सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी / दुःखिनीबाला
(स्त्री-पुरुष के रिश्तों पर सबसे निराले और मौलिक ढंग से विचार करनेवाली इस पुस्तक के आविष्कार का श्रेय प्रज्ञा पाठक को है। यह हिंदी में किसी स्त्री द्वारा आत्मकथा लिखने का पहला प्रयास है। इसका धारावाहिक प्रकाशन 'स्त्री दर्पण' पत्रिका के जुलाई, 1915 से मार्च, 1916 तक के अंकों में हुआ था। लेकिन इतने दिनों तक इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। क्या यह स्त्री प्रश्नों को दबा कर रखने की सामूहिक साजिश नहीं थी? रुकैया शेखावत हुसेन (1905) की तरह आत्मकथाकार सरला भी एक ऐसे स्वर्ग की कल्पना करती है, जहाँ स्त्री-पुरुष की हैसियत में कोई फर्क नहीं है और दोनों बराबर आजादी के साथ जिंदगी जीते हैं।)
दिल जले है गम से औ, आँसू बहाना मना है,
आग घर में लग रही है औ, बुझाना मना है।
है जिगर में शोला औ' नालः उठाना मना है,
चाक पर है चाक औ' मरहम लगाना मना है।
याद नहीं किंतु सोचने से एक धुँधला चित्र दिखाई दे जाता है। उस समय अवस्था मेरी बहुत कम थी। सुनती हूँ कि मैं 7 या 8 बरस की थी। घर में चारों ओर धूम-धाम थी। चारों ओर आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। क्योंकि बाबूजी ने अपने सब गाँवों से आदमियों को बुलवा लिया था। मेहमानों का भी खासा मजमा था। खूब चहल-पहल थी। यह सब मेरे विवाह की- जिसका अर्थ तब तो क्या अब तक मैं नहीं समझी हूँ-तैयारी थी। किस्सा कोताह दो-तीन दिन बाद बारात आई। एक बेगाने लड़के के साथ जिसकी सूरत-सीरत कल्पनाशक्ति को बहुत दबाने से भी याद नहीं आती-मैं बैठाई गई, घुमाई गई और क्या-क्या हुआ सो याद नहीं।
हाँ, इतना अवश्य है कि बारात चली जाने पर मैं विवाहिता समझी जाने लगी। अड़ोस-पड़ोस की कितनी औरतें मुझे देखने आने लगीं। कोई गहना देखता। कोई मिठाई देता। कुछ दिन बाद यह सब भी बंद हो गया और मैं साधारण जीवन व्यतीत करने लगी।
मेरे एक बहुत छोटा नन्हा-सा प्यारा भाई भी था। उसी के साथ दिन-रात मैं खेला करती थी। उसका नाम 'मोहन' था। जैसा उसका नाम था वैसा ही वह 'मोहन' था भी। मुझे बाबूजी 'सरला' कहकर पुकारते थे। दिन-रात हम भाई-बहिन उन्हीं के कमरे में खेला करते थे। दास-दासियों की कमी न थी। गुड़ियों-खिलौनों से, जहाँ हम लोग रहते, स्थान भरा रहता था। दोपहर के समय अम्मा भी बाबूजी के कमरे में आ जाती थी। उस समय मोहन उनकी गोद में होता और मैं बाबूजी की गोद में होती थी। मालूम नहीं क्यों किंतु अब भी मेरा यही खयाल है कि बाबूजी मोहन से अधिक मुझे प्यार करते थे। मुझे भी माता से वे अधिक प्रिय थे।
यों ही एक दिन दोपहर के समय मोहन के साथ खेल रही थी। उसने हमारी गुड़िया की चादर गींज-मींज दी थी, मैंने उसकी रेलगाड़ी छीन ली थी। छोटा होने से हमसे रेल न छीन सकने पर वह रो रहा था। बाबूजी और अम्मा पासा खेल रहे थे। एकदम मोहन का रोना सुन अम्मा ने उसे पुकारा और आकर उसे उठा ले गईं। मैंने भी उनके पीछे-पीछे जाकर बाबूजी की गोद में शरण ली। बाबूजी के पूछने पर मैंने मोहन के रोने का कारण बतलाया। अम्मा मुझे बकने लगीं, कहने लगीं, क्या हुआ, वह तो बच्चा है। तुम अभी उसकी रेल दे दो। आखिर मोहन की ही जीत हुई। रेल मुझसे छिन गई। मैं भी रोते-रोते बाबूजी की गोद में पड़ गई।
मोहन के झगड़े में चौपड़ की गोटें इधर-उधर हो गई थीं। और इस तरह वह खतम हो चुका था। मोहन भी चुप हो अम्मा की गोद में सो रहा था। धीरे-धीरे अम्मा और बाबूजी में बातें होने लगीं। एक तो मैं ऊँघ रही थी दूसरे बात भी बहुत दिन की हुई इसलिए उसका वर्णन कठिन है किंतु इतना अवश्य याद है कि अम्मा बाबूजी से मेरे विवाह के लिए कह रही थीं और वे कह रहे थे कि सरला अभी बिलकुल बच्ची है, अभी विवाह की क्या जल्दी है ? अम्मा नहीं मानती थीं। इस बात को मैं एक-दो बार पहले भी सुन चुकी थी इसलिए मैं भी आँख बंद किए हुए इस बात को ध्यानपूर्वक सुन रही थी।
बातें कितनी देर तक होती रहीं। मैं नहीं कह सकती किंतु इतना जरूर हुआ कि अम्मा के आगे बाबूजी की कुछ न चल सकी और लाचार होकर उन्हें मेरे विवाह के लिए राजी हो जाना पड़ा।
विवाह क्या बला है ? उसका अर्थ क्या है ? उसका महत्व क्या है और वह क्यों किया जाता है ? यह सब तो मैं जानती थी ही नहीं किंतु इतना सत्य अवश्य है कि यह सुनकर कि मेरा विवाह होगा मुझे खुशी बड़ी हुई। खेल में गुड्डियों के विवाह का खेल मैं खेला करती थी। मैं यह जानती थी कि विवाह में बहू गुड़िया को मेवे, मिठाई, गहने, खिलौने दिए जाते हैं। बस यही समझकर कि मुझे भी ये सब चीजें खूब मिलेंगी, मैं मन ही मन फूले न समाती थी। विवाह का इससे भी परे कोई अर्थ है यह मेरे मस्तिष्क में था ही नहीं। न किसी ने हमें कुछ समझाया ही था। अस्तु जैसा कि मैं आरंभ में कह चुकी हूँ एक दिन मेरा विवाह बड़ी धूमधाम से हो गया। बारात पास ही से एक बड़े जमींदार के यहाँ से आई थी। बारात को गए कितने ही दिन बीत गए। मेहमान भी जो आए थे नहीं रहे। नौकर-चाकर भी गाँव को रवाना हो गए। अब कोई चहल-पहल नहीं। घर में वही मैं और मोहन और बाबूजी और अम्मा और दो-चार दास-दासी रह गए थे। साधारणतः मोहन के साथ दिन-रात मैं खेलती रहती। इन्हीं दिनों में मोहन को पढ़ाने के लिए एक मास्टर रखा गया। अब वह बजाय चौबीसों घंटे मेरे साथ रहने के दो-तीन घंटे अपने गुरुजी के पास रहता।
एक दिन दोपहर को बाबूजी और अम्मा बैठे पचीसी खेल रहे थे। पास ही मोहन एक चित्रमय पुस्तक लिए-
आ मेरे मुन्ना आ मेरे लाल
गोद में आकर करो निहाल।
पढ़ता था। चित्रों को देख हमारी भी पढ़ने की इच्छा हुई। बाबूजी से हमने तुरंत ही कहा। वे जवाब भी न दे पाए थे कि अम्मा कह बैठीं, "वाह, बिटियों के पढ़ाने का कौन चोंचला है। लड़कियाँ भी कहीं पढ़ी हैं ? क्या तुम्हें भी कहीं नौकरी करनी है ?" किंतु बाबूजी ने कहा, "नहीं-नहीं, यदि तू पढ़ना चाहती है तो पढ़ ! मैं तुझे स्वयं पढ़ाऊँगा।" उस दिन से बाबूजी से तो कम ही, मैं मोहन से पूछ-पूछ पढ़ने लगी और कुछ ही दिनों बाद मैं रामायण बाँचने और शुद्ध हिंदी लिखने लगी। ज्यों-ज्यों पढ़ती जाती थी, त्यों-त्यों पढ़ने की लालसा और प्रबल होती जाती थी। यहाँ तक कि धीरे-धीरे मैंने मोहन से गिनती, पहाड़ा और हिसाब भी सीख लिया। अब जब मोहन और मैं बैठते तो बजाय खिलौनों और गुड़ियों से खेलने के हम लोग हिसाब करते या कहानियों की पुस्तक पढ़ते।
इसी प्रकार कितने ही दिन बीत गए। सुबह के दो-तीन घंटे छोड़कर अब मोहन गुरुजी के पास रहता और मैं अम्मा के पास। हम लोग हर समय साथ रहते थे। बाबूजी हम दोनों में किसी प्रकार का भेद-भाव न करते थे और हर तरह से जो मोहन के लिए होता वह हमारे लिए भी।
घर में आज फिर चहल-पहल है। बहुत-से ब्राह्मणों को न्योता है। अम्मा से पूछने पर मालूम हुआ आज मोहन की वर्षगाँठ है। मोहन सात वर्ष का हुआ। माता से यह पूछने पर कि मैं कितने वर्ष की हूँ, उन्होंने कहा, "दस!" दोपहर के समय बहुत ब्राह्मण आए, कुछ पूजा-पाठ के बाद उन लोगों ने भोजन किया और दक्षिणा पाई। दिनभर यही लगा रहा। शाम होते-होते सब लोग विदा हुए और घर वाले ही घर में रह गए।
सुना था मेरे ससुराल से भी कोई आने वाला था किंतु मालूम नहीं कोई क्यों नहीं आया? आज चार-पाँच दिन से हम लोग बाग में चले आते हैं। सावन का महीना है। जिधर देखिए हरियाली दिखाई देती है। आसपास पानी से लबालब भरे धान के खेत, भारी पवन के झकोरों को आते देख सलाम-से करते अपनी विचित्र छटा दिखा रहे हैं। आम के पेड़ पर बैठी हुई कोयल की कूक रह-रहकर सन्नाटे में कुछ सरसता पैदा कर देती है। बादल उमड़े हुए चले आ रहे हैं। उन्हीं की गर्जन सुन मोर भी चारों ओर शोर मचा रहे हैं। इस समय बाग में मोहन के साथ झूले पर बैठी हूँ। दो मजदूरिन इधर-उधर से धीरे-धीरे पलना झुला रही हैं। कुछ समय बाद अम्मा भी वहीं आ पहुँची। उनके पीछे-पीछे एक मजदूरिन थाल में मिठाई और फल लिए आ रही थी। अम्मा झूले पर बैठ गईं। मिठाई की थाल उन्होंने गोद में रख ली। मोहन उनकी गोद से चिपट गया। वे मिठाई उठा-उठाकर कभी उसे कभी मुझे देने लगीं और अम्मा के कहने पर मोहन यों गाने लगा-
आ जा री निंदिया आ जा री
अब मत देर लगा
सोने चाँदी का है पलका
बिस्तर तकिया है मखमल का
आ जा री निंदिया आजा री
कुछ समय के बाद हम सब कमरे में गए। बाबूजी वहाँ पहले से ही बैठे जमींदारी के कुछ कागज-पत्र देख रहे थे। हम लोगों के पहुँचते ही कागज-पत्र एक किनारे रखे गए और सब लोग बातें करने लगे। मोहन के विवाह की चर्चा छिड़ी। बाबू के मोहन से पूछने पर कि उसका विवाह किया जाए, अम्मा के आँचल में उसने मुँह छिपा लिया और ऊँ ऊँ करने लगा। सब लोग इसी तरह हँस रहे थे कि एक नौकर ने आकर बाबूजी के हाथ में तार का एक पीला लिफाफा दिया। ईश्वर जाने उसमें क्या था? बाबूजी मेरा नाम ले चीख मारकर ज्यों के त्यों रह गए।
अम्मा भी उनके पास पहुँचीं। उनके पूछने पर भी वे मेरा ही नाम ले-लेकर रोने लगे। कुछ मिनटों के बाद अम्मा के फिर बार-बार पूछने पर उन्होंने किसी का नाम लेकर कहा कि वह नहीं रहा। अम्मा भी मुझे पकड़कर रोने लगीं। कहने लगीं, मेरी बच्ची राँड़ हो गई। मेरी समझ में यह सब कुछ न आया किंतु अम्मा और बाबूजी को रोते देख मोहन और मैं रोने लगे। अम्मा चीख-चीखकर मेरी माँग के सेंदूर को आँसुओं से धोने और मेरी चूड़ियाँ फोड़ने लगीं। जितना ही मैं कारण जानना चाहती उतना ही वे और रोतीं।
आज घर में चिराग नहीं जला, रसोई में कोई गया ही नहीं। मैं इस चिंता में लगी कि क्या हो गया ? जिससे पूछती कि क्या हुआ, वही रोने लगता। घबड़ाकर मैं अपनी खाट पर चली गई ? पड़े-पड़े सोचने लगी कि मामला क्या है? मुझे याद आया कि अम्मा यह कहकर रोई थी कि मैं राँड़ हो गई। अब मैं सोचने लगी कि राँड़ के मानी क्या, और मैं क्या हो गई और मुझमें कौन-सा परिवर्तन हो गया? समस्त शरीर पर ध्यान दिया, सब कुछ पहले का-सा। कपड़े-लत्ते सब कुछ वैसे ही। अपने खिलौनों को देखा। गुड़ियाँ देखीं। पुस्तकें उलट-पलट डालीं। किंतु कोई अंतर न दिखाई दिया। फिर सोचने लगी, मैं राँड़ कैसे हो गई और राँड़ हो जाने से हुआ क्या, मेरी कौन-सी हानि हुई और मुझे कौन-सी क्षति पहुँची? कुछ समझ में नहीं आया। कुछ देर बाद सोचते-सोचते खयाल आया कि घर की मजदूरिन कभी-कभी हँसते समय और कभी गुस्सा होते समय अपनी लड़की को कहा करती थी, 'राँड़ कहीं की ! दिन-रात रोती रहती है' इत्यादि। यह भी मेरी समझ में न आया। इसी उधेड़बुन में बहुत रात बीत गई। भूख भी बहुत लगी किंतु न मालूम क्यों मैं उठी नहीं और यों ही पड़े-पड़े सो गई।
देर से सोने के कारण प्रातःकाल देर से आँख खुली। आँख खुलते ही देखा, मोहन पास ही खड़ा है। मुझे जागा देखते ही 'बीबी, यह देखो !' कहकर वह मेरी खाट पर चला आया। मैंने उठकर देखा, खाट के नीचे उसने खिलौने और गुड़ियों को सजा रखा था। 'आज मोहन यह क्या है' यह पूछने पर उसने कहा, बाबूजी ने गुरुजी से छुट्टी दिलवा दी है और तुम्हारे साथ गुड़िया खेलने को कह दिया है। आज पढ़ना नहीं है। आओ-आओ, आज खूब खेलेंगे। मैं तुम्हें जगा लेता किंतु अम्मा ने यह कह दिया था कि उसे जगाना नहीं। सहसा रात्रि की बातें याद आ गईं। याद आया कि मैं राँड़ हो गई हूँ और उसके बाद ही विचार उत्पन्न हुआ कि पुस्तकों को छोड़ आज प्रातःकाल यह गुड़ियों-खिलौनों का साज कैसा? क्या राँड़ होने पर दुनिया से नाता तोड़ खिलौनों और गुड़ियों में ही समय बिताना पड़ता है? वे ही सर्वस्व हो जाते हैं? कुछ समय बाद मैं मोहन के साथ खेल में लग गई और रात्रि की सारी बातें मेरे मस्तिष्क से हवा हो गईं।
खेल आरंभ हो गया, मोहन के गुड्डे और मेरी गुड़िया का विवाह रचा गया। दान-दहेज की सामाग्री एकत्र हुई। मोहन ने याद नहीं उस समय क्या कहा, मुझसे उसका झगड़ा शुरू हो गया। आखिर में हम दोनों रोते-रोते अम्मा के पास घर में पहुँचे। उस समय अम्मा दालान में चादर ओढ़े बैठी थीं। कितनी ही अन्य स्त्रियाँ भी, जिन्हें मैं पहचानती न थी, बैठी थीं। रोते-रोते मोहन और मैं अम्मा की गोद में आ पहुँचे। बिना हम लोगों के झगड़ा सुने ही वे रोने लगीं। अन्य स्त्रियाँ भी गरम-गरम आँसू बहाने लगीं। कुछ समझ में नहीं आया। मोहन और मैं भी वहीं बैठकर रोने लगे। कुछ समय बाद अम्मा के चुप होने पर मोहन ने झगड़े की बात शुरू की। गुड़ियों के ब्याह की चर्चा छिड़ते ही अम्मा फिर रोने लगीं। कहने लगीं अभी यह गुड़िया से ही खेलती है। मेरी सुनवाई न हुई। इतने में मजदूरिन ने कहा कि बाबूजी मोहन को और मुझे बाहर बुलाते हैं।
अब मेरी अवस्था 15 की है, विधवा हुए चार-पाँच वर्ष बीत चुके। इतने दिनों में मैं एक बार अपने ससुराल भी गई थी। कारण मेरे नाम के पति को, जिसको कि मैंने न कभी देखा, न जाना, न जिससे कि कभी मैं एक शब्द भी बोली थी, ननिहाल से कोई जायदाद मिली थी। उसके प्राप्त होने के 10-15 दिन ही के बाद उन्होंने संसार से नाता तोड़ा था। अब उस जायदाद की मालकिन मैं हुई थी और उसी के संबंध में मैं दो-तीन दिन के लिए ससुराल गई थी।
ससुराल में शायद तीन दिन से अधिक न रही थी। किंतु जीवन के ये तीन दिन हमारे समस्त जीवन से भारी हैं और उन्हें मैं कभी भूल नहीं सकूँगी। जाने पर मेरा किसी प्रकार से स्वागत नहीं हुआ। उलटे ऐसा मालूम पड़ता था कि घर में कोई बड़ी छूत आ गई और सभी उसे बरकाना और उससे दूर रहना पसंद करते हैं। पहले दिन मैंने सबसे मिलने और बोलने की बड़ी कोशिश की किंतु जिससे बोलती वही मुँह लटका देता और या तो कुछ न बोलता या इधर-उधर चला जाता। घर में रहकर जाना कि एक हमारी सास और उनकी कुछ परिचारिकाएँ उस घर में थीं। पहला दिन किसी प्रकार काटा, वह भी मेरे घर की मजदूरिन मेरे साथ न होती तो और भारी हो जाता। दिन को घर में मैं चार-पाँच बार खाती थी, वहाँ पहले ही दिन मुझे मध्य दुपहरिया में एक बार भोजन मिला। मैं अकेले बैठी थी। एक मजदूरिन ने आकर कहा था, "सासूजी बुलाती हैं।" चलते समय मेरी अम्मा ने मुझसे कहा था, बाबूजी ने भी कहा था कि वहाँ भी तुम्हारी एक अम्मा हैं। सासूजी तुम्हारी अम्मा की भाँति तुम्हें रखेंगी। यहाँ कोई पूछने वाला ही नहीं। मजदूरिन मुझे रसोई में ले गई। सासूजी ने इतना ही कहा, "बैठ जाव।" जिस लाड़-प्यार की मैं आदी थी वह न था, भूख न हो तो भी बातें कर खिला देनेवाली अम्मा का दर्शन न हुआ। मेरे सामने सासूजी ने थाली रख दी। सवेरे से कुछ खाए न थी, पेट जल रहा था किंतु रसोई में जाते ही मेरी सब भूख काफूर हो गई। कवर मुँह में धँसता ही न था। नीचे सिर किए किसी प्रकार भर लेना चाहती थी किंतु वह भी न होता था। सासूजी की ओर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैं यों ही सिर लटकाए मुँह चलाते बैठी रही। कुछ समय बाद सासूजी ने पूछा, "क्या दें?" मैंने सिर नीचे किए हुए बड़े धीरे से कहा, "कुछ नहीं।" उस समय बरबस आँसू आँख में आ बैठे किंतु बड़ी कठिनाई से मैं उन्हें रोके रही। सासूजी के साथ-साथ मैं भी उठी और हाथ-मुँह धोकर उन्हीं से कुछ दूर पर एक कोने में बैठ गई। इतने ही में पड़ोस की कुछ स्त्रियाँ आ गईं। कहने लगीं, बहू को देखने आई हैं। यह सुनकर मैं समझी, मुझसे कोई बोलेगा किंतु बोला कोई नहीं। मैं भी सिर नीचा किए हुए अपने पैर के नाखूनों को देखती थी या जब जी ऊब जाता तो जमीन पर उँगुली से कभी बाबूजी और कभी मोहन का नाम लिख उन्हें याद करती थी। मैं इसी धुन में लगी थी कि एक स्त्री को अपने पास ही बैठी हुई किसी दूसरी स्त्री से मैंने कहते सुना, "अरे, बड़ी कुलक्षिनी मालूम होती है, इसी से तो इस अभागिनी का पैर आते ही यह सोने का घर राख हो गया।"
