सम्बन्ध / राजेन्द्र यादव
शायद मरते वक्त वह खिलखिलाकर हंसा था, मन में पहला विचार यही आया। बाकी खोपड़ी कुछ इस तरह से जलकर काली पड़ गई थी, और आसपास की खाल कुछ ऐसे वीभत्स रूप से सिकुड़ी हुई थी कि सिर्फ बत्तीसी की सफेदी ही पहली निगाह में दीखती थी और बाकी चेहरा न देखो तो यही भ्रम होता था कि वह हंस रहा है। शायद ‘ममी’ का चेहरा भी ऐसा ही लगता होगा।
गेरू-पुती उस बिल्डिंग के बरामदे और फिर काली सड़क पर लोगों की भनभनाहट गुंथकर चंदोवे की तरह तन गई थी, जिसे संबंधियों और परिवार वालों का रोना-पीटना खंभों की तरह ऊपर उठाए था। सभी कोई चंचल और आंदोलित थे, लेकिन एक सकते से स्तब्ध। मैं पीछे वालों का आग्रह झेलता हुआ गर्दन ताने बीच के गोले में झांकते रहने में सफल हो गया था। लाल पत्थर की पेटियों वाले फर्श पर बीचोबीच, सफेद चादर से ढंकी वह लाश लेटी थी। चादर पर जगह-जगह खून और तेल के दाग लगे थे और वह मैली थी। अभी कोई अठारह-बीस साल की युवती उस पर दहाड़ मारकर रोते हुए गिरी थी और इससे विचलित होकर कुछ दुर्बल-हृदय मुंह मोड़कर भीड़ से बाहर निकलने के लिए छटपटाए थे, तभी मौका देखकर मैं भीतर घुस गया था। उस समय दो-तीन औरतें उसे, जो साफ ही मृतक की पत्नी थी, गोद में भरकर उस लाश से अलग कर रही थीं, इस प्रयत्न से चादर खिंच गई थी और लाश का चेहरा दीखने लगा था, जिसे पास ही उकडूं बैठे दो व्यक्तियों ने फिर ठीक कर दिया था। चादर की सिकुड़नें ठीक होते ही टूटी गहरी कत्थई चूड़ियों के टुकड़े सरककर लाश की अगल-बगल जमीन पर आ गिरे थे। चादर की बुनाई के रेशों में फैलकर कई सुर्ख दाग निहायत बेढंगे हो गए थे और यह जान पाना मुश्किल था कि चूड़ियों के टूटने से, कलाई से निकले खून के हैं, सिंदूर है या लाश के शरीर से निकले रक्त के पहले के दाग हैं। छूकर देखने से ही पता चलता कि ताजे हैं या पुराने, देखने में ताजे ही लगते थे।
...या तो मरते वक्त वह खिलखिलाकर हंसा था या हंसते-हंसते मरा था, मैं अभी भी यही सोच रहा था। लेकिन दोनों में से एक भी बात की संभावना नहीं थी। स्तब्ध और चुप रहकर देखता रहा। वीभत्स और भयानक का भी अपना एक सम्मोहन होता है, ठीक अश्लीलता की तरह-मन की बनावट और संस्कार विद्रोह करते रहते हैं, लेकिन कुछ है जो बांधे रहता है। आंतक, आशंका या दृश्य की भयानकता के कारण एक मितली-सी बार-बार उठकर गले तक आ जाती थी...लेकिन लगता था, जैसे बाहर के दृश्य का सारा अरुचिकर मेरे भीतर उतर आया है और दिमाग में एक के ऊपर एक काटती आवाजें एक के ऊपर एक फेंकी जा रही हैं-विभिन्न कोणों से फेंके भालों की तरह...
