सयाने दीवाने / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब हम पहली बार मिले थे न, तब मुझे तुम दीवाने ही लगे थे और तुम्हें खोज कर मैं खुद को सयाना समझने लगी थी। तुमने उस दिन समझाया एक सयाने और एक दीवाने की आपस में कभी नहीं निभेगी और कभी एक-दूजे को समझ नहीं सकेंगे। तुम्हारे अनुसार एक-दूजे को समझना प्रेम की अनिवार्य शर्त थी। अब मुझे तुम जैसा हो जाना था। सो, मैं दीवानी हो गयी फिर एक दिन तुमने कह दिया अपने दीवानेपन को छिपा लेना ही सयानापन है और तुम तेज कदमों से चलते हुए अंधेरे में छिप गए.

तुम पल-पल सयाने होते गए. समय के साथ तुमने सयानेपन की सारी सीमाएँ ही तोड़ दीं। मैंने जब-जब भी तुम्हें समझना चाहा या जान लिया, पहचान लिया, तुमने ऐनवक्त पर जान-बूझकर अपनी चाल बदल दी, रूप बदल लिया, रंग भी। तुम दरअसल हमेशा प्रयोग करते रहे खुद के साथ, मेरे साथ, सबके साथ और प्रेम के साथ भी। तुम्हें शांत जल में कंकड़ फेंकने का शगल था। कंकड़ फेंक कर लहरें बनाने का और छिपकर लहरे गिनने का भी।

तुमने समय के साथ अपनी इस अदा को हुनर में तब्दील कर लिया। तुम खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दीवाना कहते नहीं थकते लेकिन, मुझे तुम अब सयाने लगने लगे थे। मैं जान गयी थी, अपने दीवानेपन को अपनी अदा से जो छिपा ले वह सयाना ही है और जो अपना सयानापन सरे बाज़ार खो दे वह दीवाना है।

तुम हमेशा कहते रहे। मैं तुम्हारी तरह सयानी नहीं इसलिए तुम्हें कभी समझ नहीं सकी...पर सुनो...किसी को समझने के लिए क्या सयाना होना ज़रूरी है? दीवाना होना नहीं?

तुम इतने बिखरे हुए हो कि दुनिया की किसी भी स्त्री के हाथ तुम्हें समेट नहीं सकते। तुम्हारे दीवानेपन और सयानेपन के बीच बहुत महीन रेखा है। तुम अपनी मर्जी से जब चाहे तब इस रेखा को पार कर लेते हो। तुम्हें अक्सर ये शिकायत रही, शिकायत क्या तुमने तो उस दिन घोषणा ही कर दी थी कि मैं कभी भी तुम्हें समझ नहीं सकती और मेरी समझदानी इतनी छोटी है कि एंटीना या बूस्टर लगाने पर भी मैं तुम्हारी माइक्रोवेव्ज को रिसीव नहीं कर पाती।

इस उद्घोषणा के बाद देर तक मैं हंसती रही और अतीत की किताब के पन्ने उलटती रही...आंखें भीगती रहीं और मेरे पैरों के नीचे उस दिन एक नदी बन गयी थी...मैंने अहसासों की नाव पर सवार होकर लहर-लहर बांचनी शुरू की।

मुझे याद है, बरसों पहले तुम जब खारा समन्दर बन गए थे तो मैं तुम्हें खोजते हुए आई थी और तुम्हें समझने के लिए समन्दर का किनारा बन गयी। मैंने चखा था किनारों पर जमे तुम्हारे अवसाद के नमक को, जो तुम रोज रात अपनी आंखों से बहाते थे। तुम्हारे रुदन को मैंने अमावस की हर रात सुना था और जब एक दिन मैंने तुम्हें डूबने से रोकने को हाथ पकड़ा था। तो तुम बड़ी होशियारी से मेरा हाथ झटक गए और बोले समन्दर भी कभी डूबते हैं? और अलसुबह समन्दर गायब हो गया, वहाँ खालिस रेत थी। मैं तुम्हारे सयानेपन पर हैरान थी। खुद को छिपाने का तुम्हें इतना शौक था कि तुम समन्दर से रेगिस्तान हो गए. तुमने अपने आसुंओं की बूंद-बूंद रेत के कणों में बदल दी। तुम रोना भूल गए.

