सरस्वती की कहानी / श्रीनारायण चतुर्वेदी
ईसा की उन्नीसवीं शती का अंतिम दशक था। महारानी विक्टोरिया के दीर्घकालीन शासनकाल का अंत निकट आ रहा था। अँगरेजों के प्रताप का सूर्य मध्याह्न की ऊँचाई पर पहुँचकर तमतमा रहा था। देश में शांति थी। किंतु 'नवाबी' के अत्याचारों और कष्टों की याद नहीं भूली थी, और ठगों तथा पिंडारियों के कारनामे भी विस्मृत नहीं हुए थे। रेल चलने लगी थी। डाकखानों के जाल सारे देश में फैल गए थे। इनके कारण देश में आवागमन तथा विचार-विनिमय सरल हो गया था। उत्तर भारत में लीथो की छपाई पुरानी पड़ गई थी और टाइप की छपाई चल निकली थी। कलकत्ता, बंबई आदि में पाश्चात्य शिक्षा और पाश्चात्य विचारों की धूम पहले से ही थी। इन नगरों में देशी भाषाओं में नवीन साहित्य का निर्माण आरंभ हो गया था। सारे देश में एक बौद्धिक चेतना उत्पन्न हो गई थी तथा जनजागरण के प्रारंभिक लक्षण स्पष्ट रूप से दीखने लगे थे।
राष्ट्र के इस जागरण का प्रभाव समुद्रतटीय केंद्रों से दूर स्थित हिंदी-भाषी क्षेत्रों और हिंदी-भाषियों पर भी पड़ा। अवश्य ही उन लोगों की अपेक्षा कुछ देर से पड़ा जो अँगरेजों और पाश्चात्य विचारों और साधनों से पहले परिचित हो गए थे। कलकत्ते में रहने वाले हिंदी भाषी उनसे सर्वप्रथम प्रभावित हुए। साहित्य और भाषा के क्षेत्र में भी यह प्रभाव उन्हीं पर सबसे पहले पड़ा। यही कारण है कि हिंदी के पहिले समाचार-पत्र वहीं से प्रकाशित हुए। यद्यपि फोर्ट विलियम कालेज से हिंदी की पुस्तकें निकल चुकी थी, तथापि कलकत्ते में हिंदी पुस्तक प्रकाशन का कोई उल्लेखनीय संस्थान नहीं बन पाया। उन्नीसवीं शती के अंतिम दशक में बंबई में हिंदी भाषी सेठ खेमराज श्रीकृष्ण दास का श्री वेंकटेश्वर प्रेस चल निकला था। वह संस्कृत ग्रंथों, उनके हिंदी अनुवाद तथा हिंदी पुस्तकों का प्रकाशन कर रहा था तथा 1897 में उसने श्रीवेंकटेश्वर समाचार भी निकाला जो सौभाग्य से आज भी चल रहा है। श्रीवेंकटेश्वर प्रेस उस समय का सर्वोत्तम हिंदी मुद्रक और प्रकाशक था। उस समय हिंदी के दो और प्रकाशक महत्वपूर्ण समझे जाते थे। इनमें एक बाँकीपुर (पटना) का खड्गविलास प्रेस और दूसरा लखनऊ का नवलकिशोर प्रेस। खड्गविलास प्रेस विशुद्ध हिंदी का मुद्रक और प्रकाशक था। उसने भारतेंदु, अंबिकादत्त व्यास आदि की अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित कीं। हिंदी-साहित्य के विकास में उसका अमूल्य योगदान है। नवलकिशोर प्रेस में अरबी, फारसी और उर्दू के प्रकाशनों पर अधिक बल दिया जाता था क्योंकि उन दिनों अवध तथा उत्तर पश्चिम भारत में इन्हीं का बोलबाला था। किंतु मुंशी नवलकिशोर बड़े धार्मिक वृत्ति के हिंदू थे। उन्होंने अपने छापेखाने से संस्कृत और हिंदी के कितने ही धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथ भी प्रकाशित किए। इनमें से कई का - जैसे शिवसिंह सरोज, राजा लक्ष्मणसिंह के रघुवंश का गद्यानुवाद, तुलसीदास जी के ग्रंथ, सूरसागर आदि का तो आज ऐतिहासिक महत्व है। काशी में लाजरस प्रेस भी हिंदी की बहुमूल्य सेवाएँ कर रहा था, तथा छोटे-मोटे कई प्रकाशन संस्थान आरंभ हो गए थे जिनमें विशेष उल्लेखनीय काशी का भारतजीवन प्रेस था।
हिंदी-पत्रकारिता की अवस्था उन दिनों बड़ी विचित्र थी। लोगों में उत्साह था, साहित्य-सृजन की प्रेरणा थी, देशभक्ति और हिंदी सेवा की उमंग और प्रवृत्ति भी थी, किंतु राज्य या जनता से सक्रिय सहायता नहीं मिलती थी। अँगरेज सरकार देशी भाषाओं की ओर से उदासीन थी। उसका झुकाव उर्दू की ओर था। उर्दू का इतना प्रचार और प्रभाव था कि पढ़े लिखे लोग उर्दू को शिक्षा का आवश्यक अंग समझते थे। सरकारी सेवा के लिए या अदालती कार्य के लिए उर्दू का ज्ञान नितांत आवश्यक था। सद्यःमृत नवाबी और बादशाही की परंपराओं में डूबे हुए राजा-रईसों तथा आभिजात्य वर्ग में उर्दू 'शायस्ता', और हिंदी या नागरी 'गँवारू' भाषा समझी जाती थी। हिंदी का पठन-पाठन किसी-किसी जिले में तो नाममात्र को ही था। हमारे एक सहयोगी जो उत्तर प्रदेश में इन्स्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद से सेवानिवृत्त हुए, बतलाते थे कि जब वे सेवा में आए तब उनकी पहली नियुक्ति मुरादाबाद जिले में सब-डिप्टी इन्स्पेक्टर के पद पर हुई। उनको जो परगना मिला उनके मिडिल स्कूलों में उस समय केवल दो विद्यार्थी ऐसे थे जो हिंदी को प्रथम भाषा के रूप में पढ़ते थे। इस स्थिति का फल यह था कि हिंदी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को ग्राहक नहीं मिलते थे। अतएव अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ दो चार वर्ष निकल कर, और उत्साही प्रकाशकों के उत्साह को आर्थिक घाटे से समाप्त कर, बंद हो जाती थी। भारतेंदु जी ने जो हिंदी चेतना उत्पन्न की तथा जिस हिंदी आंदोलन को चलाया, और जिसे अयोध्यानरेश महाराज प्रताप सिंह, कालाकाँकर नरेश राजा रामपाल सिंह, महामना मदनमोहन मालवीय आदि ने आगे बढ़ाया, उसने जनता में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दिया। भारतेंदु मंडल के सदस्य भी क्रियाशील थे। पं. अंबिकादत्त ब्यास ने पीयूष प्रवाह और पं. प्रतापनारायण मिश्र ने ब्राह्मण निकाला। उन्होंने बड़ा काम किया, किंतु अधिक न चल सके। कलकत्ते से पं. देवीप्रसाद मिश्र ने धर्म दिवाकर का प्रकाशन कई वर्षों तक किया। किंतु अंत में वह भी बंद हो गया। साप्ताहिक पत्रों ने अवश्य कुछ सफलता प्राप्त की। बंबई का श्रीवेंकटेश्वर समाचार अच्छा चल निकला और कलकत्ते का वंगवासी भी बड़ा लोकप्रिय हो गया। किंतु मासिक पत्रों की दशा नहीं सुधरी।
सन् 1884 ई. में इलाहाबाद में श्री चिंतामणि घोष ने इंडियन प्रेस की स्थापना की। उनकी महती अभिलाषा यह थी कि वे उत्तर भारत के सर्वश्रेष्ठ मुद्रक हो जायँ। अपने अध्यवसाय और सूझ-बूझ से थोड़े ही दिनों में वे सफल भी हो गए और यह कहना अत्युक्ति नहीं है कि उस समय उत्तर भारत में इंडियन प्रेस के समान अच्छी छपाई करने वाला कोई प्रेस नहीं था। अयोध्या नरेश ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'रस कुसुमाकर' इंडियन प्रेस में छपवाया, और शायद वह हिंदी का सर्वप्रथम सुमुद्रित ग्रंथ था। किंतु श्री चिंतामणि घोष मुद्रक थे, प्रकाशक नहीं थे। उनकी इच्छा प्रकाशक होने की नहीं थी।
किंतु एक घटना ने उन्हें प्रकाशनक्षेत्र में आने को विवश कर दिया। उस समय तक स्कूलों में जो भी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं, वे प्रायः सब गवर्नंमेंट प्रेस में छपती थीं। वे पाठ्यपुस्तकें वर्षों पहले तैयार की गई थीं और उनमें से कितनी ही राजा शिवप्रसाद ने पचीस तीस वर्ष पूर्व लिखी थीं। उत्तर भारतेंदु काल में हिंदी ने जो उन्नति की थी तथा भाषा में जो परिवर्तन हुए थे, उनका प्रभाव उन पाठ्य पुस्तकों पर नहीं था। इन पुस्त्कों से कितने ही हिंदी प्रेमी असंतुष्ट थे, किंतु सरकारी पुस्तकों की होड़ में नई पुस्तकें तैयार करने का साहस लोगों को नहीं होता था। उन दिनों इलाहाबाद में पं. दीनदयाल तिवारी नाम के एक डिप्टी इन्स्पेक्टर थे। उनकी मित्रता लाला सीताराम, उपनाम 'भूप' कवि से थी। दोनों ही अनन्य हिंदी प्रेमी थे। डिप्टी कलेक्टर होने से पहले लालाजी गवर्नमेंट स्कूलों में अध्यापक भी रह चुके थे। इन दोनों हिंदी प्रेमी शिक्षाविदों ने हिंदी की पाठ्यपुस्तकों का सुधार आवश्यक समझकर एक पाठ्य पुस्तकमाला तैयार की। पुस्तकें तो तैयार हो गईं, किंतु न तो उनके पास उन्हें छापने के लिए धन था, और न वे उन्हें प्रकाशित ही कर सकते थे क्योंकि वे सरकारी अधिकारी थे। गवर्नमेंट प्रेस की पुस्तकों की छपाई असंतोषजनक थी। उनमें कागज भी बहुत घटिया लगाया जाता था। लालाजी और