सम्बंध क्या है? / कमलेश कमल
सम्बंध दुःख देते हैं 'या' सम्बंध से दुःख मिलता है' जैसी बातों को परीक्षण में उतारने से पहले यह तय कर लेना समीचीन होगा कि जिसे हम सम्बंध की संज्ञा से अभिहित करते हैं, वह है क्या? किसे कहेंगे सम्बंध?
सम्बंध क्या है? एक वाक्य में कहें, तो सम्बंध आपसी जुड़ाव से अवगत होने की अवस्था है। जब कोई जुड़ाव हो और उससे आप अवगत भी हों, तभी सम्बंध है, अन्यथा पूरी दुनिया और सब जड-चेतन आपसे किसी न किसी तरह जुड़े ही हैं। तार्किक रूप से कोई भी मनुष्य इस ब्रह्मांड के सभी चीजों से जुड़ा है, कुछ नहीं, तो भौतिकी के गुरुत्वाकर्षण के वैश्विक विधान से तो जुड़ा ही है। सम्बंध की परिधि में यह जुड़ाव तब आता है, जब व्यक्ति इससे अवगत हो, इसे स्वीकृति दे।
इसी विचारणा से तार्किक निष्पत्ति लें, तो जीवन भी एक सम्बंध ही है; क्योंकि अगर सभी सम्बंध (जड-चेतन) टूट जाएँ, तो जीवन ही नहीं बचेगा। आश्चर्य नहीं कि किसी भावुक व्यक्ति के जब कुछ महत्त्वपूर्ण सम्बंध टूटते हैं, तो वह मान लेता है कि सभी सम्बंध टूट गए और वह आत्महत्या या जीवन-अंत करने की सोचने लगता है। सम्बंध का संकुचन उसे सम्बंध की परिसमाप्ति महसूस होने लगता है, नहीं तो संसार में कई सम्बंध बाक़ी रहते हैं और फिर सम्बंध ही तो संसार है। जी हाँ, संसार को हम बाह्य सम्बंधों का समुच्चय कह सकते हैं।
संसार को हम ऐसा मान सकते हैं कि यह किसी भी प्राणी का उसके बाह्य से व्यवहार है और कुछ नहीं। यह व्यक्ति के समवेत सम्बंधों का प्रतिबिंब है। कहा जाता है कि कोई व्यक्ति कैसा है, इसका पता उसके सम्बंधों से लगता है कि वह कैसे लोगों के साथ उठता-बैठता है।
हम ऐसा कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति का सम्बंध वह दर्पण होता है, जिससे उसका व्यक्तित्व झाँकता है। इस तर्कदृष्टि से देखें, तो संसार की समस्याएँ वे समस्याएँ हैं, जिसे कोई प्राणी अपने सम्बंधों में पाता है, अपने बाहर के व्यवहार में पाता है और अगर इतनी निष्पत्ति उचित प्रतीत होती है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसकी समस्याओं का समाधान उसके ही अंदर है, इसके लिए किसी संयुक्त राष्ट्र संघ या विश्व न्यायालय जाने की ज़रूरत नहीं है।
सम्बंध की प्रकृति क्या है? प्रतीत होता है कि हर सम्बंध परस्पर निर्भरता और सहयोग पर आधारित होता है। जितनी अधिक निर्भरता और जितना अधिक परस्पर सहयोग, सम्बंध उतना ही प्रगाढ़। इसमें 'परस्पर' शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और सम्बंध का प्राण है। जैसे ही सम्बंध की परिभाषा से 'परस्पर' शब्द हट जाता है, सम्बंध कमज़ोर हो जाता है।
सम्बंध में असंतोष या दुःख की क्या वज़ह है?
देखा जाता है कि हर सम्बंध में 'परस्पर' संतोष, कृतज्ञता, आदि भाव विद्यमान रहते हैं, जो सम्बंध के होने का सुख देते हैं, जब यह सुख नहीं मिलता, असंतोष होता है और हम सम्बंध से छिटकने लगते हैं। यह सुख कब नहीं मिलता है? जब 'परस्पर' ग़ायब हो जाए जो कि स्वार्थ, अधिपत्य-भाव आदि के कारण ग़ायब हो ही जाता है।
इन सम्बंधों से हम क्या पाते हैं? सामान्य रूप में देखें, तो ऐसा लगता है कि इन सम्बंधों से हम प्रेम, ख़ुशी, कृतज्ञता, स्थायित्व, जीने की वज़ह आदि पाते हैं, पर तात्त्विक रूप से विचार करें, तो हम सम्बंधों के माध्यम से ख़ुद को ही पाते हैं।
जब सम्बंध आपसी जुड़ाव से अवगत होने की अवस्था है, तो यह स्पष्ट है कि अवगत होने की प्रविधि और इसका सामर्थ्य हम पर निर्भर करता है, हमारी चेतना पर निर्भर करता है। हम जैसे होंगे, वैसे ही महसूस करेंगे, उसी तरह जुड़ेंगे और अवगत करेंगे। ऐसे में, प्रतीत होता है कि अपने सम्बंधों के माध्यम से हम ख़ुद को ही पाएँगे... अपने विविध रूपों में।
हमारे अंदर व्यक्तित्व की विविध परतें, भावों के विविध जाल और आकांक्षाओं के, अनुभूतियों के विविध संस्तर होते हैं। इसी की प्रतिकृति के रूप में हमारे विविध सम्बंध होते हैं। जैसे भाव, वैसे सम्बंध। जैसे विचार, वैसे सम्बंध। जब अस्थिर करने वाले भाव और विचार प्रकट होते हैं, तब हम सम्बंध से बिदकने लगते हैं, प्रत्युत् तार्किक और मनोवैज्ञानिक रूप से देखें, तो क्या हमें इसका स्मरण नहीं रखना चाहिए कि अपने सम्बंधों के माध्यम से हम ख़ुद को ही पा रहे हैं?