उसने कुछ और कहा किंतु मैंने सुना नहीं। जितना सुना था उतने ही से मेरे बदन में खून नहीं रह गया था। कोई पास न था जिससे मैं कुछ कह-सुन सकती। बात से कलेजा छिद-सा गया था किंतु करती क्या? उस दिन पहिले-पहिल यह मालूम हुआ कि विधवा का अर्थ कुलक्षिनी है, अभागिनी है। जो बात मैं इतने दिनों से सोच रही थी कि मुझमें क्या परिवर्तन हुआ है, मेरी क्या हानि हुई है, मुझे कौन-सी क्षति पहुँची है, वह समझ में आ गई। विधवा होने के पहले मैंने ये शब्द कभी नहीं सुने थे। मेरे बाबूजी कभी-कभी मुझे 'आओ लक्ष्मी' कहकर बैठाते थे किंतु अब मैं कुलक्षिनी हूँ, अभागिनी हूँ। मैं सब तरह से वही हूँ, वैसी ही हूँ, मेरे शरीर में, मेरी शक्तियों में, मेरे मस्तिष्क में बिना किसी प्रकार के अंतर हुए ही केवल मात्र विधवा होने से मैं कुलक्षिनी और अभागिनी हो गई। पहले-पहिल उस दिन ये बातें समझ में आईं। प्राणपीड़ा होने लगी, आँख की बरौनयाँ धुक आईँ और आँसुओं की मूसलाधार वर्षा होने लगी। छिपाने के लिए जितना ही मैं प्रयत्न करती उतनी ही तकलीफ और बढ़ती। बरबस श्वास मुँह से निकलती, हिचकियाँ आतीं। जीवन में मैं पहली बार अपमानित हो रोई थी। आप समझ सकती हैं कि मेरी क्या दशा हुई होगी। किसी प्रकार अपने को शांत कराया। संध्या होते-होते स्त्रियाँ जो आई थीं वे भी गईं और मैं ऊपर अपनी मजदूरिन के पास जाकर सो रही।
सोने का बहुत यत्न किया, पर नींद न आई। खाली पेट काँव-काँव कर रहा था, नींद आती कहाँ से? करवटें बदलने लगी। मोहन की 'आजा री निंदिया' की याद आई। याद आया कि घर में कैसे सोती थी? मोहन कैसा खेलता और तमाशा लगाता था। अम्मा-बाबूजी भी कैसे प्रसन्न होते थे। छत पर चाँदनी के साथ-साथ प्रसन्नता कैसी नाचती-सी दिखाई देती थी। उस दृश्य की याद आते ही साथ ही वर्तमान दशा को देख कलेजा भर आया। फिर अश्रुवर्षा शुरू हुई। पड़े-पड़े मैं रो रही थी कि सासूजी आईं और मुझे सोती समझ चली गईं। इससे मेरा दुःख और भी बढ़ गया। कुछ समय बाद किसी तरह से सांत्वना मिलने पर मैं जो घर से कपड़ों में चुराकर एक किताब लाई थी उसे पढ़ने लगी।
पढ़ना कितना सुखमय है, कुछ समय के लिए संसार के कष्टों को भुला देने की उसमें कितनी शक्ति है, स्थूल दुनिया से पढ़ने वाले को उठा ले जाने का उसे कितना अभ्यास है, यह सब पहिले-पहिल मुझे उस दिन मालूम हुआ। मैं बाबूजी की कोटिशः धन्यवाद देने लगी यदि अम्मा की भाँति वह भी मेरे पढ़ने के विरुद्ध होते, यदि वे भी यही कहते क्या तुम्हें नौकरी करनी है, यदि मैंने न पढ़ा होता तो आज मेरा समय कितने कष्ट से कटता, जीवन भारी हो जाता और इस जीवन में मालूम नहीं क्या भोगना पड़ता। उस दिन भी और आज भी मेरा यही खयाल है कि यदि मैं पढ़ी-लिखी न होती, यदि संसार को भूल जाने की कीमिया मेरे हाथ में न होती तो मेरा संसार में जीना कठिन हो जाता। अस्तु मैं पुस्तक ले पढ़ने लगी और पढ़ते-पढ़ते न मालूम कब सो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल के समय बाबूजी आए। उनके पैरों पर मैं कितना रोई, इसका अनुमान वे ही कर सकते हैं जो मेरे दो दिनों के कष्ट को समझे होंगे। बाबूजी को देख मेरा दुःख समुद्र की भाँति उमड़ आया, साथ ही उन्हें देख मुझे प्रसन्नता हुई और शांति भी मिली। संध्या होते-होते उनके साथ मैं घर के लिए रवाना हुई।
घर पहुँची, मोहन मिला, अम्मा से फिर भेंट हुई, सब पहले-सी बातें हो गईं किंतु मुझमें न मालूम कौन-सा परिवर्तन हो गया। तीन दिन के स्वसुरालय वास ने मुझमें बड़ा अंतर कर दिया। अब मेरे चेहरे पर वह प्रसन्नता नहीं, तबीयत का हरापन जाता रहा और तबीयत हर समय गिरी-सी रहती थी। हजार प्रसन्न रहने की चेष्टा करती किंतु सफलता न प्राप्त होती। रह-रहकर ससुराल में सुनी हुई बात 'अभागिनी, कुलक्षिनी' चित्त को व्यथित करती। अब मैं मोहन के साथ बाहर भी न निकलती थी। यह सब आपसे आप होने लगा किंतु ऐसा क्यों होता था यह हजार सोचने पर भी समझ में न आता। बाबूजी और अम्मा भी इसका कारण न पूछतीं। उलटे ऐसा मालूम होता कि मेरा इस प्रकार का जीवन उन्हें पसंद था। इस बात से मुझे और भी दुःख होता। कभी-कभी रात-रात भर इसी चिंता में लीन रह जाती कि मुझे क्या हो गया? विधवा होने से मुझमें कौन-सा दोष लग गया, मेरे मन की प्रसन्नता क्यों और कैसे चली गई, बाबूजी और अम्मा भी मुझे देखकर सुस्त क्यों हो जाते हैं, अब मेरे सामने वे पहिले से प्रसन्न क्यों नहीं दिखाई देते?
घर में यदि किसी में मुझे परिवर्तन न दिखता था तो वह मोहन था। वह पहिले की भाँति अब भी मुझसे बोलता, हँसता किंतु वह अधिकतर बाहर रहता था और मैं घर की डेहरी नहीं डाक सकती थी। जो चार दिन पहिले दिन भर बाहर रहती थी, वही अब एक मिनट के लिए भी बाहर नहीं निकल सकती थी। दिन-रात भीतर रहते-रहते मेरी दशा और भी खराब होने लगी। चेहरे पर पीलापन आ गया। घर में भी आनंद न दिखाई देता। अम्मा और बाबूजी सदा उदास रहते। जब सुनते मेरी ही चर्चा उनमें होती रहती। अड़ोस-पड़ोस जहाँ कहीं भी जो कोई, मुझे देखता दुखी होता। जहाँ सुनती यही सुनाई देता कि संसार में मेरे लिए सुख नहीं। यह सब देख, सुनकर मुझे और कष्ट होता। पड़ोस की स्त्रियाँ, सखी, सहेलियाँ मेरे दुःख पर शोक प्रकट कर मुझे पागल करतीं। घंटों एकांत में बैठकर मैं इन सब बातों पर विचार करती किंतु कोई बात मेरे समझ में न आती। अम्मा भी मुझसे कुछ न कहतीं। एक-दो बार मैंने उनसे जो साहस कर कुछ पूछना चाहा तो मुझे गोद में लेकर या छाती से चिमटाकर रोने लगीं। इससे दुखी हो मैंने उनसे कुछ भी पूछना छोड़ दिया। दिन-दिन यों ही जीवन व्यतीत होने लगा, इतने ही में फिर जीवन में घोर परिवर्तन उपस्थित हुआ।
मोहन की लगन लगी। दस-बारह दिन में बारात जाएगी। घर में फिर चहल-पहल दिखाई देने लगी। लड़काई का देखा हुआ चित्र फिर एक बार नेत्रों के सामने आ गया। हर समय अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ घर में बनी रहतीं। काम काज में मैं भी अपना दुःख भूल गई। मुझे हर समय इस बात की खुशी रहती कि अब एक सहेली घर में होगी। दिन-रात उसके साथ रहूँगी। मोहन भी जब घर में आता तो उससे मैं उसी की बहू की बातें करती किस्साकोताह, बारात बड़े धूमधाम से गई।
चार दिन बाद कल प्रातःकाल बारात आने वाली है। बहू भी साथ आ रही है। कल प्रातःकाल परछन होगा। कल बहू आ जाएगी, कल सहेली मिलेगी, वह कैसी होगी, उसके साथ क्या बातें होंगी यही सोचते रात बीत गई। रात्रि को स्वप्न भी देखा तो नई बहू का ही। सवेरा होते ही आप से आप नींद खुल गई। बाजे की आवाज सुनाई दी। मालूम हुआ बारात आ गई। छत से उतर दौड़ी नीचे आई। देखा भीड़-भाड़ है। स्त्रियाँ चलती-फिरती दिखाई दीं। मैं भी उन्हीं के पीछे चली। द्वार पर डोली खड़ी थी। मैं पहुँची ही थी कि इतने में एक पास ही खड़ी स्त्री को अम्मा से मैंने यह कहते सुना, "सरला विधवा है, नई बहू पर परछन के समय उसकी छाया भी न पड़नी चाहिए।" इतना सुनते ही अम्मा ने पीछे फिरकर मेरी ओर देखा। उनकी आँखों में आँसू आते दिखाई दिए किंतु सँभलकर उन्होंने कहा, सरला आ, जरा यह काम तो कर दे यह कहकर वह मुझे ऊपर लाई और कुछ इधर-उधर का काम बताकर चलती बनीं। उनका मुँह दुःख से ग्रसित सा हो गया। मैंने बातें सुन ली थीं। मैं सीधे ऊपर चली गई। आज कितने दिनों की आशालता मुरझा गई। जब मेरी छाया बचाई जाती है, तो मैं उसके साथ क्यों बैठने पाऊँगी। यह विचार उठते ही सर में चक्कर आने लगा और मैं वहीं खाट पकड़कर बैठ गई। मैं सोचने लगी, विधाता ! मैंने क्या किया है ! अपनी जान में मैंने कोई खोटा काम नहीं किया। जो स्त्रियाँ परछन के समय उपस्थित थीं उनमें से कितनी ही को मैं जानती हूँ, कितने ही उनमें से मेरी छाया छूने योग्य भी नहीं। किंतु सधवा होने से वे मांगलिक हैं, पवित्र हैं, और सब कुछ कहने और करने की अधिकारिणी हैं। दैव वशात् विधि की विडंबना से, बैठे-बिठाए मैं विधवा हो गई। बस इतना ही मुझे कुलक्षिनी, अभागिनी, तिरस्कृत और हेय बनाने के लिए काफी है। अम्मा में मुझे भक्ति थी। मैंने कभी उन्हें अन्याय करते न देखा था। किंतु आज बिना कारण का, बिना किसी प्रकार के मेरे अपराध या दोष के यह अपमान मेरे ह्दय में शूल-सा सालने लगा। मैं खाट पर पड़ी-पड़ी रोने लगी, सोचने लगी, दीनानाथ ! मुझमें क्या हो गया? मेरी छाया भी हानिकारक क्यों हो गई? क्या वास्तव में मेरी छाया पड़ने से सहेली का कुछ अनिष्ट होता? क्या सधवा या विधवा की छाया में भी कुछ भेद होता है, कुछ फर्क होता है? क्या सधवा होने ही से कोई स्त्री पूज्य या मांगलिक और उसकी छाया पवित्र हो सकती है? क्या सधवा होने में किसी का हाथ है? क्या पुण्य या पाप से कोई सधवा या विधवा हुआ करती है? यदि ऐसा है तो सधवा सदा पुण्य करने वाली और पवित्र और विधवा सदा बुरी होनी चाहिए। किंतु संसार में यह देखा नहीं जाता। चार दिन पहिले मेरी पूछ थी, सब कामों में मैं आगे रखी जाती थी, तनिक भी कोई स्त्री आगे खड़ी हो जाती तो अन्य आस-पास की स्त्रियाँ उसे पीछे हटा देतीं, कहतीं, "सरला को देखने दो, उसेक आगे क्यों खड़ी हो।" किंतु सरला सब कुछ वही होते हुए बिना अपने दोष के, पतित समाज के कुत्सिग नियम से विधवा है और इसलिए आज उसकी छाया भी बरकाई जाती है। यह कैसा और कहाँ का न्याय है? हम सब सहन कर लें भी तो क्या अन्याय करने वालों को उसका दंड न मिलेगा। ईश्वर से यह अन्याय कैसे देखा जाएगा, उसे अपनी संतान के साथ ऐसा व्यवहार कब सहन होगा? परमेश्वर, भगवन्, क्या तुम भी इस अन्याय का बदला न लोगे? यदि अन्याय नहीं है तो तुम्हीं बताओ मेरा क्या दोष है? विधवा होने में मेरा कौन-सा हाथ था। यदि विधवा होने में मेरा हाथ होता तो विधवा होने के पहिले मैं अपना खातमा क्यों न करती? मुझे विधवा मानकर समाज ने अन्याय किया है किंतु वह सुखी है। सुखी ही नहीं मुझ पर अन्याय करने में मग्न है और तनिक भी कुंठित नहीं होता। वह अपनी मौजें ले रहा है। उसे यह चिंता नहीं कि जो कुछ वह कर रहा है उसका फल उसे ही भोगना पड़ेगा। वह यह नहीं समझता कि शरीर का यदि एक अंग भी हीन हो रहा है तो आज नहीं तो कल समस्त शरीर नष्ट हो जाएगा।
संसार क्या है, विधवा-सधवा में अंतर क्या है, क्योंकर कोई विधवा या सधवा होता है, यह ईश्वरीय दंड है या यह समाज की निरंकुशता है, यह सब समझने का अवसर भी मुझे न मिला, मैं संसार से मिलने भी न पाई कि दूध की मक्खी की भाँति बाहर कर दी गई। भगवन्! तुमने यह क्या किया? मैं इसी प्रकार सोच ही रही थी कि अम्मा आ गईं और दो इधर-उधर की बातें कर मुझे नीचे ले गईं।
माता के साथ नीचे गई। बहुत-सी स्त्रियाँ एक लड़की को घेरे बैठी थीं। पहुँचते ही स्त्रियों ने मुझे लड़की के पास बैठाला और उसे बतलाया कि मैं उसकी ननद और बीबी जी हूँ। लड़की देख मैं अपने दुःखों को बिलकुल भूल गई। लड़की क्या वह एक सुंदर सजी-सजाई जीवधारी गुड़िया थी। बरबस गोद में उठा उसे चूम लेने की तबीयत होती थी। यही मेरे स्वप्नों की देवी थी, यही मेरे जीवन की सजीवनमूरि थी। यही मेरी सहेली होने वाली थी। इसी के साथ मुझे अपना जीवन काटना था। उसे देख ह्दय की कली खिल उठी, तबीयत हरी हो गई और निश्चय हो गया कि इसके साथ रहकर मैं सुखी हो सकूँगी। उसके मुख पर जरा-जरा घूँघट लटक रहा था। मैंने उसे पलट दिया और उसे अपनी गोद में पास खींच लाई। वह भी मेरे पास चली आई और मेरा मुख निहारने लगी। आँखों के चार होते ही एक विद्युत जीवन का श्रोत ह्दय में भर उठा। ह्दय में एक साथ ही कितने और कौन-कौन से भाव उठे यह मैं नहीं लिख सकती किंतु इतना अवश्य कह देना चाहती हूँ कि उस समय उस गुड़िया को छोड़ संसार में जो कोई जो कुछ माँगता बिना एक क्षण भी विचार किए मैं उसे दे देती। मैं उससे बातचीत करने लगी। नाम पूछने पर मुँह नीचा कर पहले वह सकुचाई किंतु न मालूम क्या समझकर मुस्कराकर धीरे से मेरे कान में उसने कहा, "लाड़ली।" उसकी अवस्था 9 वर्ष से अधिक न थी। अनजान जगह में प्रेम और सहानुभूति के पाश से मैंने उसे बाँध लिया और वह मुझसे बिलकुल हिल गई। दालान में अपनी गुड़िया के साथ मैं खेल रही थी, इतने में खड़ाऊँ की खट-पट से मालूम हुआ कि बाबूजी भोजन करने आ रहे हैं।
बाबूजी आए। मैंने दौड़कर उनसे कहा, "आइए, आइए, अपनी गुड़िया आपको दिखलाऊँ।" वह भी हमारा हाथ पकड़े दालान की ओर बढ़े। अम्मा भी उन्हीं के पीछे आ गईं। दालान में हम लोग पहुँचे किंतु गुड़िया ने घूँघट नहीं टारा। मेरी बात भी उसने खाली कर दी। बाबूजी रसोई में चले गए। मैं उसी के पास बैठकर बात टाल देने पर उसे उलाहना देने लगी। तनिक बनावटी असंतुष्टता और अनमनापन दिखाने से उसका फूल-सा चेहरा कुम्हला गया।
मृगशावक की-सी उसकी आँखों के कोने में सफेद-सफेद मोती झलकने लगे और मेरे पास खसककर हाथ जोड़ उसने कहा, "बीबी जी, आप क्यों गुस्सा हो गईं। क्या कहें घर में बहुआ ने कह दिया था, वहाँ किसी के सामने घूँघट न खोलना। अब आप ही कहिए मैं क्या करूँ, जो आप कहें मैं करने को तैयार हूँ।"
क्रोध भी होता तो उसकी इस भोली बातों के सामने न ठहर सकता, ऐसी अवस्था में फिर बनावटी क्रोध के संबंध में कहना ही क्या। मैंने उसे चिपटा लिया और उसके दोनों हाथ पकड़ हँसकर कहने लगी, "पगली कहीं की ! अच्छा अब मेरा कहना मानेगी?"
उसने कहा, "आप गुस्सा भर न होइएगा, जो कहिएगा वही करूँगी।"
उसके कहने में कितनी मिठास थी, कितनी मनहारिणी शक्ति थी, मैं वर्णन नहीं कर सकती। मैं उसकी ऐसी ही बातों में मुग्ध हो रही थी कि अम्मा ने आकर कहा, "चलो भोजन कर लो।" सब लोग भोजन के लिए उठे। अपनी सहेली गुड़िया को मैंने बड़े चाव से अपनी थाल में बैठाकर खिलाना चाहा। पहले वह भी सकुचाई, अम्मा ने भी कहा नहीं-नहीं किंतु मैं न मानी और मैंने उसे अपने साथ ही खिलाया। सहसा मुझे अपने ससुराल जाने की याद आई। याद आया ससुराल में कवर मेरे मुँह में कैसे नहीं धँसता था। याद आते ही मैंने कहा उसे ऐसा दुःख न होने दूँगी। और मैं उसे खूब हँसा-हँसाकर खिलाने लगी। भोजन कर हाथ-मुँह धो हम लोग फिर दालान में जा बैठीं।
इतने ही में मजदूरिन ने अम्मा से आकर कहा, "बाबूजी बुलाते हैं।"
अम्मा के चलने के लिए उठने पर मैंने कहा, "अम्मा, मैं भी चलूँ ?"