तिवारीजी चाहते थे कि उनकी पुस्तकें अच्छे कागज पर, अच्छे चित्रों के साथ, बहुत बढ़िया छपें। स्वभावतया उनका ध्यान नगर के सर्वोत्तम प्रेस की ओर गया, और वे श्री चिंतामणि घोष से मिले। घोष बाबू ने कहा कि हम प्रकाशक नहीं, केवल मुद्रक हैं। अतएव आप प्रकाशन का प्रबंध कर लें, उन्हें छाप हम देंगे। किंतु लालाजी और तिवारीजी ने उन्हें इस कार्य के महत्व को बतलाकर, तथा प्रकाशन संबंधी अपनी अड़चनें बतलाकर उन्हीं से उन्हें प्रकाशित करने का आग्रह किया। श्री चिंतामणि घोष केवल व्यवसायी ही नहीं थे। उनमें उँचे दर्जे की देशभक्ति और समाज के कल्याण की भावना भी थी। अंत में उन्होंने प्रकाशक न होते हुए भी, भावी पीढ़ी की शिक्षा के हित में, उनका प्रकाशन करना स्वीकार कर लिया। इन पाठ्यपुस्तकों का नाम 'हिंदी शिक्षावली' था। पुरानी पाठ्य पुस्तकों से यह कई गुना अच्छी थीं। छपाई-सफाई में तो सरकारी पुस्तकों की इनसे तुलना ही नहीं हो सकती थी। शिक्षा विभाग ने इन्हें स्वीकार कर लिया, और ये पुस्तकें खूब चलीं। केवल उत्तर प्रदेश ही में नहीं, अन्य प्रांतों और रियासतों में उनकी माँग होने लगी, प्रकाशन का जो सिलसिला आरंभ हुआ तो फिर वह बढ़ता ही गया। इसी बीच घोष बाबू ने श्री रवींद्रनाथ टैगोर की बँगला पुस्तकें भी प्रकाशित कीं।
श्री चिंतामणि घोष बंगाली थे, किंतु उनका परिवार उत्तर प्रदेश में बस गया था। अतएव उन्हें इस प्रांत और उसकी भाषा से प्रेम हो गया था। उस पीढ़ी में कितने ही बंगभाषी हिंदी के प्रेमी, समर्थक और उन्नायक थे। बिहार में श्री भूदेव मुकर्जी ने शिक्षा विभाग में हिंदी को स्थान दिलाकर जो उपकार किया, वह हिंदी भाषी सदैव कृतज्ञता से याद करेंगे। राजा राममोहनराय ने स्वामी दयानंद से कहा था कि आप अपना सत्यार्थप्रकाश हिंदी में लिखें। वे उसे मूलतः संस्कृत में लिखना चाहते थे। बाबू रामकाली चौधरी की हिंदी-सेवाएँ भी नहीं भुलाई जा सकती। श्री चिंतामणि घोष उन्हीं विशालहृदय भारतवासियों में थे, जिन्होंने मातृभाषा की सेवा के अतिरिक्त हिंदी की सेवा करना भी अपना कर्तव्य समझा।
श्री चिंतामणि घोष ने अनुभव किया कि हिंदी के उन्नयन के लिए एक अच्छे हिंदी मासिक पत्र का प्रकाशन आवश्यक है। उन्होंने इसकी चर्चा अपने मित्र बाबू रामानंद चटर्जी से की। उन्होंने भी इसका अनुमोदन किया। वे किसी बात को आवश्यक या महत्वपूर्ण समझकर उसकी चर्चा मात्र कर संतोष करने वाले लोगों में नहीं थे। अतएव उन्होंने स्वयं एक हिंदी मासिक पत्र निकालने का निश्चय किया। किंतु इसमें सबसे बड़ी कठिनाई उसके संपादन का प्रबंध था। वे स्वयं यह काम कर नहीं सकते थे, और उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल नहीं रहा था जिस पर उन्हें भरोसा हो कि वह ठीक तरह से संपादन कर सकेगा। किंतु वे कठिनाइयों से हार माननेवाले नहीं थे। उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा से संपादनकार्य में सहायता देने को लिखा। इस संबंध में बाबू श्यामसुंदरदास ने अपनी आत्मकथा में लिखा है :
सन् 1899 में इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चिंतामणि घोष ने नागरी प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का भार ले और उसे वे प्रकाशित करें। सभा ने इसका अनुमोदन किया पर संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता प्रकट की। अंत में यह निश्चय हुआ कि सभा एक संपादक मंडल बना दे। सभा ने इसे स्वीकार किया और बाबू राधाकृष्णदास, बाबू कार्तिकप्रसाद, बाबू, जगन्नाथदास, पंडित किशोरी लाल गोस्वामी को तथा मुझे इस काम के लिए चुना।
सभा में इस संबंध में जो कार्यवाही हुई, उसका अधिकृत और मनोरंजक विवरण डॉ. जगन्नाथ शर्मा ने अपने उस लेख में दिया है जो अन्यत्र प्रकाशित है। सारांश यह कि सभा ने यह पंचायती संपादक मंडल बना दिया। पंचायती काम शायद ही कभी संतोषजनक होता हो। किंतु चिंतामणि बाबू को हिंदी मासिक पत्र निकालने का इतना अधिक उत्साह था कि उन्होंने इस संपादक मंडल को स्वीकार कर लिया। इस बात का पता नहीं लगता कि सभा ने किसी नाम का सुझाव नहीं दिया। चिंतामणि बाबू ने स्वयं या अपने मित्रों की सलाह से इस प्रस्तावित मासिक पत्रिका का नाम 'सरस्वती' रखा। संपादन का कार्य काशी में ही होता था और सारी लिखा-पढ़ी संपादक मंडल की ओर से बाबू श्यामसुंदरदास ही किया करते थे। संपादनकार्य के व्यय के लिए प्रेस 20 रुपया मासिक देता था जो डाक व्यय आदि में खर्च होता था। इसका हिसाब प्रतिमास प्रेस को भेज दिया जाता था।
सन् 1899 सरस्वती के प्रकाशन की तैयारी में बीता। पहली जनवरी 1900 को सरस्वती प्रथम संख्या प्रकाशित हुई। इसका आवरण इकरंगा था। यह इस विशेषांक के प्रथम खंड के आरंभ में पुनर्मुद्रित किया जा रहा है। इसके चारों कोनों पर हिंदी के चार प्रमुख रत्नों के छोटे रेखाचित्र दिए गए थे। आरंभ में आर्ट पेपर पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का चित्र था। सरस्वती की नीति और उद्देश्य के संबंध में प्रकाशक की ओर से यह महत्वपूर्ण वक्तव्य प्रकाशित किया गया -
परम कारुणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अशेष अनुकंपा ही से ऐसा अनुपम अवसर आकर प्राप्त हुआ है कि आज हम लोग हिंदी भाषा के रसिक जनों की सेवा में नए उत्साह से उत्साहित हो एक नवीन उपहार लेकर उपस्थित हुए है जिसका नाम
सरस्वती
है। भरतमुनि के इस महावाक्यानुसार कि सरस्वती श्रुति महती न हीयताम्, अर्थात सरस्वती ऐसी महती श्रुति है कि जिसका कभी नाश नहीं होता, यह निश्चय प्रतीत होता है कि यदि हिंदी के सच्चे सहायक और उससे सच्ची सहानुभूति रखनेवाले सहृदय हितैषियों ने इसे समुचित आदर और अनुरागपूर्वक ग्रहण कर यथोचित आश्रय दिया तो अवश्यमेव यह दीर्घ जीविनी होकर निज कर्तव्य पालन से हिंदी की समुज्वल कीर्ति को अचल और दिगंतव्यापिनी तथा स्थायी करने में समर्थ होगी।
यद्यपि हम लोग महाकवि कालिदास के कथनानुसार वामन होकर उत्तुंग-शाखास्थित महाफल के प्राप्त करने की अभिलाषा करते हुए जन समाज में हास्यास्पद होने का उपक्रम करते हैं, किंतु तौ भी क्या हम लोगों की ऐसी चपलता, कि जिसके मूल में नए उद्योग, उत्साह, उपकारिता और कार्य तत्परता की सुहावनी सुगंधि सनी हुई है, उदार चरित रसज्ञों और समदर्शीं सहयोगियों के क्षमा करने, सराहने और उत्तेजना देने योग्य न समझी जायगी? तो फिर हिंदी के उत्साहियों, हितैषियों, उन्नायकों, रसज्ञों और सहयोगियों से ऐसी अखंडनीय आशा क्यों न की जाए कि वे लोग सब प्रकार से अपनी बाहु-लता की शीतल छाया में इस नवीन बालिका को आश्रय देने में कदापि परांगमुख न होंगे, कि जिनके सन्मुख आज यह अपने नए रंग ढंग, नए वेशविन्यास, नए उद्योग उत्साह और नई मनोमोहिनी छटा से उपस्थित हुई है।
इसके नव जीवन धारण करने का केवल यही मुख्य
उद्देश्य
है कि हिंदी रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भंडार की अंगपुष्टि, वृद्धि और यथार्थ पूर्ति हो, तथा भाषा सुलेखकों की ललित लेखनी उत्साहित और उत्तेजित होकर विविध भावभरित ग्रंथराजि को प्रसव करै। और इस पत्रिका में कौन कौन से
विषय
रहैंगे, यह केवल इसी से अनुमान करना चाहिए कि इसका नाम सरस्वती है। इसमें गद्य, पद्य, काव्य, नाटक, उपन्यास, चंपू, इतिहास, जीवन-चरित, पंच हास्य, परिहास, कौतुक पुरावृत्त, विज्ञान, शिल्प, कलाकौशल आदि साहित्य के यावतीय विषयों का यथावकाश समावेश रहेगा और आगत ग्रंथादिकों की यथोचित समालोचना की जायगी। यह हमलोग निज मुख से नहीं कह सकते कि भाषा में यह पत्रिका अपने ढंग की प्रथम होगी, किंतु हाँ, सहृदयों की समुचित सहायता और सहयोगियों की सच्ची सहानुभूति हुई तो अवश्य यह अपने कर्तव्य पालन में सफल मनोरथ होने का यथाशक्य उद्योग करने में शिथिलता न करेगी। इससे
