सम्बंधो का दोहन / गोवर्धन यादव
"शीला, ये क्या हाल बना रखा है, तू खुश तो है न राकेश के साथ?" , "खुश तो हूँ, लेकिन मुझे अभी तक ढंग से खाना बनाना नहीं आया और राकेश है कि रोज़ नयी-नयी फ़रमाईशें करता रहता है, मैं कोशिश तो अपनी तरफ़ से करती हूँ, फ़िर भी सब गडबड हो ही जाता है, शुरु-शुरु में तो सब ठीक-ठाक रहा, गुलझर्रे उडाते रहे और होटल में खाते रहे, लेकिन रोज-रोज तो होटल नहीं जाया जा सकता है न! , समझ में नहीं आता कि क्या करुँ" , "तेरे पास अकल-वकल नाम की कोई चीज है भी कि नहीं," अकल तो है लेकिन,
"" सुन, मैं तुझको बतलाती हूँ, एक तीर से कितने शिकार किए जा सकते हैं, तू अपनी सास को बुलवाले अपने पास, उनके पास तो अनुभवों का पिटारा है, वे लजीज खाना पकाना जानती है, बस थोडी-सी उनकी तारीफ़ बीच-बीच में कर दिया करना, वाह मांजी, वाह, क्या कहने, आपके हाथों में तो जादू है वगैरह-वगैरह, बस समझो तेरा काम बन गया, शीला कि सहेली ने उसे समझाते हुए कहा।