उन्होंने कहा, "चल न !" वे आगे चलीं, उनके चली जाने पर अपनी गुड़िया को साथ लेकर मैं भी चली। अम्मा बाबू के कमरे में बैठी थीं। मोहन भी वहीं एक ओर बैठा था। मैं भी अपनी सहेली के साथ द्वार पर पहुँची।
भीतर बाबूजी को देख सहेली के पैर रुके किंतु बाबूजी ने देखते ही कहा, "चली आ, चली आ।"
मैं भी उसका हाथ पकड़ कमरे में ले गई। वह कोने की ओर बैठने के लिए झुकी किंतु मैंने उसे बाबूजी के पास बैठा दिया और वहीं मैं भी बैठ गई।
बाबूजी ने हँसकर कहा, "सरला! गुड़िया पसंद है? मालूम होता है तेरा कहना यह खूब मानती है।"
मैंने कहा, "हाँ बाबूजी ! मेरी गुड़िया बड़ी अच्छी है। आज मैंने इसे अपने साथ खिलाया भी है। अपने ही साथ आज इसे सुलाऊँगी भी।" मैं यह कह रही थी कि मोहन को मैंने उठकर जाते देखा।
मैंने तुरंत उठकर उसे बैठाला। वह बाहर जाने के लिए सैकड़ों काम गिनाने लगा किंतु मैंने उसे जाने न दिया। अंत में उसे बैठ ही जाना पड़ा। वहीं ताक पर पचीसी रखी हुई थी। मैंने उठाकर उसे बाबूजी के सामने बिछा दिया। खेल आरंभ हुआ अम्मा और बाबूजी खेलने लगे। घूँघट काढ़े गुड़िया को बैठी देख मुझे बड़ी दया आई। मैंने उससे घूँघट टार देने को कहा। बाबूजी और अम्मा भी देखने लगे। वह फिर सकुचाई किंतु मैंने हँसकर कहा, अभी तुमने कहा था कि मेरी बात मानोगी। और यह कहने के साथ ही मैंने उसके मुँह पर से घूँघट हटा दिया। मालूम हुआ बादलों की ओट से चंद्रमा निकल आया।
मैंने बाबूजी से कहा, "देखिए हमारी गुड़िया कैसी है ?" मेरे पूछने पर कि वह पचीसी खेलना जानती है।
उसने मेरी ओर झुककर धीरे से कहा, "हाँ"।
मैंने कहा, धीरे से क्यों बोलती हो, आओ इधर खिसक आओ जैसे हम सब लोग बोलते हैं तुम भी बोलो। वह मेरी ओर खिसक आई। बाबूजी से मैंने कहा, "आज हम लोगों को भी खिलाइए।"
उन्होंने कहा, "खेलो !" गोट फिर से बिछाई गई। एक ओर बाबूजी दूसरी ओर अम्मा, तीसरी ओर मोहन और चौथी ओर मैं और मेरी गुड़िया। मोहन कुछ शरमाया किंतु अम्मा के कहने से उसे खेलना ही पड़ा। धीरे-धीरे खेल बढ़ा, सब खेल में लीन हो गए और मेरी गुड़िया भी कोकिल की भाँति बीच-बीच में हमीं लोगों की भाँति बोलने लगी। आज बहुत दिन बाद हमारे घर में यह स्वर्गीय सुख दिखाई दिया था। खेल में कभी-कभी मोहन और मेरी गुड़िया की बात हो जाती थी। पहले एक-दो बार दोनों कुछ झिझके थे किंतु बाद में सब व्यर्थ की लज्जा जाती रही। खेल में संध्या होने को आई, खेल उठाया गया। अम्मा के साथ मैं और मेरी गुड़िया घर में आ गई। रात्रि को छत पर भोजन करते समय फिर बहुत देर तक यों ही हँसी खेल होता रहा, बाद में बाबूजी और मोहन घर के बाहर चौक में जाकर सोए, अम्मा, मैं और मेरी गुड़िया छत पर रह गईं। उस रात्रि को गुड़िया को मैंने अपने पास ही सुलाया। दूसरे दिन गुड़िया के घर से उसके चाचा आए और वह चली गई।
मेरी जीवनप्राण गुड़िया दोपहर के समय चली गई। गाड़ी पर उसके बैठते ही मुझे मालूम हआ कि मानो मेरे ह्दय की सुख की ज्योति को वह अपने में केंद्र स्थित कर जा रही है। तबीयत घबरा उठी, ह्दय से जीवन शक्ति मालूम हुआ कोई निचोड़े लिए जाता है, इतने ही में गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी फाटक के बाहर हुई। जब तक वह दिखाई देती रही मैं एकटक उसी की ओर देखती रही। कुछ ही मिन्टों के बाद गाड़ी आँख से ओट हो गई। उस समय मेरी बुरी दशा हुई। भीतर अम्मा के पास गई, कुछ देर इधर-उधर करती रही किंतु तबीयत न लगी। अंत में उठकर अपने कमरे में ऊपर चली गई। एक पुस्तक उठाकर पढ़ना शुरू किया किंतु पढ़ने में मन नहीं लगा। न मालूम क्यों ह्दय कहने लगा कि गुड़िया, मेरी गुड़िया, अब फिर मुझे न मिलेगी। हजार चित्त को समझाती किंतु बरबस ह्दय से यही ध्वनि निकलती कि नहीं गुड़िया अब नहीं मिलेगी। हजार रोकने पर भी इन विचारों के न रुकने पर घबड़ाकर मैं बाबूजी के कमरे में चली गई। कमरा वही था, अम्मा थी, मोहन भी था, कल यहीं दिन में स्वर्ग सुख मैंने अनुभव किया था किंतु आज वह कमरा, वह स्थान जहाँ पर मैं गुड़िया के साथ बैठी थी मुझे काटने दौड़ता था। मैं उस ओर न जाकर मोहन के पास चली गई। किसी प्रकार दिन कटा, रात्रि हुई किंतु रात्रि में भी मुझे चैन न मिला।
सवेरा हुआ, नित्य क्रिया से छुट्टी पाकर सब लोग अपने-अपने काम में लग गए। अम्मा के पास घर में बैठी हुई मैं दाल बीन रही थी। इतने ही में बहुत घबराए हुए बाबूजी भीतर आए। उनके हाथ में एक पीला तार का लिफाफा था।
अम्मा के पास पहुँचते ही उन्होंने कहा, "तार आया है बहू बहुत बीमार हो गई है, उसे देखने के लिए हम दोपहर की गाड़ी से जाएँगे।" खबर सुनकर ह्दय का स्पंदन कुछ समय के लिए बंद हो गया।
अम्मा ने बाबूजी से कहा, "अभी तो खासी अच्छी यहाँ से गई, घर जाते ही उसे क्या हो गया ?"
कुछ जवाब न देकर बाबूजी बाहर चले गए। मेरे बदन में काटो तो खून नहीं। दस बजते-बजते समधियाने का एक चाकर आया। उससे मालूम हुआ कि बहू स्टेशन से उतर घर को जा रही थी। गाड़ी का घोड़ा किसी वस्तु को देखकर बिगड़ा बगल में ही पत्थर से लदी बैलगाड़ी जा रही थी। मालूम नहीं वह कैसे पलट गई। उसमें बैठी हुई लाड़ली को बहुत चोट आई। उसके बचने की आशा नहीं। जल्दी-जल्दी खा-पीकर बाबूजी 12 बजे की गाड़ी से रवाना हुए।
जाते समय अम्मा ने कहा, "जाते ही ठीक-ठाक खबर भेजना और जल्दी लौटना।"
बाबूजी गए। मैं भोजन पर बैठी किंतु मुँह में कवर नहीं धँसा, ऐसा मालूम होता था कि मेरे जीवन-दीप के सुख तैल का अंत हो रहा है। किसी प्रकार हाथ-मुँह धोकर उठ आई।
अम्मा के पास बैठी, फिर उठकर कमरे में चली गई। कहीं चित्त न लगा, जिधर जाती गुड़िया सामने खड़ी दिखाई देती। ह्दय पर मालूम होता सैकड़ों बिच्छू एक साथ डंक मार रहे हैं। किसी प्रकार चैन न मिला। किसी प्रकार दिन कटा, संध्या हुई किंतु बाबूजी की कोई खबर नहीं, न कोई तार आया और न कोई आदमी ही। रात भी किसी तरह करवटें बदलते कट गई। सवेरा हुआ, दस बजा, बिना स्नान किए बाबूजी की बैठ राह निहार रही थी, इतने ही में फाटक पर गाड़ी की घड़घड़ सुनाई दी। छत पर ही से गाड़ी में बाबूजी बैठे देख मैं नीचे दौड़ी। द्वार पर पहुँचते ही बाबूजी से भेंट हो गई। अम्मा भी उसी समय आ पहुँची। बाबूजी ने उनसे इतना ही कहा कि उनके पहुँचने से पहिले ही मेरी गुड़िया इस असार संसार से नाता तोड़ विदा हो चुकी थी। यह सुनते ही मैं वही चक्कर खाकर गिर पड़ी।
तीसरा पहर है, आसपास की स्त्रियाँ घर में आई हैं। अम्मा भी चादर ओढ़े दालान में बैठी हैं। गुड़िया का स्यापा है किंतु कोई रोता नहीं। नवआगंतुक के आते ही रोना, जैसे कि पहिले एक बार मैंने देखा था, नहीं शुरू होता। किसी का मुख विषादपूर्ण भी नहीं है। स्त्रियाँ एक बार यह सुनकर कि ह्दय की प्रतिभा हमारी गुड़िया कैसे मरी, बात खतम कर देती हैं। मानो उसकी चर्चा उन्हें नहीं सुहाती। कहती हैं, अरे क्या हुआ, मोहन के लिए क्या कन्याओं की कमी है, आज उसका विवाह हो सकता है। मोहन को दामाद बनाना किसे न रुचेगा। कोई कहतीं, फलाने की लड़की अच्छी है, कोई किसी दूसरी का नाम लेतीं। यह सुनकर कलेजा छिद जाता है। यह हमारी गुड़िया का स्यापा है। उसके लिए रोना नहीं, वरन् उसकी याद बिसराने के लिए मोहन के दूसरे विवाह के बाजार का यह लीलाक्षेत्र है।
भगवान् ! कैसा अन्याय है। जिसने संसार का कोई सुख न देखा, जो फूल-फूलने के पहिले ही कली की अवस्था में ही मुरझा गया, जिसका सौरभ समीर संसार को आमोदित न कर सका उसके लिए किसी को दुःख नहीं, किसी को चिंता नहीं, कोई एक बार उसके लिए आँसू नहीं गिराता। क्यों? क्योंकि उसके मरने से मोहन को हानि नहीं पहुँची। उसके लिए विवाह का बाजार वैसा ही गरम है। स्वार्थ में फर्क नहीं आता, समाज को कोई हानि नहीं पहुँचती, तो फिर रोवें क्यों? यह मानव समाज की निष्ठुरता है, उसके स्वार्थमय जीवन का यह नमूना है। किसी तरह संध्या हुई। बाहर की आई हुई स्त्रियाँ घर गईं और भोजन करने के बाद मैं भी निद्रा देवी की गोद में पड़कर दुःखों को बिसराने के लिए जा पहुँची।
पड़े-पडे घंटों यों ही बीत गए नींद न आई। सोचने लगी लाड़ली के लिए, मोहन की लाड़ली के लिए, हमारी गुड़िया के लिए कोई दुखी क्यों नहीं है सबसे पहिले यह बात ध्यान में आई कि यदि मोहन को कहीं कुछ हुआ होता-इसकी याद ही से कलेजा सिहर उठा, तो आज चारों ओर कोहराम मचा होता। मालूम नहीं किस अपार दुःख सागर में इष्ट मित्र, संबंधी निमग्न हो गए होते। सोचने लगी मोहन और लाड़ली में फर्क क्या है? सबसे पहिले प्रत्यक्ष यही दिखाई दिया कि मोहन लड़का और हमारी गुड़िया अभाग्य से लड़की थी। फिर याद आया कि यद्यपि यह कहा जाता है कि पहिले लड़की पैदा होना शुभ है किंतु स्वयं माता को भी लड़की के पैदा होने से वह प्रसन्नता नहीं होती जो उसे लड़के के पैदा होने में होती है। तीसरी लड़की के पैदा होते ही लोग दुःख मना लेते हैं इसलिए इसके मरने पर उन्हें दुःख करने की आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरित लड़के के पैदा होते ही लोग खुशी मनाते हैं इसलिए उसके मरने पर वे दुःख करते हैं। सोचने लगी कि इन सब बातों का कारण क्या है? ईश्वर ने लड़के और लड़की दोनों को ही बनाया है। उसकी सृष्टि के लिए, संसार के हित के लिए, उसकी उन्नति, उसके अभ्युदय के लिए दोनों ही एक-से आवश्यक हैं। बिना पुरुष के संसार स्थायी नहीं हो सकता, साथ ही बिना स्त्री के वह एक मिनट भी नहीं चल सकता। दोनों के उद्देश्य एक-से हैं, दोनों की आवश्यकता एक-सी है। अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त दोनों की प्रकृति में भेद अवश्य है किंतु यह भेद किसी बड़प्पन या हीनता का द्योतक नहीं है। यदि पुरुष किसी एक बात में बढ़ा हुआ है तो स्त्री किसी दूसरी बात में बढ़ी हुई है वरन् एक दृष्टि से तो यह भी कहा जा सकता है कि समाज के हित की दृष्टि से स्त्री अधिक उपयोगी है क्योंकि समाज का साँचा वही है और अपने ही अनुसार वह समाज-व्यक्तिगत पुरुषों के समूह-को ढालती है। इस दृष्टि से स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक महत्व को वस्तु है। इस बात के समझ में आते ही फिर मैं विचार सागर में डूबने-उतराने लगी। प्रश्न उठने लगे कि यह सब होते हुए भी स्त्री की अपेक्षा पुरुष का आदर अधिक क्यों है ? सोचने लगी, पुरुष में कौन-सी ऐसी बात है जिसके कारण वह अधिक पूज्य हो रहा है? मानसिक शक्तियाँ, वह प्राःय स्त्री-पुरुषों की समान हुआ करती हैं, वरन् वास्तव में स्त्रियों में बुद्धि अधिक हुआ करती है। आत्मिक गुण, धीरता, सहनशीलता, सत्यप्रियता, त्याग ये भी प्रायः दोनों में समान हुआ करते हैं। पढ़ना-लिखना, हिसाब-किताब, जीवन के प्रायः सभी विभागों में स्त्री-पुरुष एक समान हुआ करते हैं। बुद्धि चकरा गई। फिर सोचने लगी तो यह बात ध्यान में आई कि संसार में समस्त वस्तुओं की अपेक्षा धन का अधिक मान है और उस धन से मनुष्य का घना संबंध है कदाचित् इसी कारण से स्त्री की अपेक्षा पुरुष का आदर अधिक है। संसाररूपी बाजार में पुरुष का आदर अधिक है क्योंकि वह Productive Capital है, उपार्जन करता है, क्योंकि उसके द्वारा धन की आय और उसकी वृद्धि होती है। स्त्री लक्ष्मी होते हुए भी पैदा नहीं करती इसी कारण से उसका मान कम है। यदि वह भी उपार्जन करती होती तो पुरुष के समान बाजार में उसका भी मूल्य होता और उस अवस्था में पुरुष के समान आदर की अधिकारिणी भी वह होती। लड़का पैदा करता है, वह सदा माता-पिता के पास रह सकता है, सदा वह उनकी सेवा-सुश्रूषा भी कर सकता है, वृद्धावस्था में वह उनका सहारा होता है, इसके विपरीत कन्या धन लाने की अपेक्षा लेकर जाती है, वह सदा साथ भी नहीं रहती इसलिए स्वार्थमय संसार में उसका उतना मान नहीं जितना कि लड़के का। इसी उधेड़बुन में पड़ी-पड़ी मैं सो गई।
सवेरे उठने पर रात्रि की बातें फिर दिमाग में चक्कर मारने लगीं। सोचने लगी यह सब हुआ कैसे? बराबर वाली होकर स्त्री दासी कैसे हुई? ध्यान में आया पुरुष पैदा कर सकता है, अपने पर निर्भर रहने वालों तथा अपने आश्रितों की वह सहायता कर सकता है, स्त्री विशेषकर उच्च वर्ग की कुछ नहीं कर सकती, वह पैदा नहीं कर सकती और इसलिए पुरुष की अपेक्षा उसका मान कम होता है। आदि काल में ऐसा न था, स्त्रियाँ अबकी समान पुरुषों पर निर्भर नहीं करती थीं, वे पुरुषों के या संसार के सभी कर्तव्य क्षेत्रों में पुरुष के समान ही भाग लिया करती थीं, सब कुछ करते और धन उपार्जन करते हुए वे दासी नहीं हो सकती थीं, इसी कारण उन्हें पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी। सभ्यता की वृद्धि के साथ ही साथ पुरुष रसिक हुआ, सुखाभिलाषी हुआ, जड़ मनुष्यत्व की उसमें कमी हुई, स्त्रियों की भक्ति, कोमलता, प्रेम को देख उसका रसिक ह्दय इस बात के लिए आग्रह करने लगा कि उसकी प्रेमिका कठिन काम न करे, उसे किसी प्रकार का कष्ट न होने पावे, ऐसे काम वह न करे जिसमें उसके मुख पर, श्रीमुख पर, जिससे देखकर वह जीता था, जिसे देख वह शक्तिसंपन्न और उन्नतिशील होता था, जिसे देख वह दुःखों को भूल जाता था, अपने को भूल जाता था, और संसार को भूल जाता था, पसीना आवे या झाँई पड़े। प्रेम के वशीभूत हो उसने धीरे-धीरे समस्त क्षेत्रों से स्त्री को अलग कर दिया। प्रेम की मूर्ति को उसने प्रेम के मंदिर-गृह की अधिष्ठात्री देवी बनाया। इसलिए नहीं कि स्त्री संसार के कर्तव्य क्षेत्र में किसी प्रकार से अयोग्य साबित हुई थी वरन् इसलिए कि अपने प्रेम की मूर्ति को काम करते देख मनुष्य को कष्ट होता था। गृह की लक्ष्मी, गृह की देवी बनते ही स्त्री ने पुरुष ह्दय की बात समझ ली और प्रेम की मूर्ति को सुख में निमग्न करने के लिए वह तन-मन से, क्योंकि धन उसके पास रहा ही नहीं था, चेष्टा करने लगी। गृहस्थ का समस्त भार उसने अपने ऊपर ले लिया। अपने प्रेम और पवित्रता से उसने गृह को स्वर्ग बना दिया। संसार की झंझटों को झेलता हुआ मनुष्य घर में घुसते ही अपने सर्वस्व का मुखावलोकन करते ही सब कुछ भूल जाता। स्त्री की प्रेममय सेवा-सुश्रूषा उसको सब कुछ भुला देती। गृहस्थ का भार उस पर था ही नहीं, वह सब कुछ स्त्री पर था, उसे यह बहुत अच्छा मालूम होने लगा और धीरे-धीरे स्वार्थवश वह इसी में लीन हुआ। प्रेम के प्याले के मतवालों का इस प्रकार पतन आरंभ हुआ। दोनों में से किसी ने यह सोचा कि वह प्रेम जो विवेकहीन है एक-दो के लिए अच्छा हो सकता है, संसार के सभी स्त्री-पुरुष वैसे प्रेमी नहीं हो सकते, साथ ही साथ उन लोगों ने यह भी नहीं सोचा कि जब एक पैदा करेगा और दूसरा केवल उसे व्यय करेगा, जब एक पर दूसरा अपनी आवश्यकताओं के लिए निर्भर रहेगा, तो दोनों में बराबरी का दावा नहीं रहेगा और ऐसी दशा में आश्रित का आदर अवश्य कम हो जाएगा। प्रेम रहते भी पुरुष के ह्दय में ही इस भाव का-कि वह पैदा करता है और खिलाता है, असर होना बिलकुल स्वाभाविक है। साथ ही साथ हर प्रकार से अपने प्रेम, अपनी भक्ति, अपनी सेवा-सुश्रूषा से संतुष्ट होते भी स्त्री अपने ह्दय को इस विचार के प्रभाव से नहीं बचा सकती कि पुरुष उसके लिए सब कुछ करता है और यह कि वह दीन और उसकी आश्रित है। धीरे-धीरे इस विचार के ह्दय पटल पर अंकित होने से स्त्री मन ही मन में पुरुष की अपेक्षा अपने को हीन और उसके अधीन समझने लगेगी। फल यह होगा कि यह समझते-समझते वह बिलकुल अधीन हो जाएगी। प्रेम के मतवालों ने उस समय यह सब कुछ नहीं सोचा। उन लोगों के ध्यान में यह भी न आया कि जब ईश्वर ने स्त्रियों की सृष्टि की है तब उसका कोई स्वतंत्र उद्देश्य भी होगा। उस समय मनुष्य ने यह नहीं सोचा कि स्त्री के भी आत्मा है और जिस तरह पुरुष इसलिए पैदा हुआ है कि वह अपनी आत्मा का विकास करे उसी भाँति स्त्री भी इसलिए पैदा की गई कि वह अपनी आत्मा का विकास और अपने जीवन के उद्देश्यों की स्वतंत्रतापूर्वक सिद्धि करे। पुरुष ने भूल की। स्त्रियों की आत्मा, उनके गुणों की अपेक्षा वह उनके प्रेम, उनके शरीर, उनके रूप का जो कमल पत्र पर पड़े हुए ओस बूँद की भाँति लुभावना और क्षणभंगुर था, अधिक आदर करने लगा। दलित आत्मयुक्त स्त्री अपने वास्तविक गुणों को, जिससे वह मनुष्य के स्वार्थी और सुख के दीवाने मन को सदा के लिए बाँध सकती थी, भूलने लगी। वह स्वप्न की पीछे दौड़ी। वह अपने रूप में अपने प्रेम में मुग्ध हुई। उसी की सेवा में निरत हुई और इस प्रकार से असली गुणों का आत्मा का विकास दिन-दिन हीन होने लगा। रूप-प्रेमरूपी सुवर्ण मृग हाथ में न आया, वह ठहर न सका। इधर आत्मा निश्चेष्ट और चमकहीन हो गई। फल यह हुआ कि वह सर्वथा पुरुष के आधीन हो गई। पुरुष उसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझने लगा और वह उसकी दासी हो गई। पुरुष ने अपना अधिकार यहाँ तक बढ़ाया कि वह स्त्री को घर की चहारदीवारी में कैद रखने लगा, इतना ही नहीं उसने यह भी नियम कर दिया कि उसकी वस्तु उसकी संपत्ति, कपड़े से ढकी रहे, उस पर बाहर वालों का तो कहना ही क्या? घरवालों की भी दृष्टि न पड़े। इस तरह से स्त्रियों का पतन हुआ, बराबर की संगिनी के पद से गिरकर दासी हुई और इस तरह केवल धनहीन और दूसरे के आश्रित रहने के कारण संसार में पैदा करने वाले पुरुषों की अपेक्षा उनका आदर कम हुआ।
मैं इन विचारों में डूबी हुई थी कि अम्मा ने आकर स्नान के लिए चलने को कहा और उनके साथ मैं स्नान करने चली गई।
दोपहर को फिर स्यापा बैठा किंतु अम्मा से यह कहकर कि तबीयत मेरी अच्छी नहीं है स्यापे, झूठे स्यापे, में जो वास्तव में स्त्रियों की पार्लियामेंट होती है और जहाँ बैठकर वे बिरादरी के समस्त रड़हों-पुतहों की विवेचना करती हैं, मैं नहीं गई। मैं अपने कमरे में बैठी अपने विचारों में लीन थी कि मोहन आ पहुँचा और उसने पूछा कि आज तुम यहाँ कैसे बैठी हो? तुम्हारी तबीयत कैसी है? मैंने यह कहकर कि ऐसे ही तबीयत कुछ भारी है, उसे वहीं बैठा लिया। मोहन सामने बैठ गया। उसने कहा, "तबीयत क्या खराब है ?" मैंने कहा, यों ही सिर में दर्द-वर्द है विशेष कुछ नहीं। उसने कहा, "इतने से तुम चुपचाप बैठने वाली नहीं हो। कहो बात क्या है? कहती क्यों नहीं ?" किसी प्रकार जान न बचती देख मैंने कहा, "मोहन, स्यापे में लाड़ली के लिए कोई रोता नहीं। सब तुम्हारे दूसरे विवाह की चर्चा करती हैं, मुझे इससे बड़ा दुःख होता है इसलिए मैं वहाँ नहीं गई।" बचपन ही से मोहन मेरे साथ रहा था। साथ ही हम लोगों ने शिक्षा पाई और बाबूजी हम दोनों में किसी प्रकार का भेद-भाव न रखते थे। प्रायः बातों में वाद-विवाद भी हो जाता था। बाबूजी बैठे रहते थे और हम दोनों में बहस होती थी। पूर्ण स्वतंत्रता से हम लोगों में बातें होती थी। आज मोहन को अकेले पाकर मैंने बातें फिर शुरू कीं। मैंने पूछा, "कहो मोहन, लाड़ली के लिए तुम्हें भी कुछ दुःख है या नहीं? तुम्हारे मुख पर तो विषाद का चिन्ह दिखाई नहीं देता। "
मो.- (हँसकर) "दुःख किस बात का ?"