‘‘हटो, हटो...इस तरह लदे क्यों आ रहे हो?’’ कभी-कभी कोई सिपाही, सफेद लंबा कोट पहने अपने अस्पताल की नर्स या कोई नीली वर्दीधारी कर्मचारी डांटकर भीड़ को पीछे ठेल देता...भीड़ एक औपचारिक ढंग से पीछे हटती और फिर वही दमघोंटू घेरा संकरा होने लगता।
दोनों घुटनों पर कुहनियां रखे, सामने की ओर हाथ फैलाए बैठा सूनी भावहीन नजरों से कहीं भी न देखता आदमी या तो लाश का बाप है या पंद्रह-बीस वर्ष बड़ा भाई, यह किसी के बताए बिना भी साफ था। सांवले चेहरे पर सफेद-सफेद झाग-जैसे बाल थे, यानी हजामत कई दिनों से नहीं बनी थी और मटमैली आंखों में लाल डोरों का जाल था, नीचे के पपोटों में गोलियां-जैसी लटक आई थीं। सिर पर खिचड़ी बालों के बीच छोटा-सा गंज-द्वीप था, चेहरे पर खून नहीं था। कमीज और धोती पहने इस तरह बैठा था, जैसे कोयलों के जल जाने के बाद राख का आकार रह गया हो और जरा छूने से ही ढह जाएगा।
‘‘पांच साल पहले इसका बड़ा लड़का पानी में डूबकर मर गया था...।’’ किसी ने बताया, ‘‘क्या किस्मत का खेल है...! दो लड़के थे और दोनों ही नहीं रहे...।’’ अब मेरी समझ में आया कि वह बाप ही है। किसी दफ्तर में हैड-क्लर्क है।
‘‘हाय...हाय...!’’ सुनने वाले ने बड़ी गहरी सांस ली, ‘‘हे भगवान, कैसी मिट्टी बिगड़ी है बुढ़ापे में, रिटायर होने में पांच-सात साल होंगे...।’’
मैं भी यही सोच रहा था। पूछा, ‘‘लड़के की उम्र क्या थी?’’
‘‘अजी कुछ भी नहीं, मुश्किल से बाईस-तेईस साल का होगा...पिछले जाड़ों में ही तो गौना हुआ था...।’’ सफेद छल्ले वाले माइनस-सात के कांचों में आंखें मिचमिचाकर उस व्यक्ति ने बताया। जरूर चश्मा उतारने के बाद उसे तलाश करने में इसे बहुत दिक्कत होती होगी।
पता नहीं इन लोगों का मानसिक स्तर कैसा है, विधवा-विवाह करेंगे भी या नहीं? इनका पता ले लें तो बाद में विधवा-विवाह के तर्क में कोई अच्छी-सी किताब पोस्ट से भिजवाई जा सकती है। मैंने सोचते हुए मानो इसी निगाह से बीच की खुली जगह के किनारे एक बुढ़िया की गोद में पड़ी बहू को देखा, उसकी साड़ी जमीन पर बिखरी थी, हरे ब्लाउज के बटन खुल गए थे, लेकिन उसे शायद होश ही नहीं था...चेहरे पर पसीने, आंसुओं और बिखरे बालों का ऐसा गुंजलक चिपक गया था कि पता ही नहीं लगता था-मुंह नीचे की ओर है या ऊपर...बुढ़िया ने उसे इस तरह गोद में भर रखा था कि जैसे वह छूटकर फिर लाश पर जा गिरेगी...बाद में यही बुढ़िया इसे गालियां दिया करेगी, बर्तन मंजवाएगी और कपड़े धुलवाएगी। मेरा अनुमान गलत था।
मां जमीन पर सिर फोड़-फोड़कर रो रही थी और देवी चढ़ आने पर झूमने वाली चुड़ैल जैसी लगती थी, सारे वातावरण में उसी की बोली लगातार और ऊंचे स्वर में सुनाई पड़ती थी, बाकी बोलियां किधर से आ रही थीं, यह जानना मुश्किल था। उसका गला बैठ गया था और उसकी आवाज से कभी-कभी कुत्ते और गाय की बोली का भ्रम होता था, ‘‘हाय...हाय, अब मैं किसके लिए जिऊंगी...इस बिचारी को किसके लिए छोड़ गया बेटा...इनसे कहा था-रुपये दे आओ, रुपये दे आओ, अब रुपयों को छाती पर रखकर ले जाना...अरे, मेरे जवान-जमान बेटे को चीर डाला इन डॉक्टरों ने...अरे इनके बेटे भी इनकी आंखों के सामने यों ही मरेंगे...’’ वह लंबी लय के साथ रो रही थी। मैंने सोचा, ये औरतें रोते हुए गाती हैं और गाने में रोने की बातें करती हैं।
तभी किसी बड़ी-बूढ़ी ने उसे टोक दिया, ‘‘अरी, पता नहीं किस जनम के सराप का फल तो तुम अब भोग रही हो कि ज्वान-जमान बेटे यों उठ गए। अब क्यों किसी को कोसती हो? जरा-सा धीरज धरो।’’
‘‘अरे, मैं कहां से धीरज धरूं...? मेरे दोनों पाले-पनासे बेटे चले गए...हाय, हाय जरा इंजेक्शन लगवाओ, अभी तो सांस बाकी है...अब कौन सुबह उठकर जलेबी की जिद करेगा...कौन मेरे हाथ-पांव दबाकर सिनेमा के पैसों के लिए खुशामद करेगा...अभी तो शादी की हल्दी भी बदन से नहीं उतरी है...’’ और उसने फिर झपटकर चादर के नीचे से लाश का काला पड़ा हुआ हाथ निकाल लिया और उसे अपनी छाती से चिपकाकर जमीन पर बिखर-बिखरकर रोने लगी...
