रहस्य / रंजना वर्मा

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बहुत समय पहले की बात है सूर्य नगर नाम का एक राज्य था जिसके राजा का नाम सूर्य प्रताप था। राजा सूर्य प्रताप में उसके नाम के समान कोई भी गुण न था। वह अत्यंत क्रोधी तथा आलसी स्वभाव का था। उसके चारों और चापलूसों की भीड़ लगी रहती थी। लोग उसकी झूठी प्रशंसा करके पुरस्कार स्वरूप धन प्राप्त किया करते थे। राजा के आलसी होने के कारण उसके राजकर्मचारी भी आलसी और चापलूसी पसंद करने वाले हो गए थे और जब कर्मचारियों का यह हाल था तो प्रजा का तो वेसा हाल होना ही था।

आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। राजा के आलस्य के कारण धीरे-धीरे राज्य की समस्त खुशहाली समाप्त हो गई. चारों ओर गरीबी और भुखमरी छा गई. आलसी होने के कारण कोई भी खेतों, बाग-बगीचों में काम नहीं करना चाहता था। खेत उजड़ गए. बाग-बगीचे देखरेख के अभाव में नष्ट हो गये। राज्य और संपन्नता दोनों ही नष्ट हो गई.

एक दिन राज्य की बुरी स्थिति पर विचार करता हुआ राजा शिकार करने के लिए निकला। रास्ते में अपने राज्य की बुरी स्थिति देख कर वह बहुत दुखी और चिंतित हो गया। वह सोचने लगा कि किस उपाय से राज्य को फिर से संपन्न बनाया जाए किंतु कोई भी उपाय उसकी समझ में नहीं आ रहा था। विचारों में डूबा राजा रास्ते का ध्यान नहीं रख सका। वह अपने साथियों से बिछड़ गया।

बहुत दूर जाने पर जब उसे रास्ता भूल जाने का ज्ञान हुआ तब वह गोदावरी नदी के किनारे खड़ा था। नदी के उस पार उसका पड़ोसी राज्य चंद्रपुरी बसा हुआ था। यह नदी सूर्यनगर और चंद्रपुरी को दो भागों में बांटती थी। राजा ने अपना घोड़ा उसी नदी के किनारे एक पेड़ से बांध दिया। उसे प्यास लगी थी इसलिए नदी के पास जा पहुंचा। पानी पीने और हाथ मुंह धोने के बाद उसकी थकान दूर हो गई और वह स्वस्थ हो गया।

उसने अपने चारों ओर निगाह डाली तो थोड़ी दूर पर नदी में एक डोंगी पड़ी दिखाई दी। कुछ सोचकर वह उधर ही चल पड़ा। डोंगी में बैठकर वह उसे खेता हुआ नदी के दूसरे किनारे की ओर बढ़ गया। उसने सोचा शायद यहाँ उसकी समस्या का कोई समाधान मिल जाए. चंद्रपुरी की सीमा में पहुंचकर राजा ने नाव किनारे पर बांध दी और स्वयं नगर की ओर चल पड़ा। उसे पैदल चलने का अभ्यास नहीं था। अपने महल में वह अधिकतर पड़ा ही रहता था इसलिए थोड़ी दूर चलने पर ही वह थक गया। किंतु वहाँ रुकने के लिए कोई उचित स्थान नहीं दिखाई दे रहा था। वह अभी कुछ और आगे बढ़ा ही था कि तभी उसे चंद्रपुरी के सैनिकों ने घेर लिया। राजा सूर्य प्रताप द्वारा अपना परिचय देने पर वे उसे अपने राजा के पास ले गए.

चंद्रपुरी के राजा का नाम जैनेंद्र सिंह था। वह अपनी प्रजा को संतान के समान प्यार करता था। राज्य की सुख समृद्धि के लिए हमेशा वह प्रयत्नशील रहता था। राजा सूर्य प्रताप ने उसे देख कर कहा कि वह उससे मिलने आया है। राजा जिनेंद्र सिंह ने उसका बहुत सत्कार किया। उस रात राजा सूर्य प्रताप ने महल में विश्राम किया। दूसरे दिन उस के आग्रह पर राजा जैनेंद्र सिंह उसे अपना नगर दिखाने के लिए ले गए.