मैं.- "नहीं! सच कहो क्या तुम्हें तनिक भी दुःख नहीं है, क्या तुम्हें लाड़ली के लिए दुःख नहीं, उसकी याद भी नहीं आती?"
मो.- "कैसी बातें करती हो? मुझे दुःख किस बात का? किसी भी मनुष्य की मृत्यु से जो साधारण भाव चित्त में उत्पन्न हुआ करता है वैसा ही हुआ। दुःख-वुख कैसा?" मैं- "क्या साधारण जीवधारी की मृत्यु और लाड़ली की मृत्यु में कोई अंतर नहीं और न तुम्हें कोई विशेष दुःख का कारण ही दिखाई देता है?"
मो.- "सच बात तो यही है। बहन, तुम्हीं सोचो। दुःख किस बात का हो सकता है? तुम जानती हो नर तन बड़ा स्वार्थी है, जब तक उसके स्वार्थों में कोई फर्क नहीं आता, जब तक उसे कोई अभाव नहीं होता, जब तक उसके सुख की सामग्री में कमी नहीं होती, जब तक उसे कोई हानि नहीं पहुँचती वह दुःख नहीं अनुभव करता। किसी की मृत्यु होती है उसका दुःख नहीं अनुभव करता। किसी की मृत्यु होती है उसका दुःख यदि किसी विधि से मापकर देखा जाए तो भिन्न-भिन्न पुरुषों को उतना ही होता है जितना कि उसके अभाव से उन्हें हानि पहुँचती है। जितना संबंध होता है, जितना प्रेम होता है, जितना स्वार्थ होता है, जितना उस पर निर्भर रहते हैं उसी के अनुसार या उतनी ही माप में हमें दुःख पहुँचता है। लाड़ली को मैंने जाना नहीं, उससे कभी बोला नहीं उस पर मेरा सुख एक मिनट के लिए भी निर्भर नहीं हुआ ऐसी अवस्था में यह स्वार्थी ह्दय उसके अभाव को कैसे अनुभव कर सकता है। यदि उससे प्रेम हुआ यदि उसके साथ बैठा-उठा होता, उससे बातें की होतीं या यदि उसकी मृत्यु से हमें कोई हानि पहुँचती होती या हमारे भविष्य के सुख में कोई कमी पड़ती होती तो उस अवस्था में हमें दुःख भी होता। तुम्हीं बतलाओ तुम्हें उस पति की मृत्यु का खेद कितना है ?"
मैं- "उस समय तो मैं उन्हें जानती ही न थी। मेरी अवस्था ही क्या थी, मुझे तो इस समय भी उनके स्वरूप का ज्ञान नहीं, मैं बहुत छोटी थी, ऐसी दशा में मुझे दुःख कैसे हो सकता था। किंतु अब कभी-कभी दुःख को मैं बड़ी भीषणता से अनुभव करती हूँ।"
मो.- "ठीक है, तुमने सब बातें ठीक कहीं हैं। अब तनिक उसके मर्म को भी समझ लो। तुम कहती हो उस समय तुम्हारी अवस्था बहुत कम थी, इसलिए तुम्हें दुःख नहीं हुआ। वास्तव में बात यह नहीं है अवस्था तुम्हारी कम थी किंतु उस अवस्था में भी तुम्हें एक गुड़िया की चादर के लिए गिज-मिज जाने से दुःख होता था, एक खिलौने के टूट-फूट जाने पर तुम रोती थीं। यह क्यों? क्योंकि गुड़िया और खिलौनों से तुम्हें प्रेम था, उसके टूट जाने से तुम्हारे सुख की सामाग्री में कमी होती थी, उसके अभाव को तुम अनुभव करती थीं। तुमने पति को नहीं जाना था, उससे वास्तव में तुम्हारा कोई संबंध नहीं था, तुमने अपना सुख उसमें अनुभव नहीं किया था, इसलिए उसके अभाव को तुमने अनुभव नहीं किया और इसीलिए तुम्हें दुःख नहीं हुआ। वास्तव में दुःख न अनुभव करने का कारण तुम्हारी छोटी अवस्था नहीं थी। अब जो तुम कभी-कभी दुःख अनुभव किया करती हो उसका कारण उस पति का-उस विशेष व्यक्ति का अभाव नहीं है। सधवा के जीवन में सुखों के अभाव को तुम अनुभव करती हो और उस अभाव के लिए तुम दुखी होती हो, तुम सोचती हो कि वह जीवित होता तो तुम्हें यह सुख होता यह दुःख न होता और इसलिए तुम दुखी होती हो, वास्तव में उस पति-विशेष व्यक्ति के लिए नहीं। क्योंकि तुम उसे जानती न थीं, उससे तुम्हें कुछ प्रेम न था, तुम्हारा सुख उस पर उतना ही नहीं निर्भर था जितना कि तुम्हारी गुड़ियों या खिलौनों पर। तुम्हारा तोता उस समय उड़ गया होता तो तुम देखतीं कि तोते के उड़ जाने का पति की मृत्यु की अपेक्षा तुम्हें अधिक दुःख होता। अब तुम मेरी बातों के मर्म को समझ गई होगी, तुमने समझ लिया होगा कि मुझे दुःख-विशेष दुःख क्यों नहीं है।"
मैं- (कुछ समय चुप रहकर) "तुम्हारी बातें ठीक मालूम होती हैं किंतु एक बात और है, उस समय हमने दुःख नहीं किया था किंतु उसकी मृत्यु से और सब घरवाले दुखी थे। बाबूजी अम्मा महा दुःखसागर में डूब गईं थीं आज तो वे भी दुखी नहीं दिखाई देते?"
मो.- "उसका भी प्रायः कारण वही है जो मैं तुमसे पहिले कह चुका हूँ। बाबूजी और अम्मा का तुम पर प्रेम है, तुम्हारे दुःख में दुःख और सुख में वे सुख अनुभव करते हैं। उसकी मृत्यु से तुम पर विपत्ति पड़ी, तुम्हारे सुख को देश निकाला हो गया, उसकी मृत्यु से तुम्हारा जीवन, समाज के नियमानुसार, व्यर्थ हो गया, तुम्हारे दुःख के कारण वे दुखी थे। यदि उसकी मृत्यु का तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, यदि तुम सुखी रह सकतीं और तुम्हारे सुख में कमी न पड़ती तो बाबूजी और अम्मा को भी दुःख न होता। वास्तव में वे उसकी मृत्यु के लिए नहीं वरन् तुम्हारे सुख के अभाव के कारण दुखी थे और हैं, क्योंकि तुम्हारे सुख में वे अपना सुख अनुभव करते हैं। इसके विपरीत लाड़ली की मृत्यु का हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। हमारे सुख में कमी नहीं हो सकती। तुम्हारा पति पुरुष था, लाड़ली स्त्री थी समाज की दृष्टि में दोनों में बड़ा अंतर है क्योंकि समाज की भ्रमपूर्ण दृष्टि में पुरुष स्त्री की अपेक्षा अधिक उपयोगी है और उसके अभाव से समाज को अधिक हानि पहुँचती है। बातें करते-करते हम लोग सामाजिक संस्था के मुख्य प्रश्न 'स्त्री-पुरुष भेद' पर आ गए। यह अच्छा ही हुआ। कहो तुमने कभी इस प्रश्न पर विचार भी किया है। स्त्री-पुरुष में इतना भेद क्योंकर हो गया?"
मैंने अपने विचार, जो मैं पहिले प्रगट कर चुकी हूँ, मोहन को सुना दिए। मोहन ने उन्हें सुनकर कहा, "बातें तुम्हारी ठीक हैं किंतु इतना अवश्य कहूँगा कि पुरुषों पर तुम अन्याय करती हो। तुम कहती हो पुरुष ने अपने रसिक ह्दय के कारण प्रेम में डूबकर स्त्री को संसार के कर्तव्य क्षेत्रों से अलग कर दिया। पुरुष के कारण स्त्रियों की यह दशा हुई। इससे यह विदित होता है कि पुरुषों ने ही सब अन्याय किया और स्त्रियों की वर्तमान कुदशा का दायित्व उन्हीं पर है। क्या मैं कुछ पूछ सकता हूँ कि पुरुष जब गलती कर रहे थे तो स्त्रियों ने उन्हें क्यों नहीं रोका। वे उनकी हाँ में हाँ क्यों मिलाती गईं। हमारी समझ में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का दोष कम नहीं है। तुम कहोगी, "स्त्री भी प्रेम में मदांध हो अपने भविष्य को न सोच सकी और इस प्रकार से दोनों ही की भूलों के कारण समाज की यह दशा हुई। तुम कहोगी पुरुष ने सामाजिक जाल बीनने का सारा भार अपने ऊपर ले लिया। उसकी सुंदरता और सूक्ष्मता के सब रहस्य अपने अधीन कर लिए। स्त्री से कहा हम तो इस कठिन काम में फँसे हैं। हम बड़े कष्ट सहते हैं। तुम केवल इतना करो कि हमारे शारीरिक सुखों का जिम्मा ले लो बाकी हम सब कर लेंगे। स्त्री ने देखा सस्ती छूटीं, सांसारिक प्रपंच में कौन पड़े। पुरुषों को शारीरिक सुख देना कोई बड़ी बात नहीं। इनको सामाजिक जाल बिनने की कठिनाइयों में मग्न रहने दो। स्वयं चैन करो। इनकी उमंग पूरी होगी। अपनी कोई हानि नहीं। किंतु वास्तव में यह बात नहीं है। इसके मर्म को समझने के लिए स्त्री और पुरुष की प्रकृति को जरा भली प्रकार समझना होगा। स्त्री जाति का पक्ष करना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है किंतु वास्तव में बात दूसरी है। सामाजिक पतन में स्त्री का हाथ पुरुषों से अधिक है। जरा इसको विचारो।"
ये बातें हो रही थी कि अम्मा आ पहुँचीं। मोहन ने कहा, "अच्छा अब इस विषय पर कल बातें होंगी।" अम्मा ने कहा, "स्यापा उठ गया। स्त्रियाँ गईं, आओ अब नीचे चलकर बैठो।"
दूसरे दिन दोपहर को भोजन कर मैं ऊपर वाले कमरे में जाकर लेटी ही थी कि मोहन आ गया। मैंने पूछा, मोहन, आज तुम कॉलेज से इतनी जल्दी कैसे चले आए, क्या लाड़ली की याद ने तुम्हें भी कॉलेज में नहीं बैठने दिया, तुम्हारी एफ.ए. की परीक्षा के दिन तो अब निकट होंगे ?
मो.- "नहीं-नहीं, यह सब कुछ नहीं। परीक्षा के दिन तो अवश्य निकट हैं किंतु यह सोचकर कि तुम अकेली बैठी व्यर्थ में दुःख अनुभव करती होगी, तुमसे बातें करने चला आया। एक बात यह भी थी कि कल जिस विषय पर बहस हो रही थी वह इतनी रोचक है कि उस पर बहस करने के लालच को मैं संवरण नहीं कर सका, इसलिए भी जल्दी चला आया हूँ?"
मैं- "कॉलेज में क्या कहा? कुछ बहाना किया होगा? सर में दर्द है, पेट दर्द है? मोहन, तुम बड़े नटखट हो, क्यों चले आए? ऊपर से मुझसे भी बहाना करते हो कि मुझसे बातें करने चले आए। मेरे दुःख में सहानुभूति प्रकट करने जो तुम्हारी दृष्टि में व्यर्थ का है ?"
मो.- "बीबी! अब तुम जबरदस्ती करती हो। तुम जानती हो कि मैं झूठ नहीं बोलता। मैंने कॉलेज में बहाना-ओहाना भी नहीं किया। प्रोफेसर साहब से कह दिया आज तबीयत नहीं लगती, घऱ जाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि मैं झूठ नहीं बोला करता, साथ ही कभी बहाना कर छुट्टी भी नहीं लेता, ऐसी अवस्था में कोई कारण नहीं कि यदि एक दिन हम व्यर्थ में ही घर आना चाहते थे तो वे छुट्टी न देते। हमारा विश्वास है कि झूठ बोलने तथा बहाना करने से साफ बात कह देना सदा अच्छा होता है। प्रोफेसरों पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है और वे भी वर्ष में कभी एक-दो दिन छुट्टी देने से मुँह नहीं मोड़ते। दुःख के संबंध में जो कुछ हमने कहा वह अब भी कहते हैं व्यर्थ का है। इतना ही नहीं, हमने जो मत कल प्रतिपादन किया था उसका समर्थन भी तुम्हारे इस दुःख से हो जाता है। हमने कहा था कि अभाव के माप के अनुसार ही दुःख हुआ करता है। सो देख लो। हमें दुःख नहीं क्योंकि हमारे सुखों में कोई अभाव नहीं हुआ। बाबूजी को कोई दुःख नहीं, अम्मा को भी कोई विशेष दुःख नहीं, जो स्त्रियाँ आती हैं उनके संबंध में तुम आप ही कहती हो कि वे स्यापे में हमारे दूसरे विवाह के प्रबंध में लीन रहा करती हैं। यह सब इसलिए क्योंकि उन्हें कोई हानि नहीं पहुँची। उनके सुख की वाटिका में कोई बवंडर नहीं आया। उनके सुख के सामाग्री में कोई कमी नहीं हुई। किंतु तुम्हें दुःख है, अवश्य है, क्यों? क्योंकि तुम उसे संगिनी बनाना चाहती थीं। तुम उसके सुख में सुख अनुभव करना चाहती थीं, उसके सुख में अपना दुःख भूलना चाहती थीं। तुम्हारे सुखों की वह स्तम्भ स्वरूप थी। इसलिए उसके अभाव से तुम अपने सुखों के मूल के अभाव को अनुभव करती हो और इसलिए तुम दुखी हो। अब तुम्हीं समझो कि यह व्यर्थ का है या नहीं? अच्छा इस बात को जाने दो, अब आलोच्य विषय पर बातें होने दो।"
मैं- "बातें जो कहते हो समझ में आती हैं, बुद्धि उन्हें स्वीकार भी करती है किंतु क्या करूँ ह्दय कुछ और कहता है।"
मो.- "यह हम मानते हैं क्योंकि 'There is no such thing as pure Rationality'।"
मैं- "यह क्या? यह क्या? तुम क्या बक गए? मोहन, हमें खेद है कि तुम्हें ये बातें समझानी पड़ीं। बात करते समय जिससे बातें करते हो उसी की भाषा में बातें करनी चाहिए, कम से कम इतना तो अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि जो भाषा दूसरा न समझता हो वह न व्यवहार की जाए।"
मो.- "क्षमा करो, यह भूल हुई किंतु करें क्या, मातृभाषा की शिक्षा तो हम लोगों को नाममात्र की मिलती है, उसे अच्छी तरह हम लोग जानते भी नहीं, साथ ही इस ओर लोगों के ध्यान न देने से वह मर भी रही है। अंग्रेजों के कितने ही शब्दों के समान शब्द हम लोगों को मालूम ही नहीं, न हमारे बड़े उनके लिए शब्द गढ़ते हैं। हमने जो कहा था उसका अर्थ यही है कि शुध्द तर्क-शक्ति या ज्ञानशक्ति-सी वस्तु इस दुनिया में कोई नहीं है, मतलब यही कि बुद्धि से अनुभव कुछ करते हैं किंतु उसके साथ ही ह्दय के भावों आदि का सदा हम लोगों पर प्रभाव पड़ता है और इस कारण से केवल बुद्धि ही से हम नहीं प्रेरित होते। शुध्द विवेक (Reason) की छाया में ही जब सब काम करने की दोहाई देते हैं, वे भ्रम में हैं और दूसरों को भी भ्रम में डालते हैं।"
मैं- "यह ठीक है और इससे मैं भी सहमत हूँ।"
मो.- "हाँ, तो कल बहस कहाँ पर समाप्त हुई थी?"
मैं- "कल हम लोग स्त्री-पुरुष भेद पर बातें कर रहे थे। मैंने अपने विचार तुम्हें सुनाए थे। मैंने कहा था कि मेरे विचार में स्त्री-पुरुष में कोई विशेष भेद नहीं। देखने में जो फर्क दिखाई देता है वह बड़प्पन या हीनता का द्योतक नहीं। बुद्धि में दोनों समान हैं बल्कि स्त्री एक प्रकार से बढ़ी हुई है। इसके साथ ही साथ हमने यह मत प्रगट किया था कि पुरुष ने प्रेम में पड़कर स्त्रियों को संसार के कर्मक्षेत्रों से अलग कर दिया और स्त्री भी प्रेम के प्याले में मदोन्मत्त हो अपने विशेष कर्तव्य को भूल गई और गृह की अधिष्ठात्री देवी बनकर पीछे रह गई और इस प्रकार हीन हो गई।"
मो.- "हाँ, याद आया, तुम यही कह रही थीं। तुम्हारे विचार उदार हैं किंतु वे ठीक भी हैं या नहीं इसमें बहुत कुछ संदेह है। तुम आजकल जैसा कि फैशन हो रहा है यह नहीं समझती कि पुरुष ने स्वार्थवश अपने को सर्वशक्तिशाली और प्रभु बनाने के लिए ही स्त्रियों को गृहस्थी में कैद कर दिया, यह तुम्हारे उदार ह्दय का द्योतक है। इसके लिए पुरुष-समाज को तुम्हारा कृतज्ञ होना चाहिए। क्योंकि आजकल धारा तो यही बह रही है कि पुरुष ने अपने स्वामी बनने के लिए, अपने सुख के लिए ही सब कुछ जानते हुए भी अन्याय पथ का अनुसरण किया। स्त्रियाँ तो कहती ही हैं किंतु बहुत-से पुरुष भी मालूम नहीं, स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिए, या उनके (Vanity) व्यर्थ के आत्मभिमान को बढ़ाने के लिए, ऐसा ही कहते हैं। जो इस सीमा को नहीं भी पहुँचते वे भी इतना अवश्य कहते हैं कि पुरुष ने सब कुछ परोपकार-दृष्टि (Altruistic) ही से नहीं किया अर्थात् जो कुछ उसने किया उसमें स्वार्थ से कुछ न कुछ अवश्य ही प्रेरित था। ऐसी अवस्था में तुम समझ सकती हो कि पुरुष समाज को क्यों तुम्हारी उदारता के लिए कृतज्ञ होना चाहिए। मालूम नहीं विपरीत विचारों वालों ने एकदम समस्त पुरुष जाति को स्वार्थ से प्रेरित ही क्यों समझ लिया है। हमारी समझ में तो समस्त समाज एकदम से स्वार्थ भाव से, वह भी समय के आदिकाल ही से, प्रेरित नहीं हो सकता। किंतु इसके साथ ही साथ जो तुम्हारा मत है उससे भी हम सहमत नहीं हैं।"
मैं- "तुम्हारा मत क्या है भाई, जरा उसे भी सुनें ?"