लाश पर एकाध आदमी यों ही हाथ से हवा कर देता था, जैसे मक्खियों को हटा रहा हो। फैलती बदबू से लगता था कि कई दिनों पहले मरा है। मैंने मन को दिलासा दिया कि बेचारी मां का दिल है, उसे तो एक-एक बात याद आएगी ही और वह यों ही जिंदगी-भर रोएगी। आसपास की दो-एक औरतें लय बांधकर रोने के बीच में ही कभी-कभी बोल देती थीं, ‘‘अरे, मुझसे आकर बोला था-चाची, बहुत दिनों से तुम्हारे हाथ का सरसों का साग नहीं खाया है... हाय, अब मैं किसे खिलाऊंगी...’’ मैंने सोचा, घर के रोने वाले लोग काफी कम हैं। शायद अभी सब लोगों तक खबर नहीं पहुंची है या हो सकता है, ये ही इस नगर में नए हों...अभी तो मुहल्ले-पड़ोस के लोग ले-दे भागे आ रहे हों...शायद तय नहीं कर पाए होंगे कि कौन-से कपड़े पहनें, पीछे कौन रहे या किसका वहां होना ज्यादा जरूरी है, अस्पताल जाएं या सीधे श्मशान ही पहुंचे। कपड़ा ढंकी लाश कैसी आतंकास्पद लगती है...मैं जरा पीछे हट आया, एक तो पीछे के दबाव को संभालना कठिन हो गया था, दूसरे, बहुत देर खड़े रहने से घबराहट होने लगती थी...मान लो, लाश की जगह मैं होता तो आसपास रोनेवालों में कौन-कौन होते? इस विचार से सामने के गमगीन लोगों के चेहरों की जगह मुझे अपने एक-एक परिचित का चेहरा याद आने लगा; कल्पना बहुत ही कष्टदाई लगी। मैंने सोचना बंद कर दिया और बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने लगा।
‘‘यों समझो, गोद-गोदकर मारा है।’’ भीड़ के बाहरी सिरे पर अस्पताल का जमादारनुमा आदमी बता रहा था।
‘‘लेकिन बदन तो ऐसा काला पड़ गया है जैसे जल गया हो!’’ किसी ने पूछ लिया।
‘‘अरे, धूनी दी होगी। ऊपर पेड़ से लटकाकर नीचे से आग जला देते हैं। देखा नहीं, चेहरा कैसा बैंगन की तरह जल गया है!’’ तीसरे ने बताया।
‘‘सुनते हैं, चिट्ठी आई थी, दस हजार फलानी जगह पहुंचा दो, वरना लड़के को जिंदा नहीं छोड़ेंगे। पुलिस को खबर की तो खैर नहीं है...।’’ आधी बांहों की कमीज और नेकर पहने साइकल लिए एक भारी-से सज्जन जिस अधिकार से बता रहे थे उसी से लगता था कि एक ही मुहल्ले के हैं, ‘‘उनको खबर लग गई होगी कि पिछले साल ही गौना हुआ है, सो नकदी सोना कुछ-न-कुछ तो होगा ही...’’
