सम्मान / संजय पुरोहित
देखिए, मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूँ, लेकिन सम्मान ग्रहण नहीं कर सकता एक स्थापित साहित्यकार ने उनका सम्मान करने की इच्छुक संस्था के पदाधिकारियों से कहा।
आखिर क्यों श्रीमान ?, क्या हमारी संस्था नयी है, इसलिए ? एक सदस्य ने विनम्रता से पूछ ही लिया।
नहीं नहीं, आप गलत समझ रहे हैं, भई असल बात तो ये है कि मुझे सम्मानित होने की कोई इच्छा नहीं रही। बहुत करवा लिया सम्मान, अब तो चिढ़ सी लगती है। मैंने तो सम्मानित नहीं होने का सिद्धान्त सा ही बना लिया है साहित्यकार महोदय ने अपने मन की बात को उगला।
श्रीमान जी, हमारी संस्था शहर के नामी सेठ के नाम से बने ट्रस्ट से संचालित होती है, सेठजी साहित्यानुरागी थे, और उन्हीं की इच्छा थी कि उनके नाम से एक पुरस्कार दिया जाये। अब भला आपसे बड़ा साहित्यकार भला शहर भर में कौन है ?, यही सदेच्छा लेकर उपस्थित हुए थे। कृपा कर मना ना कीजिए।संस्था के अध्यक्ष ने भावनाओं को शाब्दिक जामा पहनाते हुए निवेदन किया।
भैया, मुझे तो आप माफ ही कीजिए, लेकिन इसके लिए आपकी संस्था ने मेरे नाम पर विचार किया इसके लिए मैं आभारी हूं। साहित्यकारजी ने आभार व्यक्त किया।
कोई बात नहीं महोदय, लेकिन कृपा कर योग्य नाम तो सुझा दीजिए जिन्हें ये सवा दो लाख का पुरस्कार दिया जा सके। आप सुझायेंगे तो निश्चित ही योग्य व्यक्ति ही होगा। संस्था के अध्यक्ष ने उनके निवेदन को स्वीकारते हुए सहयोग की आशा में कहा।
क्या कहा आपने ?, सवा दो लाख रूपये का पुरस्कार ?, तो भई,.....आप लोगों की इतनी तीव्र इच्छा है तो मैं अपनी स्वीकृति देता हूँ। कहिए, कब रख रहे हैं ये सम्मान समारोह ? साहित्यकार महोदय ने यू-टर्न लेते हुए कहा।
संस्था सदस्य कृत्य-कृत्य हो गए।