मो.- "हम अपने मत को दो-चार या दस-बीस शब्दों में नहीं कह सकते। हाँ, बहस में तुम हमारी बातें जान लोगी। किंतु इतना हम जरूर मानते हैं कि स्त्रीत्व और पुंसत्व में जो भेद दिखाई देते हैं वे हीनता व श्रेष्ठता के द्योतक नहीं हैं। किंतु साथ ही साथ हम यह भी मानते हैं कि योनि के अनुसार दोनों के कुछ विशेष उद्देश्य हैं और उनकी पूर्ति और सिद्धि के लिए दोनों में कुछ विशेष भिन्न-भिन्न बातें अनिवार्य हैं जो हमें भेद के रूप में दिखाई देती हैं। हम स्त्रियों को पुरुषों से हीन नहीं समझते, यदि वे हीन होतीं तो प्रकृति अपना सबसे बड़ा सृष्टि का कार्य उन्हें न सौंपती। यह स्त्रियों की श्रेष्ठता का द्योतक है कि सृष्टि का सबसे महत्वशाली भार मातृत्व उसके अधीन रखा गया किंतु इसके साथ ही साथ मातृत्व के कर्तव्य के कारण उनमें कोमलता आदि कितनी ही बातें रखी गईं जिनके कारण संसार के बहुत-से कर्म क्षेत्रों में वे पुरुष के बराबर नहीं हो सकतीं। इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि यदि कुछ बातों में वे कम हैं तो अन्य बातों में वे पुरुषों से बढ़ी हुई भी हैं।"
मैं- "यह सब तो मैं समझी। किंतु तुम्हारा सिद्धांत क्या बस इतना ही है? क्या इसी को दस-बीस या पचास शब्दों में न कह सकने की तुम दोहाई देते थे ?"
मो.- "कह तो रहा हूँ। किंतु स्त्रीत्व पुंसत्व का विषय, उनका भेद कोई ऐसा नहीं कि सब बातें तुम्हें एक साथ मैं सुना सकूँ। ज्यों-ज्यों बातें होती जाएँगी त्यों-त्यों अन्य बातें भी विदित हो जाएँगी। इस एक विषय के सिद्धांतों के खंडन-मंडन में तो सहस्रों पृष्ठ की पुस्तक लिखी जा सकती है। स्त्रीत्व पुंसत्व के प्रश्नों को भली प्रकार समझने के लिए तो गर्भ से ही दोनों की बातें समझनी चाहिए। दोनों के भेदों का कारण समझना। जो मूल को नहीं जानता वह पुष्पों के विवेचन में अवश्य ही भूल करेगा।"
मैं- "अच्छा तो मूल ही से आरंभ करो, इस विषय के संबंध में मैं बहुत कुछ जानना चाहती हूँ। बतलाओ तो आखिर तुम्हारी समझ में स्त्रीत्व पुंसत्व का आरंभ कैसे हुआ?"
मो.- "इस प्रकरण में बहुत कुछ कहना पड़ेगा। सृष्टि में वृक्ष, लता, कीटानुकीट, जीव-जंतु सभी में स्त्री और पुरुष होते हैं, सबके सुलझाव में बहुत समय लगेगा, साथ ही सब बातें हमारी जानी हुई भी नहीं इसलिए इस समय केवल मनुष्य-योनिगत पुरुष-स्त्री भेद पर ही विचार करना अच्छा होगा। जो बातें हम कहना चाहते हैं उनके संबंध में हम इतना कह देना चाहते हैं कि वे सब यूरोप आदि देशों में जाँची गई हैं, दूसरे हमारा यह खयाल भी है कि जिस प्रकार से यूरोपीय वैज्ञानिकों ने खोज की है, जिस प्रकार से कितनी ही जातियों के सैकड़ों बच्चों को, बालकों और बालिकाओं की प्रत्येक दशा का भली प्रकार निरीक्षण कर उन्होंने सिद्धांत निर्धारित किए हैं वैसे हमारे यहाँ न हुआ होगा। इन सब बातों के साथ हमें यह भी कहना है कि बहुत-सी बातों में अंतर होना भी स्वाभाविक है क्योंकि बच्चों की वृद्धि उनके उठान आदि पर और उनकी कितनी ही बातों पर देश के जलवायु, उनकी रहन-सहन आदि का भी प्रभाव रहता है। किंतु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि मूल सिद्धांतों में इनके कारण कोई बड़ा अंतर नहीं पड़ सकता। इन सब बातों के सिवाय बहुत-से यूरोपीय सिद्धांतों में बिलकुल विपरीतता है, उनमें आम और इमली का फर्क है, उनमें कौन ठीक है यह निश्चित रूप से कह देना कठिन है। बहुत से यूरोपीय सिद्धांत, जो कि प्रायः हमारे पूर्वजों के सिद्धांतों से मिलते-जुलते हैं। अब नूतन वैज्ञानिकों की दृष्टि में, जिन्होंने बहुत छानबीन की है, गलत है। स्त्री-पुरुष भेद के संबंध में नितप्रति खोज हो रही है और बहुत सी आदि काल की बातों के संबंध में कुछ भी निश्चित रूप से कहना साहस मात्र है। तुम्हारे उसी सिद्धांत के संबंध में कि प्रेम के प्याले में स्त्री-पुरुष डूब गए कोई यह नहीं कह सकता कि वह जरूर ही गलत है। उसी के साथ ही साथ यह भी नहीं कहा जा सकता कि पुरुष ने स्वार्थवश ही सब कुछ अन्याय किया। ऐसे मामलों में बुद्धि और उदारता से काम लेने के सिवा और कोई सिद्धांत निर्धारित नहीं किया जा सकता।"
मैं- "वही 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' अब तक तुम सिद्धांतों का वर्णन नहीं कर पाए। मूल से तुम आरंभ करने वाले थे न ?"
मो.- "वही तो कहना आरंभ करता हूँ किंतु इसके पहिले यह सब कह देना आवश्यक था जिससे तुम भ्रम में न पड़ो और साथ ही व्यर्थ में बीच में विवाद न उठ खड़ा हो।"
मैं- "अच्छा मैंने तुम्हारी सब शर्ते समझ लीं अब कहना आरंभ करो कि भेद कैसे आरंभ हुआ ?"
मो.- "सुनो, हम यह कह चुके हैं कि सृष्टि में वृक्षलता, कीटानुकीट जीवधारियों में सभी में स्त्रीत्व-पुंसत्व के विभाग हैं। हिंदू पुराणों के अनुसार या डारविन नामधारी यूरोपीय तत्ववेत्ता के विकास के सिद्धांत के अनुसार जीव योनियों से ऊपर चढ़ता हुआ लंगूर या वनमानुष की अंतिम दशा से या और ही किसी प्रकार से मानव शरीर धारण करता है। इन सब जीव जंतुओं को देखने से मूल भेद स्त्रीत्व और पुंसत्व में यही दिखाई देता है कि पुरुष अधिक फुर्तीला (Active), उद्योगी और क्रियाशील होता है और स्त्री (Passive) शांत, अप्रतिकारक, निष्क्रिय और क्रियाशून्य होती है। दूसरी बात यह है कि पुरुष के शरीर का टम्परेचर (शीतोष्णता) अधिक होता है। इसके विपरित स्त्रियाँ बढ़ती हैं और अधिक दिन जीवित रहती हैं।
"पुरुष प्रकृति से ही व्याकुल और उद्योगी स्वभाव का होता है। यदि उसके जीवन का हिसाब किया जाए तो ज्ञात होगा कि उसके आहार का अधिक भाग उसकी क्रियाशीलता अर्थात् हरकत में व्यय हो जाता है और बहुत कम भाग ऐसा बनता है जो शरीर की पुष्टि करने के काम आता है अर्थात् उसके शरीर की आय कम और व्यय अधिक है। इसके विपरीत स्त्री स्वभाव अधिकतर स्थिर रहता है इसलिए उसके शरीर में आय व्यय से अधिक होती है अर्थात् उसके आहार का अधिक भाग उसके शरीर की पुष्टि में व्यय होता है और इस प्रकार वह बहुत कुछ शरीर में जमा होता रहता है। यही कारण है कि स्त्री में बालक उत्पन्न करने की योग्यता होती है।
"इस मूल भेद को ध्यान में रख लेना। इसके सिवा स्त्रीत्व और पंसुत्व में कोई भेद नहीं है। इतना जरूर है कि इन भिन्नताओं के कारण दोनों में कुछ भिन्न-भिन्न विशेष बातें हैं। एक बात और कहे देता हूँ। तुम्हारा यह खयाल कि स्त्री पुरुष के समान बुद्धि वाली (Intelligent) होती है, ठीक नहीं है। समय से इस बात को भी हम समझा देंगे किंतु इसके साथ हमारी इस शर्त को न भूल जाना कि कोई भी भिन्नता श्रेष्ठता या हीनता की द्योतक नहीं है स्त्री पुरुष के समान प्रखर बुद्धिवाली नहीं किंतु गणित में, राजनीति में, कूटनीति में तथा और भी अनेक विषयों में पुरुष स्त्री का मुकाबला नहीं कर सकता।"
मैं- "खैर, जब इस मत को तुम सिद्ध करने लगोगे उस समय मैं अपना वक्तव्य इस संबंध में कहूँगी, इस समय तुम यह बतलाओ कि पुरुष-स्त्री का भेद कैसे आरंभ हुआ? इस समय तो आलोच्य विषय इतना ही है कि कौन-सी वस्तु जीव को पुरुष और कौन-सी उसे स्त्री बनाती है। कहाँ से या किस अवस्था में पहुँचने के बाद जीव पुरुष या स्त्री होता है ?"
मो.- "इस संबंध में भी बड़ा गड़बड़ाध्याय है। आदिकाल से तत्ववेत्ता कहते आए हैं कि स्त्री वास्तव में अविकास-प्राप्त (Undeveloped) पुरुष है अर्थात् विकास की सीढ़ियों में पुरुष से पहली सीढ़ी स्त्री है अर्थात् जीव विकास की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आता है, पहले वह स्त्री होता है और उस अवस्था से आगे बढ़ विकास प्राप्त कर वह पुरुष होता है। 'डारविन' का मनुष्य विकास प्राप्त स्त्री ( Evolved women) है। इसके साथ ही स्पेंसर का कथन है कि सृष्टि वृद्धि के कर्तव्य के कारण स्त्री विकास प्राप्त करने में रोक-सी दी जाती है, उसका कथन है कि स्त्री वास्तव में Arrested man है।"
मैं- "ये बातें कैसे कह रहे हो? श्री गणेश ही से भूल? क्या ईश्वर ने स्त्री और पुरुष को अलग-अलग नहीं गढ़ा? क्या यह सत्य नहीं है कि सृष्टि के आदि से ही स्त्री-पुरुष दो भिन्न-भिन्न जीव हैं? यह प्रत्यक्ष है और तुम भी कह चुके हो कि वृक्षलता, कीटानुकीट, जीव-जंतु सभी में स्त्रीत्व और पुंसत्व का भेद है। विकास कहो या योनि-संस्कार या पुण्य-पाप से, क्या यह सत्य नहीं कि वृद्धि प्राप्त करता हुआ स्त्री-जीव पूर्ण विकास प्राप्त कर भी स्त्री रहता है और पुरुष-जीव पुरुष? क्या इसलिए संसार यह नहीं मानता कि दोनों स्त्री-पुरुष में कोई श्रेष्ठ नहीं, दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में पूर्ण विकास-प्राप्त जीव हैं।"
मो.- "नहीं-नहीं। यह सब भ्रम है? किंतु यह तुम्हारी ही भूल नहीं है। जीव वही होता है किंतु विकास की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ वह स्त्री-पुरुष का रूप धारण कर लेता है।"
मैं- "यह मैं कैसे मान लूँ? मैंने माना कि हमारे धर्माचार्यों ने ठीक अनुसंधान नहीं किया, उनका यह सिद्धांत कि ईश्वर स्त्री और पुरुष को अलग-अलग गढ़ता है, ठीक नहीं। हमने यह भी माना कि जैसा कि हमारे यहाँ कहा जाता है कि संतान का स्त्री या पुरुष होना माता-पिता की श्रेष्ठता पर निर्भर है यह भी गलत है, किंतु क्या मैं यह भी मान लूँ कि डिंबाधर दो प्रकार के नहीं होते और उन्हीं पर सब कुछ निर्भर नहीं है। यूरोपीय समाज भी इसे मानता है, हमारे पूर्वजों का भी यही सिद्धांत था। इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती।"
मो.- "ठीक-ठीक! निस्संदेह ! यही नहीं कितने ही ऐसे सिद्धांत प्रचलित थे। पिछली शताब्दी के अंत तक प्रायः पाँच सौ से अधिक ऐसे सिद्धांत प्रचलित थे जो मोटी रीति से तीन विभागों में बाँटे जा सकते हैं। धर्माचार्य तो यही कहते थे कि ईश्वर की सृष्टि है, ईश्वर पुरुष-स्त्री को रचता है, उसी की कृपा से पुत्र या पुत्री संतान होती है। आत्मविद्या-विशारद् (Metaphysician) अभी तक यही कहते चले जाते हैं कि जीवों में प्राकृतिक स्त्रीत्व या पुंसत्व वर्तमान रहता है, अर्थात् स्त्री-जीव स्त्री रहेगा, पुरुष-जीव पुरुष। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि प्राकृतिक झुकाव (Natural tendencies) के कारण जीव-पुरुष या स्त्री हुआ करता है। इनसे भी आगे आजकल डॉक्टर कुछ बढ़े हुए हैं जो डिंबधारों की दोहराई देते हैं और दावे के साथ कहते हैं कि संतान का पुत्र या पुत्री होना सर्वथा माता-पिता की इच्छा पर निर्भर है और उनकी मर्जी के विरुद्ध कुछ भी नहीं हो सकता किंतु जीवशास्त्र वेत्ताओं (Biologists) की खोज दूसरे ही प्रकार की है। वे यह नहीं कहते कि ये सब सिद्धांत गलत ही हैं। वे कहते हैं कि अनुसंधान करो, जाँचो, माता-पिता का स्वास्थ्य, उनके रहन-सहन, उनके भोजन-बसन, उनकी आयु और कितनी ही और अन्य आनुषंगिक बातों पर ध्यान दो और जो बातें जाँच से ठीक साबित हो उन्हीं पर सिद्धांत निर्धारित करो।"
मैं- "अच्छा यह सब मैंने माना, तब फिर आखिर जीव स्त्री-पुरुष कैसे होता है? जीवन पुत्र या पुत्री का रूप कैसे धारण करता है? मूल से आरंभ कर अच्छा तुम सब कुछ निर्मूल ही करने पर उद्यत दिखाई देते हो।"
मो.- "स्त्री या पुरुष योनि माता-पिता से नहीं मिलती किंतु यह बच्चे के संगठन और वृद्धि पर निर्भर है। गर्भाशय में पुरुष अंश का संगठन या विकास कुछ ऊँची श्रेणी का होता है। यह तब प्राप्त होता है जब माता की प्रजनन शक्ति विशेष रूप से अच्छी तरह विकसित होती है और उत्पन्न होने वाले बच्चे की सूरत माता से मिलती-जुलती है। किंतु यदि उसकी प्रजनन-शक्ति हीन हो तो गर्भस्थित पिंड से लड़का पैदा नहीं होता और पैदा होने वाली लड़की पिता से मिलती-जुलती होती है। कुछ लोग कहते हैं कि जब पुरुष में बहुत अधिक शक्ति होती है तो लड़का पैदा होता है पर शक्ति संचय (Reparation) या बीमारी काल में, अधिक लड़कियाँ पैदा होती हैं।
"कुछ लोगों का कहना है कि संतान का पुत्र या पुत्री होना माता-पिता की श्रेष्ठता पर निर्भर है और जो श्रेष्ठ है उसके विरुद्ध संतान की योनि होती है। यदि माता श्रेष्ठ है तो संतान पुत्र होगा, यदि पिता श्रेष्ठ है तो संतान पुत्री। आज प्रायः पाँच वर्ष हुए अमेरिकन की यह राय थी कि संतान माता-पिता के अनुसार होती है। यदि माता हीन है तो संतान पुत्री होगी, यदि पिता हीन है तो संतान पुत्र होगा। किंतु इस सिद्धांतों में ठीक कौन है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परंतु लोगों का विश्वास उस सिद्धांत की ओर अधिक है जो यह कहता है कि अगर माता पुष्ट है उसने अच्छी वृद्धि प्राप्त कर ली है तो संतान पुत्र होगा, नहीं तो पुत्री और यह कि गर्भ में आते ही जीव पुरुष या स्त्री नहीं हुआ करता अर्थात् यह कि जन्म से ही जीव स्त्री-पुरुष नहीं हुआ करता।"
मैं- "यह तुमने विचित्र सिद्धांत बतलाया है। अब तक संसार यही मानता था कि स्त्री जीव और पुरुष जीव जन्म से ही अलग-अलग होते हैं किंतु तुम कहते हो कि जन्म से ही नहीं वरन् गर्भ में आकर कुछ और दिनों बाद अपनी वृद्धि के अनुसार जीव पुरुष या स्त्री होता है।"
मो.-"हाँ, मेरे कहने का मतलब यही है, पुरुष-स्त्री भेद यहीं से शुरू होता है और समस्त जीवन में पुरुष स्त्री में इसी वृद्धि (Development) का भेद दृष्टिगोचर होता है।"
मैं- "तो फिर इससे मालूम होता है कि पूर्ण वृद्धि न प्राप्त कर ही जीव स्त्री होता है अर्थात् पुरुष विकास की श्रेणी में स्त्री से बढ़ा हुआ है और इस तरह वह श्रेष्ठ है और स्त्री उसकी अपेक्षा हीन?"
मो.- "नहीं-नहीं, फिर तुम भूल कर रही हो। हमने यह कभी नहीं कहा कि पुरुष श्रेष्ठ है या स्त्री हीन, यह हम तुमसे बार-बार कहते आए हैं कि दोनों में कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं है।"
मोहन यह कह ही रहा था कि माताजी सीढ़ी पर दिखाई दीं। उन्होंने आकर मुझसे पूछा कि तबीयत अब कैसी है? मैंने कहा, अच्छी है, यों ही सर में दर्द-वर्द था, तबीयत कुछ अच्छी न थी और स्यापे में मेरी तबीयत भी घबराती है, इसी कारण मैं वहाँ नहीं आई। इतने में ही मोहन का बुलावा आया। उसके मास्टर आए हुए थे। मैं भी अम्मा के साथ नीचे उतर गई।
दूसरे दिन दोपहर को मैं अम्मा के साथ-साथ स्यापे में बैठी। बात यह थी कि स्त्रियों में चों-चों होने लगी थी। वे कहने लगी थीं कि 'देखो तो स्यापे में सरला नहीं बैठती, ऊपर पड़ी रहती है, आगे चलकर ना मालूम क्या होगा।' ऐसी ही कितनी ही बातें सुनने में आईं। लाचार होकर स्यापे के तमाशे में मैं भी बैठने लगी। स्यापे की वही दशा थी। आज बत्तों की माता अपने पड़ोस की ललाइन की चर्चा कर रही है तो कल परवत्तो अपने पड़ोस की पंडाइन का रोना रो रही है। तात्पर्य यह कि अब दोपहर से पाँच बजे तक यों ही हमें बिताने पड़ते। मोहन अपने कॉलेज को जाता था, संध्या समय वह आता किंतु दिनभर के बाद अम्मा स्यापे से उठतीं उस समय मैं भी गृहस्थी के धंधों में उनकी सहायता करने लग जाती। इस कारण मोहन से बातें न कर सकती। इसी प्रकार दो दिन बीत गए अंत में रविवार को छुट्टी का दिन आया। उस दिन सवेरे ही मोहन आ पहुँचा, मैं भी स्नान आदि से निवृत्त हो चुकी थी, कुछ करना न था बस बैठकर बातें करने लगी।
मोहन ने कहा, "उस दिन की बातों का तत्व तुमने क्या निकाला? तुमने यह देख लिया न कि स्त्री-पुरुष में भेद गर्भ ही से आरंभ होता है, ऐसी अवस्था में तुम्हें यह मानने में आपत्ति न होगी कि भेद जन्म भर बना भी रहता है। अब कहो, जो लोग कहते हैं स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं, वे भूल करते हैं या नहीं? चाहे आर्य्य सिद्धांत से देखो, चाहे डारविन का कथन सत्य मानो, चाहे अन्य लोगों के मत को स्वीकार करो। बात सब में यह है कि स्त्री-पुरुष के Development में फर्क है, पुरुष अधिक Development प्राप्त किया हुआ जीव है, स्त्री कम। ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि इस अभिवृद्धि का प्रभाव उनके समस्त जीवन में दिखाई दे और उनके जीवन और कर्मक्षेत्रों में हमें भेद दृष्टिगोचर हो।"
मैं- "उस दिन की बातों के संबंध में जब तुम्हीं कहते हो कि कोई सिद्धांत निश्चित रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता, तब भला मैं कही क्या सकती हूँ किंतु मैं इतना अवश्य देख सकती हूँ कि सिद्धांत को सच मानें, यह सबसे सिद्ध है कि संतान का पुत्र या पुत्री होना सर्वथा माता-पिता की इच्छा पर निर्भर है, साथ ही साथ यह भी सत्य है कि स्त्री पुरुष में भेद है। यह भेद तो देखने ही से प्रत्यक्ष है। जो मैं कह रही थी कि उनमें कोई भेद नहीं उसका अर्थ केवल यह था कि जो भेद है उनका संसार कर्मक्षेत्रों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। जो काम पुरुष द्वारा किया जा सकता है, उसे स्त्री भी कर सकती है, संसार के कर्मक्षेत्रों में क्या सामाजिक, क्या औद्योगिक और क्या राजनीतिक स्त्री, पुरुष के बराबर काम कर सकती है।"
मो.- "यह मैं सदा कहता आया हूँ कि मेरा तात्पर्य यह कभी नहीं है कि स्त्री, पुरुष के काम नहीं कर सकती किंतु वह समान कार्य भी कर सकती है या नहीं तथा ऐसी ही अन्य बहुत-सी बातें विचारणीय हैं। इस समय हम केवल तुम्हारी वह 'प्रेम के प्याले' वाली भूल को सुधार देना चाहते हैं। जिससे उसे कष्ट न उठाना पड़े, संसार के कर्मक्षेत्रों से अलग कर दिया, स्त्री भी प्रेम ही के कारण इससे सहमत हो गई और इस प्रकार दोनों का पतन हुआ। यही न तुम्हारा सिद्धांत है ?"