लाभ
केवल यही सोचा गया है कि सुलेखकों की लेखनी स्फुरित हो जिससे हिंदी की अंगपुष्टि और उन्नति हो। इसके अतिरिक्त हम लोगों का यह भी दृढ़ विचार है कि यदि इस पत्रिका संबंधीय सब प्रकार का व्यय देकर कुछ भी लाभ हुआ तो इसके लेखकों की हम उचित सेवा करने में किसी प्रकार की त्रुटि न करेंगे। आशा है कि हिंदी पठित समाज इस पत्रिका पर कृपादृष्टि बनाए रहेंगे और हम लोगों को निज कर्तव्यपालन में यथाशक्ति पूर्ण सहायता देंगे।
इससे स्पष्ट है कि सरस्वती का उद्देश्य बड़ा व्यापक था। वह संकुचित अर्थ में 'साहित्यिक' पत्रिका नहीं थी। हिंदी के सभी अंगों को पुष्ट करके पाठकों में साहित्यिक अभिरुचि उत्पन्न करने के साथ ही उन्हें आधुनिक और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान संबंधी लेख देकर ज्ञानवर्द्धन करना उसका उद्देश्य था। बीच में एक-दो बार सरस्वती को समयोपयोगी बनाने के लिए उसकी नीति में परिवर्तन अवश्य हुए, किंतु वे अल्पकालीन ही हुए। सरस्वती अपने संस्थापक के उद्देश्यों की पूर्ति को ही अब तक अपनी नीति बनाए हुए है।
सभा का संपादक मंडल संपादन के लिए उत्तरदायी था और सरस्वती की यह नीति उसकी सहमति से ही निर्धारित की गई थी। उसने इसका कितने मनोयोग से पालन किया, यह प्रथम वर्ष में प्रकाशित लेखों से स्पष्ट हो जाता है। उस वर्ष 57 लेख प्रकाशित हुए। उनका ब्यौरा इस प्रकार है :
1. यात्रा, भूगोल, स्थान वर्णन -
काश्मीर यात्रा, रेस्ट नगर का देव मंदिर, डॉ. नानसेन का उत्तरी ध्रुव का भ्रमण।
2. भाषा साहित्य -
नागरी अक्षर का प्रचार, महाकवि भारवि, हम्मीर हठ, नैषध चरित-चर्चा और सुदर्शन, पं. श्रीधर पाठक की कविता, हिंदी काव्य।
3. इतिहास पुरातत्व -
भारतवर्ष की पुरानी इमारतें, लंका का आविष्कार, कोहनूर, दामोदरराव की आत्मकहानी, पिट (हीरा)।
4. कहानियाँ -
इंदुमती, चंद्रलोक की यात्रा (वैज्ञानिक कहानी), आपत्तियों का पर्वत।
5. जीवन चरित -
भारतेंदु हरिश्चंद्र, अर्जुन मिश्र, शिवप्रसाद सितारेहिंद, अप्पय दीक्षित, लार्ड कर्जन, मौलवी सैयदअली बिलग्रामी, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, सर सैयद अहमद खाँ, जमशेदजी नसरवानजी ताता, प्रोफेसर फ्रेडरिक मेक्समूलर, राजा लक्ष्मणसिंह, सरदार दयालसिंह मजीठिया।
6. विज्ञान, विदेशी साहित्य और विविध -
सिंबेलिन, प्रकृति की विचित्रता, फोटोग्राफी एथेंसवासी टाइमन, जंतुओं की सृष्टि, पेरिक्लिस, रेलगाड़ी, कौतुकमय मिलन, एक साधारण प्रश्न, मानवी शरीर, भारतवर्ष की शिल्पविद्या।
7. कविताएँ -
छप्पन की बिदाई, नए वर्ष की बधाई, ( विंबार्द्ध) वसंत, चंद्रोदय, रामजानकी, किरातार्जुनीय, सावित्री प्रबोधन, भ्रमराष्टक (अनुवाद), हे प्रिय, चंद्रोदय (पूर्ण विंबा-रक्ताभा), पूर्व चातकाष्टक (सभी ब्रजभाषा) प्रेमोपहार, मलयानिल, प्रेमप्रतिमा, द्रौपदी वचन वाणावली उत्तर चातकाष्टक। (खड़ी बोली)
इस सूची से स्पष्ट है कि संपादक मंडल का दृष्टिकोण कितना व्यापक और विशाल था। हिंदी में कभी क्षेत्रीय या सांप्रदायिक संकुचित दृष्टिकोण से काम नहीं लिया गया। प्रथम वर्ष में ही जो जीवन-चरित प्रकाशित हुए उनमें हिंदू, मुसलमान, पारसी, सिख, अँगरेज सभी थे। उत्तर प्रदेश के ही नहीं, भारत के अन्य महान पुरुषों का परिचय दिया गया था। साहित्यिक, राजनीतिज्ञ, संस्कृतज्ञ, उद्योगपति, समाजसेवी सभी वर्गों के महान पुरुषों का परिचय कराया गया। यदि प्राचीन अप्पय दीक्षित की चर्चा की गई तो आधुनिक भंडारकर का भी गुणगान किया गया। इस प्रकार आरंभ ही से सरस्वती का दृष्टिकोण अखिल भारतीय बनाने का प्रयत्न किया गया क्योंकि हिंदी का दृष्टिकोण ही ऐसा है। सरस्वती की नीति तब से सदैव यही रही । विषयों की विविधता से स्पष्ट है कि सरस्वती के संस्थापक और संपादक सरस्वती को ज्ञानवर्द्धक साहित्यिक पत्रिका बनाना चाहते थे। वे प्राचीन और अर्वाचीन पर समान बल देते थे। एक ओर संस्कृत के महाकवि भारवि और प्राचीन एथेंस के वाग्मी पैरिक्लीज पर लेख थे, तो दूसरी ओर डॉ. नानसन की उत्तरी ध्रुव यात्रा का वर्णन भी था। फोटोग्राफी, रेलगाड़ी और जंतुओं की सृष्टि पर लेख थे तो साथ ही भारतवर्ष की पुरानी इमारतों, लंका, नागरी अक्षरों आदि पर ज्ञानवर्द्धक निबंध दिए गए थे। किंतु उसका सबसे महत्वपूर्ण अंग साहित्यिक लेखों का था। 'हम्मीरहठ' और 'पं. श्रीधर पाठक की कविता' आधुनिक प्रणाली की समालोचना के हिंदी पत्रों में पहले लेख थे। इसी प्रकार हिंदी में गंभीर साहित्यिक विवाद का श्रीगणेश 'नैषधचरित चर्चा और सुदर्शन' से होता है। प्रसिद्ध विद्वान और अपने समय के शीर्ष लेखक पं. माधवप्रसाद मिश्र 'सुदर्शन' के संपादक थे। नैषधचरित की उन्होंने समालोचना की थी। उसी का यह उत्तर था। कहानी साहित्य का एक प्रकार है। तब तक हिंदी में बहुत कम कहानियाँ लिखी जाती थीं, और जो लिखी भी जाती थीं वे पुराने ढंग के किस्सों की तरह होती थीं। सरस्वती की पहली कहानी इंदुमती है जो पहली आधुनिक हिंदी कहानी मानी जाती है। 'चंद्रलोक की यात्रा' एक अँगरेजी कहानी पर आधारित है, किंतु इसका महत्व यह है कि यह पहली वैज्ञानिक कहानी है जो हिंदी में प्रकाशित हुई। कविताओं से तत्कालीन रुचि का पता लगता है। अधिकांश कविताएँ प्रकृति से संबंधित हैं। कुछ संस्कृत कविताओं के अनुवाद हैं। किंतु उस ब्रजभाषा के युग में सरस्वती ने प्रथम वर्ष ही में खड़ी बोली में तीन चार कविताएँ प्रकाशित कीं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि सरस्वती में पहली खड़ी बोली की कविता ब्रजभाषा के कवि, पं. किशोरीलाल गोस्वामी की लिखी हुई थी। दूसरी खड़ी बोली की कविता पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की है। अतएव कविता के क्षेत्र में प्रथम वर्ष से ही सरस्वती ने खड़ी बोली की कविता को - जब कविता में ब्रजभाषा ही की प्रधानता थी - प्रोत्साहन देना आरंभ किया। उन दिनों पत्रों में खड़ी बोली की कविता यदाकदा ही छपती थी।
प्रथम वर्ष के लेखों का विश्लेषण कुछ विस्तार से किया गया है। इसका कारण सरस्वती के उद्देश्यों और नीति को स्पष्ट करना है। यह भी कह देना आवश्यक है कि नागरी लिपि और हिंदी का प्रचार और प्रसार भी आरंभ ही से सरस्वती का एक ध्येय रहा है। नागरी अक्षरों पर एक विद्वत्तापूर्ण लेख तो उसने प्रथम वर्ष में ही प्रकाशित किया। भारतेंदु, राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह के जीवन चरित्रों को प्रकाशित कर हिंदी आंदोलन के प्रमुख व्यक्तियों और साहित्य निर्माताओं के चरित्र वर्णन द्वारा, प्रकारांतर से, उसने हिंदी आंदोलन की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया। जनवरी में सरस्वती का प्रकाशन आरंभ हुआ। संयोग से अप्रैल में उत्तर प्रदेश के छोटे लाट सर एंथनी मैकडॉनैल ने नागरी लिपि को कचहरियों में स्थान देने की घोषणा की। इस पर सरस्वती ने जो लेख लिखा उसका एक अंश यह है :
पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध में
नागरी अक्षर का प्रचार
'प्यारे हिंदी के प्रेमियों ! सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की पूर्ण कृपा से हिंदी हितैषी भारतवासी मात्र के लिए यह मास बड़े ही सौभाग्य का है, क्योंकि जिस अमृत फल के पाने की उत्कट कामना हमारे देश के लोग 63 वर्ष से करते चले आते रहे और जिसके लिए कोई भी उद्योग उठा नहीं रक्खा गया था, उस अक्षय फल के पाने के आज हमलोग अधिकारी और योग्य समझे गए हैं। धन्य परमेश्वर ! धन्य नागरी ! धन्य पश्चिमोत्तर और अवध की न्यायपरायण गवर्नमेंट ! धन्य लाट मेकडानल ! धन्य नागरी प्रचारिणी सभा, और धन्य नागरी प्रचार के सहायक वृंद !!!'