‘‘किसी ने खबर कर दी होगी,’’ धूप से आंखों की आड़ करते हुए दूसरे ने राय दी।
‘‘अरे साहब, उनके मुखबिर सब जगह लगे होते हैं, मिनट-मिनट का हाल उन तक पहुंच जाता है...।’’ हम दोनों ने एक-दूसरे को इस तरह देखा कि हम में मुखबिर कौन है?
‘‘हां साहब, फिर...फिर क्या हुआ?’’ इन बेकार की बातों के बीच में आ जाने से झल्लाकर किसी बेचैन श्रोता ने सवाल किया।
‘‘फिर क्या?’’ वे सज्जन बताने लगे, ‘‘दो-तीन दिन तो बेचारों ने इसी सोच-विचार में निकाल दिए कि रुपयों का इंतजाम करें तो करें कैसे? पंद्रह-बीस साल की नौकरी हो गई तो क्या हुआ? तुम तो जानते हो, आज के जमाने में इतना रुपया है किसके पास? फिर कोई सेठ-साहूकार हों तो बात दूसरी है। नौकरी-पेशा आदमी बेचारा महीने के खर्चे ही कैसे पूरा करता है, हम जानते हैं। जितना सोचा था, लड़के की शादी में उतना मिला नहीं। जो जोड़ा था, वह लड़कियों की शादी में लगा चुके थे-ऊपर से कर्जा और था...मगर साहब, लड़के की जान का मामला ठहरा...हाथ-पांव जोड़कर, किसी तरह मांग-जांचकर रुपये जमा किए, फिर किसी हम-तुमवार ने समझा दिया होगा या पता नहीं क्या दिमाग में आई कि चुपके से पुलिस में जाकर खबर कर दी...’’
‘‘च्च् च्च् हरे राम-राम!’’ कई एक साथ बोले, ‘‘बस, यही गलती कर दी...अरे भाई, पुलिस वाले साले तो ये सब कराते ही हैं। उनसे मिले रहते हैं। और इस तरह के, उठाकर ले जाने वाले डाकू तो समझो, बड़े चौकन्ने होते हैं। जहां उन्हें ऐसा कुछ शक हुआ कि फिर तो बोटी-बोटी काट देते हैं...पिछली बार सुना नहीं था...’’
काफी भीड़ इधर ही मुड़ आई थी और सांस रोके यह किस्सा सुन रही थी। बात किसी और किस्से में बह जाएगी, इस अधीरता से झल्लाकर किसी ने नेकर वाले से पूछा, ‘‘तो फिर...फिर क्या हुआ?’’
‘‘बस साहब, ये रुपये रख आए और पुलिस ने मोर्चा साध लिया...घंटा, दो घंटा, तीन घंटा...कोई रुपये लेने ही नहीं आया।’’
‘‘कोई नहीं आया?’’ भीड़ में सामने वाले ने पूछा।
‘‘उन्हें तो पता लग गया न...वो क्यों आते?’’ नेकर वाला बोला, ‘‘दूसरे दिन ही चिट्ठी आ गई कि आपने हमारे साथ धोखा करके पुलिस को खबर कर दी, अब हमारा कोई दोष नहीं है...’’ यहां सुनाने वाले ने गहरी सांस ली, ‘‘सो बेचारे को मार-मूरकर कल रात को नाले पर डाल गए...यों देखो कि एक-एक इंच पर चोट के निशान हैं...।’’
‘‘और रही-सही कसर, पोस्टमार्टम के नाम पर डॉक्टरों ने पूरी कर दी।’’ किसी ने जोड़ा। शायद सभी का यही खयाल था कि पोस्टमार्टम या डॉक्टरी-रिपोर्ट का अर्थ एक-एक अंग चीर-फाड़कर देखना है।
सारी भीड़ पर नए सिरे से एक आंतक का आलम तारी हो गया...और जैसे सब अपने-अपने बच्चों की बातें सोचने लगे। पहला खयाल मुझे भी यही आया, चलो अच्छा है, मेरे बच्चे यहां नहीं हैं; फिर सोचा, लेकिन ऐसे दल तो वहां भी होंगे। आज ही चिट्ठी लिखूंगा-बच्चों को एकदम बाहर मत निकलने देना...