मैं- "निस्संदेह मेरा यही सिद्धांत है क्योंकि मैं पुरुष जाति को इतना स्वार्थी नहीं समझती कि अपने लाभ से प्रेरित होकर ही उसने स्त्री को घर में कैद किया।"
मो.- "बार-बार इसके लिए हम तुम्हें धन्यवाद नहीं देंगे। हमने तुमसे कहा था कि यह सिद्धांत ठीक नहीं है। अब मैं वह क्यों भ्रममूलक है इसकी ओर ध्यान देता हूँ। सबसे पहली और सबसे आवश्यक बात इस संबंध में जो है वह 'प्रेम' की है। इस 'प्रेम' शब्द ने, इस प्रेम के भाव ने, और प्रेम के महत्व और गुण गाने वालों ने संसार का ब़ड़ा नाश मारा है। जिसे तुम और तुम्हारे संसार ने 'प्रेम' मान रखा है, वह प्रेम-ओम कुछ नहीं है। वास्तव में 'प्रेम' सदृश कोई वस्तु भी संसार में है या नहीं इसमें भी बहुत कुछ संदेह है। साथ ही साथ जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं 'प्रेम' जिसका नाम ले दुनिया पागल हो रही है। वह दो-एक असाधारण व्यक्तियों में हुआ करता है और वह भी उस अवस्था में जब पुरुष का ह्द्य पुरुष ह्दय के समस्त गुणों से अलंकृत होता हुआ भी 'स्त्री-ह्दय' होता है। यह विरला ही होता है और इसी कारण सच्चा प्रेम कहीं जल्दी दिखाई नहीं देता। ऐसी अवस्था में तुम समझ सकती हो कि जाति की जाति, या समाज के समाज में सभी प्रेम के वशीभूत नहीं हो सकते। इससे यह साफ सिद्ध है कि आदि काल में समस्त पुरुष और स्त्री समाज के प्रेम के प्याले में मस्त होकर ही सबकुछ निश्चय नहीं किया था, प्रेम ने पुरुषों को कार्यकर्ता नहीं बनाया, न उसने स्त्रियों को घरों के भीतर कैद ही किया। इस संबंध में एक यह भी बात स्मरण रखने की है कि आदि काल में पुरुष लड़ने वाली (Militant) प्रकृति का था। युद्ध का मतवाला था, युद्ध का मतवाला प्रेम का पागल नहीं होता। इस प्रकृति का प्रेम के (Passion) भाव का बड़ा बेढब प्रभाव पड़ता है। उस समय में जैसा कि आज दिन भी स्त्रियाँ प्रेम करने वाली थीं, वे पीछा करने वाली थीं (Wooers), पुरुष पीछा किया जाने ही वाला था। दुनिया जो समझती है कि प्रेम मनुष्य आरंभ करता है, वही स्त्री को प्रेम करना सिखलाता है, गलती करती है। वास्तव में स्त्री पीछा करने वाली (Pursuer) और मनुष्य भागने (Pursued) वाला है। इसी समय प्रेम की भी एक बात हम कह देना आवश्यक समझते हैं। जिसे संसार ने प्रेम समझ रखा है, वह प्रेम नहीं है। जिस प्रेम की दुहाई दे तुम सवित्री, सत्यवान के गुण गाती हो, जिस दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम के वर्णन में कालिदास ने कलम तोड़ी है वह प्रेम ना था, प्रेम का जीता-जागता रूप जो राधा और कृष्ण में दिखलाई देता है वह प्रेम न था। हाँ, प्रेम कृष्ण और गोपियों में था और यही सच्चा प्रेम था।
मैं- यह क्या बकते हो, सावित्री में प्रेम न था, शकुंतला का प्रेम प्रेम न था, राधा का भी प्रेम प्रेम कहलाने योग्य नहीं, कैसी बहकी-बहकी बातें करते हो? क्या जो बात आज तक दुनिया मानती आई है सभी को मिथ्या साबित करने का ही तुमने बीड़ा उठा लिया है। यदि वह प्रेम नहीं था फिर भाई, यह क्या था ?
मो.- यह विषयांतर है, प्रेम की बात के साथ इसे हमने कह दिया है। किंतु इस समय इस संबंध में अधिक हम न कहेंगे। विवाह संबंधी चर्चा करते समय कभी हम इसका रहस्य खेल देंगे, तुम्हें बतला देंगे कि कवियों ने 'प्रेम' के नाम से दुनिया को कैसे पागल बना रखा है। इस समय तुम इतना ही मान लो कि जाति की जाति 'प्रेम' सदृश अनुपमेय, स्वर्गीय-आदर्शपूर्ण भाव से प्रेरित नहीं हो सकती।
"अच्छा अब आदि काल की ओर दृष्टि फेरो और यह देखती चलो कि सभ्यता की वृद्धि और विकास के प्रकाश के साथ-साथ स्त्री-पुरुष के कर्तव्य कर्म कैसे निर्धारित हुए, उनके कर्तव्य क्षेत्र अलग-अलग कैसे हुए?"
मैं- "मैं बहुत ध्यानपूर्वक तुम्हारी बातों को सुन रही हूँ। यद्यपि इनमें विचित्रता है किंतु बुद्धि में तुम्हारी बातें अवश्य आती-जाती हैं। कौतूहल भी बहुत बढ़ रहा है। कहो क्या कहते हो?"
मो.- "आदि काल में क्या था? जंगल में स्त्री-पुरुष रहते थे और शिकार कर पेट पालन करते थे। कभी-कभी जातियों में युद्ध-लड़ाइयाँ भी हो जाया करती थीं। पुरुष दिन-रात जंगल घूमने, शिकार आदि करने तथा शत्रुओं का पता रखने में व्यस्तता रहते थे। आरंभ में स्त्रियाँ भी इनके साथ रहती थीं। शिकार लाकर पुरुष फेंक देता था और स्त्री का काम उसे पकाना था। इसी समय से स्त्री-पुरुष में भेद आरंभ होता था। पुरुष लड़ने वाला (Militant) और स्त्री अधिक परिश्रम करने वाली दिखाई देती है। अब तक जंगली जातियों में यह दिखाई देता है कि पुरुष, शिकार करता, मछली मारता, लड़ता या इधर-उधर बैठ गप्पे मारता है, अन्य समस्त कार्य स्त्री करती है। अब तक आस्ट्रेलिया आदि के जंगली निवासियों में यही देखा जाता है कि उन कार्यों को जिनमें एकदम बड़ी शक्ति और परिश्रम का काम है और साथ ही जिसमें अधिक सुस्ताने की आवश्यकता पड़ती है, उसे पुरुष करता है, बच्चों का पालना और गृहस्थों के समस्त कार्य जिनमें निरंतर किंतु एक साथ सख्त परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है, उसे स्त्री करती है। यही कर्तव्य विभाग आदि काल से आरंभ होता है। शिकार के लिए दोनों साथ जाते हैं, पुरुष शिकार कर हतजीव को स्त्री के सामने फेंक देता है, या उसके पैरों के पास फेंक देता है, स्त्री उसे घर लाती है। पुरुष का काम शिकार के मारते ही अंत हो जाता है। घर लौटकर वह अपने साथियों के साथ बैठकर गप्प करता है, स्त्री पकाती है। यही से स्त्री की बुद्धि की प्रखरता दिखाई देने लगती है। पकाने के लिए वह बरतन धीरे-धीरे निर्माण करती है। शिकार के चमड़े से वह बच्चों के लिए वस्त्र भी बनाती है। धीरे-धीरे सीना-पिरोना भी उसी का काम हो जाता है। किन्हीं जातियों में इस संबंध में भेद है। पूर्वीय मध्य अफ्रीका की जातियों में सीने का काम सब कुछ मर्द करते हैं। यह उत्तरदायित्व इतना बढ़ा हुआ है कि एक स्त्री यदि उसके कपड़े में कहीं खोंगा हो या वह कहीं से फटा हो तो वह अपने पति को केवल इसी बात पर 'तलाक' दे सकती है कि उसने अपना काम नहीं किया। अधिकतर जातियों में ऐसा नहीं है किंतु इसमें संदेह नहीं है कि बरतन बनाने, सीने आदि का उद्योग-धंधा स्त्रियों ने ही आरंभ किया। इतना ही नहीं स्त्रियाँ जानवरों को भी पालतू बनाती थीं, उन्हें पालती थीं और आरंभ काल में स्त्रियाँ ही इंजीनियर या निर्माण करने वाली थीं और झोंपड़े आदि को उन लोगों ने ही बनाया। पेड़ पुरुष गिराते थे, झाड़-झंखार पुरुष साफ करते थे, लकड़ियाँ ले जाना, मैदान साफ करना और कृषि का काम स्त्रियाँ करती थीं। कोहांर का काम स्त्रियों ने ही समस्त संसार में आरंभ किया। उन्होंने घड़ों आदि को चित्रित भी किए किंतु इसके आगे वे नहीं बढ़ीं। व्यर्थ का काम जो निरर्थक था पुरुष ने किया उसने उसे खूबसूरत बनाया और चित्रकारी की। क्योंकि यह फुर्सत और बैठक का काम था। अमेरिका के एक आचार्य ओटिसती मेसन ने, जिन्होंने कि जंगली जातियों के संबंध में अच्छा अनुसंधान किया है, जंगली स्त्री की दिनचर्या का अच्छा चित्र खींचा है। उनका कहना है कि उसकी दिनचर्या को भली प्रकार जानने के लिए उसके साथ रहना अच्छा होगा। गुफा के सामने पड़े हुए आहत मृग के साथ उसका काम शुरू होता है। वह एक सख्त पत्थर के टुकड़े को उठा लेती है। यही पहिले उसे छुरी का काम देता है। इसी तरह से वह चाकू आदि बनाने के काम की आदि कर्त्री बनती है। उस पत्थर के टुकड़े से वह चमड़े को धीरे-धीरे मांस से अलग करती है। चमड़े को अलग कर वह उसे लपेटकर रख देती है, वह उसे सुखाती है, ड्रेस करती है, पत्थर और हड्डियों से पीट-पीटकर मुलायम करती है। धीरे-धीरे कड़े परिश्रम से हड्डी का सुई नस और रंगों के डोरे और फ्लिंट पत्थर से कैंची का काम ले वह अपने पति या बच्चे के लिए चमड़े का काम वह सबसे पहले दुनिया में करती है। धीरे-धीरे कड़े परिश्रम से हड्डी का सुई नस और रंगों के डोरे और फ्लिंट पत्थर से कैंची का काम ले वह अपने पति तथा बच्चे के लिए चमड़े का कपड़ा तैयार करती है। कटे चमड़े के टुकड़ों से वह अपने स्वामी के लिए जूते तैयार करती है। फर, परों, घोंघों और चमकते हुए पत्थर के टुकड़ों को एकत्र कर वह अपने बच्चों के खेलने के लिए खिलौने या पति के मुंड मंडल के लिए टोपी तैयार करती है। रंग-बिरंगे परों को एक के बाद एक सीकर वह सर्वप्रथम चित्रकारी का काम आरंभ करती है। लड़कियों या बेंतों का झाबा तैयार कर वह उसे सर पर उठाकर खेतों में ले जाती है। वहाँ से कंद, मूल, फल आदि लाकर उन्हें कूट-पीटकर वह पत्थर के टुकड़ों पर रोटी तैयार करती है। सख्त नुकीले लकड़ी के टुकड़ों से वह कंद-मूल खोदती है, या उनके पास से अनावश्यक लता, गुल्मों काँटों को खोद फेंक देती है, या भूमि को खोदकर वहाँ मटर आदि के बीच छोड़ देती है। इस प्रकार से वह माली के काम का सूत्रपात करती है। अब यदि किसी नदी के तट पर उसे निवास स्थान नहीं है तो फिर झाबे की बनाने वाली, चमड़े के कपड़े बनाने वाली को कुटी बनाते कितनी देर लग सकती है। धीरे-धीरे मनुष्य भी एक स्थान पर रहने लगे और नुकीले लकड़ी के टुकड़े जिनसे वह भूमि को खोदती है, हल के स्वरूप को धारण करने लगे, और उसकी छोटी-छोटी बातें विस्तृत रूप कहीं बढ़ी-चढ़ी दशा में आज हमें दिखाई देती हैं। संसार में इस समय जितने कर्मक्षेत्र दिखाई देते हैं सबको आरंभ करने वाली वास्तव में स्त्रियाँ हैं। औदयोगिक संसार की तो वे अग्रगामिनी (Inventor) आविष्कर्त्री, (Author) रचयित्री और (Originator) जन्मदात्री हैं।
"इस दिनचर्या से तुम्हें विदित हो गया होगा कि कार्य विभाग या काम के बँटवारे में 'प्रेम के प्याले' का स्थान कहीं नहीं है। प्रेम ने यह नहीं कहा तुम यह करो, हम यह करते हैं। एक बात इससे और विदित होती है और वह यह है कि जैसा कि लोगों को विश्वास है कि आदि काल से स्त्रियाँ दासियाँ थीं सो भी ठीक नहीं है। अंतिम लेकिन वास्तव में सबसे महत्वपूर्ण बात जो इससे हमें मालूम होती है वह यह है कि स्त्रियाँ पुरुष से हीन न थीं और समस्त काम करते हुए भी वे दासियाँ नहीं थीं। शारीरिक बल में कम होते हुए भी स्त्रियों का अधिकार कम न था। इसके दो कारण कहे जाते हैं। एक तो आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में उनका अधिकतर भाग, दूसरे उनकी चालाकी और (Diplomacy) व्यवहार शास्त्र और कूट नीति का ज्ञान।
"इस कारण उनकी शक्ति और प्रभाव अमिट था। पादरी हेरिसन जिन्होंने भिन्न जातियों की स्त्रियों के संबंध में अच्छा अनुसंधान किया है, कहा है-
Women are diplomats and generally contrive to have their own way, and it is a great mistake to imagine that they are treated as slaves. Among the Australian races states women act as ambassadors to arrange treaties and invariably succeed in their mission."
"अर्थात् स्त्रियाँ बड़ी कूटनीतिज्ञ होती हैं और अपनी इच्छानुसार काम निकलवा ही लेती हैं और यह सोचना कि गुलामों की भाँति उनके साथ व्यवहार किया जाता है सर्वथा गलत है। ऑस्ट्रेलियन जाति में स्त्रियाँ राजदूत बनाकर भेजी जाती हैं और प्रायः सदा अपने उद्देश्य में वे सफलता प्राप्त करती थीं।
"हम लोगों से यह भी छिपा नहीं है कि सबसे जबरदस्त स्त्रियों के हाथ में हथियार उनकी, समझा-बुझाकर राजी कर लेने की शक्ति है। उनकी इच्छा के प्रतिकूल काम करना बहुत कठिन होता है। ऐसी अवस्था में भी उनका गुलाम या दासी होना कठिन है। इन सभी बातों से यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा प्रेम के प्याले वाला सिद्धांत तथा यह कि पुरुष ने स्त्री से कहा तुम घर का काम-काज देखो हम बाहर का सँभाल लेंगे ठीक नहीं है। तुम कह सकती हो कि तो फिर कार्य विभाग कैसे आरंभ हुआ? कुछ लोगों का कहना है कि स्त्रियाँ बराबर सब काम करती थीं किंतु पुत्रवती होने के काल में उन्हें आराम की अधिकतर जरूरत होती थी वे बाहर निरंतर काम करने नहीं जा सकती थीं। उस समय पुरुष ही अधिकतर कार्य करता था। धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते कुछ दिन में ऐसा प्रबंध-सा हो गया कि घर का काम स्त्री के और बाहर का काम पुरुष के अधीन हो गया है। किंतु वास्तव में यह ठीक नहीं है। जंगली जातियों में और प्रायः यहाँ ग्रामों में भी कोल, भील, चमार आदि की स्त्रियाँ बराबर काम करने बाहर जाती हैं। इतना ही नहीं, कभी-कभी जंगलों में काम करते, लकड़ी काटते समय वे माता हो जाया करती हैं और वे समय से अपने घर लौट आती हैं। ऑस्ट्रेलिया में जाति वाले कहीं जाते होते हैं। रास्ते में यदि किसी स्त्री के बच्चा पैदा होता है तो कोई रुकता नहीं, यात्रा जारी रहती है, माता बाद में पुत्र या पुत्री को लेकर पहुँच जाती है। इतना ही नहीं कुछ जातियों में तो बच्चे के पैदा होने पर पिता को घर में रहना पड़ता है, वही बच्चे की देखभाल और सेवा करता है। माता सदा की भाँति काम पर जाया करती है। यह प्रेम का परिणाम है, या पुरुष की निष्ठुरता या यह कि पुरुष प्रभु होकर स्त्री को दासी की तरह रखता है, स्वयं आराम करता है और उससे काम करवाता है? बतलाओ तुम्हारे सिद्धांत में इन सब बातों का कहाँ स्थान है। जो लोग यह कहा करते हैं कि पुरुष ने स्वार्थवश सब कुछ किया, उसने स्त्रियों से अन्याय और अत्याचार का व्यवहार किया उन्हें भी तनिक विचार करना चाहिए कि ये सब बातें कैसी हैं? उन्हें आचार्य 'मेशन' के इन शब्दों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए, "If one half of this species, the maternal half , in addition to many natural weaknesses had been from the first the victim of malicious imposition and persecution at the hands of the other and the stronger half, humanity would not have survived."
"अर्थात् यदि मानव समाज के अर्ध भाग स्त्री जाति के साथ आरंभ से कुव्यवहार किया जाता, पुरुष प्रभु बन जाता और वह स्त्रियों के साथ क्रूरता का व्यवहार करता तो मानव समाज आज पृथ्वी पर दिखलाई न देता।"
मैं- "वाह! मोहन, वाह!! तुम्हारी बातों से और कुछ चाहे कोई न समझे किंतु तुम्हारी बातों से यह अनुमान जरूर लगा लेगा कि पृथ्वी गोल है। घूम-फिरकर तुम वहीं आ जाते हो। इतनी बातें तुमने कहीं, फलाना सिद्धांत ठीक नहीं, फलाना गलत है, क्यों गलत है, इसलिए गलत है, और इसमें संदेह नहीं कि तुमने खंडन पूरा-पूरा कर दिया। अब तक यह न मालूम हुआ कि तुम्हारा सिद्धांत है क्या और वास्तव में ठीक क्या है? आखिर तुम क्या समझते हो, कार्य विभाग कैसे आरंभ हुआ? भेद-भाव कैसे आरंभ हुआ? बराबर काम करने वाली स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी में कैसे कैद हुईं? संसार के कर्मक्षेत्रों से कैसे अलग हुईं ?"
मो.- "अब इस समय जो हम कह चुके हैं उसी पर तुम आज मनन करो, अपना सिद्धांत हम फिर तुम्हें सुनावेंगे।"
मैं- "क्यों? अभी तो समय ही नहीं हुआ है, आज क्यों जल्दी है ?"
