सम्मान / शोभना 'श्याम'
सभी भाई बहन और उनके पति एवं पत्नियाँ बैठक में जमा थे। अस्सी वर्षीय मनोरमा जी अपने पीछे भरा पूरा कुनबा छोड़ गयीं थीं। भगवान की दया और कंस्ट्रक्शन के काम के चलते परिवार में धन की भी कोई कमी नहीं थी। सो मनोरमा जी की पहली पुण्य तिथि को उनके तीनों बेटे और दोनों बेटियाँ भव्य और यादगार बना देना चाहते थे।
सुबह एक हवन और ब्रह्म्म-भोज तो पहले से ही तय था। चूँकि मनोरमा जी इधर कुछ वर्षों से कविता आदि भी लिखने लगी थी, सो उनकी आत्मा को सुख पहुँचाने हेतु उनकी स्मृति में एक काव्य-संध्या रखने का प्रस्ताव हुआ, जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह भी तय हुआ कि काव्य-संध्या के उपरांत एक शानदार प्रीति भोज रखा जाये। जिससे, जो दूरस्थ मित्र एवं रिश्तेदार सुबह ब्रह्म्म भोज में न आ सके, वे शाम को काव्य-संध्या के बाद इस शानदार दावत का आनंद लें और मनोरमा जी के बच्चों के मातृ-प्रेम की सराहना कर सकें।
इक्कीस ब्राह्मणों के लिए दक्षिणा में एक जोड़ी कपड़ों के साथ बीस-बीस ग्राम का चाँदी का सिक्का भी सर्व सम्मति से तय हो गया। काव्य-संध्या के लिए शहर के सबसे अच्छे और बड़े सभागारों में से एक का नाम निश्चित किया गया और यह भी कि सभी रिश्तेदारों को प्रसाद स्वरूप एक-एक मिठाई का डब्बा और मनोरमा जी के नाम तथा उनके जन्म एवं मृत्यु की तिथि अंकित हुआ एक-एक पचास ग्राम का चाँदी का सिक्का भी दिया जायेगा।
तभी उनमें से एक को ध्यान आया कि इस भोज में तो कवि भी होंगे, उनके लिए? बड़े बेटे द्वारा इस समस्या का तत्काल समाधान कर दिया गया।
"हम कोई बहुत प्रसिद्ध कवि तो बुला नहीं रहे हैं, सो मंच पर ही एक फूलमाला के साथ दो सौ, ढाई सौ के एक स्मृति चिह्न और पचास-साठ रूपये वाले एक पटके से उनका सम्मान पर्याप्त होगा।"
"लेकिन उनके सामने रिश्तेदारों को...?"
"अरे उसकी चिंता न करो, कवियों को थोड़ा पहले का समय देंगे ताकि वे खाना खाते ही खिसक लें। रिश्तेदारों को ज़रा देर से दूसरे गेट से विदा करेंगे जहाँ पर प्रसाद के डिब्बों के साथ उन्हें सिक्के की डिबिया पकड़ा दी जाएगी।"