सम्पादकीय / सितम्बर 2012 / युगवाणी
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यूं तो पीने को पानी नहीं है। उत्तराखंड के कई गांवों मेंपानी का अभाव पहाडों जितनी मुसीबत है, विशेषकर औरतो का जीवन बिताना भारी मुश्किल होता है। यहां की नदियों अपने पूरे विस्तार में हमें प्रायः दूर से ही दिखाई देती हैं। उनका पानी हमें उपलब्ध नहीं हो पाता। जिस तरह हर बरसात में पहाडों की मिट्टी बहकर नदियों के जरिये बाहर मैदानों को चली जाती है, उससे बहुत क्षति होती है। सिर्फ पत्थरों और चट्टानों से पहाड बने नहीं रह सकते। मिट्टी उन्हें जोडने का काम करती है। इस बारे में बहुत कम विचार हुआ है। इस बारे में नई युक्तियां सोचने का काम पहाडवासियों को ही करना होगा भूमि क्षरण को निश्चित तौर पर कम किया जा सकता है।
कई तरह के वृक्ष व अन्य वनस्पतियां पहाडों को मजबूती प्रदान करती हैं। कुछ चिपकने वाली बेलें जमीन या दीवार को कस कर पकडे रहती हैं। पुश्ते बनाने की तकनीक में भी कुछ शोध की जरूरत है क्योंकि यह महंगा और कठिन उपाय है। कमजोर पाखों और पुश्तों पर स्थित गांवों को जरूरी तौर पर खाली करवा देना भी जरूरी है। अपने निवासियों को खतरों में छोड कर मैदानों में आराम से बसर करना अनैतिक और गैर जिम्मेदाराना प्रवृति है। चकबन्दी लागू करके उन्हे उचित स्थानों पर पुनर्वासित किया जा सकता है। इसके लिये राज्य में नए कानूनों के बारे में विचार करना होगा।
पलायन कर गए लोगों की जमीनों और घरों के बारे में हमें सामाजिक तौर पर अवश्य सोचना जरूरी है। अभी तो हमारे पास उजडे हुये घरों गांवों और कृषि बागवानी योग्य जमीनों के व्यौरे भी उपलब्ध नहीं हैं इस वर्ष पानी के प्रकोप से उत्तरकाशी में जो क्षति हुयी है उसे ठीक होने में वर्षो का समय लग जाएगा।
उत्तराखण्ड में एक हिस्से में प्राकृतिक आपदा आती है तो हम सिर्फ अनुभव करते हैं क्योंकि मौजूदा पतनशील पूंजीवाद भितरधातों से अलग थलग होने को दीक्षित करता है और असुरक्षित करता है। उसे संगठित समाज और कर्मशील नागरिकों से बचकर ही अपनी सत्ता बनाए रखनी होती है। पहाडों का क्षरण एक बडा विषय है। सरकारों का विषय अब सिर्फ मुनाफा है। बडा दिमाग और दिल तो हमें अपनों में खोजना होगा।
चित्र सौजन्य: अशोक कुमार शुक्ला