‘‘पहली चिट्ठी तो लड़के के हाथ की ही लिखी बताते हैं।’’ किसी ने कुछ देर से छाई दमघोंटू चुप्पी को तोड़ा।
‘‘मार-मारकर लिखवाई होगी।’’ समझदारी से, मुंडासा बांधे एक नंबरदार-जैसा आदमी बोला, ‘‘इन लोगों को दया-माया थोड़े ही होती है...’’
ऐसे समय क्या बोलना चाहिए, यह तय करना बड़ा ही मुश्किल है। मैंने समझदारी से कहा, ‘‘वो तो कहो, लड़का था, सो मार दिया; लड़की होती तो पता नहीं बेचारी की क्या दुर्गत करते...किसके हाथों कहां जा बेचते...’’ लेकिन शायद यह मन-ही-मन कहा, क्योंकि किसी पर कोई असर नहीं हुआ। वही मुंडासे वाला समझा रहा था, ‘‘ऐसा वक्त आ गया है कि आदमी चोर-डाकू न बने तो क्या करे? गेहूं साठ रुपये मन हो गया है, खाना-पीना मिलता नहीं। बरसों इस दफ्तर से उस दफ्तर में चक्कर मारो, नौकरी को कोई पूछता नहीं। अभी तो और होगा, तुम देखते रहना।’’ मैंने उसे गौर से देखा-कहीं यह व्यक्ति भी तो डाकुओं में से नहीं है। वे इसी तरह आदमियों को भेज देते हैं और सारी जानकारी इकट्ठी करते रहते हैं...उसकी बात पर जो आदमी सबसे अधिक मुग्ध-भाव से सिर हिला रहा था वह बिना क्रीज, गंदी पतलून, बनियानहीन कमीज में अधेड़-सा दिखाई देता था। या तो वह खुद बेकार था, या उसका बेटा-भाई काफी दिनों से बेकार बैठा था, मैंने अनुमान लगाया।
अब भीड़ डाकुओं के किस्सों और उसके कारणों में भटक गई थी। उस क्षण शायद सबका ध्यान पास पड़ी लाश और रोते हुए घर वालों की तरफ से हट गया था। लाल बिल्डिंग की आड़ में धूप से बचकर खड़े-खड़े मैं तय नहीं कर पाया था कि अब यहां खड़ा रहूं या चल दूं। बड़ी देर कोशिश करने पर भी याद नहीं आया कि मुझे जाना किधर है। अब यहां तो होना-जाना कुछ नहीं है। हालत बहुत बुरी होती जा रही है, आदमी का सुरक्षित चलना-फिरना मुहाल हो गया है। चलते-चलते मैंने उससे कहा, ‘‘लेकिन इस तरह आदमी को जान से मार डालने से उन्हें क्या मिला? रुपया तो मिला नहीं, उल्टे एक आदमी जान से हाथ धो बैठा।’’
‘‘अब आगे कोई पुलिस में खबर देने या मांगा हुआ रुपया न देने से पहले कई बार सोचेगा तो सही।’’ उसने तड़ाक्-से जवाब दिया। हां, यह बात भी काफी वजनदार है, मैंने सोचा और जगह छोड़ने से पहले मन में प्रलोभन आया, एक बार उस लाश को भी देखता चलूं, हालांकि जानता था-वहां ऐसा नया कुछ भी नहीं है। दो आदमियों के बीच में से जगह बनाकर भीड़ में घुसा तो फिर वही घेरा था...वही लाल-पत्थरों के फर्श पर पड़ी पतली-सी लाश थी और चार-पांच रोने वाली औरतों की आवाजें थीं, आंखों पर कुहनियां रखे रोते पुरुष थे और राख की तरह बैठा ‘बाप’ था...सामने पड़े उस व्यक्ति को अपने से तोड़ लेने की कोशिश में ये लोग कैसी भीषण शारीरिक-मानसिक यातनाओं से गुजर रहे थे...मैंने दार्शनिक ढंग से सोचा। मान लीजिए, किसी जादू से वह उठकर बैठ जाए तो शायद फिर से अपने-आपको इसके साथ जोड़ने में भी इन्हें इतनी ही तकलीफ होगी...और मैं भीड़ से निकलकर लौटने को ही था कि एक और घटना हो गई और सारी भीड़ बड़े ही विचित्र भाव से आंदोलित हो उठी...स्प्रिंगवाला स्विंग-दरवाजा खोलकर नीचा सफेद कोट पहने पहले वाले डॉक्टरनुमा आदमी ने निकलकर बिना किसी को संबोधित किए पूछा, ‘‘तुम्हारे बेटे का नाम हरिकिशन था न...?’’