तुम्हारे रेगिस्तान बनते ही मैं मरुद्यान की मीठी नदी बन गयी। तुम्हारे मन के भीतर ही रहने लगी, तुम्हारी देह में छिपकर...तुम जान ही नहीं सके कभी भी कि तुम्हारी देह में रेगिस्तान और नदी दोनों बह रहे थे। प्यास के ठीक बाजू से मीठी नदी बह रही थी, लेकिन मेरा पता तुम कभी याद नहीं रख सके और अपना पता पल-पल बदलते रहे और प्यासे होने की शिकायत भी करते रहे। तुम्हारी प्यास का एक अलग अंदाज था, जिसका अंदाजा मुझे था। एक दिन मैं खुद ही तुम तक आ पहुंची थी, लेकिन तुम मुझे देख, झट से रेगिस्तान से झरने में तब्दील हो गए और तुमने मुझे बताया तुम प्यासे नहीं हो, बल्कि तुम तो खुद एक बहता झरना हो, जिससे अनगिनत लोग अपनी प्यास बुझा रहे हैं सदियों से। मैं मायूस होकर मुड़ गयी, लेकिन तुम से दूर जा नहीं सकी, तुम्हें समझना जो चाहती थी। तुम झरना बने तो मुझे गोल पत्थर हो जाना पड़ा। तुम मुझे रोज पहाड़ से धक्का देते रहे मैं पल-पल गिरती रही। चोट और आघात सहकर मैं चमकती रही और खामोशी से रोज तुम्हारी कल-कल सुनती रही।

तुम झरना ज़रूर बने, लेकिन मैंने तुम्हें फिर से पहचान लिया था, जान लिया था। तुम झरने बनकर भी उदास थे। लोगों की प्यास मिटाकर भी तुम्हारी अनबुझ प्यास मिटती नहीं थी। तुम्हारे होंठ उस रात गर्मी और धूप से झुलसे हुए थे। तुम्हारे पास खुद के लिए एक बूंद भी नहीं थी। कितने रीते थे तुम, झरना होकर भी तुम कितने प्यासे थे। उस दिन तुम मुझे दीवाने से लगे, मैं मुस्काई, तुम्हें अपनी पथरीली आंखों से देखा। मुझे वहाँ देखते ही तुम समझ गए कि मैंने तुम्हें फिर से पहचान लिया है। अब तुम आसमान में सफेद बादल बन गए, मैं जलधारा बन गयी। एक दिन जब तुम उड़ते हुए मुझ तक आये और बतियाने लगे, मैंने तुम्हें इशारों में समझाया कि तुम फिर पहचाने गए हो और अब ये सयानापन छोड़ दो।

मैंने जैसे ही तुम्हें तरल और सरल होने का अर्थ बताया तुम फिर बुरा मान गए. गुस्से में आकर अबकी तुम पहाड़ बन गए, एक सख्त, खुरदुरा, ऊंचा पहाड़, जिसे मैं कभी भी छू नहीं सकती थी। हारकर मुझे हवा बन जाना पड़ा (तुम्हारे लिए) । जानती थी ऐसा करने से मेरा रंग-रूप और आवाज सब मिट जाएगी, लेकिन तुम्हें जानना-समझना बहुत ज़रूरी लगता था उन दिनों। मैं पहाड़ पर चढऩे लगी, मैंने महसूस किया तुम पल-पल सूख रहे थे, जड़ हो रहे थे। रूप बदलने के इस खेल में, इस सयानेपन में तुमने अपनी नमी खो दी थी, तरलता, सरलता भी। अब तुम खामोश खुरदुरे पहाड़ थे। जब मैंने तुम्हें इस रूप में भी पहचान लिया तो तुम अवसाद की, अपराधबोध की काली गुफा के भीतर छिप गए और दरवाजे पर बेरुखी का बड़ा-सा पत्थर अड़ा दिया।

मैं हवा बन तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तुम काली गुफाओं में साधना करते रहे। मैं उन गुफाओं के बाहर असंख्य गीत लिखती रही, उकेरती रही हर पत्थर पर। मैंने गीत लिखे, कहानी लिखी।

मेरी सांसों की ऊष्मा से और आसुंओं के गीलेपन से अंकुरित होकर बहुत से प्रेम बीज अब पौधे बन आसपास उग आये थे। बरसात में देखना तुम्हारी देह हरी हो जाएगी। मैंने पहाड़ पर रहकर जाना सबसे सुन्दर गीत पत्थर गाते हैं और पत्थर ही सबसे बड़े श्रोता होते हैं। मैंने सदियों तक तुम्हारी हर एक सांस को गुफा से बाहर रहकर ही महसूस किया और प्रतीक्षा की फिर एक दिन उकता कर मैंने तुम्हें छोड़कर जाने की सोची। मैं चल भी दी कि सभी पत्थर मुझे रोकने के वास्ते गीत गाने लगे। इन गीतों के शोर से तुम्हारी साधना में विघ्न पडऩे लगा और उस दिन तुम गुफा से बाहर आये। मैं तुम्हें सर झुकाए दरवाजे पर ही मिली। तुम्हें देख सभी पत्थर और तेजी से, जोर-जोर से गीत गाने लगे। तुम उस शोर से खुद को बचाने के लिए बहरे होने का स्वांग करने लगे। तुम कितने सयाने हो गए थे न?

तुम अब भी अपना सयानापन नहीं छोड़ पा रहे थे और मैं अपना दीवानापन। मैंने तुम्हें इशारे से रोका, लेकिन तुम फिर बेपरवाही से मुझे छोड़ जंगल की तरफ चले गए.