मो.- "आज कुछ सहपाठियों को बुला आया हूँ, वे आते होंगे, परीक्षा का समय निकट है, कुछ उन्हें पूछना है। कुछ हमें समझना है इसीलिए जाता हूँ। और फिर अब तुम्हें भी तो रसोई का काम-काज देखना होगा। 8 बजे गए हैं।"
मैं- "तुम्हारी बातों में लो मैं भूल गई थी, अम्मा भी बैठी होंगी। अच्छा जाओ।"
मोहन के जाने के बाद ही मैं भी नीचे उतर गई। अम्मा दालान में बैठी रामायण का पाठ कर रहीं थीं। सामने रसोई में चूल्हे पर दाल-भात चुर रहा था। तरकारी भी पास ही थाल में बनी रखी थी। मेरे लिए कुछ काम बाकी न था। मैं भी जाकर अम्मा के पास बैठ गई। पाठ के अंत होने पर अम्मा ने मुझसे कहा, आज तुम्हें देर क्यों हुई, क्या कर रही थी? स्नान आदि तो तुम कर चुकी मालूम होती हो? मैंने कहा, स्नान आदि से निवृत्त होते ही मोहन आ गया था, उसी से बातें करनी लगी, अभी वह बाहर गया तो इधर आई। काम तो यहाँ सभी हो चुका है।
अम्मा- "काम ही कितना रहता है जो न हो जाए। काम और समय का रोना तो उन्हें रहता है जो काम करतीं नहीं, जो काम को मजदूरी समझती हैं और जिन्हें काम से प्रेम नहीं। यदि काम का ठीक-ठाक विभाग कर दिया जाए और अपने-अपने समय पर सब काम होते रहें तो कितना ही काम क्यों न हो उसको समाप्त करने के बाद भी समय बचा ही रहता है। दाल चुर रही है, भात हो चुका होगा, उसे पसारकर अलग रख देती हूँ, उसी तरफ तरकारी चढ़ा दूँगी। जब तक दाल-तरकारी होगी, तब तक पान लगा डालती हूँ, फिर रोटी सेंक लूँगी। बस गृहस्थी का काम खतम हो गया। फिर दिन भर छुट्टी है, चाहे रामायण, महाभारत पढ़ूँ, चाहे सीना-पिरोना देखूँ चाहे तुम लोगों से बैठकर बातें करूँ, चाहे चौपड़ खेलूँ।"
मैं- "एक काम को आप भूल ही गईं, स्यापा।"
अम्मा- "अरे, यह तो चार दिन की बात है।"
मैं - "अम्मा, यह स्यापा क्यों होता है? मेरी तो इससे तबीयत घबराती है। झूठमूठ का रोना, व्यर्थ का आडंबर, क्या इससे धोखा देने की साफ-साफ शिक्षा नहीं दी जाती। तमाशा तो यह है कि आँसू हो या नहीं, ह्दय में पीड़ा हो या नहीं, दूसरे के आते ही आँख से नदी बह निकलती है। भला यह स्यापा क्यों किया जाता है ?"
अम्मा- "स्यापा क्यों होता है, यह तो तुम्हें समझ लेना चाहिए। बात यह है कि किसी के कुल में मृत्यु होती है, तो इष्ट-मित्र, संबंधी उसके दुःख में संवेदना प्रगट करने, सहानुभूति दिखाने को आते हैं। दुःख बाँटते हैं, बात कर उसके दुःख को कम करते हैं। यह तो बहुत आवश्यक है, इसमें लाभ भी अनेक हैं किंतु कोई बात जब बिगड़ते-बिगड़ते रूढ़ि या प्रथा हो जाती है, जब भाव को भूलकर लोग जड़ को पूजना आरंभ करते हैं, तब उसमें आडंबर मात्र ही रह जाता है और तब वह निरर्थक हो जाती है। उसमें बुराइयाँ भी अनेक हो जाती हैं। अभी तुमने स्यापा बेटी देखा ही कहाँ है, तुम्हारी अवस्था ही क्या है? स्त्रियों में विशेषकर पंजाबी खत्रियों में स्यापा बड़ा भयंकर होता है। उसमें भी खड़ा स्यापा, जिसमें स्त्रियाँ खड़ी होकर एक नाउन की अध्यक्षता में छाती पीटती हैं, वह तो पैशाचिक है। मालूम पड़ता है मुगदर से धरती पीटी जाती है। बड़ी जोर-जोर से पीटती हैं, शरीर लाल हो जाता है, कभी-कभी रक्त निकल आता है। जो जितनी जोर से पीटती है वही योग्य गिनी जाती है इतना ही नहीं, लड़कियों को मुसलमानों के घर मोहर्रम में जाकर इसकी शिक्षा लेनी पड़ती है। हसन-हुसन न कहकर वे स्यापे में यों ही बदन रक्तमय कर लेती हैं। बड़ी ही बर्बर और निर्दय प्रथा है। उस पर भी लंघन उपवास गजब होता है।"
मैं- "जो प्रथा इतनी बुरी है, जिसके सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं उसे लोग तोड़ क्यों नहीं देते? क्या घरवालों में दया नहीं है या समाज की दृष्टि में वह अच्छा है ?"
अम्मा- "नहीं-नहीं, बात यह नहीं है, सब लोग जानते हैं, समझते हैं, मन ही मन उसे घृणा की दृष्टि से भी देखते हैं किंतु मनुष्यों में इतना नैतिक बल नहीं है कि एक बात को सरासर बेजा समझते हुए भी उसे छोड़ दें। साथ ही स्त्रियों में विद्या नहीं, बुद्धि नहीं। स्यापे को भी वे ईश्वरीय आज्ञा, धर्म और वेद समझती हैं। कितनी ही ऐसी हीन प्रथाएँ हैं। समाज में तो क्या तुमसे कहने में भी, जिनका नाम लेने तक में लज्जा में डूब जाती हूँ। कितनी ही प्रथाएँ तो ऐसी हैं कि यदि स्त्रियाँ पढ़-लिख जाएँ तो उन्हें अपनी बहू-बेटियों से कहने में लज्जा आए कि उनका अनुसरण आप से आप बंद हो जाए। कोई शिक्षिता स्त्री को अपनी पुत्री या पुत्रवधू से कहने का साहस ही न हो। खैर जाने दो, चलो अब रसोई में चलें।"
अम्मा के साथ मैं रसोई में चली गई। तरकारी चढ़ाकर उन्होंने दाल छौंकी और फिर तवा गरम होने लगा। आटा गुँधा रखा था, उसे ठीक कर वे रोटियाँ बेलने और मैं सेंकने लगी। इतने ही में मोहन आया, उसके बाद ही बाबूजी के खड़ाऊँ की खटपट सुनाई दी। मैंने कहा, बाबूजी आते हैं।
मोहन ने कहा, "अम्मा ! थाली परसो, बाबूजी आ गए।" अम्मा ने थालियाँ परसीं और बाबूजी और मोहन भोजन करने बैठे। खाते-खाते बाबूजी ने कहा, "सरले ! आजकल तू क्या पढ़ती है ?"
मैं- "आजकल तो बहुत कम समय मिलता है, तब भी जो कुछ समय मिलता है उसमें 'टाड्स राजस्थान' पढ़ती हूँ। रघुवंश दोहरा रही थी किंतु मोहन को आजकल समय न होने से वह बहुत कम हो रहा है।"
बाबूजी- "हाँ, अब तो मोहन के परीक्षा के दिन हैं। आजकल मोहन पढ़ भी बहुत रहे हैं।"
मो.- "कहाँ बाबूजी, अभी बहुत पढ़ना बाकी है।"
अम्मा- "दिन-रात तो पढ़ा करते हो, आजकल तुम सोते भी कम हो।"
बाबूजी- "मोहन! एक बात हमारी मान लो, पढ़ने के पीछे परीक्षा के दिन में पागल होना भी ठीक नहीं। मस्तिष्क को ताजा भी रखना चाहिए। अच्छा यह बतलाओ खेलते तुम कितना हो।"
अम्मा- "खेलता कब है? दिन-रात जब देखो तब किताब से कुश्ती होती रहती है। सरला के पास भी बहुत कम बैठता है।"
मैं- "हाँ, बाबूजी यह ठीक है। आजकल मोहन मेरे पास बहुत कम बैठता है।"
मो.- "अभी आज ही सवेरे तुमसे बैठा बातें करता रहा? हाँ, इधर दो-तीन दिन से नहीं आया था।"
बाबूजी- "हम कहते हैं जितना तुमने पढ़ रखा है उसी से पास हो जाओगे, हम पढ़ने को मना नहीं करते किंतु कुछ खेला भी करो।"
यों ही बातें होती रहीं। भोजन कर बाबूजी और मोहन उठे। अम्मा ने रसोई से निकलकर बाबूजी को पान दिया और वे बाहर गए। मैंने थाल परोस रखी थी। अम्मा आईं और हम लोगों ने भोजन किया।
हाथ-मुँह धोकर अम्मा के साथ दालान में बैठी और मजदूरिन चौका-बरतन करने लगी।
अम्मा ने कहा, "शाम तक के लिए पान लगातार रख दें, फिर छुट्टी न मिलेगी।" मैंने पान धोकर ला दिए और अम्मा उन्हें लगाने लगीं। मैं सुपारी कतरने लगी किंतु अम्मा ने कहा, "सुपारी बहुत कटी हुई रखी है उसे दे दो और तुम कुछ पढ़कर सुनाओ।" मैंने कहा, "क्या सुनाऊँ ?" कहा, "वह कौन-सी पुस्तक थी जिससे तुमने बाबूजी से खाते समय कहा था कि तुम दोहरा रही हो ?"
मैं- "रघुवंश, अम्मा, वह तो संस्कृत में है, उसे तो मैं मोहन के साथ पढ़ा करती हूँ आज आपको मैं 'रामायणी कथा' लाकर सुनाती हूँ।"
मैं पुस्तक लाकर पढ़ने लगी। थोड़ी देर तक मैं पढ़ती रही। अम्मा पान लगाकर लेटी हुई थीं। कुछ ही समय बाद मोहन अपना कुर्ता लिए आ पहुँचा। बोला, "बीबी, गले पर तनिक यह फट गया है जल्दी से सी दो, मुझे बाहर जाना है।"
अम्मा ने कहा, "मोहन, अभी कपड़ा बदलना नहीं है। नौ दिन हो गया है परसों बदल लेना।" उसने कहा, "बाबूजी कलेक्टर साहब से मिलने जा रहे हैं, उन्हीं के साथ मुझे जाना है। मैंने बाबूजी से कहा था किंतु उन्होंने कहा, कोई हर्ज नहीं। कलेक्टर साहब हमारे लिए परसों तक रुके थोड़े रहेंगे। गाँवों की मालगुजारी के संबंध में कुछ कहना है, काम जरूरी है।" अम्मा ने कहा, "अच्छा सी दे।" मोहन के कुर्ता लेकर जाने पर अम्मा ने कहा, "अब किताबें हटाकर रख दो और पान का डिब्बा बाबूजी को दे आओ। स्यापे का समय हो गया है, स्त्रियाँ आती होंगी।"
मैं पुस्तकों को रखकर पान देने चली, इधर स्त्रियों का आना शुरू हुआ। संध्या होने पर स्त्रियाँ घर गईं और अम्मा के साथ मैं रसोई में गई। यथासमय भोजन के बाद मैं निद्रादेवी की गोद में जाकर पड़ गई।
आज दसवाँ दिन है। सवेरे ही मजदूरिन घर को साफ कर धो रही हैं। कपड़े सब धुलने के लिए दिए जा रहे हैं। कुछ समय बाद स्त्रियाँ आने लगीं। आज रोना भी हुआ और फिर यमुना स्नान के लिए सब निकलीं। स्नान आदि के बाद सब लोग वापस आए और अपने-अपने घर गए। संध्या होते ही भोजन कर थके-माँदे घरवाले भी निद्रादेवी का आवाह्न करने लगे। रात्रि के दस बज गए। मुझे नींद न आई। आँखों में नींद थी ही नहीं। रह-रहकर लाड़ली सामने खड़ी दिखाई देती। उसकी मोहिनी मूर्ति आँखों से ओट नहीं होती। चित्त को बार-बार उधर से खींचती किंतु वह कहने में न था। आखिरकार अलमारी से 'रामायणी कथा' उठाकर पढ़ने लगी। आज उसमें भी मन न लगा। पन्ने उलटते-पुलटते नींद आ गई। रात्रि को स्वप्न देखा। देखा लाड़ली सामने खड़ी होकर कह रही है, बीबीजी! अभी सोई नहीं। क्यों क्या सोच रही हो? सोचती हो कि लाड़ली मर गई, उसके लिए दुःख करती हो। प्रेम के कारण सोचती होगी मुझसे स्थान बदलना। कहती होगी 'मैं ही क्यों न मर गई? मेरे लिए संसार में क्या रखा है? मैं क्यों जी रही हूँ।' यही न बीबीजी ! कैसा मैंने जान लिया। किंतु तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि मैं तुमसे स्थान परिवर्तन करना नहीं चाहती। मुझे जो सुख यहाँ है वह सुख और स्वतंत्रता वहाँ नहीं मिल सकती। अभी दस ही दिन यहाँ आई हूँ किंतु यहाँ एकदम मैं बढ़ गई हूँ। अब छोटी नहीं रही पर घूँघट नहीं है। न मैं यहाँ आँगन या दालानों में ही कैद ही हूँ। एक बात और है, यहाँ मैं सबके साथ मिलती-जुलती हूँ, घूमने-फिरने भी निकलती हूँ। न यह किसी को बुरा ही मालूम होता है और न कोई कुछ कहता ही है। मैंने यहाँ के निवासियों से पूछा था कि इस स्थान का नाम क्या है। उन लोगों ने इसे 'स्वर्ग' बतलाया। मालूम नहीं इसे लोग 'स्वर्ग' क्यों कहते हैं। लेकिन जो कुछ हो तुम्हारे संसार से यह मुझे कहीं अच्छा मालूम होता है। जब से मैं यहाँ आई हूँ घूम-फिरकर इस विचित्र स्थान का कोना-कोना देख रही हूँ। यहाँ कोई दुखी दिखाई ही नहीं देता। गरीबी किस वस्तु का नाम है, वह है भी कुछ या नहीं, इसमें भी संदेह होता है। सभी लोग क्या पुरुष क्या स्त्री मग्न-से दिखाई देते हैं, किसी को न दुःख है न सुख। हाँ, एक बात कहना भूल गई, इस देश के फाटक पर स्वर्ण अक्षऱों में लिखा है- "मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो चाहे प्राप्त कर सकता है।"
बहुत-सी भाषाओं में और भी कुछ लिखा हुआ था। किंतु एक मनुष्य से पूछने पर मालूम हुआ कि भिन्न-भिन्न भाषाओं में यही एक बात लिखी हुई है।
यहाँ स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं है, यहाँ पुरुष सर्व सुखों का अधीश्वर नहीं है और न स्त्री अंतःपुराबद्धा दासी ही है। दोनों बराबर हैं। दोनों ही अपनी इच्छानुसार काम करते हैं। रहने के स्थान भी अलग-अलग-से हैं। किसी गृह में स्त्री-पुरुष एक साथ निवास नहीं करते। यहाँ आने के दूसरे ही तीसरे दिन एक नवयुवक से मेरी भेंट हो गई। उसी के साथ मैं एक दिन एक सभा में गई। सभा में स्त्री-पुरुषों की खासी भीड़ थी। किंतु स्त्रियों के लिए कोई अलग बैठने का स्थान न था, न वे पर्दे में ही थीं। सब एक साथ बैठे हुए थे मानो वहाँ कोई स्त्री थी ही नहीं। हाँ, एक बात जरूर थी। ये स्त्री-पुरुष Consciousness (अंतश्चैतन्य) में सांसारिक स्त्री-पुरुषों से कुछ अधिक बढ़े-से दिखाई देते थे। सभामंडल में चारों तरफ तख्तियाँ लटक रही थीं। सूत्रों की भाँति उसमें कुछ लिखा था। उस समय सबमें क्या लिखा था यह जान लेना कठिन था। किंतु दस-पंद्रह जो मेरे सामने थीं उनमें ये बातें लिखी थीं -
(1) 'Duty is what one should never do.' 'कर्तव्य वह है जिसे मनुष्य को कभी न करना चाहिए।'
(2) 'Do what you want to do, not what you ought to do. ' 'तुम जो करना चाहते हो उसे करो, जो करना चाहिए उसे नहीं'।
(3) 'सर्वोत्त्म नियम यह है कि संसार मं कोई नियम नहीं'।
(4) 'मनुष्य स्वयं अपना ईश्वर है'।
(5) 'Know thyself'. 'अपने को जानो'।
(6) 'Life degrades when instinct is limited by morality'. 'स्वभाव को नियमबद्ध करने से जीवन बिगड़ता है'।
(7) 'The imposition of Morals upon individual will at first frustrates. Then limits, and finally subjugates it. The result is the habitual spiritual apathy.' 'नैतिक नियमों का संस्कार पहले व्यक्ति के मन को हताश करता है, फिर परिमित करता है अंततः वश में कर लेता है। परिणाम वही अभ्यस्त आध्यात्मिक उपेक्षा है'।
(8) 'Morality is prison.' 'सदाचार कारागार है'।
(9) 'I am good not because I am good and virtuous but because I am myself.' 'मैं अच्छा हूँ, इसलिए नहीं कि मैं अच्छा और धर्मात्मा हूँ वरन् इसलिए कि मैं अपने आप में हूँ।'
(10) 'If you want to grow up face fact and realities of life.' 'यदि तुम उन्नति चाहते हो तो जीवन की हकीकतों और सच्चाइयों का साहस के साथ सामना करो।'
(11) 'Perpetual money-making destroys the habit of philosophic thought.' 'निरंतर धनार्जन से बुद्धियुक्त विचार करने का स्वभाव नष्ट हो जाता है'।
(12) 'Money is poison and poverty the precursor and generator of all evils.' 'धन विषस्वरुप है और निर्धनता सारी बुराईयों की जड़ है'।
(13) 'Fallow the Devil.' 'शैतान का अनुसरण करो'।
(14) 'No Human being can afford to be contented. ' 'किसी मनुष्य के संतुष्ट रहने में गुजर नहीं'।
(15) 'No greater sin than contentment.' 'संतोष से बड़ा कोई पाप नहीं'।
(16) 'So long as you can conceive something better than yourself you ought not to be easy unless you are striving to bring it in to existence or clearing the way for it.' 'जब तक तुम अपने से किसी श्रेष्ठतर अवस्था का चिंतन कर सकते हो, तब तक उसको अस्तित्व में लाने या उसके लिए मार्ग परिष्कृत करने के उदयोग के बिना तुम्हें आराम न करना चाहिए।'
अपने साथी नवयुवक से मैंने पूछा, आज यहाँ क्या है? उसने कहा आज यहाँ पर एक महती सभा है। लोग विचार करेंगे कि 'उन्नति किस प्रकार हो'। कुछ समय बाद दो-एक व्याख्यान दिया। बीबीजी, जो कुछ मैंने आज तक सुन रखा था और जो अब भी आप लोगों का विश्वास है वह व्याख्यान के सुनने से निस्सार, हानिकारक और खोखला प्रतीत होता है। हम सब बड़े भ्रम में थे। व्याख्यानों को दोहरा देना मेरे लिए असंभव है किंतु उनमें की कुछ मुख्य मुख्य बातों तुम्हें सुना देना मैं आवश्यक समझती हूँ। व्याख्यानदाताओं ने अपने विषय को कहते हुए बहुत-सी संसार संबंधिनी बात कही थीं। उन्हीं में से जो कुछ मुझे याद हैं उन्हें कहती हूँ। एक ने कहा था- "दुनिया के निवासी जिस प्रकार भूलकर संसार को नष्ट कर रहे हैं, उसी प्रकार कुछ हम लोगों ने भूल करना आरंभ किया है। भ्राताओं को यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि मनुष्य ही ईश्वर की सृष्टि में सर्वस्व नहीं है जिस प्रकार से सृष्टि में अनेक जीव-जंतु हैं, उसी प्रकार से एक जीव मनुष्य भी है। स्त्री-पुरुष सृष्टि में सर्वोत्तम नहीं हैं। न स्त्री-पुरुष का ही निर्माण करना सृष्टि का लक्ष्य था। मानव अपने को सर्वोत्तम और सर्वपूज्य समझता है। वास्तव में बात बिलकुल इसके विपरित है। उसे अपने परिमित छोटे-से मस्तिष्क का बड़ा अभिमान है। इस अपने छोटे-से मस्तिष्क का वह नाजां है, वह बुद्धि-विवेक को Wisdom और Natural Instinct स्वाभाविक प्रवृत्ति की अपेक्षा अधिक महत्व की वस्तु समझने लगा है। भ्रमवश वह यह नहीं समझता, रस्म-रिवाज, सांसारिक बंधन और प्रपंचों से घिरे रहने के कारण मानव समाज विवेक के नाम पर प्रकृति को दबाना अपना कर्तव्य समझता है। विवेक परिमित है और अभी पूर्ण अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है। उसके दिमाग में यह छोटी-सी बात भी नहीं आई है कि उसकी विवेक शक्ति से उसे क्या लाभ पहुँचा है और नीच श्रेणी के जानवरों की अपेक्षा वह किस बात में श्रेष्ठ है। वह समझता है कि जानवरों की अपेक्षा मस्तिष्क वाला जानवर होने से वह सुख को भली भाँति अनुभव कर सकता है। इसी मद से वह पागल हो गया है। उसे यह नहीं सूझता कि मस्तिष्क के सहारे सुख अधिक अनुभव कर सकता है तो मस्तिष्क के कारण वह दुःखों को भी मूर्खों या मस्तिष्करहितों की अपेक्षा कहीं अधिक अनुभव करता है। सृष्टि का राजा, समझदारों का सरताज, बुद्धू मनुष्य यह नहीं सोचता कि " सुख अनुभव करने की सूक्ष्मतर शक्ति के कारण दुःख अनुभव करने की योग्यता भी उसमें आ गई है।"
