सम्मान / रघुविन्द्र यादव
"तुम तो बड़े संवेदनहीन और स्वार्थी हो रे कुम्हार! पहले मुझे बुरी तरह पीटते हो, रात भर पानी में भिगोते हो और फिर पैरों से रोंदते हो। चाक पर चढ़ाकर अपने हाथों से कुचलकर मन चाहा आकर देते हो। इतने से भी तुम्हें चैन नहीं आता तो फिर मुझे हाथ का सहारा देने का ढोंग करते हुए चोट पर चोट मारते हो और अंत में सारी हदें पार करते हुए मुझे आग में झोंक देते हो। जिससे मैं टूटकर जुड़ने का अपना गुण भी खो देती हूँ।" मिट्टी ने शिकायत की।
"कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। महत्त्वपूर्ण बनने के लिए कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। जब मैं तुम्हें कुल्हड़ का रूप देता हूँ तो लोग तुम्हें अपने लबों से लगाते हैं। जब किसी देवी देवता का रूप देता हूँ तो लोग तुम्हें शीश झुकाते हैं। खिलौने का आकार देता हूँ तो बच्चे सीने से चिपकाए घूमते हैं। घड़े का आकर देता हूँ तो नवयौवनाएँ सिर पर उठाये घूमती हैं अन्यथा तो तुम पैरों से ही कुचली जाती हो। कष्ट तो मुझे भी बहुत होता है, तुम कह देती हो मैं कह नहीं पाता। तुम्हें खोदते वक़्त मेरे हाथों में छाले पड़ जाते हैं, तुम्हें रोंदते हुए मेरे पैर बिवाइयों से भर जाते हैं, तुम्हें पकाते मेरे हाथ जल जाते हैं फिर भी तुम्हें मैं संवेदनहीन लगता हूँ। यह तुम्हारा अज्ञान है। सच तो यह है कि हम एक दूसरे के पूरक है। तुम्हारा तन और मेरा श्रम मिलकर ही सम्मान पाते हैं।"
मिट्टी को जैसे ही बात समझ आई कुम्हार के पैरों से लिपट गयी।