हरिकिशन हो या चरनराम, अब क्या फर्क पड़ता है? मैंने सोचा ही था कि किसी ने कराहते-से ढंग से कहा, ‘‘हां बाबू जी, हरिकिशन ही था...’’ कहने वाला बाप नहीं था। शायद ये लोग अपनी कोई खानापूरी करने को पूछ रहे हैं।
‘‘उसके ऊपर वाले होंठ पर चोट का निशान था?’’ डॉक्टर ने फिर निराकार सवाल किया।
‘‘हां जी...हां जी,’’ जरा देर को सहसा औरतों व आदमियों का रोना रुक गया, इस उम्मीद में कि शायद डॉक्टर कोई ऐसा समाचार देगा कि सारा दुख बदल जाएगा...’’
‘‘देखो, यह लाश गलती से आ गई है। नबंर गड़बड़ हो गया था। तुम्हारे बेटे की लाश दूसरी है। यह तो भट्टी में जलने का केस था...’’ डॉक्टर ने निहायत ही मशीनी ढंग से कहा और दरवाजा छोड़कर भीतर हटा ही था कि नीले गंदे-से नेकर-कमीज पहने दो आदमी आगे-पीछे एक नई स्ट्रेचर उठा लाए...
जैसे किसी नाटक का दृश्य हो, सधे हाथों से उन्होंने स्ट्रेचर जमीन पर रखी, एक ने सिर और दूसरे ने पांव से उठाकर लाश को जमीन पर लिटाया तो दो-एक ने बड़ी तत्परता से बीच में हाथों का सहारा दिया...अब दो लाशें बराबर-बराबर लेटी थीं। फिर उन्होंने उसी रिहर्सल किए गए ढंग से पहली लाश को टांगों और सिर की तरफ से उठाकर स्ट्रेचर पर रखा, पीछे की ओर घूमकर स्ट्रेचर के हत्थे पकड़कर घूमे, उठे और झटके से मोड़ लेकर अंदर की ओर चल दिए...शायद लाश भारी थी।
किसी ने नई लाश की सफेद चादर बहुत ही डरते-डरते जरा-सी उठाई...और रोना-धोना एकदम नए सिरे से शुरू हो गया...बांहों में बंधी ‘बहू’ नए सिरे से छूटकर लाश पर जा गिरी और छाती पर सिर मार-मारकर रोने लगी। मां जमीन पर पहले की तरह सिर फोड़ रही थी, बाल नोंच रही थी; बाप ने नए सिरे से सिर पर हाथ मारा था और पहले से भी ज्यादा ढेर होकर बैठ गया था...पृष्ठभूमि का रुदन-संगीत उसी गति से चलने लगा था।
स्ट्रेचर ले जाते हुए दोनों जमादारों ने जाली खुले दरवाजे में जाकर गुटके हटा दिए थे और दरवाजे भट्-भट् करके बंद हो गए थे...निगाह फिर बीच की लाश पर लौट आई...औरतें बहू को हटा रही थीं और लोग चादर को पकड़े थे कि बहू को हटाने में खिंची न चली आए। टूटी चूड़ियों के जमीन पर बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ पाना बड़ा मुश्किल था कि ये अभी-अभी टूटे हैं, क्या पहली लाश पर टूटे थे...मेरी इच्छा हुई कि एक बार जरा-सी चादर हटे तो देखूं कि क्या इस चेहरे पर भी दांत उसी तरह लगते हैं? किसी ने कहा था, ‘‘हमें तो पहले ही लगा था...’’
दूर सड़क पर एक चिचियाती आवाज देर तक पीछा करती रही-‘हाय मेरे बेटे...!’ लेकिन उसमें अब पहले जैसी ‘उठान’ नहीं थी।