'अहा ! आज हमारे आनंद की सीमा नहीं है। इस उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में आज का दिन हमारे इतिहास में प्रलय पर्यंत स्मरणीय बना रहेगा।'
'यद्यपि जितनी हमलोगों की न्यायानुसार उचित प्रार्थना और इच्छा थी, उतने फल की प्राप्ति नहीं हुई, तथापि न्यायपरायण लाट मेकडानल की इतनी कृपा से ही हमारे उत्साह और आनंद की सीमा नहीं है, क्योंकि नागरी के इस प्रकार के प्रचार से ही अनुमान हो सकता है कि अब हमलोग धीरे धीरे इस विषय में अधिक सफलता प्राप्त करने में सुगमता से समर्थ होंगे।'
'किंतु हा ! राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र ! आज तुम्हारी अविनाशी आत्माएँ कहाँ हैं? देखों तुम्हारे अनुगामियों ने बराबर तुम्हारे ही निर्धारित पथ पर चल कर उसमें कैसी सफलता प्राप्त की है कि जिसके लिए तुमने प्राणांत तक तन मन और धन से कोई उद्योग उठा न रक्खा था। हमको पूर्ण आशा है कि आज तुम्हारी लोकांतरित अविनाशी आत्मा भी इस (नागरी) की सफलता के समाचार को सुन अतिशय गदगद हो कर संतुष्ट हो गई होंगी।'
'प्यारे हिंदी रसिको ! दो वर्षों से तुम्हारे आकुल नेत्र इस बात की बाट जोह रहे थे कि कब पश्चिमोत्तर और अवध प्रदेश में हिंदी के प्रचार की आज्ञा होती है, आज उस चिरवांछित आज्ञा को देख कर तुम्हारे उत्कंठित नेत्र आनंदांबु से पूरित हो जाएँगे। आज वह आज्ञा हमारे सन्मुख उपस्थित है, देखिए ! पर इस आज्ञा के पाने ही मात्र से संतुष्ट होकर बैठ रहने से हमारा काम नहीं चलेगा। क्योंकि अब तक तो हमें कार्य करने का अधिकार ही नहीं मिला था, किंतु अब वह आज्ञा मिल गई है, इसलिए अब हमलोगों को उचित है कि यह कर दिखावें कि वास्तव में हमलोग अपनी भाषा और अपने देश के कहाँ तक तक प्रेमी होने के अधिकारी हैं और इसके लिए हम कहाँ तक अपने कर्तव्य के करने में कृतकार्य और सफल मनोरथ हो सकते हैं।'
'आज हम अपने प्रेमी पाठकों के सन्मुख इस उद्योग के पूर्ण किंतु संक्षिप्त इतिहास को उपस्थित करके उन महानुभावों की पूर्ण कृतज्ञता स्वीकार किया चाहते हैं, जिन्होंने इस महाब्रत में ब्रती होकर एक असंभावित कार्य को एक प्रकार से संभव कर दिखाया है।'
'भारतवर्ष में मुसलमानों के आने (1100-1200 ई.) के पहिले इस देश की देशभाषा हिंदी और लिपि नागरी वा नागरी ही के रूपांतर अक्षरों वाली थी। उसी के द्वारा देश के राजा और प्रजा सब का काम चलता था। मुसलमानी राज्य के प्रारंभ (1200 ई.) से लेकर अकबर के राज्य के मध्य (1565 ई.) तक माल विभाग में हिंदी और दीवानी तथा फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा का प्रचार था। यद्यपि यहाँ के रहने वाले फारसी को नहीं जानते थे, किंतु मुसलमानों की मातृभाषा होने के कारण फारसी ही को श्रेष्ठता दी गई थी। फिर यहाँ पर बृटिश राज्य के स्थापित (1757 ई.) होने पर कुछ काल तक इसी भाषा में काम चला। पर थोड़े दिन पीछे यह सोचा गया कि समस्त अदालतों और सरकारी दफ्तरों में अँगरेजी भाषा का प्रचार किया जाय। किंतु यह प्रस्ताव बृटिश राज्य के नायकों को अच्छा न लगा और कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने अपने 29 सितंबर, सन् 1830 ई. के आज्ञा पत्र में यह स्पष्ट कह दिया कि यहाँ के वासियों को जज की भाषा सीखने के बदले जज को भारतवासियों की भाषा सीखना बहुत सुगम होगा। अतएव हमलोगों की सम्मति है कि न्यायालयों की समस्त कार्रवाई उस स्थान की भाषा में हो। परंतु इस आज्ञा का पालन सन् 1837 ई. के पूर्व तक नहीं हुआ था। परंतु इस (सन् 1837 ई.) वर्ष में गवर्नमेंट ने यह सोचकर कि विदेशी भाषा और लिपि के प्रचार से अदालतों का काम ठीक-ठीक और उत्तम रीति से न चल सकैगा और लोगों को न्याय प्राप्त करने में कठिनता होगी, कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स की सम्मति के अनुसार यह निश्चय किया कि - न्याय और माल संबंधी समस्त काम फारसी के बदले यहाँ की देशभाषा में हुआ करैं और अँगरेजी का प्रचार केवल ऐसी चिट्ठी पत्री में सरकारी अफसर किया करैं जिससे सर्वसाधारण से कोई संबंध न हो। इस निश्चय के अनुसार बंगाल में बँगला और उड़ीसा में उड़िया भाषा का प्रचार हुआ। किंतु हिंदुस्तान (जिसके अंतर्गत बिहार, पश्चिमोत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का कुछ भाग है) की भाषा हिंदी है, जो कि नागरी लिपि वा उसके अन्य रूप में लिखी जाती है। पर इसके बदले में इन प्रांतों की कचहरियों में उर्दू भाषा का प्रचार हुआ। इसका कारण यह हुआ कि कुछ यूरोपीय लेखकों ने बिना जाने बूझे इस उर्दू भाषा का ' हिंदुस्तानी' नाम से उल्लेख किया था, जिससे यह समझा गया कि जैसे बंगाल की भाषा बँगला, और गुजरात की भाषा गुजराती है, वैसे ही हिंदुस्तान की भाषा हिंदुस्तानी (उर्दू) है। इस महाभूल का संशोधन सन् 1881 ई. में बिहार में हुआ, जब से कि वहाँ नागरी वा कैथी अक्षरों का प्रचार है। उसी वर्ष मध्यप्रदेश में भी यह भी भूल सुधारी गई और वहाँ भी हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों का प्रचार हुआ। परंतु पश्चिमोत्तर और अवध प्रांत में इस सुधार का होना अब तक रह गया था, जिसके सुधरने का आज समय आया।'
'इस स्थान पर अब अधिक इस बात का प्रमाण देना कि इन (पश्चिमोत्तर और अन्य) प्रांतों की भाषा हिंदी है, विशेष आवश्यक नहीं है, क्योंकि यह बात सर्व-वादि-सम्मत होकर पूर्ण रीति से प्रमाणित हो चुकी है और इसे अब राजा और प्रजा दोनों ही ने हृदय से स्वीकार कर लिया है। परंतु अब इस बात को भली भाँति से समझ लेना चाहिए कि सन् 1837 ई. में जो आज्ञा निकली थी, वह केवल भाषा ही के विषय में थी। इस समय यह नहीं विचारा गया था और न इसके विषय में कुछ निर्णय हुआ था कि वह हिंदुस्तानी फारसी अक्षरों में लिखी जाएगी, वा नागरी में।'
'उस समय सदर दीवानी अदालत ने तो इस भ्रम में पड़ कर कि उर्दू यहाँ की देश भाषा है, फारसी के स्थान पर उस (उर्दू) के प्रचार की आज्ञा दी। अतएव बिना सोचे विचारे उर्दू को हिंदुस्तानी भाषा यह नाम दिया गया और यह स्पष्ट रूप से कह दिया गया कि कचहरियों की कार्रवाई और वकीलों की बहस साधारण और सरल उर्दू में वा हिंदी में जहाँ पर कि इस का प्रचार हो, लिखी जाय। यह भाषा ऐसी होनी चाहिए। कि जिसका प्रयोग एक साधारण कुलीन भारतवासी जो कि फारसी नाममात्र को भी न जानता हो, अपनी साधारण बातचीत में कर सकता हो। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिस समय यह आज्ञा दी गई थी उस समय सदर दीवानी अदालत की यही इच्छा थी कि कचहरियों की कार्रवाई ऐसी भाषा में लिखी जाए कि जिसे सर्वसाधारण सुगमता से समझ सकैं। हिंदी के विषय में जो आज्ञा दी गई उस ओर कुछ भी ध्यान नहीं गया। बहुत दिनों तक फारसी से भरी हुई उर्दू लिखते चले आने के कारण अमलों को जनसाधारण की भाषा को उन्हीं की लिपि (नागरी) में लिखने से घृणा हुई और इसी से इस प्रांत की कचहरियों में उर्दू भाषा और फारसी अक्षरों का प्रचार हुआ।'
'इस आज्ञा का फल अत्यंत ही असंतोषदायक हुआ, क्योंकि इसके तीन ही वर्ष के उपरांत (सन् 1840 ई.) बोर्ड आफ रेवेन्यू को फिर से आज्ञापत्र निकालना पड़ा और उसमें फिर इस बात पर जोर देना पड़ा कि फारसी पूरित उर्दू न लिखी जाय, वरन ऐसी सरल भाषा लिखी जाय जैसी कि एक कुलीन हिंदुस्तानी फारसी से अनजान रहने पर भी बोलता हो। परंतु इस 28 अगस्त सन् 1840 ई. की आज्ञा का भी कोई परिणाम न हुआ, यहाँ तक कि इसके पंद्रह वर्ष के उपरांत गवर्नमेंट ने देखा कि दीवानी फौजदारी और कलक्टरी (माल) कचहरियों की कार्रवाई अभी तक एक कठिन और विदेशी भाषा में लिखी जाती है जिसका भेद फारसी से बहुत थोड़ा है। अतएव सदर दीवानी अदालत और बोर्ड आफ रेवेन्यू की सम्मति लेने के उपरांत गवर्नमेंट ने यह फिर से आवश्यक समझा कि कचहरी के अफसरों को इस बात की फिर से ताकीद की जाय कि सरकारी कागज ऐसी भाषा में लिखे जाएँ कि जिन्हे सर्वसाधारण भली भाँति से समझ सकै। इस सिद्धांत के अनुसार ता. 9 मई सन् 1854 ई. को एक आज्ञापत्र इसी आशय का निकाला गया। परंतु इसका भी कुछ प्रभाव न हुआ। फिर गवर्नमेंट को निरुपाय होकर सन् 1876 ई. में एक आज्ञापत्र सब जिले के हाकिमों के नाम निकालना पड़ा और भाषा की सरलता पर और भी स्पष्ट रूप से जोर दिया गया। पर इसका भी कुछ परिणाम न हुआ। आज इस आज्ञा को बार बार निकलते चौंतीस वर्ष हो चुके और फिर भी अभी तक कचहरियों की भाषा की वही दुरवस्था है जोकि आज से 63 वर्ष पहिले थी, जब कि पहिले पहिल गवर्नमेंट ने सन 1837 ई. में ऐसी साधारण और सरल भाषा के प्रचार की इच्छा प्रगट की थी, कि जिसे सर्वसाधारण सुगमतापूर्वक समझ सकैं। परंतु इन सब आज्ञाओं का कुछ भी फल न हुआ और कचहरियों की भाषा वैसी ही बनी रही। इस लिए पहिले पहिल सन 1868 ई. में प्रजा की ओर से इस बात का उद्योग किया गया था कि इन प्रांतों की राज्यभाषा परिवर्तित हो। पर इस उद्योग का कुछ भी संतोषदायक फल न फला। फिर सन् 1882 ई. में, जब कि एजुकेशन कमिशन बैठा था, इसका पुनः उद्योग किया गया। स्थान स्थान पर बड़ी बड़ी सभाएँ की गई और बड़े बड़े आवेदन पत्र भी गवर्नमेंट की सेवा में अर्पण किए गए। पर इन सब उद्योगों का परिणाम भी आकाश-कुसुम की भाँति शेष रह गया। इस प्रकार से दो बार विफल मनोरथ होने के कारण यद्यपि यहाँ की दीन प्रजा एक प्रकार से निराश हो गई थी, कि अब हिंदी का प्रचार होना असंभव है, पर फिर भी अपने उचित और न्यायनुकूल स्वत्व के प्राप्त की बलवती इच्छा से बलवती हो उद्योग करने में आगे पैर बढ़ाती ही चली आई।
