सरकार और सरोकार नहीं बाज़ार बदल रहा है स्त्री को / देवेंद्र
गांव में रहते हुए बचपन से ही हमने जिस समाज को देखा है उसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक कहना लहीम-शहीम नागरिकता पर गोबर करना होगा। मनुष्य की योनि में जन्म लेकर परम्पराओं के नाम पर स्त्री के साथ जिस बर्बर सामाजिक आचरण को व्यवहार की तरह अपनाया जाता है, उसे देखते हुए ‘नागरिक’ शब्द जैसा कोई सम्बोधन मुझे उपयुक्त नहीं लगता। हमारी भाभियां जब ब्याह कर आयी थीं, तब उनकी उम्र बमुश्किल चौदह-पन्द्रह साल रही होगी। उन्हें अपरिहार्य प्राकृतिक जरूरतों के निबटान हेतु सुबह से पहले और शाम मुंहअंधेरे में तय समय के लिए बिना खिड़कियों और बिना झरोखों वाले सीलबंद कमरों की घुटन से बाहर निकलने दिया जाता था।
चाहे कैसी भी तबीयत हो, हजारों साल से वे एक ऐसी व्यवस्था की अभ्यस्त थीं कि पूरे दिन पेट में मैला ढोती रहती थीं। सेक्स तथा सहवास की कामना के कारण ही नहीं, दिन-दोपहर प्राकृतिक निबटान की अपरिहार्य जरूरतों के कारण भी वे चरित्रहीन समझी जा सकती थीं। हमारा घर बनिस्बत गांव का सम्पन्न घर था फिर भी ऐसी कोई व्यवस्था हमने नहीं देखी सुनी थी। पच्चीस-तीस साल तक एक पर एक चार-पांच बच्चों को पैदा कर चुकने के बाद उनकी सांसों में पायरिया भर जाता था, दांत हिलने लगते थे। चालीस साल औरतों के बूढ़ी होने की उम्र होती थी। धूमिल की एक कविता है-
‘प्रजातंत्र का वह कौन सा नुस्खा है कि जिस उम्र में मेरी मां का चेहरा चकत्तियों की थैली है उसी उम्र की मेरी पड़ोसन के चेहरे पर मेरी प्रेमिका जैसा लोच है।’
सम्पन्न माने जाने वाले हमारे गांव में ढेर सारे जानवर थे, जिनके बीमार होने से हमारी खेती लड़खड़ा जाती। आर्थिक ढांचा गड़बड़ा जाता है। उनका समय से इलाज कराया जाता। उनके डॉक्टर गांवों में आते थे। लड़कियों के लिए कहा जाता था-‘बिन ब्याहे बेटी मरे, ठाढ़ी ऊख बिकाय, बिन मारे बैरी मरे, ई सुख कहां समाय।’
पूरे परिवार की मुसीबत यही लड़कियां ब्याह कर ससुराल भेजी जाती थीं। उन्हें बाकायदा विवाह नामक संस्था में बांधकर लाया जाता था। वे पिता, भाई और मां की जिम्मेदारियों से बेदखल कर दी जाती थीं। परम्परागत जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं होता था। मां, बाप, भाई, बहन, सहेलियां, गांव के पेड़, तालाब और दूर-दूर तक फैले-फूले सरसों के खेत, बैलों और बकरियों से होकर जो रिश्ते उनके जीवन में घुस आये थे, उनकी महक, उनकी स्मृतियों को ससुर के घर में खुरच-खुरच कर बेरहमी से मिटा दिया जाता था।
हजारों साल से वे इसे यातना की तरह नहीं उत्सव की तरह स्वीकार करती थीं। सिर्फ स्थूल और थोड़ी प्रताड़नाओं से ही नहीं, जबकि यह भी उनकी दिनचर्या के अभिन्न अंग थे, उन्हें किस्सों, कहानियों से बहला-फुसलाकर पालतू बनाया जाता था। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक या दास कहना दासों की स्थिति का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना होगा क्योंकि दासों को अपने मालिक, जिसने उन्हें गुलाम बना रखा है, से नफरत करने, लड़ने का नैतिक हक प्राप्त होता है लेकिन उन लड़कियों के जेहन में यह पाप की तरह होता था।
उनकी मुक्ति का पथ कब्रगाह के डरावने और सुनसान अंधेरे में जाता था। चूल्हे और चौके की धीमी आंच में सींझती उन औरतों के जीवन में कोई सपना नहीं उगता था। हर महीने कई-कई कठोर व्रतों से गुजरते हुए वे अगले सात जन्मों के लिए उसी परिवेश और पति की कल्पना करती थीं जो रोज रात को उन्हें सहवास सुख देता था और बदले में वे बच्चा पैदा करती थीं। आंगन की भर धूप और हवा में ही उन्हें जीना होता था।