मैं तुम्हें खोजती रही हर जगह तुम कहीं नहीं मिले। मैं भी थक चुकी थी यात्रा करते-करते और तुम्हारे सयानेपन से, अपने दीवानेपन से भी। कई बरसों तक तुम्हारी कोई खोज-खबर नहीं मिली।

एक रात मैंने खुद को काले धुएँ में तब्दील होते देखा। इस धुएँ में खुशबू थी, ये खुशबू कहाँ से आ रही है और धुआं भी...मुझे समझ नहीं आ रहा था।

मैंने तुम्हें खोजना और समझना तो बहुत पहले ही बंद कर दिया था और अपने दीवानेपन को थपकी देकर सुला दिया था, फिर ये अचानक से उठता धुआं मुझे क्यों परेशान कर रहा था और अजीब-सी खुशबू भी, जैसे कहीं कोई लोबान जलाता हो। मैं विरहन-सी एक बार फिर उस खुशबू की खोज में निकल पड़ी। स्याह रात में धुएँ को पकड़ कर मैं आँख बंद करके चल दी थी; मन की रोशनी के साथ।

घने जंगल के बीच एक झोंपड़ी में कोई साधक धूनी रमाये था, ये धुआं और खुशबू वहीं से उठ रही थी। ओह...! ये तो तुम ही थे, मैंने फिर तुम्हें पहचान लिया था। अबकी बार मैं खुद नहीं आई थी, ये काला धुआं मुझे तुम तक ले आया था और ये अजीब-सी खुशबू भी।

तुमने अपने अवसादों, अपराधबोध और उदासियों के सूखे पत्तों और लकडिय़ों से अपने लिए एक झोंपड़ी बना ली थी। तुमने अपने दुखों की एक समिधा बनायी, उसे आंसुओं और वक्त की मिट्टी से लीपा और अब उसमें अपनी यादों का हवन कर रहे थे।

तुम्हारी आंखें बंद थीं। चेहरे पर हजारों भाव आ-जा रहे थे। तुम कभी गुस्से में, कभी मुस्काते हुए, कभी रोते हुए और कभी जोर-जोर से हंसते हुए हवन करते जाते थे।

मैं छिपकर तुम्हें देख रही थी। तुम दिनभर की बेचैनियों, दुखों और पीड़ाओं की गीली लकडिय़ों को जलाने की कोशिश करते पर वह जलने से इंकार करती थीं। आखिर हारकर तुमने यादों का कनस्तर खोला और उसमें से कुछ घी डाला, एक पल में वह गीली लकडिय़ां भर्र से जलने लगीं। अब तुम खुश थे उस आंच से, सर्द स्याह रात में तुम्हें ये आंच ऊष्मा दे रही थी। तुम अब रोज यादों, वादों और सपनों की आहुति देने लगे। उस हवन कुंड में अब रोज आग जलती थी। बड़ी देर तक जलती थी वह गीली-सीली लकडिय़ां, बड़ी रात तक बड़ा गहरा धुआं और खुशबू बनाती थीं।

तुम अब बहुत खुश थे कि तुम्हें इस जंगल में कोई नहीं पहचानता था और एक दिन तुम अपनी सभी यादों को भस्म करके उनके दर्द से मुक्ति पा लोगे, सिद्ध हो जाओगे है न?

तुम अब बेखबर थे दुनिया से, मुझसे और खुद से भी।

सुनो, तुमने जैसे ही अपनी यादों को जलाना शुरू किया। न जाने क्यों मेरी देह जलने लगी। देखते ही देखते मैं हवा से काले धुएँ में बदल गयी। मेरी आवाज तो बहुत पहले ही गुम हो चुकी थी। मैं तुम्हें कभी बता ही नहीं सकी कि तुम्हारे हवन करने से मैं जल रही हूँ। तुम्हें कोई खबर नहीं थी गाफिल...मैं तुम्हारे आसपास ही थी, पर न तुम मुझे देख पा रहे थे, न महसूस कर पा रहे थे। मैं हवा थी और तुम्हारी धूनी से उठते धुएँ को महसूस कर सकती थी। वह मुझमें से होकर गुजर रहा था पल-पल।

तुमने खुद को छिपा लिया था, लेकिन उठता धुआं नहीं छिपा सके. ओ बेखबर! अपने दर्द को, प्रेम को, दीवानेपन को यूं इस तरह आग में नहीं जलाते। खुद को इस तरह खर्च नहीं करते। तुम्हारी जलाई आग से कोई भस्म होता है, क्या तुम्हें खबर है? तुम्हारे यूं खर्च होने से कोई कंगाल हुआ जाता है क्या तुम्हें इल्म है?

और...और...और...तुम कहते हो मैं तुम्हें समझती नहीं...ये कैसा सयानापन है? ये कैसा दीवानापन है?