'यद्यपि अनेक बार के उद्योग मार्ग में नैराश्य का घोर अंधकार पूर्ण रूप से फैल रहा था, और इस पथ के पथिक जन एक प्रकार से थक और आगे के मार्ग को अंधकाराच्छन देखकर उत्साहहीन हो मौन साध कर बीच ही में बैठ रहे थे, कि अपने नए उत्साह और नए उद्योग रूपी विद्युत प्रकाश से उस तिमिर को क्रमशः छिन्न-भिन्न कर बिचारे उत्साहहीन पथिकों के भविष्यत मार्ग को प्रदर्शित करने की आकांक्षा से काशी धाम में एक सभा का जन्म हुआ। प्रारंभ में लोगों को इसके ऊपर अनेक प्रकार के संदेह हुए, पर क्रमशः अपने उद्योग में इसे तत्पर देख कर लोगों ने चारों ओर से इसकी सहायता प्रारंभ की और नागरी प्रचारिणी सभा भी धीरे धीरे निज उद्देश्य साधन में तत्पर हुई।'
'पहिले पहिल सभा ने इस प्रांत के बोर्ड आफ रेवेन्यू से निवेदन किया था कि सन् 1881 और 1875 ई. के एक्ट नं. 12 और 19 के अनुसार सम्मन आदि हिंदी और उर्दू दोनों (भाषा के अक्षरों) में भरे जाने चाहिएँ। निदान इस विषय में सभा से और बोर्ड से पत्र व्यवहार हो ही रहा था कि इन प्रांतों के सौभाग्य से न्यायपरायण श्रीमान् सर एंटनी मेकडानल महोदय का सुशासन काल यहाँ प्रारंभ हुआ"
' सन् 1895 ई. के नवंबर मास में, जबकि श्रीमान् काशी पधारे थे, उस समय सभा ने एक अभिनंदन पत्र देकर प्रार्थना की थी कि हिंदी के उचित स्वत्वों पर भी विचार हो। इस पर श्रीमान ने विचार करने की प्रतिज्ञा की और सभा भी सर एंटनी मेकडानल ऐसे न्यायपरायण, सत्यप्रिय योग्य और दयावान सुशासक को पाकर श्रीमान् के सन्मुख हिंदी की प्रार्थना को उपस्थित करने के उद्योग में ब्रती हुई।'
'थोड़े ही दिनों में अत्यंत परिश्रम और पूर्ण उद्योग करने के उपरांत ता. 2 मार्च सन् 1898 ई. वृहस्पतिवार को दिन के बारह बजे गवर्नमेंट हाउस इलाहाबाद में एक डेपुटेशन पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवधबासी प्रजा की ओर से श्रीमान् सर एंटनी मेकडानेल महोदय, जी.सी.एस.आई. की सेवा में उपस्थित हुआ और सहस्रों हस्ताक्षर सहित निवेदन पत्र अर्पण किया।'
'इस (आवेदन पत्र) में प्रार्थना की कि श्रीमान् इन प्रांतों में न्याय और शिक्षा के प्रचार तथा उपकार के लिए सरकारी दफ्तरों और न्यायालयों में हिंदी का प्रचार करें। इस पर श्रीमान् ने अन्य बातों के अतिरिक्त कहा कि -
मेरा सिद्धांत यह है कि यद्यपि मैं यह समझता हूँ कि हमारे सरकारी कागजों में नागरी अक्षरों के विशेष प्रचार से लाभ होगा और समय भी इस परिवर्तन के पक्ष में है, पर मैं ऐसा कोई आवश्यक वा उचित कारण नहीं देखता कि क्यों हम लोग शीघ्रता करें।
'अंत में श्रीमान् ने पूरी जाँच करके तब इस विषय में निज आज्ञा के देने की प्रतिज्ञा की। उस दिन से फिर तो निरंतर अनेक स्थानों से आवेदन पत्र श्रीमान् की सेवा में गए और हिंदी समाचार पत्रों ने भी नागरी के पक्ष में अच्छा जोर दिया।'
'निदान दो वर्ष लों इस पर घोर आंदोलन होता रहा। इस (नागरी के पक्षवाले) आवेदन पत्र के विपक्ष में भी (फारसी लिपि के पक्ष वालों द्वारा) आवेदन पत्र दिए गए। परंतु हर्ष का विषय है कि जितनी प्रार्थनाएँ नागरी के पक्ष में थीं उन सभों में यही प्रार्थना थी कि केवल अक्षरों में परिवर्तन किया जाय, परंतु जितने आवेदन पत्र विपक्ष में दिए गए थे, उनमें भाषा का झगड़ा उठाया गया था।'
'निदान इन प्रार्थनाओं पर पूर्ण और योग्य विचार करके और बोर्ड आफ रेवेन्यू, हाई कोर्ट तथा जुडिशियल कमिशनर अवध, से सम्मति लेकर श्रीमान् लाट साहब बहादुर ने इस विषय पर निज न्यायानुकूल आज्ञा को प्रकाशित किया है।'
'प्यारे हिंदी के प्रेमियो। इस उचित और न्यायसंगत आज्ञा के लिए हमलोग हार्दिक धन्यवाद दें सब थोड़ा है। वास्तव में यह सर एंटनी ही ऐसे धीर वीर गंभीर न्यायवान और उचित सम्मति देने में निश्शंक सुशासक का ही सत्कार्य था कि जिन्होंने इस आज्ञा को दे कर न्याय और स्वत्व की उचित मर्यादा की रक्षा की। यों तो कितने ही वर्षों से इस न्याय के प्राप्त करने के लिए इन प्रांतों की आशावती प्रजा की ओर से उद्योग होता रहा, परंतु इस उचित न्याय से अपने विमल यश को भारतवर्ष ही नहीं वरन् भूमंडल में चिर स्थायी करना न्यायपरायण सर एंटनी मेकडानल महोदय के ही भाग्य में था।'
'इस स्थान पर नागरी हितैषिओं और इस नागरी प्रचार के महत् उद्योग में ब्रती महानुभावों में से पंडित मदनमोहन मालवीय की कृतज्ञता स्वीकार किए बिना हम नहीं रह सकते।'
'उपसंहार में हम निम्नलिखित महाशयों को भी असंख्य धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने नागरी की सफलता के उद्योग करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी थी। उनमें प्रथम काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सुयोग्य मंत्री बाबू श्यामसुंदर दास, बी.ए. हैं। दूसरे हिंदी समाज में चिरपरिचित बाबू राधाकृष्ण दास है, और तीसरे विद्याविनोद (लखनऊ) के संपादक बाबू कृष्णबलदेव वर्म्मा हैं। इन्होंने नागरी मेमोरियल भेजने में नगर नगर में घूम घूम कर बड़ी सहायता की थी। इससे यह न समझना चाहिए कि और किसी ने इसमें उद्योग नहीं किया। इस उद्योग में इतने सहायक हुए है कि सबकी नामावली देने से एक बृहत ग्रंथ बन जाए। इस भय से और महानुभावों की नामावली नहीं प्रकाशित करते। समाचार पत्रों में भारतजीवन (काशी), हिंदोस्थान (कालाकाँकर) और श्रीवेंकटेश्वर समाचार (बंबई) भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। नागरी के हितैषियों को इन महानुभावों का हृदय से कृतज्ञ होना चाहिए।'
सरस्वती के जन्म के चार महीने के भीतर ही उत्तर प्रदेश में हिंदी को यह पहिली सफलता मिली थी। सरस्वती ने जिस ढंग से, तत्कालीन शैली में, उसका वर्णन किया है उससे उसकी हिंदी संबंधी नीति का पता लगता है। हिंदी का यह आग्रह सरस्वती की नीति का स्थायी मूलाधार है।
संपादक-मंडल के सदस्यों से आशा नहीं की जा सकती थी कि वे समान रूप से कार्य करेंगे। बाबू श्यामसुंदर दास आए हुए लेखों को देखते और पत्र-व्यवहार करते थे। दूसरे लोग भी कुछ काम करते थे, पर यह कहना कठिन है कि वे कितना काम करते थे। कचहरियों में नागरी के प्रवेश पर जो एक प्रकार का संपादकीय लेख है उसमें पं. किशोरीलाल गोस्वामी की कलम बोल रही है। वैसे भी संपादक मंडल के सदस्यों में प्रथम वर्ष में उन्हीं के लेख सबसे अधिक हैं, और उनमें विषय-वैचित्र्य भी है। उन्होंने लेख भी लिखे और कविताएँ भी। यह इस तालिका से स्पष्ट होगा।
बाबू श्यामसुंदर दास 3 लेख, 3 जीवनी
बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री 1 यात्रा, 1 इतिहास
बाबू राधाकृष्णदास 4 लेख, 2 कविताएँ, 2 जीवनी
बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर 1 कविता, 1 कहानी, 8 कविताएँ, 3 लेख और 5 जीवनियाँ
पं. किशोरीलाल गोस्वामी 1 कविता, 1 कहानी, 8 कविताएँ, 3 लेख और 5 जीवनियाँ
