सरस्वती पूजा / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे। बारह बजे तक भूखा रहना कोई मामूली बात तो नहीं। उधर पंडितजी का कोई अता-पता नहीं था। किसी दूसरे पंडितजी को पकड़ लाने के लिए महादेव इधर-उधर घूम-घामकर वापस आ चुका था। आज के दिन तो हरेक पंडित दस-दस बारह-बारह मूर्तियों की पूजा का ठेका पहले से लिए रखते हैं।
सभी लोग परेशान थे। अब क्या होगा? पूजा कैसे होगी?
मैंने कहा, "एक बात कहूँ?"
"हाँ, कहिए न सर।" सबने स्वीकृति दी।
"महादेव, तुम तो स्कूल का सबसे होशियार लड़का हो। पूजा तुम करो।"
यह सुनकर सब चुप हो गए। लड़खड़ाती आवाज में महादेव ने कहा, "म-म-मैं? मैं तो आदिवासी... ?"
"उससे क्या? आज के लिए पंडित बन जाओ।"
"पर मुझे तो मंत्र-तंत्र कुछ नहीं आता।"
"मंत्र नहीं आता, मन तो है न तुम्हारे पास। अपने मन से माँ का आह्वान और पूजा करो। अपनी भाषा में मन की बात बोलो। बस।"
महादेव मूर्ति के नजदीक बैठ गया। उसके पीछे सारे छोटे-छोटे बच्चे बैठ गए। उसने धूप-दीप जलाया और पूजा शुरू हो गई—
' जोहार गो सरस्वती!
आले मंत्र-तंत्ररा कथा वाले बुझ एदा...
ओनाते आलेरेन गो आ कथारे...
मनेरेणक कथारे, अंतर मनेते...
देवा सेवा एह ले...
आतांग में!
ऐ गो, आतांग में!
(नमो माता सरस्वती। हम मंत्र-तंत्र की भाषा नहीं समझते। इसलिए अपनी माँ की भाषा में... हृदय की भाषा में...हृदय से तुम्हारी पूजा कर रहे हैं। स्वीकार करना... हे मां, स्वीकार करना!)