चंद्रपुरी के रास्ते साफ सुथरे थे। मकान लिपे पुते और अत्यंत सुंदर थे। पशु शालाओं में भी सफाई थी। सभी कर्मचारी काम में लगे हुए थे। हरे भरे खेतों में किसान काम कर रहे थे। फसलें लहलहा रही थी। बागों में फलों से लदे हुए वृक्ष झूम रहे थे। फूलों की क्यारियों में रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे। संपूर्ण नगर एक अद्भुत सुगंध से रचा बसा था। प्रत्येक मनुष्य के चेहरे पर मुस्कान और उल्लास था।

राजा सूर्य प्रताप का मन प्रसन्न हो गया। दिन भर वह घूमता रहा। शाम होने तक वह थक कर चूर हो गया। उस समय वे एक गांव के पास से गुजर रहे थे। सामने से कुछ लकड़हारे लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखे आपस में बातें करते जा रहे थे। राजा सूर्य प्रताप ने थकान प्रकट करते हुए विश्राम करने की इच्छा प्रकट की।

राजा जैनेंद्र सिंह ने कहा-

"महल तक लौटने में तो घड़ी भर चलना पड़ेगा। आप चाहे तो यही पास के गांव में चलें। लेकिन वहाँ राजसी सुविधाएँ नहीं मिलेंगी।"

राजा सूर्यप्रताप में अब थोड़ा भी चलने की शक्ति शेष नहीं थी इसलिए वह गांव में जाने के लिए तैयार हो गया। दोनों उन्हीं लकड़हारों के पीछे-पीछे चल पड़े। परिश्रम करने के कारण लकड़हारों के शरीर पसीने से भीगे हुए थे। उनके पीछे-पीछे चल कर वे दोनों गांव में पहुंचे।

गोधूलि का समय था ग्रामवासी जंगल से लौटने वाले पशुओं के लिए चारा पानी की व्यवस्था कर रहे थे। कहीं चारा काटा जा रहा था। कहीं गायों को दुहने के लिए बर्तन धोये जा रहे थे। कुछ घरों में चूल्हे जल रहे थे जिनका धुआं छप्परों से ऊपर उठ रहा था। वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो बेकार बैठा हो। राजा सूर्य प्रताप को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ।

उस रात वे गांव में मुखिया के घर में ठहरे। मुखिया ने दोनों राजाओं की बहुत आवभगत की। कुँए से पानी मंगाकर उनके हाथ पांव धुलवाए. ताजा गाय का दूध पीने के लिए दिया। दूध पीने से उनकी थकान दूर हो गई.

मुखिया ने हाथ जोड़ कर पूछा-

"महाराज! आप की रसोई जैसा भोजन तो यहाँ गांव में मिलना संभव नहीं है। आप आज्ञा करें तो कुछ खाने की व्यवस्था की जाए."

राजा जैनेंद्र सिंह बोले-

"मुखिया जी! यह हमारे पड़ोसी राज्य सूर्य नगर के राजा सूर्य प्रताप सिंह जी हैं और हमारा राज्य देखने आए हैं। इन्होंने आज यहाँ गांव में विश्राम करने की इच्छा प्रकट की है। मैं चाहता हूँ कि आप बिना किसी संकोच के अपनी रसोई में वही भोजन बनवाएँ जो आप लोग स्वयं खाते हैं। आज हम भी वही भोजन करेंगे।"

अपने राजा की बात सुनकर मुखिया बहुत प्रसन्न हुआ और भोजन की व्यवस्था करने चला गया। राजा सूर्य प्रताप ने सुबह कुछ फल ही खाए थे। दोपहर में सिर्फ़ पानी पिया था और अब मुखिया के घर दूध मिला था। वह भूख से बेहाल हो रहा था इसलिए जब रात में मुखिया ने उन्हें घी चुपड़ी मक्के की रोटी, अरहर की दाल और पालक का साग परोसा तो वह सारा संकोच और शिष्टाचार छोड़ कर भोजन पर टूट पड़ा। उसकी अधीरता देखकर राजा जैनेंद्र सिंह मुस्कुरा दिए. दोनों ने साथ-साथ भोजन किया और फिर वही छप्पर के नीचे सो गए. राजा सूर्यप्रताप को थकान के कारण बहुत गहरी नींद आई.

प्रातः काल उन्होंने राजभवन में लौटने की तैयारी की तो मुखिया हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

"महाराज! कोई भूल हुई हो या आप को असुविधा हुई हो तो उसके लिए हमें क्षमा करें।"

"नहीं मुखिया जी! हमें कोई असुविधा नहीं हुई. हम आपके सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न हैं। यह माला आपका पुरस्कार है। इसे ले लीजिए."