प्रश्न उठता है कि सम्बंध कब दुःख देते हैं, या कहें कि किसी सम्बंध से हमें कब दुःख मिलता है? एक वाक्य में कहें, तो जब सम्बंध में निवेश से ज़्यादा निकासी हो, तो सम्बंध दुःख देने लगता है। एक दिन प्रेम से बात की और दस दिन ताना मार दिया, तो दुःख ही होगा। इसी तरह, एक दिन चिंता की, एक दिन हाथ में हाथ डालकर बैठे, एक दिन प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन किया और दस दिन उपेक्षा कर दी, नौकरी या व्यवसाय में भूल ही गए कि प्रेम भी देना है। ऐसा होने पर, प्रेम का कोष भी घटने लगता है। आग कम और धुँआ ज़्यादा निकलने लगता है।
तात्त्विक रूप से देखें, तो सम्बंधों में मिलने वाले दुःख का मूलभूत कारण यह है कि हम अपनी अच्छी आदतों को, अपने श्रेष्ठतम को अपना स्वभाव मानते हैं, जबकि दूसरों की बुराई को, उनके निकृष्टतम को उनका स्वभाव मानते हैं। यह विरोधाभास ही दुःख और तनाव को जन्म देता है। अगर हमने कभी-कभी झूठ बोला, कुछ छुपाया, या लोभ किया या किसी को छोटा-मोटा धोखा दे दिया, तो हम ख़ुद को ही यह समझाते हैं कि यह मज़बूरी थी, विवशता थी या हमारा असली स्वभाव नहीं था। हम यह मानते हैं कि हम तो लोगों की मदद करते हैं, लोगों से प्रेम करते हैं, हमारा असली स्वभाव तो बहुत ही अच्छा है। कोई छोटी कमी हमारा स्वभाव कैसे हो सकती है। अब इसके उलट दूसरों की कमी को ही हम उनका स्वभाव मानने लगते हैं। किसी की एक कमी पकड़ ली, तो उसी को उसका स्वभाव मान लेते हैं। एक बार पड़ोसी को गुस्सा करते देख लिया, तो गुस्से को उसका स्वभाव मान लेते हैं। एक बार पत्नी की झूठ दिख गई, तो झूठ बोलना उसका स्वभाव मान लेते हैं, यह भूल जाते हैं कि हम कितनी बार झूठ बोलते हैं, पर ख़ुद को झूठा नहीं मानते। अपने को जितनी छूट देते हैं, उतनी छूट दूसरों को और अपने सम्बंधियों को भी देने लगें, तो सम्बंध कभी कटु न हों, कुरूप न हों, कभी टूटें ही न।
सम्बंध में प्रगल्भ प्रेम मिले, स्निग्धतम स्नेह मिले, इसके लिए हमें कुछ ध्यान रखना चाहिए। व्यावहारिक रूप से देखें, तो जिनसे हम प्रीति रखते हैं, उनके प्रति भी ग़लती कर सकते हैं। ऐसा संभव है कि किसी कारण उनका दिल दुःख जाए। ऐसे में अहम्मन्यता का त्याग कर सरल बन जाना ही उपाय है। देखा गया है कि वास्तविकता के साथ और सच्चे मन से ग़लती मान ली जाए, तो रिश्ते मज़बूत होते हैं। इसके विपरीत अकड़ने से, झूठा दिखावा करने से या फिर धोखा करने से, प्रेम उड़न-छू हो जाता है और सम्बधों में दरार आ जाती है।
सम्बंधों को आत्मिक कहा गया है। सांसारिक, व्यावसयिक आदि सम्बंध तो बस जुड़ाव के कामचलाऊ नाम हैं। व्यवसाय हेतु जो जुड़ाव है, वह भी दिल से जुड़े, टिके इसलिए उन्हें भी सम्बंध कह दिया जाता है। तो, सम्बंध आत्मिक होते हैं जिनके द्वारा हम ख़ुद से ही जुड़ते हैं। ऐसे में, इन सम्बंधों की ताज़गी बनी रहे, इसलिए इनमें निवेश करना चाहिए। आँखें आत्मा कि खिड़कियाँ मानी गई हैं, तो इनसे झाँकते रहना चाहिए। साथ ही, ध्यान रहना चाहिए कि मौन-संवाद ही हृदय में गहरे उतरते हैं। व्यर्थ की व्यस्तता और व्यर्थ की बातों को विराम देकर कभी एक-दूसरे को निहार लिया, कुछ मौन संवाद कर लिया, तो प्रेम बहुगुणित हो जाता है और इससे बना सम्बंध लम्बी आयु को पा लेता है। सच तो यह है कि जहाँ प्रेम होता है, वहाँ संवाद भी स्वत: और तत्क्षण हो जाता है, कोई बाधा नहीं होती और फलत: कोई दुःख भी नहीं होता यही सम्बंधों के स्थायित्व का सूत्र है।