इससे स्पष्ट है कि प्रथम वर्ष में संपादक मंडल के सदस्यों ने सबसे अधिक लेख लिखें। किंतु पंचायती काम में सदैव ढिलाई होती है क्योंकि एक समझता है कि दूसरे काम कर लेंगे। उधर चिंतामणि बाबू समय के बड़े पक्के थे। वे पहिली तारीख को सरस्वती का निकाल देना प्रेस की प्रतिष्ठा का प्रश्न समझते थे। लेख भेजने और प्रूफ देखने का काम बाबू श्यामसुंदरदास करते थे। अतएव प्रथम वर्ष समाप्त होते-होते यह स्पष्ट हो गया कि संपादक मंडल से काम न चलेगा। संपादन का उत्तरदायित्व एक व्यक्ति के ऊपर रहना चाहिए। अतएव जनवरी 1909 से बाबू श्यामसुंदरदास उसके एकमात्र संपादक हो गए। उन्होंने सरस्वती की आरंभिक नीति के अनुसार ही उसका संपादन किया। किंतु यह कार्य अवैतनिक था। बाबूसाहब को इतना अवकाश नहीं था कि इस भार को बहुत दिनों तक चला सकते। अतएव उन्होंने 1902 के अंत में इस भार से मुक्त होने के लिए लिख दिया। बाबू साहब ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - मेरे अलग होने का कारण समय का अभाव और ऐसी आर्थिक कृच्छता थी।
संपादन और प्रकाशित सामग्री के उच्च स्तर के होते हुए भी आंरभ में सरस्वती को हिंदी जगत से उत्साहवर्द्धक समर्थन नहीं मिला। प्रकाशक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। श्री चिंतामणि घोष ने दिसंबर 1900 के अंक में प्रकाशक के निवेदन में इसका विस्तृत वर्णन किया है। वह निवेदन इतना महत्वपूर्ण है और उसमें तत्कालीन हिंदी समाज की मानसिकता का इतना सजीव वर्णन है कि हम उसे अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों को श्री चिंतामणि घोष के आदर्श हिंदी प्रेम और विशाल दृष्टिकोण का भी पता लगेगा।
बाबू श्यामसुंदरदास का त्यागपत्र पाने पर बाबू चिंतामणि घोष ने बहुत सोच विचारकर पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी से सरस्वती का वैतनिक संपादक होने का प्रस्ताव किया। चिंतामणि बाबू से द्विवेदी का परिचय भी विचित्र प्रकार से हुआ। इंडियन प्रेस की एक पुस्तक स्कूलों के लिए स्वीकृत हो गई थी। चिंतामणि बाबू को यह न मालूम था कि उसमें अनेक अशुद्धियाँ हैं। किसी प्रकार वह पुस्तक द्विवेदी जी की निगाह में आ गई, और उन्होंने उसकी बड़ी कड़ी समालोचना शिक्षा विभाग का भेज दी, तथा उसकी एक प्रतिलिपि चिंतामणि बाबू को भी। द्विवेदी जी यह समझते थे कि अपनी चलती हुई पुस्तक की इतनी कड़ी आलोचना से चिंतामणि बाबू अप्रसन्न हो जाएँगे। किंतु चिंतामणि बाबू दूसरी धातु के बने थे। उन्होंने आलोचना को पढ़ा और उसके औचित्य को समझा। वे अप्रसन्न होने के बदले द्विवेदीजी की तीक्ष्णबुद्धि, निर्भीकता और साहित्यिक पैठ से बड़े प्रभावित हो गए, और जब सरस्वती के संपादक की नियुक्ति का प्रश्न उनके सामने आया तो उन्होंने उसे स्वीकार करने के लिए उन्हें साग्रह निमंत्रित किया। द्विवेदी जी ने जनवरी 1903 से सरस्वती का संपादन आरंभ किया।
प्रथम तीन वर्षों ही में सरस्वती ने हिंदी संसार में अपना स्थान बना लिया था। उस समय वह हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाने लगी थी। उसकी छपाई-सफाई, चित्र और अलंकरण बेजोड़ थे। लेखों की विविधता और उपादेयता स्वीकार की जा चुकी थी। उस समय के उत्तरप्रदेश और बिहार के अधिकांश प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हिंदी लेखक उसके साथ सहयोग करने लगे थे। ऐसे समय द्विवेदी जी ने सरस्वती की कमान अपने हाथ में ली, और सन् 1920 तक (केवल दो वर्षों को छोड़कर जिनमें रुग्णता के कारण वे अवकाश पर रहे) वे उसके संपादक रहे। उनके संपादक में सरस्वती ने हिंदी पत्रकारिता जगत में ही नहीं, अपितु अहिंदी क्षेत्रों में भी सम्मान प्राप्त किया, और वह हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाने लगी।
किंतु आरंभ में द्विवेदीजी को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वे स्वभाव के बड़े खरे थे। आरंभ में समवयस्कों के साथ उनका व्यवहार भी बहुत सरस नहीं था। वे स्पष्ट बात कहने में, या साहित्यिक दोष की आलोचना करने में कभी मुरव्वत नहीं करते थे। इसके साथ ही उनमें आत्माभिमान की मात्रा भी औसत से कुछ अधिक थी। इसलिए दूसरों के विरोध को वे बर्दाश्त भी बहुत कम कर सकते थे। उनमें गंभीरता की भी मात्रा अधिक थी। यह एक बड़ा गुण भी था, क्योंकि वे प्रत्येक उत्तरदायित्व को बड़ी गंभीरता से ग्रहण करते थे। किंतु उनके समवयस्क और समान श्रेणी के लोग उस गंभीरता का गलत अर्थ लगा लेते थे। परिणाम यह था कि वे अपने समवयस्कों में लोकप्रिय नहीं थे, और जब उन्होंने संपादन कार्य लिया तब सरस्वती के पुराने लेखकों ने उसमें लेख भेजना प्रायः बंद कर दिया। द्विवेदी जी के संपादन के पहले दो वर्षों में तो उन्हें अधिकांश लेख स्वयं लिखने पड़े। 1903 में केवल 19 लेख दूसरे लोगों के लिखे हुए छपे, जबकि विविध विषय और पुस्तक समीक्षा को छोड़कर द्विवेदी जी के 55 लेख छपे हैं। किंतु इस वर्ष की 23 कविताओं में द्विवेदी जी की चार ही कविताएँ हैं। शेष 19 और लोगों की हैं।
इस स्थिति का परिणाम यह हुआ कि द्विवेदी जी ने अपने मित्रों (जैसे पं. गिरिजादत्त वाजपेयी, राय देवी प्रसाद पूर्ण) जो पहिले सरस्वती में नहीं लिखते थे, सरस्वती में लेख और कविता लिखने को उत्साहित किया। किंतु वे इतने से ही संतुष्ट नहीं रहे। वे नए और होनहार साहित्य प्रेमी युवकों को हिंदी में लिखने को प्रोत्साहित करने लगे। वे उनसे लेख लिखवाते किंतु उनकी भाषा उनके मन की नहीं होती थी। इसलिए वे उसे प्रायः नए सिर से लिख देते थे। कभी-कभी केवल लाल स्याही के प्रचुर प्रयोग से ही काम चल जाता था। द्विवेदी जी के प्रोत्साहन और मार्गदर्शन से कितने ही नवयुवक हिंदी के प्रमुख लेखक और कवि हो गए। उनमें मनुष्य की साहित्यिक प्रतिभा की बड़ी परख थी, और जिसमें वे उसे देखते, उसे हर प्रकार प्रोत्साहित करते। उनके खुरदुरे बाह्य के भीतर अपार वात्सल्य था। अपनी कोई संतान न होने के कारण वह दबा पड़ा रहता था। वे मुक्त हृदय से उसे अपने शिष्यों पर उँड़ेल देते थे। यही कारण है कि जब उनके समवयस्क लोग उन्हें रुक्ष, क्रोधी और तुनुकमिजाज समझते थे तब उनकी मानवता और सरसता के भाजन उनके शिष्य, जिन्हें उनके चरित्र का यह पहलू देखने को मिलता था, उनकी सरसता से ओतप्रोत होकर उनके अनन्य भक्त और क्रीतदास हो जाते थे।
धीरे-धीरे द्विवेदी जी ने सरस्वती के लेखकों का एक मंडल बना लिया जिसमें विविध विषयों के विशेषज्ञ थे। किंतु वे नई-नई प्रतिभाओं की खोज में रहते, और प्रसिद्ध व्यक्तियों से सरस्वती में लिखने के लिए आग्रह करते। इसी अंक में प्रकाशित संत निहालसिंह के लेख से इसका उदाहरण मिलता है। कालांतर में नए लेखक सरस्वती में अपना लेख छपाने की अभिलाषा करने लगे और सरस्वती का लेखक होना एक गौरव का विषय हो गया।
द्विवेदजी के साहित्यिक विवादों ने तत्कालीन हिंदी साहित्यिक जगत में एक जीवन उत्पन्न कर दिया था। 'कालिदास की निरंकुशता', 'भाषा की अनस्थिरता' आदि ऐसे विवाद थे जिनसे साहित्यिक क्षेत्रों में चहल पहल ही नहीं हुई, इनसे लोगों को साहित्यिक समस्याओं पर स्वतंत्र विचार करने तथा दोनों पक्षों के तर्कों का मूल्यांकन करने की भी आदत पढ़ गई। इन विवादों ने तत्कालीन साहित्यिकों में कुछ मनोमालिन्य भले ही उत्पन्न कर दिया हो, किंतु उनका स्थायी परिणाम बहुत शुभ हुआ।
भाषा का परिष्कार दूसरा क्षेत्र था जिसमें द्विवेदी जी की सरस्वती ने बड़ा काम किया। उनके पहले भाषा में एकरूपता नहीं थी। व्याकरण और अखरौटी के मामलों में बड़ी शिथिलता थी। द्विवेदीजी ने इसका कड़ाई से नियंत्रण किया। उनका प्रभाव ऐसा था, और सरस्वती की धाक इतनी थी कि उनके समर्थित रूपों का प्रचलन हिंदी में हो जाता था।
खड़ी बोली की पुष्टि इसी भाषा की एकरूपता का दूसरा पहलू था। सरस्वती ने धीरे धीरे ब्रजभाषा के काव्य को छापना बंद कर दिया और खड़ी बोली की कविता को प्रोत्साहन देना आरंभ किया। सरस्वती के द्वारा आधुनिक खड़ी बोली की कविता को प्रतिष्ठा ही नहीं प्राप्त हुई, उसका आशातीत प्रचार भी हुआ। हिंदी के कितने कवियों ने, जो आज हमारे मूर्धन्य कवि माने जाते हैं, सरस्वती के प्रोत्साहन ही से अपनी काव्यसाधना में सफलता प्राप्त की। कविता के विषयों पर भी वे अच्छा नियंत्रण रखते थे। स्वयं आदर्शवादी और गंभीर प्रकृति के होने के कारण वे श्रृंगार अथवा हास्य रस की कविताओं को सामान्यतः प्रश्रय नहीं देते थे। कविता में नवीनता के भी वे पक्षपाती थे। श्री सुमित्रानंदन पंत की आरंभिक कविताओं को उन्होंने प्रकाशित किया, यद्यपि उस समय वे नवीनधारा की समझी जाती थी। किंतु शायद वे छायावाद के बहुत बड़े प्रशंसक नहीं थे, और जब मुक्त छंद की कविताएँ लिखी जाने लगीं तो वे उनके गले नहीं उतरीं। उन्होंने निराला जी की 'जुही की कली' लौटा दी थी।