अप्राकृतिक स्थितियों में पड़ी-पड़ी जब अक्सर वे मर जातीं तो उनके मरने को शोक और संवेदना की तरह नहीं, एक निर्जीव सूचना की तरह लिया जाता था। आज भी भारत की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और कमोबेश स्थितियां जस की तस बनी हुई हैं। सम्पन्न परिवार धीरे-धीरे शहरी मध्य वर्ग में रूपांतरित होने लगा है। जो विपन्न थे, उनकी बदहाली बेइंतहा बढ़ी है। संयुक्त परिवार का आर्थिक आधार छितरा गया है। संयुक्त परिवार और विवाह संस्था, इन दोनों की मजबूत चारदीवारी में स्त्रियों के प्रति जानवरों से भी कई गुना ज्यादा बर्बर आचरण हमारी दिनचर्या और व्यवहार में इस कदर शामिल था कि हमें अपनी क्रूरताओं का आभास तक नहीं होता था। हमारी महान संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा था यह सब। जैसे जेल के पुराने कैदी नये कैदियों के प्रति क्रूर आचरण को अपना नैतिक और भौतिक अधिकार मानते हैं, उसी तरह घर की बूढ़ी औरतें सास या दादी के रूप में इन औरतों के लिए होती थीं। हजारों साल से उनके साथ यही होता चला आ रहा है।
इस भयानक सच्चाई के साथ-साथ एक और दिलचस्प तथ्य उस परिवेश का अनिवार्य हिस्सा था। अक्सर सुनाई पड़ ही जाता कि फलां की बहू अपने नौकर से फंसी है। कोई देवर से तो कोई ससुर से। दो-तीन पीढ़ियों को मिलाकर किसी कुटुम्ब का इतिहास बनाया जाय तो यह लगभग हर घर की कहानी थी। परम्पराओं की लाख पहरेदारी और उन बिना झरोखों वाले बन्द कमरों के किसी सुराख से आती रोशनी में तैरते धूल कणों पर संवेदनाएं अपने लिए रास्ता बना ही लेती थीं। असूयपश्या और योनिशुचिता के आदर्श अक्सर अपने जख्मों को छिपाकर ही बड़बोलापन करते रहते। यह असम्भव है कि जीवन हो और उसके चिन्ह पूरी तरह मिटाये जा सकें। रोशनी में तैरते धूलकणों पर वे झिलमिला ही जाते।
स्त्री यातना का इतिहास संयुक्त परिवार की कठोर भित्ति पर अंकित था। जब कभी संयुक्त परिवार टूटता तो निर्विवाद तथ्य की तरह उसका जिम्मा औरतों पर डाल दिया जाता। संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर जाती सामाजिक संरचना स्त्री मुक्ति का सबसे निर्णायक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कदम है। वासना के अंधेरे एकांत में रिरियाते और तड़पते पति की कायरता को क्षण-प्रतिक्षण धिक्कारते हुए चतुर सेनापति की तरह स्त्री ने अत्यन्त धैर्य पूर्वक, समय का इंतजार करते हुए कुशल रणनीतिकार की भूमिका में यह युद्ध जीता है। वह जानती है कि अकेला होते ही मर्द कितना कमजोर और केंचुआ होता है।
परम्पराओं और दंभ की बैसाखी आखिर कितने दिनों तक उसे ताने रहेगी। उसकी शक्ति का स्रोत सीता या सावित्री नहीं, द्रोपदी होने में ही है। लाचारी, अभागापन और घुटन जितना सम्पन्न सवर्ण औरतों के जीवन में था, उतना खेतों में काम करने वाली मजदूर औरतों में नहीं होता था। जर्जर रूढ़ियों और अमानवीय मर्यादाओं की घातक पहरेदारी वहां नहीं थी। अपनी अनिवार्य दिनचर्या में वे प्रत्यक्षतः श्रम से जुड़ी हुई थीं। अपनी सीमित जरूरतों से ज्यादा कमा लेती थीं। वे किसी भी मायने में परजीवी व परिवार और समाज की दया की मुंहताज नहीं थीं। बेहद आत्मनिर्भर होने के कारण उनकी स्थिति बहुत हद तक भिन्न होती थी। वे लड़ लेती थीं। उनकी हत्याएं होती थीं। वे कुएं में कूद कर आत्महत्याएं नहीं करती थीं। कठोर श्रम से पैदा हुए उनके भीतर के आत्मविश्वास के लात खाकर हमारी गौरवशाली परम्पराएं और पूज्य परिवार उनके साथ लगभग ठीक-ठाक ढंग से ही पेश आते थे। उनकी मुसीबतें भिन्न किस्म की होती थीं। वे दूसरी बातें हैं जिनसे उन्हें रूबरू होना पड़ता था।