अब जरा विचार करिए कि दोनों में कौन अच्छा है, कौन अधिक सुखी है, कौन अधिक स्वतंत्र है, मस्तिष्क पर कूदने वाला मनुष्य या मस्तिष्करहित पशु? मनुष्य यह नहीं सोचता कि उसके इस मस्तिष्क से सृष्टि को क्या लाभ पहुँच सकता है? और वह वनमानुष के आगे क्यों नहीं बढ़ती। इतना ही नहीं सभी ओर इस मदांध ने भीषण भूलें की हैं। वह यह खूबसूरती का नाजां हैं। वह सर्वत्र सुंदरता और शारीरिक संपूर्णता ढूँढ़ता है, जिसमें यह नहीं वह उसके लिए हेय है किंतु वह यह नहीं सोचता कि सृष्टि का उद्देश्य यदि नहीं होता तो वह खूबसूरत रंग-बिरंगी आकाश में उड़ने वाली चिड़ियों को बना लेने के बाद वह आगे क्यों बढ़ता? मनुष्य यह भल गया है कि वह सृष्टि का लक्ष्य नहीं है, विकास के लिए वह वैसा ही है जैसा कि बनमानुष, मछली या तोता। सृष्टि का लक्ष्य कभी भी ऐसे परिमित शक्ति के जीव को संपूर्ण करना नहीं हो सकता। अभिमान में चूर यह हमारा जड़ मनुष्य इस सत्य की ओर देखने से भी घबड़ाता है कि स्वाभाविक घटनाक्रम में मनुष्य का भी अतिक्रमण हो जाएगा। वह स्वयं अंतिम रूप नहीं है वरन् अंतिम रूप का साधन मात्र है।
"सृष्टि का हीन पुतला मनुष्य अपनी खूबसूरती और मस्तिष्क की बलैया लेता है, उसे यह दिखाई नहीं देता कि विकास के पहिए को उसने रोक दिया है। वह यह नहीं देखता कि उसकी दृष्टि में तिरस्कृत नीच जाति के जीव-जंतु कितने आगे बढ़े। विकास की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए उन लोगों ने उसे (मनुष्य को) पैदा किया है, उसके विपरित मनुष्य ने क्या उन्नति की है? सृष्टि के विकास में उसने क्या सहायता की है, अपने से श्रेष्ठ उसने कौन-सा जीवन उसने उत्पन्न किया है? हो भी कैसे वह तो अपने ही पर मस्त है। अपने ही श्रेष्ठ जीव का तो वह स्वप्न ही नहीं देखता, पैदा कर सकना तो दूर रहा। यदि लंगूर या बनमानुष भी इसी प्रकार अपनी खूबसूरती या बुद्धि की बलैया लेने लगते और अपने को श्रेष्ठ समझने लगते तो इसमें संदेह नहीं कि आज संसार में मनुष्य भी न दिखाई देते। जब तक मस्तिष्क और खूबसूरती ने रेड़ नहीं मारी थी, जब तक स्वाभाविक प्रवृत्ति ही सर्वपूज्य थी जीव विकास की सीढ़ियों पर निरंतन ऊपर चढ़ता जाता था किंतु कर्तव्य, धर्म, नैतिक नियम और दुनिया से समस्त बंधनों के जन्मते ही उन्नति का मार्ग रुक गया और आज प्रायः दस-पंद्रह सहस्र वर्ष से मनुष्य आगे नही बढ़ सका। वह समस्त बातों में विवेक ढूँढ़ता है और विवेक को वह उतना ही सर्वपूज्य और श्रेष्ठ समझता है जितना कि अंधी दुनिया के लोग नैतिक नियमों को। नतीजा यह हुआ कि जो बात विवेक से सिद्ध नहीं, वह उसकी दृष्टि में हेय है, विवेक उपजाऊ नहीं है और इस तरह से उपज, वृद्धि परिमित हो गई। उन्नति करने के लिए यह आवश्यक है कि विवेक के काल को विदाई दे लोग स्वेच्छा-काल की अधीनता स्वीकार करें। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने से श्रेष्ठ कोई जीव उत्पन्न करे, और जब तक वह यह न कर ले उसे यह समझना चाहिए कि उसने अपने उद्देश्य की सिद्दि नहीं की।"
इसके बाद एक-दूसरे व्याख्यानदाता ने उठकर कहा, "आप लोगों ने जो कुछ सुना उससे अधिक कहना मेरी शक्ति से बाह है। हाँ, दो-एक उदाहरण आदि देकर मैं उन्हीं बातों को सरल करने की चेष्टा करूँगा। वास्तव में, जैसा आपने सुना है, संसार की उन्नति रुक गई है। मनुष्य ने अपने को सर्वोत्तम समझकर सब नाश मार दिया है। विकास की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ जीव स्त्री हुआ। उसने देखा कि सृष्टि का उद्देश्य एक योनि से पूरा नहीं हो सकता, इसलिए स्त्री ने अपने श्रेष्ठ जीव पुरुष को पैदा किया। किसलिए? इसलिए कि कम से कम लागत और व्यय से वह सृष्टि-वृद्धि के कार्य में सहायक हो। उसने मनुष्य को इसलिए पैदा किया जिसमें वह उसके सहयोग से स्त्री-पुरुष की अपेक्षा कोई श्रेष्ठ जीव उत्पन्न करे जो अकेली स्त्री नहीं कर सकती थी। समस्त संसार का कार्यभार उसने (स्त्री ने) अपने ऊपर ओढ़ लिया, पुरुष जो चाहे करता लड़ता, मरता, कटता, सोता, जागता, शिकार करता, आराम करता या गप्पें मारता, उसे (स्त्री को) तब तक कोई शिकायत न थी जब तक वह अपने कार्य को, जिसके लिए वह पैदा किया गया था, करता जाता। जब तक स्त्री को सर्वपूज्य आदि शक्ति, मातृत्व को लक्ष्मी, कुटुंब को विष्णु समझता और सब कुछ स्त्री के कुटुंब के लिए करता, स्त्री प्रसन्न थी और वह अपने कामों की कुचालों की अहवेलना करती थी किंतु मनुष्य ... भूल करने वाला है। उसने यह न देखा कि स्त्री ने बच्चा जनने के भार से उसे इसलिए मुक्त कर दिया है कि वह आगे बढ़े। उसने क्या किया? बच्चा जनने से काम न होने से जो Superfluous energy फाजिल अधिक शक्ति उसके पास बची उसे वह अपने मस्तिष्क और शरीर की वृद्धि और शारीरिक बल बढ़ाने में खर्च करने लगा। नतीजा यह हुआ कि वह शरीर से अधिक बलवान हो गया, मस्तिष्क की शक्ति में भी वह बढ़ गया और इस प्रकार से वह स्त्री के हाथ से बाहर हो गया और उसके अधिकार में न रहा। उसने समाज-संगठन आरंभ किया और उसकी नींव यह हुई कि स्त्री सेवा करे, चाकरी करे और संसार का भार उठावे। समाज संगठन के साथ ही साथ उसने कितने ही नियम समाज की रक्षा के लिए गढ़ डाले। सृष्टि-वृद्धि या यों विकास की प्रकाश की ओर से उसका ध्यान हट गया। मनुष्य ने अपने को सर्वश्रेष्ठ समझकर सृष्टि विकास का द्वार बंद कर दिया और उसने सामाजिक वृद्धि की ओर अपनी समस्त शक्ति लगा दी। सामाजिक संगठन के साथ-साथ संसार में परिवर्तन, भीषण परिवर्तन, आरंभ हुआ। स्वतंत्र मनुष्य अस्वतंत्र हुआ। गलती करने वाला मनुष्य यही समझता है कि वह स्वतंत्र हो रहा है, वास्तव में बात यह है कि दिन-दिन उसकी परतंत्रता बढ़ती जाती है। चाहे जिस ओर देखिए, जिस कर्म में जाइए, आपको सबकी अपेक्षा कुछ लोगों की प्रभुता दिखाई देगी। राजनीति में देखिए दुनिया प्रजातंत्र का नाम ले पागल हो रही है जबकि वास्तव में सब मनुष्य के भाग्य का निपटारा एक थोड़े-से मनुष्यों का खेल हो रहा है। संपत्ति के क्षेत्र में देखिए, हजार गरीबों के बीच मुश्किल से एक अमीर होता है। किसी के पास करोड़ों रुपया है किसी के तन पर एक फटा कपड़ा भी नहीं है। कहने वाले कहते हैं 'राम राज्य' है, ऊँच-नीच का झगड़ा नहीं है, किसी कुल में उत्पन्न हुआ मनुष्य, हीन से हीन मनुष्य अपनी योग्यता, परिश्रम और अध्यवसाय से करोड़ाधिपति हो सकता है, कुबेर हो सकता है किंतु वे यह नहीं सोचते कि अब वह अवसर नहीं रहा। समय के आरंभ में, परिवर्तन काल में जबकि जंजीर ढीली रहती है, व्यक्ति भीतर घुस सकता है, उसे मौका रहता है कि ऊपर उठ जाए किंतु एक बार व्यवस्था ठीक हो जाने पर, जंजीर के कस जाने पर किसी का उसके घेरे में पहुँच जाना कठिन ही नहीं वरन् असंभव है। राशचाइल्ड, राकफेलर, कारनेगी सत्य है अपने परिश्रम से बढ़े हैं किंतु उनकी वृद्धि में उनकी योग्यता से अधिक भाग समय था। भुलक्कड़ मनुष्य यह नहीं देखता कि प्रकृति से मनुष्यों में कितना अंतर है। मस्तिष्क का पागल, मस्तिष्क का नाजां, मस्तिष्क का ही राग अलापता है। वह कहता है, ईश्वर ने सबको एक-सा बनाया अब यदि किसी ने अपनी योग्यता बढ़ा ली तो उसका फल वह क्यों न चखे ?
"विशेष मस्तिष्क, विशेष योग्यता के लिए कुछ पारितोषिक अवश्य ही होना चाहिए। वह यह नहीं देखता कि सदा का भूल करने वाला वह फिर भूल करता है। ईश्वर ने सबको एक-सा बनाया सही, उनमें भेद भी है किंतु वह भेद कितना है। एक लंबे से लंबा मनुष्य एक बौने से बौने मनुष्य की अपेक्षा उड़कर चौगुना से अधिक नहीं हो सकता, किसी काम में देखा जाए कोई भी कर्मक्षेत्र लिया जाए, चतुर से चतुर मनुष्य मूर्ख से मूर्ख की अपेक्षा दूने-चौगुने से अधिक कार्य नहीं कर सकता किंतु इसके विपरीत हम देखते हैं कि धन में एक मनुष्य दूसरे की अपेक्षा सौ गुना, सहस्र गुना करोड़ गुना अधिक होता है। मस्तिष्क वाला यह नहीं सोचता कि प्रकृति से इतना अंतर न होने से शरीर में, काम में इतना अंतर न होने से मस्तिष्क में, योग्यता में इतना अंतर स्वाभाविक नहीं हो सकता। इसका कारण होगा, यह बनावटी है, और इसको दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए, यह उसकी समझ में नहीं आता। वह इसका प्रबंध दूसरे प्रकार से करता है। वह हीनों को, गरीबों को धर्म की शिक्षा देता है, कर्तव्य का पाठ पढ़ाता है, कहता है, 'निर्धन धन्य हैं क्योंकि ईश्वर उन पर कृपा करेगा'। कहता है, 'संतोष परम धर्म है','संसार अनित्य है', "यहाँ अमीरी-गरीबी कोई वस्तु नहीं परलोक का ध्यान करो वहाँ सबकुछ मिलेगा'। वह कहता है, 'अमीर मनुष्य के लिए स्वर्ग में जाना उतना ही कठिन है जैसे कि ऊँट का सुई के छिद्र से निकलना'। वह असलियत से घबड़ाता है, यथार्थ (fact) बातों की ओर देखने से पागल होता है क्योंकि मस्तिष्क का नाजां यह स्वीकार नहीं कर सकता कि मस्तिष्क परिमित है, उसमें इतना अंतर नहीं हो सकता। वह यह नहीं देखता कि घोर परिवर्तन भयावह है किंतु अंधविश्वास और लकीर का फकीर बना रहना या लीक पीटना और भी भयावह है। वह यह नहीं देखता कि वह सभ्यता जो शक्ति और धन को कुछ विशेष पुरुषों के अधीन कर देती है और दूसरों को केवल मशीन की भाँति काम लेती है अवश्य ही नष्ट होगी, अराजकता को पैदा करेगी और विलीन होगी। वह यह नहीं देखता कि गरीबी, अपरिमित अमीरी और दूसरी ओर गरीबी की भयानक चट्टानों, भँवरों को बचाकर सभ्यता का जहाज नहीं निकल सकता, यह अवश्य कहीं न कहीं टकराकर नष्ट-भ्रष्ट होगा।"
"इसी सामाजिक उथल-पुथल में वह शासन स्थित करता है, वह मनुष्य को स्वतंत्र करना चाहता है। उसे यह नहीं समझ पड़ता कि जो मनुष्य एक मालिक का अपने रोटियों के लिए आश्रित है वह स्वतंत्र नहीं है। वह उन्हें 'वोट' देता है, भूलभूलैया में छोड़ उन्हें ही नहीं अपने को भी भ्रम में डालता है। समझता है कि शासन में उनकी आवाज है। उसे यह नहीं समझ पड़ता कि गुलामों को वोट देना वास्तव में उनके मालिकों को वोट देना है। वह नहीं देखता कि वास्तव में वह सब शक्ति धनियों के हाथ में दे रहा है, जिनके पूर्वज चाहे मस्तिष्क और योग्यता के कारण ही क्यों न बड़े हुए हों। किंतु वास्तव में जो अब केवल समय से या दैवीगति से ही बड़े हैं। वह यह नहीं देखता कि संसार के समस्त दुःखों के मेटने का महामंत्र 'गरीबी और दरिद्रता का नारा है।'
अरिस्टाटिल और प्लेटो सदृश मस्तिष्क के अभिमानियों को समझ में भी एक मनुष्य पर अधिकार रखना वैसा ही था जैसा कि घोड़े या गाय पर। तभी क्यों, आज दिन भी हमारे मस्तिष्क के नाम नाचने वालों की दृष्टि में गुलाम, दासता की जड़ पर कुठार चलाने वाले यह चाहने वाले कि की किसी का प्रभु न हो, कोई किसी का दास न हो, कोई अपने धन के बोझ से दूसरे को दबा न सके, और स्त्रियों की स्वतंत्रता के अभिलाषी अराजक कहे जाते हैं। कहा जाता है कि वे समाज के शत्रु हैं और समाज को नष्ट-भ्रष्ट करना ही उनका उद्देश्य है, वे व्यभिचार और पाप फैलाना चाहते हैं।
यह सब बातें यह साबित करती हैं कि मनुष्य यथार्थ बातों की ओर नहीं देख सकता, सत्य की ओर देखने से उसे चकाचौंध होती है, और काम करने ही में नहीं वरन् विचार करने में भी वह … है। इन सब बुराइयों का कारण एकमात्र यही है कि मनुष्य भूल करने वाला है, उसका मस्तिष्क जिसका वह नाजां है, परिमित है। उसके मस्तिष्क ने व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति और इंद्रियपरायणता में जितना अपने को खपाया है, सामाजिक आवश्यकताओं को समझ सकने से वह उतना ही दूर रहा है। प्राकृतिक विज्ञान उछलता-कूदता आगे बढ़ा जाता है और राजनीति और सामाजिक विज्ञान उतना ही दूर पीछे पड़ता जाता है और इसी के कारण आज मनुष्य उन्नति नहीं कर रहा है।"
कुछ समय बाद सभा का विसर्जन हुआ। सब लोग उठे। मैं भी चल पड़ी। मार्ग में मुझसे एक स्त्री की भेंट हो गई। बातें करते-करते उसी के साथ चल पड़ी। रास्ते में मैंने उससे उसके पति का नाम पूछा। वह मेरा मुँह ताकने लगी। उसके मुँह से ज्ञात होने लगा मानो मैंने उसे गाली दी हो। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने उससे माफी माँगना शुरू किया। उसने कहा, नहीं-नहीं, मालूम होता है पृथ्वी से आए अभी तुम्हें बहुत दिन नहीं हुए इसीलिए तुम समझती हो कि जो वहाँ था वही यहाँ भी होगा। अब तुम पृथ्वी में नहीं स्वर्ग में हो। यहाँ विवाह पति-पत्नी, स्त्री, दासी, यह सब कुछ नहीं है। यहाँ किसी का कोई पति नहीं और न किसी की कोई पत्नी है। मुझे चुप रहते देख उसने कहा क्या सोच रही हो, सोचती होगी कि इतने मर्द-औरत हैं यदि पति-पत्नी नहीं तो यहाँ पाप होगा, व्यभिचार होगा, यही न? बात ऐसी नहीं है। पाप, अनाचार का यहाँ नाम नहीं है। तुम्हें कोई व्यभिचारी यहाँ स्वप्न में भी नहीं दिखाई देगा। कुछ दिन रहने पर ये बातें तुम्हारी समझ में आ जाएँगी। अभी पृथ्वी पर प्रचलित मानव-समाज के मिथ्या संस्कार का प्रभाव तुम्हारे चित्त पर बना हुआ है, उसी से तुम ऐसा समझती हो। मेरे यह कहने पर कि जहाँ इतने स्त्री-पुरुष एक साथ स्वतंत्रता से रहें, घूमें और फिर उनमें किसी तरह का बंधन न हो और फिर वे पापी भी न हों, यह समझ में नहीं आता। उसने उत्तर में कहा कि यों समझाऊँ तो जल्दी तुम्हारी समझ में न आएगा, साथ ही समझ में आवे भी तो तुम मानोगी नहीं, इससे स्वयं तुम अनुभव कर मेरी बातों की सत्यता को समझ लोगी। इस समय मैं तुमसे इतना ही कह देना चाहती हूँ कि संसारी मनुष्य में ही व्यभिचार होता है क्योंकि अपने को सर्वोत्तम समझकर वह अपने को भूल गया है, अपने उद्देश्य को भूल गया है, और इसी प्रकार इंद्रियपरायणता और व्यभिचार में वह रत हो गया है। स्वर्गीय मनुष्य अपने उद्देश्य को नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि जीवन का उद्देश्य अपने से श्रेष्ठ मनुष्य को उत्पन्न करना है। अपने को जानना है, 'अहमस्मि' है। इनके विकास के प्रकाश में व्यभिचारी का का स्थान नहीं है। व्य़भिचार को वे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, वे समझते हैं कि व्यभिचार का दूसरा नाम संहार की शक्ति है। इसके साथ ही साथ वे जानते हैं कि जीव का उद्देश्य अमरत्व प्राप्त करना है, नाश नहीं इसलिए व्यभिचार उन्हें स्वप्न में भी नहीं दिखाई देता, वे उससे सदा दूर रहते हैं। सिद्धांत की रीति से मैंने तुमसे यह कह दिया, किंतु तुम इसे समझ न सकी होगी। समझने के लिए किसी दिन तुम मेरे पास आना, मैं तुम्हें नरक दिखाने ले चलूँगी। तब तुम्हें यह मालूम होगा कि वहाँ और यहाँ में क्या अंतर है, व्यभिचार क्या है, कैसा है और क्योंकर होता है, स्वतंत्र रहते भी यहाँ व्यभिचार क्यों नहीं और परतंत्र और बंधनों से जकड़े हुए भी व्यभिचार क्यों है। अच्छा, अब इस समय मैं जाती हूँ। इतना कहकर वह चली गई। बीबीजी, अब मैं भी जाती हूँ क्योंकि मुझे अब इस समय उसी स्त्री के पास फिर जाना है। जो कुछ नरक में देखूँगी, आकर आपको सुनाऊँगी।
इसी समय सहसा मेरी नींद खुल गई। आँख फाड़-फाड़कर लाड़ली को ढूँढ़ने लगी किंतु उसका पता न था। सोचा स्वप्न देख रही थी। इसी स्वप्न की बातों को सोचते-सोचते सवेरा हो गया।
(स्त्री दर्पण, जुलाई 1915 - मार्च 1916)