द्विवेदी जी इस बात के लिए उत्सुक रहते थे कि वे अपने पाठकों को संसार में होने वाले नई-नई बातों से अवगत कराकर उनके ज्ञान को यथासंभव अद्यतन रखें। 'विविध विषय' शीर्षक के अंतर्गत वे अँगरेजी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के पत्रों में प्रकाशित लेखों से प्राप्त जानकारी सरल शैली में पाठकों के लिए सुलभ कर देते थे।
किंतु सबसे अधिक महत्वपूर्ण उनकी संपादकीय टिप्पणियाँ होती थीं। वे टिप्पणियाँ विविध विषयों पर होती थीं, किंतु राजनीतिक विषयों पर वे कभी नहीं लिखते थे। सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, शिक्षा संबंधी विषयों पर उनकी टिप्पणियाँ ज्ञानवर्द्धक और विचारोत्तेजक होती थीं। नियमित रूप से इस प्रकार संपादकीय टिप्पणियाँ लिखना हिंदी मासिक पत्रों में शायद सबसे पहिले सरस्वती ने ही आरंभ किया था। हिंदी की समस्याओं पर उनकी टिप्पणियाँ विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती थी, क्योंकि वे सारे हिंदी संसार के मत की प्रतिनिधि मानी जाती थीं।
हम कह चुके हैं कि द्विवेदी जी हर एक काम बड़ी गंभीरता से करते थे। आरंभ में सरस्वती में केवल 36 पृष्ठ होते थे और वार्षिक मूल्य केवल 3 रुपया था। बाद में पृष्ठ संख्या 40 कर दी गई, किंतु मूल्य वही रहा। वह धीरे-धीरे बढ़ती गई, और सन् 1916 में एक अंक की पृष्ठ संख्या बढ़कर 72 पृष्ठ हो गई। उसका वार्षिक मूल्य भी 4 रुपया कर दिया गया। इससे उनका कार्यभार बढ़ता ही जाता था, और उनके कार्य करने तथा उत्तरदायित्व के मानक इतने ऊँचे थे कि लगातार पठन पाठन और लेखन के कारण उन्हें उन्निद्र रोग हो गया। इससे दो बार उन्हें अवकाश लेना पड़ा। अंत में सन् 1920 में उनका स्वास्थ्य इतना गिर गया कि उन्होंने संपादन से निवृत्ति चाही। चिंतामणि बाबू द्विवेदी जी के बड़े प्रशंसक और मित्र थे। वे भी उनके स्वास्थ्य से चिंतित थे। अतएव उन्होंने उनको कार्यमुक्त करना स्वीकार कर लिया। किंतु वे उनकी वर्षों की सरस्वती की सेवा से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक अभूतपूर्व कार्य किया। द्विवेदी जी की पेंशन कर दी जो उन्हें सारे जीवन मिलती रही।
दूसरी स्वस्थ परंपरा जो सरस्वती के संस्थापकों ने डाली वह यह थी कि संपादन के कार्य में संपादक को पूर्ण स्वतंत्रता थी। प्रेस की ओर से द्विवेदी जी को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी, और उन्होंने अपने इस अधिकार का बड़े उत्तरदायी ढंग से उपयोग किया। ये दोनों ही परंपराएँ सरस्वती की विशेषता हैं जो अभी तक जीवित हैं।
द्विवेदीजी के बाद सन् 1921 में सरस्वती के संपादक श्री पुन्नालाल पदुमलाल बख्शी नियुक्त हुए, किंतु 1925 के अंत में वे उसे छोड़कर चले गए। 1926 में पं. देवीदत्त शुक्ल को यह भार सौंपा गया। शुक्लजी ने द्विवेदीजी के साथ रहकर सरस्वती के संपादन में सहायता की थी, और वे द्विवेदीजी की कार्यविधि और परंपराओं से पूर्ण रूप से परिचित थे। उन्होंने अपना कार्य बड़े सुचारु रूप से आरंभ किया। 1927 में बख्शीजी लौट आए किंतु डेढ़ साल बाद फिर लौट गए और शुक्लजी पूर्ववत् संपादन करने लगे। द्विवेदीजी के समय में ही सहायक संपादक पद की सृष्टि हो गई थी। उनके समय में इस पद पर पं. उदयनारायण वाजपेयी, पं. हरिभाऊ उपाध्याय (अजमेर के भूतपूर्व मुख्य मंत्री, राजस्थान के वर्तमान वित्त मंत्री) और श्री गणेशशंकर विद्यार्थी रह चुके थे। शुक्लजी के समय में पं. ठाकुर प्रसाद मिश्र ने कई वर्षों तब उनकी सहायता की। पंडित शंभूनाथ शुक्ल (विंध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा मध्यप्रदेश के वर्तमान वन-मंत्री) भी कई वर्षों तक सरस्वती के सहायक रहे। उनके जाने के बाद बालसखा के संपादक ठाकुर श्रीनाथ सिंह सरस्वती के संयुक्त संपादक बनाए गए। ठाकुर साहब को साहित्य के साथ साथ राजनीति में भी रुचि थी। तत्कालीन जनरल मैनेजर श्री हरिकेशव घोष को भी सरस्वती को अधिक उपयोगी और अधिक जनप्रिय बनाने का उत्साह था। अतएव सरस्वती में राजनीतिक लेख भी छपने लगे, और ठाकुर साहब के प्रयत्न से देश के अधिकांश हिंदी भाषी नेताओं ने सरस्वती में लेख लिखे। इस समय सरस्वती में प्रकाशित भाई परमानंद के एक लेख का उत्तर पं. जवाहरलाल नेहरू ने सरस्वती में दिया था। नेहरूजी के कई लेख सरस्वती में छपे। किंतु ठाकुर श्रीनाथ सिंह सन् 1935 में 'हल' के संपादक होकर चले गए और उनके स्थान पर पं. उमेशचंद्र मिश्र संयुक्त संपादक बनाए गए। शुक्लजी ने सन् 1925 से 1927 तक, और फिर 1929 से 1946 तक लगातार सरस्वती का संपादन बड़ी योग्यता से किया। किंतु 1946 में उनकी आँखें खराब हो गईं और प्रेस ने उन्हें पेंशन दे दी। उनके स्थान पर पं. उमेशचंद्र मिश्र संपादक नियुक्त हुए, किंतु कुछ हो समय बाद दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु हो गई। प्रेस ने बख्शी जी को फिर निमंत्रित किया और पं. देवीदयाल चतुर्वेदी उनके सहायक नियुक्त हुए। बख्शी जी फिर यह कार्य बहुत दिनों नहीं कर सके और यह कार्यभार पं. देवी दयाल चतुर्वेदी जून 1955 तक सम्हाले रहे।
सन् 1950 में श्री हरिकेशव घोष ने वर्तमान संपादक से सरस्वती का संपादन स्वीकार करने का आग्रह किया था। किंतु मध्य भारत में उनके शिक्षा संचालक के पद पर नियुक्त हो जाने के कारण बात जहाँ की तहाँ रह गई। सन् 1953 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। प्रेस के वर्तमान मैनेजर ने सन् 1955 में (जब वर्तमान संपादक मध्य भारत से सेवानिवृत्त हुए) फिर प्रस्ताव किया, और इस बार वतर्मान संपादक ने अपनी स्वीकृति दे दी।
सन् 1928 में सरस्वती के संस्थापक बाबू चिंतामणि घोष का स्वर्गवास हो गया। किंतु अंतिम वर्षों में प्रेस का सारा काम उनके द्वितीय पुत्र श्री हरिकेशव घोष देखने लगे थे। वे 'पटलबाबू' के नाम से प्रसिद्ध थे। वे सच्चे अर्थों में अपने पिता के उत्तराधिकारी थे। अपने पिता की तरह उनका हृदय विशाल और उदार था। उनमें प्रखर कल्पना शक्ति थी। उनके परिश्रम को देकर आश्चर्य होता था। हिंदी से उनका अकृत्रिम अनुराग था और सरस्वती को अधिक उन्नत करने को ओर उनका विशेष ध्यान था। उन्होंने उसे लोकप्रिय बनाने के कई प्रयोग किए। उनके समय में सरस्वती ने बड़ी उन्नति की। वे अपने पिता की परंपराओं पर दृढ़तापूर्वक चलते रहे और सरस्वती की परंपराएँ अक्षुण्ण बनी रहीं। उनकी असामयिक मृत्यु सन् 1953 में हो गई, और तब से प्रेस के जनरल मैनेजर उनके छोटे भाई श्री हरिप्रसन्न घोष हैं जो अपने पूज्य पिता और बड़े भाई के चरण-चिह्नों पर चलते हुए 'सरस्वती' का संचालन कुशलतापूर्वक कर रहे हैं।
सरस्वती इस बात में बड़ी भाग्यशाली रही है कि उसे सभी प्रकार के लेखकों का सहयोग सदैव प्राप्त हुआ है। पिछले साठ वर्षों में हिंदी का शायद ही कोई बड़ा लेखक हो जिसने सरस्वती में न लिखा हो। आरंभिक काल में तत्कालीन कुछ बड़े लेखकों का ध्यान सरस्वती की ओर नहीं गया क्योंकि उन्हें लिखने के लिए कलकत्ते के साप्ताहिक पत्रों से ही अवकाश नहीं मिलता था। उनमें से कुछ लोगों से द्विवेदी जी के साहित्यिक विवाद भी छिड़ गए थे। वे अपने उत्तर अन्यान्य पत्रों में छपाते थे। अतएव आरंभिक दशक के कुछ बड़े साहित्यिकों को सरस्वती में लिखने का अवसर नहीं मिला। उनमें बाबू बालमुकुंद गुप्त, पं. माधवप्रसाद मिश्र, पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, पं. गोविंदनारायण मिश्र, पं. सकलनारायण पांडे, पं. राधाकृष्ण मिश्र प्रमुख हैं। किंतु इन थोड़े से लोगों को छोड़कर हिंदी के सभी लेखकों ने सरस्वती पर कृपा की। आरंभिक तीन वर्षों में काशी के साहित्यकों ने विशेष सहयोग दिया, और बाद में सारे देश के विद्यानों और लेखकों की कृपा होती रही।