स्त्री स्वतंत्रता के संदर्भ में यह तय है कि उनकी स्थिति सवर्ण मध्यमवर्गीय औरतों से बेहतर थी, जिसे उन्होंने कठोर श्रम से हासिल किया था। स्त्री मुक्ति का प्रश्न जब कभी वास्तविक गम्भीरता और सामाजिक सरोकार का प्रश्न बनेगा तो तय है कि उसकी सैद्धांतिकी और अनुभव के स्रोत वही मजदूर औरतें बनेंगी।
लैंगिक और प्राकृतिक भिन्नताओं के आधार पर लड़कियों और महिलाओं को कुछ ऐसी अनचाही स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिनसे कभी भी किसी पुरुष को गुजरना नहीं पड़ता है। वास्तव में कभी संवेदनशील होकर पुरुष उन समस्याओं के समाधान में स्त्रियों के साथ शिरकत करेंगे, मुझे यकीन नहीं होता। विवाह संस्था, यौनशुचिता और संयुक्त परिवार के इसी त्रिकोणीय दुष्चक्र के भीतर मरी हुई परियों के पंख छितराये पड़े हैं। इसी त्रिकोण में हजारों साल से उनके सपनों की लाशें दफनायी जा रही हैं। इस त्रिकोण की जब तक कोई एक भुजा बची रहेगी, स्त्री मुक्ति का प्रश्न कटी पतंग की तरह अपरिहार्य रूप से बिजली के तारों पर फंसा, बेजान, फड़फड़ाता रहेगा। अन्ततः बेनतीजा।
आज संयुक्त परिवार लगभग गुजरे जमाने की चीज हो गया है। लगातार फैलते जा रहे शहरी मध्यवर्ग के जीवन में उसके लिए कोई ‘स्पेस’ नहीं है। एकल परिवार में स्त्री की भूमिका, शक्ल-सूरत और सीरत काफी हद तक बदल चुकी है। विवाह संस्था सिर्फ इस तर्क पर बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहेगी कि ‘आखिर’ इसका विकल्प क्या है? ‘यौनशुचिता’ के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता कि स्त्री जीवन में यह कितनी बनी और बची हुई है। पुरुष अपने पौरुष के दर्प में इसे हमेशा लतियाता आया है। जैसे-जैसे समाज में रोजगार के अवसर विकसित होंगे, स्त्री आत्मनिर्भर होगी, संयुक्त परिवार के आधार पर खड़ी त्रिकोण की दोनों भुजाएं जगह-जगह से चिटकने लगी हैं।
स्त्री मुक्ति के सामाजिक संघर्ष का नेतृत्व वे औरतें कत्तई नहीं करेंगी जो घूसखोर बाप की नाजायज कमाई खा-खाकर चटोर हो चुकी हैं और पति के घर में निकम्मी पड़ी-पड़ी ऊबती हुई समाज और सरोकारों से नफरत करती हैं। स्त्री मुक्ति की सामाजिक जरूरत और उसकी ऐतिहासिक पहल उनके फैशन का हिस्सा भर है, जिनकी दिनचर्या सुबह-सवेरे घर में चौका-बर्तन, झाड़ू-पोछा करने आयी नौकरानी के साथ कांव-कांव करते हुए शुरू होती है। ब्यूटी पार्लर और किटी पार्टी में क्लबों में अपने होने का अर्थ तलाशती इन रीतिकालीन नायिकाओं की बंजर संवेदनाओं में एक घास उगाने भर क्षमता नहीं है। एकल परिवार की इन गृहस्वामिनी को अपनी आजादी से ज्यादा पुरुष को गुलाम बनाये रखने की चिन्ता होती है। वे बराबरी के लिए नहीं वर्चस्व के लिए लालायित हैं। आत्म निर्भरता किसी भी तरह की आजादी का सबसे बड़ा नैतिक तर्क होता है। वह यहां सिरे से नदारद हैं।
बावजूद इन सारी संभावनाओं और दलीलों के आज स्त्री बदलने की तैयारी में है। लड़कियां अपनी इच्छाओं को जबान और महत्वाकांक्षाओं का पंख लगाने को तत्पर हैं। पितृसत्तात्मक सामंती समाज के शील, संकोच और मर्यादा शायद ही अपने आवरण में उन्हें छल सकें। कानून और सरकार के बल पर नहीं बाजार के बल पर स्त्री बदल रही है। बाजार स्त्री को हजारों साल की जलालत से मुक्त कर रहा है किसी ऐतिहासिक और सामाजिक सरोकार को समझ कर नहीं, बस इसलिए कि उसे अपने फायदे के लिए नये किस्म के श्रम, नये किस्म की श्रमिक और एकदम नये किस्म के ‘प्रोडक्ट’ की जरूरत है। खतरे कम नहीं हैं इस राह में। लेकिन छः फिटी साड़ी और घूंघट को कफन की तरह लपेटे समाज की टिकठी पर और कितने दिन पड़ी रहे स्त्री। हजारों साल की इस पाशविक गुलामी में आखिर ऐसी कौन दुर्दशा बची रह गयी जिसका भय दिखाकर आप उसे बाजार के मोहक सपनों की ओर जाने से रोक लेंगे।