सम्भावना की खोज / सुशील यादव
वे ढूंढने में माहिर हैं, खोजने में उस्ताद।
ढूढने और खोजने की प्रबल प्रवित्ति के बल पर हम आज कहाँ से कहाँ पहुच गए? आगे कहाँ पहुचेंगे कुछ कह नहीं सकते, मगर हाँ ; कोलंबस अगर अमेरिका नहीं ढूंढता तो हम ओबामा और ओसामा नाम के प्राणियों से परिचित कहाँ हो पाते?
अखबारों की बिक्री कम हुआ करती।
हमारे पडौसी मुल्क को, अमेरिका के बिना, कर्जा कौन देता? उनकी गाडी खीचने वाला, खुदा या उनकी नय्या पार लगाने वाला नाखुदा जाने कौन होता ?
बात उनकी हो रही थी, जो, वाजिब –गैर वाजिब, हर चीज को ढूढ़ के पैदा करके रख देते हैं।
वो आजकल अपने खोजी नजरिए के कारण, अपनी पार्टी के थिंक-टेंक बने हुए हैं।
पार्टी को सत्ता-काबिज कराने के हजार नुस्खे हैं उसके पास।
उंनको संभावना तलाश करने में चुटकी –भर का समय लगता है।
बड़े से बड़ा, नेता के निधन हो जाने पर उसके उठावने से पहले वे सब्स्टीट्युट ढूंढ के रख देते हैं।
मायूस होके यूं कहेंगे; उनके निधन से राष्ट्र ने एक सच्चा सपूत खो दिया है, जिसकी भरपाई मुश्किल है। हमें देश को एक नई उचाई पर ले जाना है, आओ हम युवा नेतृत्व या /साफ-सुथरी छवि वाले किसी दलित नेता को उनके छोड़े हुए काम को आगे बढाने की जिम्मेदारी डाल कर देश को नई दिशा देने की सोचे।वे, साफ दलित या युवा की तरफ इशारा कर के खिचड़ी पका चुके होते हैं।
उनमें खासियत है; कि उनका आदमी लाख घोटाला कर आयें वे उसे देश के हित में सच्चा साबित कर देते हैं। इतना ही नही, किसी विपक्षी-नेता की साजिश करार देके, वे घोटालेबाज को हीरो साबित करने में एडी –चोटी एक कर दिए होते हैं।
वे योजनाओं का अक्षय –भण्डार लिए फिरते हैं। आदमी को काम बाटने में उनके मुकाबले कोई नहीं ठहरता।
कब कौन, पद यात्रा कर के वोट बैंक बढ़ाएगा ?
किसको मंदिर के मामले में कितना बोलना है ?
कौन जल के बटवारे, हवा के प्रदूषण,किसान की जमीन, मजदूर के पेट को नाप कर हंगामे दार हो सकता है वे अच्छी तरह से जानते हैं।
कौन, सत्ता-पक्ष के, किस नेता की मुखालफत, छीछा –लेदर का काम देखेगा ?कौन कब चुप रह के तमाशा देखेगा ये सब उनके एजेंडे का कमाल होता है।
वे हवा बनाए रखने के लिए, दूसरी तमाम पार्टी के चुनावी घोषणा –पत्र पर पी.एच .डी. किए रहते हैं।
किसने वादा निभाया, कौन मुकरा? वे सभी को, जनता के सामने बे-लिबास करने में पारंगत हैं।
लेपटाप, टी.व्ही. देने वाले, गरीब को एक रूपए में चावल, पाच रु में भरपूर खाना, स्कूली शिक्षा मुफ्त, स्कूल में खाना, किताब-कपडे सब मुफ्त , किस्सा-कोताह ये कि आप केवल बच्चे पैदा कर दो आगे सरकार देख लेगी।
उन्हें इन्ही फार्मूलों को, ‘राजनीति की गीता’ के बतौर लेकर पढते -बढते देखा गया हैं।
वे बी.पी.एल वालों को कम से कम चुनाव होते तक भूखा-नंगा किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकते।
उनका बस चले तो वे अपनी चमडी के जूते बी.पी एल वालो के पाँव में डाल दें।
अपने एजेंडे में, सेक्युलर होने का दम भरना, वे उसी तरह जानते हैं जैसे एक बेजान हिन्दी –फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर सलीम और जावेद को बुला कर दमदार डायलाग डाल दिया जावे। माइनोरिटी के नाम पर उनको लगता है, दस-पांच सीट की गुन्जाइश कर दो, भाषण में एक –दो पैरा डाल दो वे खुश हो लेंगे। वोटो का अंबार लग जाएगा। इतना कर के, वे इस तरफ से चिंता-मुक्त से नजर आते हैं।
उनके बारे में कहा जाता है कि, वे सपना कभी नही देखते। पार्टी –जन उनके बहकावे में, देखे हुए सपनों को आ-आ के बताते हैं। उन्हें लगता है सब प्रभु इच्छा के बाद उनकी मर्जी से, उनके लिए हो रहा है। वे मंद –मंद मुस्कुरा लेते हैं।
बेचैनी कभी ज्यादा हो जाती है तो वे रामलीला मैदान की तरफ बिना किसी को बताए चल देते हैं। पब्लिक के सामने शपथ ग्रहण करने की, इससे अच्छी जगह उंनको कोई नजर नही आती।