सरस्वती के पुराने अंको पन्नों को उलटने से पिछले साठ वर्षों के हिंदी संसार का चित्र मानस-पटल पर अंकित हो जाता है। भारतेंदु युग के ऐसे लेखक जैसे बाबू राधाकृष्णदास, पं. किशोरीलाल गोस्वामी से आरंभ कर उन पन्नों में हम प्रत्येक दशक के प्रमुख लेखकों और साहित्यक प्रवृत्तियों की झलक पा जाते हैं। खड़ी बोली में कविता का पूरा विकास सरस्वती के पुराने अंकों में देखा जा सकता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, और रामचरित उपाध्याय की कविताओं से लेकर बा. मैथलीशरण गुप्त के युग तक पहुँचने में बहुत कम देर गलती है। पं. नाथूरामशंकर शर्मा, राय देवीप्रसाद पूर्ण, सत्यशरण रतूड़ी, आदि कितने ही कवि सरस्वती द्वारा चमके। गुप्तजी ने खड़ी बोली की कविता को स्थायित्व दिया और उसे प्रतिष्ठा दी। उसे लोकप्रिय बनाने में गुप्तजी का जितना हाथ है, उतना शायद और किसी का नहीं है। और फिर छायावाद का उदय हुआ। पं. सुमित्रानंदन पंत ने सरस्वती के माध्यम से ही उसे हिंदी-जनता तक पहुँचाया। द्विवेदीजी के आरंभिक कालीन युग से लेकर खड़ीबोली की कविता ने तब जो उन्नति की थी वह मानो पंत जी की रससिक्त कोमलकांत पदावली में पंजीभूत होकर सहसा विकसित हो गई। और फिर सरस्वती ने जयशंकरप्रसाद, निराला और महादेवी की कविताओं को हिंदी संसार के पास पहुँचाया। प्रसादजी ने अपनी कामायनी के कुछ सर्ग, उस काव्य के प्रकाशन के पूर्व, सरस्वती में प्रकाशित किए थे। इसी प्रकार बच्चन जी की मधुशाला के आरंभिक अंशों का प्रथम प्रकाशन सरस्वती ही में हुआ। हिंदी संसार के प्रत्येक कोने के कवियों ने अपनी कविताओं से सरस्वती को अलंकृत किया। श्री सनेही, श्री हितैषी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', श्री रामधारीसिंह 'दिनकर', श्री नरेंद्र शर्मा, श्री प्रभाकर माचवे, श्री मोहनलाल महतो, श्री जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद' श्री भगवतीचरण वर्मा आदि सभी कवियों की कविताएँ प्रकाशित करने का गौरव उसे प्राप्त है।
कहानियों के क्षेत्र में उसकी सेवाएँ अनुपम हैं। वास्तव में आधुनिक हिंदी कहानी का जन्म ही सरस्वती में हुआ। पं. किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' सर्वसम्मति से हिंदी की पहली आधुनिक कहानी मानी जाती है। 'बंग महिला' की कहानियों ने उस नूतन प्रवृत्ति को पुष्ट किया। बाबू वृंदावनलाल वर्मा की पहली कहानी सरस्वती में सन् 1907 में छपी। पं. चंद्रधर गुलेरी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' सरस्वती ही में प्रकाशित हुई थी। मु. प्रेमचंद्र की कहानी छापने का सौभाग्य भी सरस्वती को प्राप्त हुआ था। उस युग में सरस्वती की कहानियों से अनुप्राणित होकर वे लोग भी जो कवि या गंभीर लेखक थे, कहानी लिखने का प्रयोग करने लगे थे। उदाहरण के लिए पं. रामचंद्र शुक्ल ने अपनी (शायद एकमात्र) कहानी 'ग्यारह वर्ष बाद' और बालकृष्ण शर्मा ने 'संतू' नामक कहानी लिखी, और वे सरस्वती में प्रकाशित हुईं। फिर तो विश्वंभरनाथ कौशिक, सुदर्शन, ज्वालादत्त शर्मा से लेकर भगवतीचरण वर्मा, इलाचंद्र जोशी, उषादेवी मित्र, अमृतलाल नागर आदि बीसों लेखक कहानी लिखने लगे और सरस्वती उनसे अलंकृत होने लगी। आधुनिक कहानी के विकास में सरस्वती की सेवाएँ अमूल्य और ऐतिहासिक हैं।
आरंभ ही से सरस्वती ने वैज्ञानिक कहानियों की ओर ध्यान दिया और कितनी ही वैज्ञानिक कहानियाँ प्रकाशित कीं।
किसी जनता को दूसरी भाषाओं की कहानियों से परिवर्तित कराने के लिए सरस्वती ने अन्य भाषाओं की कहानियों के अनुवाद भी प्रकाशित किए। इस संबंध में एक ऐतिहासिक और मनोरंजक बात यह है कि रवींद्रबाबू की बँगला कहानियों का पहला अनुवाद हिंदी ही में हुआ, और वह सन् 1902 में सरस्वती में छपा। तब तक रवींद्र बाबू की ख्याति बंगाल से बाहर न थी। उन्हें अपनी एक कहानी का हिंदी अनुवाद देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी। अतएव भारतीय भाषाओं में सबसे पहले हिंदी में सरस्वती ने उनका अनुवाद प्रकाशित करके उनका आदर किया था।
आरंभ ही से सरस्वती सचित्र पत्रिका रही है। लेखों को स्पष्ट करने के लिए प्रचुरता से चित्र देने की नीति आरंभ ही से रही है। उनके अतिरिक्त महापुरुषों और स्थानों के चित्र आर्ट पेपर पर छापकर लगा दिए जाते थे। कई वर्षों तक ये इकरंगे ही होते थे। बाद में कलापूर्ण चित्रों का देना आरंभ किया गया। उस समय राजा रविवर्मा देश के सबसे प्रसिद्ध चित्रकार थे। बँगला शैली की कला उभड़ रही थी किंतु अच्छी तरह प्रकाश में नहीं आई थी। अतएव राजा रविवर्मा के चित्रों से ही कला पूर्णचित्रों का प्रकाशन आरंभ किया गया। बंबई आर्ट कालेज के वाइस प्रिंसिपल श्री धुरंधर के चित्र भी प्रकाशित किए गए। सबसे पहले 1902 में रविवर्मा के गंगावतरण का चित्र प्रकाशित हुआ। इस पर पं. किशोरी लाल गोस्वामी की एक अत्यंत सुंदर कविता भी प्रकाशित की गई थी। किंतु जब द्विवेदीजी ने संपादन कार्य हाथ में लिया तब रविवर्मा के चित्र प्रायः नियमित रूप से प्रकाशित किए जाने लगे। वे उन पर कविताएँ भी लिखवा कर प्रकाशित करते थे। इन कविताओं के लिखने वाले अधिकतर पं. नाथूरामशंकर वर्मा, श्री देवीप्रसाद पूर्ण, बाबू मैथिलीशरण गुप्त और स्वयं द्विवेदीजी थे। ये 'समस्यापूर्ति' कोटि की कविताएँ होती थीं, किंतु इनमें कोई कोई बहुत सफल, लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुईं। केरल की तारा, रंभा शुक संवाद, गंगा और शांतनु, अज विलाप आदि कविताएँ जो उन नामों के चित्रों पर आधारित थीं, साहित्यिक महत्व पा गईं। किंतु कुछ वर्षों तक ये कला पूर्ण चित्र इकरंगे ही छपते थे। बाद में रंगीन चित्र भी छपने लगे। रविवर्मा का एक ही रंगीन चित्र (अज विलाप) छपा। कुछ कविताओं पर कलाकारों से चित्र बनवाकर प्रकाशित किए गए। 'रण निमंत्रण' और 'केशों की कथा' इसके उदाहरण हैं। बाद में बँगला कला शैली के चित्र और पुराने कलमी चित्र प्रकाशित किए जाने लगे। कांगड़ा, राजस्थानी, मुगल आदि शैलियों के कितने ही चित्र प्रकाशित हुए। बँगला कला शैली के कलाकारों में प्रायः सभी मूर्धन्य कलाकारों के चित्र प्रकाशित हुए, जैसे अवनींद्रनाथ टागोर, नंदलाल बोस, जामिनीमोहन राय, गगनेंद्र नाथ टागोर, असिल हालदार, सारदा उकील, बरोदा उकील आदि के। बँगला कला शैली के अतिरिक्त भारत के अन्य प्रसिद्ध चित्रकारों के चित्र भी प्रकाशित किए जाने लगे जिनमें उल्लेखनीय चित्रकार गुजरात के श्री रविशंकर रावल और लाहौर के अब्दुर्रहमान चगताई है। इनके अतिरिक्त देश के अन्य कितने ही कलाकरों के चित्र प्रकाशित हुए। इस प्रकार सरस्वती ने हिंदी भाषी जनता को पिछली कई शतियों की चित्रकला के नमूनों से परिचित कराया। सरस्वती को यह गर्व है कि उसने अजंता के चित्रों से लेकर, मध्यकाल की विभिन्न शैलियों तथा आधुनिककाल के राजा रविवर्मा और अवनींद्रनाथ और क्षितीश मजूमदार तक की कला का रसास्वादन कराकर पाठकों के सौंदर्य बोध की वृद्धि की।
सरस्वती हिंदी की प्रतिनिधि पत्रिका है, और उसने आरंभ ही से हिंदी भाषा और साहित्य के प्रसार और प्रचार का व्रत ले रखा है। शिव और लोकोपयोगी साहित्य का सृजन उसका लक्ष्य रहा है। भाषा की शुद्धता और सौष्ठव की वह पोषक रही है। इसलिए भाषा की समस्याओं पर उसने सदैव ध्यान दिया है। इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर उसने निर्भीक समालोचना का भी सहारा लिया है। हिंदी को उसके उचित स्थान पर प्रतिष्ठित कराने और उसे भारत की सार्वदेशिक भाषा स्वीकार कराने के लिए सरस्वती ने अपने जन्म काल ही से प्रयत्न किया है। हिंदी के हितों और अधिकारों पर जो आघात हो रहे या होने वाले हों, उनकी ओर हिंदी संसार का ध्यान दिलाना, और उनके पक्ष में बुद्धिसंगत तर्क देना उसका सतत् कार्य रहा है। वह देश के व्यापक हित में हिंदी का प्रसार और प्रचार आवश्यक समझती रही है। उसका विश्वास है कि जिस प्रकार इस विशाल देश के भिन्न-भिन्न लोगों को संस्कृत ने एक सूत्र में बाँधकर भारतीय संस्कृति की एकता स्थापित की थी, उसी प्रकार इस प्रकार इस आधुनिक युग में इस महान देश को भाषा की एकसूत्रता में बाँधना हिंदी का पुनीत और ईश्वर द्वारा निर्धारित कर्तव्य है। हिंदी जानने वाले देशवासियों के लिए ज्ञान-विज्ञान की शिष्ट और सुरुचिपूर्ण साहित्यिक सामग्री प्रस्तुत कर देश का बौद्धिक स्तर उठाना तथा हिंदी की सर्वागीण सेवा करना सरस्वती का ध्येय है। इसी कर्तव्यपालन के कारण वह हिंदी प्रेमियों की प्रीतिभाजन हुई और साठ वर्षों के दीर्घकाल में उसे उनका स्नेह, आदर, सहयोग और आशीर्वाद मिलता रहा, और इसी कारण जब उसके असंख्य सहयोगी समाप्त हो गए, वह जीवित रही। उसका अतीत उपयोगी और स्पृहणीय रहा। भगवान् से प्रार्थना है कि वह अपने ध्येय पर दृढ़ रह कर परिवर्तित स्थितियों में हिंदी और हिंदी प्रेमियों की समयानुकूल सेवा उत्तरोत्तर कुशलता से करती रहे, और जब उसका प्रथमशती-उत्सव मनाया जाय तब भी उसे हिंदी की सबसे पुरानी और सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका होने का गौरव मिले।