राजा जैनेंद्र सिंह ने अपने गले से मोतियों की बहुमूल्य माला उतार कर मुखिया की ओर बढ़ायी।

"नहीं महाराज!" मुखिया दो कदम पीछे हट कर बोला-

"मैंने आप लोगों की सेवा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए नहीं की थी। वह तो मेरा कर्तव्य था। आपके स्थान पर यदि कोई अन्य अतिथि होता तब भी मैं उसकी उतनी ही सेवा करता। महाराज! आप यदि प्रसन्न हैं तो इस गांव के उत्तरी छोर पर एक कुआं खुदवा दें क्योंकि यहाँ का एकमात्र कुँआ दक्षिणी छोर पर स्थित है। उत्तरी भाग में रहने वाले ग्राम वासियों को पानी लाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त मैं अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता। आपकी कृपा से और ईश्वर की दया से मेरी भुजाओं में परिश्रम करने की शक्ति है जिससे धरती माँ हमें सब कुछ दे देती है।"

मुखिया की बात सुनकर राजा सूर्य प्रताप चकित रह गया। उसके राज्य में बिना कुछ काम किए भी लोग पुरस्कार पाने के लिए लालायित रहते थे और यहाँ राजा पुरस्कार देने को तैयार है फिर भी कोई लेना नहीं चाहता।

दोनों मुक्तकंठ से मुखिया की प्रशंसा करते हुए राजभवन लौट आये। राजा सूर्य प्रताप ने राजा जैनेंद्र सिंह से एकांत पाकर पूछा-

"महाराज! आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यदि आप बुरा न माने तो उत्तर देने की कृपा करें।"

"अवश्य पूछिए महाराज! आप तो मुझे भाई के समान प्रिय हैं। आप को संतुष्ट करके मुझे प्रसन्नता होगी।" राजा जैनेंद्र सिंह ने कहा।

"मेरा राज्य आपके राज्य से बड़ा और समृद्ध था परंतु कुछ ही वर्षों में उसकी सारी समृद्धि नष्ट हो गई. आपके राज्य में मैंने सबको प्रसन्न और संपन्न पाया। आपके खेतों में अन्न, बागों में फल हैं जबकि मेरे खेत और बाग सब उजड़ गए हैं। मैं उन्हें फिर से हरा-भरा और समृद्ध करना चाहता हूँ। अतः बताएँ आपके राज्य की समृद्धि का क्या रहस्य है। मैंने आपके राज्य में एक अद्भुत सुगंध का अनुभव किया है। यह सुगंध खेतों में, बागों तथा कार्यस्थलों पर अधिक है। इसका क्या कारण है? कृपा करके स्पष्ट रूप से बताएँ।" राजा सूर्य प्रताप ने अपना प्रश्न पूछा।

उनकी बात सुनकर राजा जैनेंद्र सिंह हँस पड़े। वे बोले-

"बस। आप इतनी-सी बात के लिए परेशान हैं। महाराज! इसमें तो कोई भी रहस्य नहीं है। रहस्य यदि है तो उसे आप परिश्रम का रहस्य समझ लें। आप मेरी बात का बुरा न माने महाराज! सत्य यही है कि आप के राज्य की विपत्ति का कारण आप स्वयं हैं।"

"मैं? मैं अपने राज्य की विपत्ति का कारण हूँ? वह कैसे?" राजा सूर्य प्रताप ने आश्चर्य से भर कर पूछा।

राजा जैनेंद्र सिंह बोले-

" महाराज! आपने राज्य का समस्त कार्य राज्य के कर्मचारियों पर छोड़ दिया है और उनके कार्य का या राज्य की स्थिति का स्वयं निरीक्षण नहीं करते। इससे आपके कर्मचारी आलसी और कामचोर हो गए हैं। आप अकारण ही लोगों को पुरस्कार बांटते रहते हैं। इससे उनमें आलस्य के साथ-साथ लालच भी उत्पन्न हो गया है। राज्य कर्मचारियों के आलस्य और उपेक्षा से प्रजा भी काम नहीं करना चाहती। लोग परिश्रम से जी चुराते हैं। यथा राजा तथा प्रजा। प्रजा राजा का अनुकरण करती है। इन्हीं कारणों से आपका राज्य समस्या का कारण बन गया है। आप अपने राज्य में परिश्रम की प्रतिष्ठा कीजिए. मेरे राज्य में प्रजा परिश्रमी हैं लालची नहीं। वह स्वयं परिश्रम करके अपनी जीविका कमाती है। मैं स्वयं अपने राज्य की समस्याएँ सुलझाता हूँ इसलिए मेरा राज्य समृद्ध और खुशहाल है। मेरे राज्य में चारों ओर मेहनत के पसीने की सुगंध रची-बसी है। इस सुगन्ध के रहते कभी कोई विपत्ति नहीं आ सकती और राज्य की खुशहाली नष्ट नहीं हो सकती।

राजा जैनेंद्र सिंह की बातें सुनकर राजा सूर्य प्रताप सिंह को अपनी भूल का अहसास हो गया। वह राजा जैनेंद्र सिंह को धन्यवाद देकर अपने सूर्य नगर की ओर लौट पड़े।

अब वह प्रसन्न थे क्योंकि उन्हें समृद्धि का रहस्य ज्ञात हो गया था। अपनी भूलों को सुधार कर उन्होंने अपने राज्य को पुनः समृद्ध करने का दृढ़ संकल्प कर लिया।